Friday, December 23, 2011

किसी औसत हॉलीवुड सस्पेंश फिल्म जैसी डॉन

फिल्म समीक्षा डॉन: २



पिछले दिनों रिलीज हुईं हॉलीवुड की कोई भी एक सस्पेंश थ्रिलर फिल्म चुन लीजिए जिसका नायक सिक्रेट एजेंट हो। वह अपने देश के लिए दुश्मन देश के रक्षा मंत्रालय से कोई फाइल या चिप चुराने के प्रयास में है। थोड़े-बहुत अवरोध के बाद उसे चिप मिल जाती है। अब इसी फिल्म का भारतीयकरण कर दीजिए। भारतीयकरण करने के लिए आपको फिल्म में कुछ डॉयलॉग डालने होंगे। थोड़ी बहुत कॉमेडी कनी होगी। नायक का किसी लडक़ी के साथ दिली मोहब्बत दिखानी होगी। चिप की जगह या तो हीरे हों या फिर करेंसी रखना होगा क्यों कि भारतीय दर्शक इस बात को नहीं समझ पाएंगे कि चिप या फाइल चुरायी क्यों जा रही है। और हां किसी भी सूरत में नायक मरना नहीं चाहिए। तो ऐसी ही कई हॉलीवुड फिल्मों का देशी वर्जन है डॉन:२। हॉलीवुड फिल्मों की तरह डॉन:२ में बिना मतलब की बातें कम से कम हैं। नायक काम के वक्त मोहब्बत में डूबे गीत नहीं गाता। उसकी अंतरात्मा उसे गलत काम के लिए धिक्कारती नहीं है। फिल्म और मनोरंजन के नजरिए से देखें तो डॉन दर्शकों को निराश नहीं करती। पटकथा कसी हुई और घटनाएं ताबड़तोड़ होने की वजह से फिल्म दर्शकों को अपने से जोड़ कर रखती है। जिन्होंने डॉन का पहला पार्ट न भी देखा हो तो उनके लिए मुश्किल बहुत नहीं है। दर्शकों को चौंकाने के लिए सस्पेंश भरे मोड़ भी हैं। और बाद में भारतीयों के लिए कुछ नारी सशक्कतीकरण और मानवता की भी बाते हैं। तो फिल्म देख सकते हैं। शाहरुख इस फिल्म में भी अपनी जैसी ही ऐक्टिंग करते हैं। प्रियंका के लिए कुछ करने को था नहीं। लारा दत्ता अच्छे लगने के लिए रखी गईं पर वह अच्छी लगी नहीं। ओमपुरी और बोमेन ईरानी तो सदाबहार अभिनेता हैं जहां चााहो लगा दो। फिल्म के अंत में डॉन थ्र्री की संभावनाएं भी रखी गई हैं। फिलहाल तो फरहान इसका सीक्वेल न बनाने की बात कह चुके हैं।

Friday, December 9, 2011

गोवा पहुंचते ही बहक गई फिल्म



फिल्म समीक्षा: लेडीज वर्सेज रिकी बहल

यश चोपड़ा बैनर की यह फिल्म न ही रणवीर सिंह की है और न ही अनुष्का की। यह फिल्म सिर्फ परिणिती चोपड़ा की है। ऑडी से निकलते वक्त यदि दर्शकों को फिल्म में कुछ याद रह जाता है तो वह है हरियाणिवी अंदाज में चुटीले डॉयलॉग बोलती डिंपल चड्ढा। प्रियंका चोपड़ा की इस चचेरी बहन का शरीर हिंदी फिल्म की पारंपरिक नायिका जैसा भले ही नहीं है पर बाकी सबकुछ उचित अनुपात में है। इस किरदार का वजन फिल्म की नायिका से भी ज्यादा है। पता नहीं ऐसा जानबूझ कर हुआ है या अनजाने में। यह फिल्म दो बातें और साफ करती हैं। पहली कि रणवीर सिंह में अकेले किसी फिल्म को खींचने का माद्दा नहीं है और दूसरी यह कि यह गलत कहा जाता रहा है कि उनकी और अनुष्का की जोड़ी पर्दे पर अच्छी लगती है। फिल्म में जहां-जहां अनुष्का और रणवीर के रोमांटिक सीन या संवाद हैं यह फिल्म बैंड बाजा बारात लगने लगती है। रणवीर सिंह के हिस्से में संवाद नहीं हैं। उन्हें शायद चुप रहने के लिए कहा गया था। संवाद अनुष्का के हिस्से में भी नहीं हैं पर उन्हें कम से कम एटीट्यूट दे दिया गया है। ऐसा एटीट्यूड जो फिल्म खत्म होने के दस मिनट पहले खत्म होने लगता है। मनोरंजन की दृष्टि से फिल्म बुरी नहीं है। इंटरवल तक फिल्म न सिर्फ मनोरंजन करती है बल्कि हंसाती भी है। इंटरवल के बाद फिल्म जहां गोवा पहुंचाती है वहां यह फिल्म बर्बाद होती है। इधर कई ऐसी फिल्में आईं हैं जो गोवा पहुंचते ही बर्बाद हो गईं। अनुष्का का रणवीर से सच्चा प्यार होने वाला प्लाट सबसे कमजोर है। चूंकि दर्शकों को पता था कि नायक भले ही चोरी-चकारी कर रहा हो पर अंत तक हिंदी फिल्मों का हीरो बन जाएगा। दर्शकों को निराश नहीं किया गया अंत जितना पारंपरिक हो सकता था उतना रहा। अदिति शर्मा सुंदर हैं। उन्हें बार-बार सभ्यता में डूबी उस लडक़ी का किरदार दे दिया जाता है जो सलवार शूट भी आधी बांह का नहीं पहन सकती। पहले मौसम अब रिकी बहल। फिल्म के गाने भी एक और अभिनेत्री दीपानिता शर्मा की तरह सिर्फ लाउड रहे।

Friday, December 2, 2011

फिल्म क्या सिल्क को श्रृद्धांजलि देने के लिए बनी है !




फिल्म समीक्षा: द डर्टी पिक्चर

किसी की जिंदगी में कितने भी उतार-चढा़व, जीत-हार या उपलब्धियां क्यों न हों पर वह इतने मनोरंजक और सिस्टमैटिक नहीं होते कि उन्हें फिल्मा भर देने से एक मुकम्मल फिल्म बनकर तैयार हो जाए। फिल्म को फिल्म की तरह बनाना पड़ता है। किसी की जिंदगी उससे झलक सकती है पर वह फिल्म पूरी-पूरी जिंदगी नहीं हो सकती। डर्टी पिक्चर देखने वाले ज्यादातर दर्शक यह जानते थे कि यह फिल्म साउथ अभिनेत्री सिल्क स्मिता के जीवन पर आधारित है। बावजूद इसके वह इस फिल्म से एक फिल्म की उम्मीद कर रहे थे। शुरुआत से लेकर अंत तक उन्होंने एक फिल्म की आशा रखी, फिल्म जैसे डायलॉग और उतार-चढ़ाव लेकिन मिलन लूथरिया फिल्म बनाने के बजाय सिल्क को श्रृंद्धांजलि देते दिखे। गली मोहल्ले से आई एक महात्वाकांक्षी पर अनकल्चरड लडक़ी की कहानी कहते हुए वह पूरीे फिल्म को सिर्फ उस लडक़ी के नजरिए से दिखाने की कोशिश करने लगे। उसके अलावा भी कोई और नजरिया या दुनिया हो सकती है शायद इस बारे में सोचा ही नहीं गया। वह इस अनकल्चरड पर महात्वाकांक्षी लडक़ी को नायिका के रूप में खड़ा तो कर देते हैं पर उस नायिका के क्षरण और उस क्षरण की वजह गिनाते समय फिल्म उनसे छटक जाती है। इंटरवल के बाद यह फिल्म, फिल्म न होकर कुछ- कुछ घटनाओं की एडटिंग भर है।


डर्टी पिक्चर देखते हुए कहीं-कहीं देवदास और खेले हम जी जान से फिल्में याद आती हैं। देवदास का नायक देवदास था पर देवदास बनाते समय संजय लीला भंसाली को यह याद रहा कि वह देवदास की आदतों का महिमामंडन नहीं कर रहें बल्कि एक फिल्म बना रहे हैं। जिसमे ऐश्वर्य भी हैं और माधुरी भी। जो गलती आशुतोष गौरवीकर ने खेले हम जी जान में की थी वह गलती लूथरिया डर्टी पिक्चर में करते हैं। फिल्म बनाने के बजाय लूथरिया सिल्क की आदतों और प्रवृतियों को दिखाते रहे। फिल्म के शुरुआती कुछ मिनट खासे उबाऊ हैं। बाद में फिल्म पटरी तो पकड़ लेती है पर फिल्म में ऐसी मनोरंजक घटनाएं नहीं हैं कि दर्शक उससे जुड़े रहे। फिल्म का सबसे बेहतर पक्ष एक्टिंग और सबसे खराब पक्ष एडटिंग है। नसीर के हिस्सें में जितना था उतना उन्होंने अद्भुत किया है। विद्या कॅरियर के शायद अपने सबसे बेहतर रोल में हैं। अपने पतन के दृश्यों में उन्होंने यादगार अभिनय किया है। इमरान को महात्मा बनते देख अच्छा लगा। तुषार कपूर के लिए बेहतर है कि वह रोहित शेट्टी से बात करके गूंगे की कोई भूमिका फिर से मांग ले। बोलते हुए वह बड़े दयनीय लगते हैं।

Saturday, November 26, 2011

शायद कलाकारों ने डेविड के साथ पुराने रिश्ते निभा दिए




फिल्म समीक्षा: देसी ब्वायज
रोहित धवन, डेविड धवन के बहुत ही होनहार बेटे हैं। ऐसे बेटे आजकल दुर्लभ हो चले हैं जो पिता की इच्छा को बिना प्रकट हुए ही जान लें। डेविड धवन पिछली कुछ समय से जैसी फिल्में बना रहे हैं रोहित ने अपनी पहली फिल्म में उसी परंपरा को आगे बढ़ाया है। उनकी पहली फिल्म देसी ब्वायज और डेविड की अंतिम फिल्म रासकल्स मनोरंजन और सार्थकता के स्टैंडर्ड पर एक जैसी उतरती है। वहां फूहड़ता संवादों में थी यहां विषय में है। फिल्म देखते समय सिर्फ एक बात समझ में नहीं आती कि अक्षय कुमार, जान अब्राहम और यहां तक कि दीपिका पादुकोन ने क्या देखकर इस फिल्म को साइन किया था। न विषय, न संवाद और न ही उसका ट्रीटमेंट। दीपिका पादुकोन का किरदार तो इतना रूटीन है कि कोई अनाड़ी दर्शक भी बता दे कि फिल्म के किस हिस्से में वह नायक से इठलाएगी, कब गुस्सा होंगी, कब रुठेंगी और कब मान जाएंगी। कुछ ऐसा जॉन अब्राहम के साथ भी है। इस मूलत: कॉमेडी फिल्म में अक्षय कुमार की वह टच व टाइमिंग नदारत रही जिसके लिए वह पहचाने जाते हैं। अक्षय अपने को रिपीट करके भी इतना मनोरंजन कर देते हैं कि फिल्म उबाऊ नहीं होती। इस फिल्म में अक्षय का चरित्र था तो महत्वपूर्ण पर उसे पेश बहुत साधारण तरीके से किया गया था। उनके हिस्से में कॉमेडी के कई अच्छे सीन डाले जा सकते थे पर उन्हें इमोशन में खपाने का निरर्थक प्रयास किया गया। संजय दत्त साहब को पता नहीं क्यो लगता है कि वह अभी भी खलनायक और साजन ही हैं जबकि दर्शकों के लिए उनको पर्दे पर झेलना किसी त्रासदी से कम नहीं। फिल्म विषय के स्तर पर सबसे ज्यादा निराश करती है।

Tuesday, November 1, 2011

यह सुपरहीरो धरती को नहीं एक बच्ची को बचाने के लिए बना है




फिल्म समीक्षा: रा-वन

राकेश रोशन ने कोई मिल गया से उत्साहित होकर कृष बनाई थी। उन्हें लगा था कि भारत के दर्शकों के लिए सुपरहीरो नए-नए हैं इसलिए कैसा भी सुपरहीरो चल जाएगा। उन्होंने कृष तो बना दिया पर वह कृष बेरोजगार था। उसे सुपरहीरो के रूप में स्थापित करने के लिए उतनी ही जल्दबाजी मेें एक बचकाना खलनायक खड़ा किया गया। यह लड़ाई अच्छाई और बुराई की नहीं बल्कि दो व्यक्तियों की हो गई। फिल्म के साथ दर्शक जुड़ नहीं पाए और यह बच्चों की फिल्म बनकर रह गई। यही गलती शाहरुख ने दोहराई। रा-वन और कृष दोनों में यह समानता है कि उनकी फिल्मों के खलनायक समाज या शहर के विरुद्ध नहीं बल्कि किसी एक व्यक्ति या परिवार के विरुद्ध हैं। हिंदी में ऐसी फिल्में हॉलीवुड से मोटीवेट होकर बनती हैं। हॉलीवुड की किसी भी फिल्म का सुपरहीरो किसी एक व्यक्ति की रक्षा नहीं कर रहा होता है। उसके खतरे और लक्ष्य दोनों बड़े होते हैं। रा-वन का खलनायक बचकाने तरीके से पैदा कर दिया गया। फिर उतने ही जाने-पहचाने ढंग से सुपर हीरो भी। इस सुपर हीरो को खलनायक से बाद में लडऩा है इसलिए उससे थोड़ी-बहुत कॉमेडी करा ली जाती है। वह दर्शकों को हंसाता है, करीना कपूर को इंप्रेस करता है और थोड़ा-बहुत इमोशन भी पैदा करने का असफल प्रयास करता है। यहां इंटरवल हो जाता है। इंटरवल के बाद दर्शकांें को एक तीखे और रोमांचक भिड़ंत की उम्मीद थी। पर ऐसा हुआ नहीं। फिल्म का क्लाइमेक्स बहुत ही सतही और घटिया है। क्लाइमेक्स के दृश्यों में दर्शकों को लगा कि वह वाकई एक वीडियो गेम देख रहे हैं। कोई भी हारे या जीते उससे वह जज्बाती रूप से जुड़े हुए नहीं थे। मार्केटिंग के जितने भी तरीके हो सकते हैं उनको आजमाकर शाहरुख ने दर्शक तो बटोर लिए पर उनको दिखाने लायक कुछ नहीं बनाया।
इतनी तो उम्मीद कर ही सकते हैं:
यशराज और करण जौहर के बैनर में कई फिल्में कर चुके शाहरुख से इतनी उम्मींदे तो बनती ही हैं कि वह करवाचौथ को दशहरा से पहले न दिखाएं। उनसे यह भी अपेक्षा नहीं की जाती कि उनकी फिल्मों का नायक, नायिका के वक्षस्थल पर हाथ रखे। और इस बात की तो बिल्कुल गुंजाइश नहीं बनती कि दसेक साल की लडक़ी से कंडोम-कंडोम कहलवाया जाए।

Friday, October 14, 2011

यह कूपन तो खाली निकल गया





फिल्म समीक्षा: माई फ्रेंड पिंटो

बचपन में हम सभी ने वह सस्ती चाकलेट और कैंडी खाई हैं जिनके चमकीले रैपर में कोई न कोई एक जादुई अंक छिपा होता था। इस अंक को स्क्रैच किया जाता था। बाकी का किस्सा भी हम जानते हैं। इस अंकों को हमने बाद मेेंं कूपन के तौर पर जाना। इन टॉफियों की क्वॉलिटी कमतर होती है यह खाने वाला पहले से जानता है। लोभ उन जादुई अंकों का होता है जिनके खुलने पर इरेजर, शॉर्पनर या नोटबुक जैसी चीजें प्राय: मिल जाती थी। माई फ्रेंड पिंटो एक ऐसी ही फिल्म है। फिल्म देखने गए किसी भी दर्शक को फिल्म से बहुत उम्मींदे नहीं थी। अन्य फिल्मों में साइड रोल करने वाले इस फिल्म के लगभग नायक थे। निर्देशक बिल्कुल अपरिचित सा। शेष स्टारकॉस्ट बस थोड़ी बहुत जानी-पहचानी । यहां दर्शकों को इंतजार बस कूपन खुलने का था। इस फिल्म के साथ रिलीज हुई और चार फिल्में भी कूपन वाली ही फिल्में हैं। माई फ्रेंड पिंटों के कूपन खुलने पर दर्शकों को कुछ नहीं मिला। यह फिल्म दर्शकों को कही से भी नहीं चौंकाती। न कहानी स्तर पर, न प्रजेंटेशन स्तर पर और न ही अभिनय स्तर पर। प्रतीक बब्बर पहली बार इतनी बड़ी भूमिका निभा रहे थे। उन्होंने नायक वाली इस भूमिका को वैसा ही निभाया जैसा कि वह छोटी भूमिकाएं निभाते आ रहे थे। क्रिकेट से थोड़ा बहुत भी परिचित लोग जानते हैं कि वीवीएस लक्षमण चाह कर भी ७० से ७५ गेंदोंं में शतक नहीं बना सकते। कुछ वैसा ही हाल प्रतीक का रहा। उनकी अपनी सीमाएं हैं। फिल्म में समीर बने अर्जुन माथुर, सुहानी बनीं श्रुति सेठ और रेशमा बनीं दिव्या दत्ता का अभिनय अच्छा लगा है। फिल्म के गाने जरूर आपसे एक संवाद करने का प्रयास करते हैं।

Thursday, October 6, 2011

अफसोस कि रासकल्स जैसी फिल्में आगे भी बनती रहेंगी


फिल्म समीक्षा: रासकल्स

आप किसी फिल्म के घटियापन के बारे में जितना सोच सकते हैं रासकल्स उससे दो नहीं सात-आठ कदम बढक़र साबित हुई। रासकल्स का निर्देशन डेविड धवन ने किया है। वह १९८९ यानी पिछले २२ सालों से फिल्म का निर्देशन करते आ रहे हैं। फिल्म में संजय दत्त प्रोड्यूसर होने के साथ एक्टर भी हैं वह १९८१ यानि कि तीस बरस से फिल्मों में एक्टिंग करते आ रहे हैं। फिल्म में अजय देवगन भी हैं वह १९९१ यानि की २० साल ऐक्टिंग करते आ रहे हैं। फिल्म इंडस्ट्री के इन तीनों महापुरुषों ने मिलकर यह फिल्म बनाई है। फिल्म के प्रोमो देखकर अंदाजा था कि फिल्म कैसी होगी पर अंदाज कभी कभी इतने बुरी तरीके से सही साबित हो सकते हैं इसका अंदाजा नहीं था। महेश मांजेकर और सतीश कौशिक ने आजकल सिर्फ ऐक्टिंग करना शुरू कर दिया है। फिल्में शायद अब इनसे बनती नहीं हैं। कोई उनसे बताए कि वह एक्टर और भी घटिया हैं। महेश मांजेरकर कितने बढिय़ा एक्टर हैं इसे आप दबंग में देख लीजिए और सतीश कौशिक को इस फिल्म में। कंगना रणावत को बख्श देना बेहतर हैं। उन्होंने दर्शकों जरूरत से ज्यादा दे दिया है। ऐक्टिंग के लिए इंडस्ट्री में दूसरी प्रतिभाशाली अभिनेत्रियां मौजूद हैं यह बात वह जानती हैं।
दर्शकों का एक-एक पल तड़पाने वाली इस फिल्म का एक भी दृश्य ऐसा नहीं है कि उस पर मुस्कुराया जा सके। हालांकि ऑडी भरी हुई थी और कुछ दर्शक हंस भी रहे थे। इन्हीं दर्शकों के लिए रासकल्स जैसी फिल्में आगे भी बनती रहेंगी। बहुत सारे संजय दत्त ऐसी फिल्में प्रोड्यूस करेंगे और कई डेविड धवन उनको निर्देशित करेंगे। और पता नहीं किन वजहों से अजय देवगन जैसे कलाकार उसमें काम करते भी दिखेंगे।

Friday, September 30, 2011

मदहोश कर देने संवादों की एक उम्दा पेशकश




फिल्म समीक्षा: साहब बीवी और गैंगस्टर

तिंग्माशू धूलिया अपनी फिल्मों में हर चरित्र को स्थापित करते हैं। जब दर्शक उनकी फिल्म जिसके संवाद भी वह खुद लिखते हैं को देखकर निकल रहा होता है तो उसे किसी खास चरित्र से बेइंतहा मोहब्बत या नफरत हो जाती है। फिल्म में उस चरित्र को निभा रहे अभिनेता का पात्र से इतना गहरा जुडव कि देखकर लगे कि इस पात्र को बस वही निभा सकते हैं। यह धूलिया साहब की खासियत है कि वह जीवन की उन छोटी-छोटी चीजों और मनोवृति को पकड़ते हैं जिन्हें आमतौर पर फिल्मकार सोच नहीं पाते या उसे नजरंदाज कर देते हैं। साहब बीवी और गैंग्स्टार में हर पात्र का अपना एक मनोविज्ञान है। उस मनोविज्ञान को यादगार तरीके से दिखाना फिल्म की सबसे बड़ी खूबी। व्यंग्य की चाशनी में डूबे संवाद इतने चुटीले और अर्थपूर्ण कि दर्शक देर तक उसकी मदहोशी में डूबें रहे। यह संवाद ही हर पात्र को स्थापित करने का काम करते हैं। साहब बीवी और गैंगस्टर देखते हुए तिंग्माशू की कुछ पुरानी फिल्मों के कुछ पात्र याद आते हैं। जैसे शार्गिद के नाना पाटेकर या हासिल के इरफान खान। शार्गिद और साहब बीवी. . में एक समानता यह भी है कि अंत के कुछ मिनट एक-दूसरे पर अविश्वास के पल होते हैं। इस अविश्वास के माहौल में पात्रों का करवटें और आस्था बदलता देखना, सही-गलत व्याख्या बदली हुई स्थितियों के साथ करना इस फिल्म को खूबसूरत और फिल्मी बनाती है। हर तरह के दर्शक के लिए यहां कुछ न कुछ था। फिल्म में साहब का किरदार निभाने वाले जिमी शेरगिल जानते हैं कि यह उनकी अब तक सबसे यादगार भूमिका है। वह कितने बेहतर अभिनेता हैं दर्शक और फिल्म इंडस्ट्री अब जान पाई है। उत्तर प्रदेश का तराई इलाका फिल्म की प्रष्ठभूमि है। राजनीति का अपराध के साथ दिखाया गया गठजोड नया न होते हुए भी नया सा लगता है। यह साली जिंदगी के बाद विपिन शर्मा गेंदा सिंह की भूमिका में शानदार लगे हैं। फिल्म के गीत भी फिल्म की तरह ताजे और भदेस है। एक आवश्यक रुप से देखी जाने वाली फिल्म।

Friday, September 23, 2011

दर्शकों का कोई दोष नहीं यदि वह फिल्म को नकार दें।




फिल्म समीक्षा: मौसम

अच्छे और लोकप्रिय निर्देशक के बीच फर्क कर पाना कई बार वाकई कठिन होता है। फिल्म इंडस्ट्री में ऐसे कई निर्देशक है जो एक या दो फिल्में बनाने के बाद चिर खामोश हो गए। वह खामोश इसलिए हुए क्योंकि वह लोकप्रिय नहीं हो पाए। इन अच्छे निर्देशकों को अपनी कला और सृजन से अगाध प्रेम होता है। यह निर्देशक बहुत जी-जान लगाकर फिल्में बनाते हैं और यह मानते हैं कि दर्शक भी उसी श्रृद्धा के साथ फिल्म देखेगा। पर ऐसा होता नहीं। फिल्म का पहली बार निर्देशन कर रहे पंकज कपूर भी इसी लोकप्रिय सिनेमा की चाहत की भेंट चढ़ गए। पंकज की यह फिल्म लगभग तीन घंटे की है। कई सारे फिल्मी किस्सागोई, प्रपंच और ८० के दशक के संयोग फॉमूर्ले को समेटे हुए यह फिल्म उतनी आकर्षक, भव्य और जादुई नहीं बन पाई जितनी कि इसके बारे में कल्पना की गई थी। फिल्म ठीक से न तो हंसाती है, न भावुक कराती है और न ही रुलाती है। यह एक औसत से फिल्म निकली जिससे अपेक्षाएं अधिक कर ली गईं। कई कलाकारों को देखकर लगता है कि उन्हें यदि ज्यादा लंबा और प्रभावी रोल मिले तो वह बेहतर कर सकते हैं। शाहिद और सोनम कपूर इस धारणा को तोड़ते हैं। पूरी फिल्म शाहिद के ही कंधों पर थी। शाहिद ने अच्छा अभिनय किया पर उतने से बात नहीं बनती। फिल्म का ताना-बाना १९९० से लेकर २००२ के बीच तक का है। बाबरी बिध्वंस, मुंबई ब्लास्ट, कारगिल युद्ध और गोधरा कांड जैसी घटनाएं फिल्म की कहानी का हिस्सा हैं। फिल्म में दिक्कत यह है कि इन सारी आपदाओं से एक ही परिवार लगातार जूझता हुआ दिखाया गया है। फिल्म का शुरुआती घंटा पंजाब के एक गांव का है। यह हिस्सा मनोरंजक होने की वजह से आकर्षक लगता है। नायिका का स्काटलैंड और नायक का एयरफोर्स में चले जाने के बाद फिल्म की कहानी घसटती हुई और अपने को दोहराती हुई चलती है। सात साल बाद नायक-नायिका स्काटलैंड में मिलते हैं। यह दृश्य फिल्म का सबसे अच्छा दृश्य होना चाहिए पर होता बहुत रूटीन में है। नायिका का पंजाब से स्काटलैंड, वहां से फिर पंजाब, फिर अहमदाबाद, फिर अमेरिका, फिर स्काटलैंड जाना एक तरह की पुनरावृति लगती है। मौसम वस्तुत: प्रेम कहानी है। इस प्रेमकहानी में देश की घटनाएं अवरोध बनकर आती हैं। फिल्म का क्लाइमेक्स कमजोर और सतही है। पंकज कपूर की इस फिल्म को देखा जा सकता है। यदि दर्शक इसे खराब और बोर कहें तो यह उन्हें अकेले दोष देना गलत होगा।

Tuesday, September 13, 2011

यह किस नायक की वापसी की बात कर रहे हैं हम

फिल्म समीक्षा: बॉडीगार्ड

सलमान खान की चुलबुल पांडेय टाइप फिल्मों की जब एक वर्ग ने आलोचना की थी तो यह कहकर उनका बचाव किया गया कि सलमान खान कि फिल्मों से नायक की पर्दे पर वापसी हो रही है। वांटेड, दबंग, रेडी के बाद अब बॉडीगार्ड में भी यही नायक पर्दे पर है। सीधा, समर्पित, ईमानदार और भोंदू। वह हथियार से लैस २५ से ३० लोगों को निहत्थे होकर भी मौत के घाट उतार देता है। वह चलती ट्रेन से कूद कर विपरीत दिशा में जा रही ट्रेन में सवार हो लेता है। कंधे पर गोली लगने के बाद भी दौडक़र किसी लडक़ी से मिलने के लिए रेलवे प्लेटफार्म में जाता है। यह बातें बिल्कुल उसे हीरो ही बनाती है। हीरो का दूसरा पहलू देखिए। यह हीरो मारपीट के अलावा जीवन के सारे प्रसंगों में एक मोटी बुद्धि के भोंदू युवक जैसा दिखता है। उसी घर में रह रही एक लडक़ी उससे बेपनाह मोहब्बत करती है वह उससे बेखबर है। दस से बीस फिट की दूरी पर वह लडक़ी उसको फोन करती है, हंसती है, रोती है पर बेचारा यह हीरो कुछ भी जान भी नहीं पाता। वह गल्र्स हॉस्टल में उस लडक़ी की खोज में लगा रहता है। अनजाने में जिस लडक़ी से उसकी शादी हो गई होती है वह एक डायरी लिखती है। कायदे से यह डायरी उस हीरो के हाथ में लगनी चाहिए। पर वह डायरी उसके पांच साल के बच्चे के हाथ में लगती है। मारपीट के अतिरिक्त उसे समझ में नहीं आता। यह २०११ में हमारे युवाओं का नायक है। यह उस महान हीरो की पर्दे पर वापसी है जो लड़कियों को शेर से कम नहीं समझता। उन्हें झूने में उसके हाथ कांपते हैं। लड़कियों के प्रेम, उनके झूठ, फरेब और प्रपंच को पढऩे समझने की उसके पास क्षमता नहीं है। वह अपने मालिक को उसके सामने भी मालिक ही कहकर बुलाता है। इस हीरो की वापसी पर हिंदी फिल्म इंडस्ट्री जश्न मना रही है। फिल्म में सुनामी सिंह नाम का एक किरदार जो सलमान की फिल्मों में अलग-अलग नामों के साथ अक्सर रहता है बॉडीगार्ड में दर्शकों को जमकर इरीटेट करता है। साउथ फिल्मों की नकल में एक सांवली और मांसल नौकरानी भी कोई कम कहर नहीं बरपाती। महेश मांजेकर को यदि ऐक्टिंग ही करनी है तो ढंग की करें।
कुछ अच्छी बातें:
सलमान खान मासूम और भोले युवक की अच्छी ऐक्टिंग कर लेते हैं। फिल्म का संगीत अच्छा है। करीना कपूर सुंदर लगी हैं। बहुत भावुक और दुख के दृश्यों में वह करिश्मा कपूर की नकल करते दिखती हैं। पोस्टर से मारपीट से भरी लगने वाली इस फिल्म में उतनी मारपीट नहीं है।

Sunday, August 21, 2011

अच्छी नहीं पर एक अलग फिल्म



फिल्म समीक्षा: नाट ए लव स्टोरी

रामगोपाल वर्मा अपनी फिल्मों के बारे में यह सुनना ज्यादा पसंद करते हैं कि उन्होंने एक अलग फिल्म बनाई है बनस्पित इसके कि उन्होंने एक अच्छी फिल्म बनाई है। नाट एक लव स्टोरी उनकी अलग फिल्मों की श्रृंखलाओं में एक और कड़ी के रूप में जुड़ गई है। फिल्म बहुत ही कम बजट और संसाधनों के बीच बनाई गई है। कलाकार भी दीपक डोबरियाल और माही गिल जैसे। इन आत्मविश्वासी और प्रतिभावान कलाकारों के लिए फिलहाल मेहनताना से अधिक इनके रोल की गंभीरता अधिक महत्वपूर्ण लगती है। २००८ में हुए नीरज ग्रोवर हत्याकांड पर आधारित इस फिल्म की सबसे बड़ी कमी वही है जो इसकी यूएसपी है। सत्य घटना से जुड़े होने की वजह से यदि इसका कथानक दर्शकों को बांधे रखता है तो इसे फिल्म के रूप में न पेश करना पाना सबसे बड़ी कमी के रूप में भी उभरता है। फिल्म थोड़ी फिल्मी होनी चाहिए थी। आमतौर पर जिस मोड़ पर फिल्मों में इंटरवल होता है यह फिल्म वहां आपको बाए-बाए बोल देती है। माही गिल अब तक के अपने सबसे लंबे रोल में दिखी है। रोल लंबा के बावजूद इस फिल्म में वह वैसा प्रभाव नहीं छोड़ पाती जैसा कि उन्होंने देव डी या गुलाल फिल्म के अपेक्षाकृत छोटे रोल में छोड़ा था। दीपक डोबरियाल के लिए अच्छे संवाद नहीं रखे गए। एक खीझे हुए आशक्त प्रेमी के रूप में वह उतना नहीं जमे जितनी की उनसे अपेक्षा की जाती है। पुलिस तहकीकात और न्यायालय में बहस के दृश्यों को बढ़ाए और प्रभावी बनाए जाने की जरूरत थी। अच्छी फिल्म के रूप में नहीं पर एक अलग फिल्म के रूप में नाट ए लव स्टोरी देखी जा सकती है।

Friday, August 12, 2011

फिल्म का नाम आरक्षण नहीं शिक्षा माफियाओं का गोरखधंधा होना चाहिए।




फिल्म समीक्षा: आरक्षण

आरक्षण देखकर समाज और फिल्म इंडस्ट्री के उस तबके की बात सही जान पड़ रही है जिसके अनुसार प्रकाश झा चाहते थे कि फिल्म प्रदर्शित होने से पहले विवादित हो जाए क्यों कि फिल्म वैसी नहीं है जैसा कि उसको लेकर पूर्वाग्रह बनाए गए हैं। फिल्म आरक्षण में आरक्षण विषय उतना और उसी तरह से है जितना भट्ट कैंप की फिल्मों में सेक्स होता है। दर्शक को थोड़ा बहुत बांधने के लिए। इंटरवल तक आरक्षण की प्रासंगिकता और उसके नुकसान पर चर्चा करने वाली यह फिल्म इंटरवल के बाद अचानक फैमिली ड्रामा हो जाती है। यह ड्रामा आरक्षण जैसे संवदेशनील विषय पर नहीं बल्कि एक नायक की अच्छाईयों और खलनायक की बुराईयों के बीच है। विषय जातिवाद से उठकर निजी कोचिंग संस्थानों के मनमानेपन और शिक्षा के व्यवसायीकरण की ओर हो चलता है। इंटरवल के बाद अमिताभ बच्चन एक तबेला में कोचिंग शुरू करते हैं और उनके प्रतिद्धंदी मनोज बाजपेई की कोचिंग की साख गिरने लगती है। इंटरवल के पहले तक वह एक इंजीनियरिंग कॉलेज के प्रींसपल हुआ करते थे और मनोज कॉलेज के वाइस प्रिंसिपल। आरक्षण विवाद की वजह से उन्होंने कॉलेज से इस्तीफा दे दिया होता है। इंटरवल के पहले अमिताभ से बिदक गए उनके छात्र सैफ अली खान और प्रतीक बब्बर भी कोचिंग में उनका हाथ बंटाते हैं। यह आप जानते ही हैं कि दीपिका पादुकोन हैं तो वह किसी न किसी से प्यार करेंगी ही। प्रतीक फिल्म इंडस्ट्री में बहुत जूनियर हैं इसलिए वह दलित दीपक कुमार बने सैफअली खान से प्यार करती हैं। मोहब्बते के उलट अमिताभ ने अपनी बेटी प्यार करने की अनुमति दे रखी है। फिल्म के क्लाइमेक्स दृश्य पर गौर कीजिए। अमिताभ बच्चन के तबेला कोचिंग इंस्टीट्यूट को तोडऩे के लिए पूरी सरकारी मिशनरी मौजूद है। पर वह टूटता नहीं है क्यों कि उसके समर्थन कुछ सौ छात्र खड़े हैं। कुछ होने वाला ही होता है कि कॉलेज की संस्थापक ट्रस्टी हेमामालिनी ३२ साल बाद पहाड़ से अपना एकांतवास त्यागकर अमिताभ के समर्थन में आती हैं। एक राज्य का मुख्यमंत्री उनसे एक चपरासी की तरह फोन पर भी झुक कर बात करता है। यह है महान आरक्षण फिल्म का शानदार क्लाइमेक्स

इस पर भी गौर फरमाइए।
- फिल्म में अमिताभ बच्चन के हिस्से में आया एक संवाद (चुप हो जा। मैं तेरी एक नहीं सुनुगां अब तक मैने तेरी बहुत सुन ली है। मेरे पास आत्मबल है जो तुम्हारे पास नहीं है) कायदे से इस संवाद पर दर्शकों को तालियां बजानी चाहिए पर वह हंस रहे होते हैं।
-चालीस साल के हो चुके सैफ अली खान कुछ दृश्यों में दीपिका पादुकोन के दूर के चाचा लगते हैं। सैफअली खान फिल्म के नायक हैं पर उनके चेहरे के एरोगेंट भाव उनके लगातार खलनायक जैसा दिखाते हैं।
-यह फिल्म कतई राजनीतिक नहीं है। इस पर आपत्ति देश के हर बड़े कोचिंग इंस्टी्टयूट को होनी चाहिए।
- फिल्म का नाम आरक्षण के बजाय कोचिंग का गोरखधंधा या शिक्षा का व्यवसायीकरण होना चाहिए था। लो गए शिक्षा माफिया भी चलेगा।
- मनोज बाजपेई ने अपनी भूमिका के साथ पूरी तरह से न्याय किया है। पर उनकी भूमिका कुछ वैसी ही दबी-दबी रह गई है जैसे कि राजनीति में अजय देवगन की। खुलकर संवाद बोलने या अदाकारी दिखाने के मौके सिर्फ अमिताभ के पास थे।

Wednesday, August 3, 2011

अच्छे विषय का हास्यास्पद फिल्मांकन

फिल्म समीक्षा: गांधी टू हिटलर




रायपुर के पांच में से तीन मल्टीप्लेक्सों में यह फिल्म ४ शो में चल रही है। औसतन हर शो में १० दर्शक आ रहे हैं। यानि कि कम से कम ४० दर्शक गांधी टू हिटलर को देखने के लिए रोज आ रहे हैं। इन ४० दर्शकों में से अधिसंख्य को पहले से पता है कि फिल्म में कोई नायक-नायिका नहीं है, गीत-संगीत नहीं है, कॉमेडी नहीं है, एक्शन नहीं है, द्विआर्थी संवाद नहीं हैं और बोल्ड सीन नहीं है। यानि की एक परंपरागत मसाला फिल्म जैसा कुछ भी नहीं। जो दर्शक फिल्म के आ रहे हैं उन्हें वाकई गांधी और हिटलर जैसे चर्चित नायकों से जुड़ा कुछ जानने में दिलचस्पी है। ऑफबीट फिल्मों पर औसम से कम दिलचस्पी और समझ रखने वाले इस शहर में भी एक ऐसी नई पीढ़ी विकसित हो रही है जो गंभीर और लीक से अलग हटकर बनी फिल्मों में दिलचस्पी लेती है। गांधी टू हिटलर देखने वाले दर्शकोंं में भी ज्यादातर युवा थे। जिस फिल्म को भीड़ न देख रही हो उसे देखना एक ब्रांड के रूप में भी उभरा है। यह प्रयोगात्मक फिल्म उद्योग के लिए अच्छा संकेत है। अब यहां जिम्मेदारी फिल्मकार बनती है कि कैसे वह आए हुए इन१० दर्शकों का आना जस्टीफाई करे। और कोशिश करे कि कम से कम यह १० अगली फिल्म में फिर आएं। कैसे वह एहसास कराए कि वह दर्शक कुछ अलग और नया देखकर गए हैं। और क्यों उन्होंने सिंघम, जिंदगी न मिलेगी दोबारा, हैरी पॉर्टर जैसी फिल्मों के विकल्प रहते गांधी टू हिटलर का चुनाव किया। गांधी टू हिटलर के पास इन किसी क्यों का जवाब नहीं है। निर्माता-निर्देशक फिल्म को बनाता तो अपने नजरिए से है पर वह होती है दर्शक के लिए। फिल्म देखकर लगा कि निर्माता अनिल कुमार शर्मा और निर्देशक राकेश रंजन यह फिल्म सिर्फ अपने लिए बनाई है। चलो फिल्म बनाते हैं जैसा। इन फिल्मकारों की फिल्में से जुड़ी सीमित जानकारी और कूपमंडूकपन पूरे फिल्म में चीखता रहा है। फिल्म के कुछ दृश्य ऐसे हैं जिन्हें फिल्माते वक्त निर्देशक ने सोचा होगा कि ऐस दृश्य फिल्म में बहुत जरूरी हैं वह पहली बार ऐसे दृश्यों को फिल्मों में जगह दे रहे हैं।
गांधी टू हिटलर में तीन कहानियां समांतर चलती हैं। पहली हिटलर और जर्मनी की। दूसरी गांधी और उनके उपदेशों की और तीसरी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिंद फौज के कुछ साथियों और उनके परिवारों की। फिल्म में जहां-जहां हिटलर से जुड़े दृश्य आए हैं दर्शकों का उनसे जुड़ावा होता है। युद्ध में डूबे हुए जर्मनी को उबारने में लगे हिटलरी कोशिशों को अधिक से अधिक जानने की दिलचस्पी उनमें लगातार बनी रहती है। यह दृश्य थोड़ी देर चलते है कि पर्दे पर उपदेश देते गांधी आ जाते हैं। इन दृश्यों में वही शिक्षाएं हैं जो भारत का हर बच्चा कक्षा तीन-चार से ही नैतिक शिक्षा से जुड़ी किताबों मेें पढ़ता आया है। यह दृश्य बहुत ही घटिता तरीके से फिल्माए गए हैं। फिल्म का सबसे खराब हिस्सा आजाद हिंद फौज की एक टुकड़ी की कहानी का है। इस कहानी से जुड़े महाघटिया और उबाऊ फ्लैशबैक हैं। शादी और होली के दृश्य हैं। इस टुकड़ी के सैनिकों का आपस में झगडऩा और समझाने के बाद एक-दूसरे के लिए जान न्योझावन कर देना। सब कुछ बहुत बचकाना और नानसेंस सा। फिल्म में हिटलर का किरदार रघुवीर यादव ने निभाया है और उनकी प्रेमिका नेहा धूपिया बनी हैं। फिल्म इतनी हास्यास्पद है कि हिटलर और उनकी प्रेमिका सहित पूरे जर्मनी का उर्दू मिश्रित ठेठ हिंदी बोलना भी व्यंग्य पैदा नहीं करता। एक अच्छे विषय की महादुर्गति देखने के लिए फिल्म देख सकते हैं। अच्छे फिल्मकारों की हिटलर और द्धितीय विश्वयुद्ध में भारत की भूमिका जैसे विषयों पर फिल्म बनानी चाहिए।

Tuesday, July 26, 2011

फिल्म को बुरी बताने पर पाप लग जाएगा।

फिल्म समीक्षा सिंघम:



सिंघम को बुरी फिल्म बताने से पाप लग सकता है। जिस फिल्म को हर शहर में इतनी आस्था और भक्तिभाव के साथ देखा जा रहा हो वह खराब कैसे हो सकती है। सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों में हाउसफुल के जिन तख्तियों पर दबंग के बाद धूल जम गई थी सिंघम ने उस धूल को झाड़ा है। सिनेमाघरों में कतार बनाकर टिकट लिए गए है। इन लंबी कतारों से बीच-बीच में नारे लगाने जैसे शोर उठे हैं। धक्का-मुक्की हुई है, जेबी कटी हैं एक-दूसरे को उसकी औकात बताई गई है। यह फिल्म शुरू होने के पहले के जश्न है। फिल्म छूटने के बाद सडक़ों पर जाम जैसे नजारे बने हैं। दर्शकों ने सिंघम के संवादों का प्रयोग एक-दूसरे पर किया है। हलचल और उत्सव की तरह आई इस फिल्म को खराब कैसे बताया जा सकता है। सिंघम एक फिल्म नहीं बल्कि एकनजरिया है। नजरिया दर्शक को समझने और आंकने का। जहां धोबीघाट, लक बाइ चांस, ये साली जिंदगी, आईएम, शैतान और जिंदगी न मिलेगी दोबारा जैसी फिल्मे दर्शकों को समझदार मान रही हैं तो वहीं दबंग, वांटेड, रेडी डबल धमाल और अब सिंघम जैसी फिल्में दर्शकों को भावुक और बेवकूफ। इन फिल्मों को बनाने के पीछे सिर्फ एक नजरिया है कि दर्शक पर्दे पर हीरो को हीरो जैसा ही देखना चाहता है। एक थप्पड़ मारने पर आदमी ६ फुट ऊपर जाकर फिर मारने वाले के पैरों पर गिरे ऐसा सिर्फ हीरो ही कर सकता है। सिंघम इस नायक को पर्दे पर स्थापित करती है। दर्शक सिंघम के किरदार से पूरी तरह से जुड़ता है। उसके आक्रोश, विवशता और पराक्रम से भी । सिंघम २०१० में इसी नाम से आई आई साउथ की फिल्म का रीमेक है। इंटरवल के पहले तक सिंघम साउथ की ही फिल्म लगती है। इंसपेक्टर के बेवकूफ शार्गिद के सड़े हुए चुटकले, नंदू जैसा मोटा किरदार, उसकी ओवर ऐक्टिंग, सोने की मोटी चेन पहने काले रंग के गुंडों की पिटाई, नायक द्वारा पिटाई का दृश्य देखने के बाद नायिका का आत्मसमर्पण जैसे दृश्य ऑडी में बैठे आधे दर्शकों को इरीटेट कर रहे होते हैं। निर्देशक यह मान रहा है कि फोन पर शीला की जवानी की मिमिक्री करने वाला नंदू और भूत बनकर सब को डरा रही नायिका दर्शकों को हंसा रही है। पर यह बात भी इतनी ही सत्य कि यह दृश्य आधों का मनोरंजन कर रहे होते हैं। सीटियां और टिप्पणियां तो अब मल्टीप्लेक्सों में सुनाई देने लगी है। इंटरवल के पहले तक सिंघम दबंग से भी घटिया है। इंटरवल के बाद यह कुछ देखने लायक बनती है। शूल, गंगाजल, इंडियन के अलावा पुलिसिया बैकग्राउंड पर बनी कुछ फिल्मों की झलक और संवाद यहां देखने को मिले हैं। सार वही कि पुलिस अगर चाहे तो क्या नहीं कर सकती । डायलॉग की जो कमी दर्शक पहले ऑफ में महसूस कर होते हैं सेंकेंड हॉफ उसकी भरपाई करता है। कुछ मनोरंजन के साथ आपकी चेतना को भी जगाते हैं। फिल्म का क्लाइमेक्स प्रैक्टिकल और मीनिंगफुल है। अजय देवगन और प्रकाश राज ने बेहतरीन अभिनय किया है। प्रकाश राज जैसा हंसाने वाला खलनायक ९० के दशक में परेश रावल की याद दिलाता है। काजल अग्रवाल से जो काम कहा गया उन्होंने किया। गोवा जैसे शहर में पूरी बाह का सलवार- शूट पहनकर वह अच्छी लगी है। उन्होंने सत्तर के दशक की नायिकाओं की तरह समय-समय नायक का मार्गदर्शन किया है। प्यार तो वह उससे टूटकर करती ही हैं। फिल्में अब नेताओं को भी ओबलाइन करने लगी हैं।ठाकरे परिवार खुश हो जाए इसलिए फिल्म में बहुत संवाद मराठी में रखे गए हैं इस बात की परवाह किए बिना कि दर्शक माझी सटकले का क्या अर्थ लगाएगा।

Thursday, July 21, 2011

समझदारों द्वारा समझदारों के लिए बनाई गई फिल्म

फिल्म समीक्षा: जिंदगी न मिलेगी दोबारा




फरहान अख्तर को दोस्त मनोविज्ञान का फिल्मकार कहा जा सकता है। दिल चाहता है और रॉक ऑन के बाद जिंदगी मिलेगी न दोबारा उनकी ऐसी तीसरी फिल्म है जिसमे वह दोस्तों के बीच की किस्सागोई को एक संदेशात्मक अंदाज में पेश करते हैं। कहानी को कहने में कहींं कोई बनावटीपन या उपदेशात्मक प्रपंच नहीं हैं। फरहान इस फिल्म में निर्माता, अभिनेता और एक गायक की हैसियत से जुड़े हुए हैं। फिल्म की निर्देशक फरहान की जुड़वा बहन जोया अख्तर हैं। जोया इसके पहले लक बाय चांस जैसी खूबसूरत फिल्म का निर्देशन कर चुकी हैं। तीन इंटलैक्चुवल दोस्तों की कहानी कहने वाली फिल्म जिंदगी न मिलेगी दोबारा एक अच्छे उपन्यास को पढऩे जैसा संतोष देती है। तीन मुख्य पात्रों की यह दोस्ती शोले के जय-वीरू अंदाज वाली दोस्ती नहीं हैं। वह दोस्त इसलिए हैं क्यों कि वह एक-दूसरे की फ्रीक्वेंसी को समझते हैं। कहां पर और कितना दूसरे की जिंदगी में इनवाल्व हुआ जाए उन्हें यह मालूम है। यहां एक-दूजे कि खिल्ली भी उड़ायी जाती है और मोहब्बत भी की जाती है। पूरी फिल्म साफ्ट कॉमेडी के ताने-बाने पर बुनी है। फिल्म में हास्य के जो पल हैं वह बहुत ही सहज तरीके से आते-जाते रहते हैं। हंसाने के लिए किसी सीन को क्रिएट नहीं किया गया है। स्वाभाविक संवादों से हंसी निकलती है। दोस्ती के साथ-साथ फिल्म दार्शनिक अंदाज में जीने के तरीके को भी परिभाषित करती है। फिल्म दिखाती है कि इंटलैक्चुवल व्यक्ति जरूरी नहीं कि अपनी हर समस्या या कमजोरी को पहचान कर उसे खत्म करने की क्षमता रखता है। दूसरे की दृष्टि से भी जिंदगी को समझा जा सकता है। जिंदगी मिलेगी न दोबारा समझदारों की फिल्म है। दबंग, रेडी और सिंघम जैसी फिल्मों के माहौल के बीच ऐसी फिल्म बनाना साहसिक काम है। अच्छी बात यह है कि फिल्म इंडस्ट्री में ऐसी साहसिक लोग बढ़ रहे हैं। प्यार का पंचनामा के बाद जिंदगी मिलेगी न दोबारा ऐसी दूसरी फिल्म है जिसमे लडक़ी के किरदार को चिपकू बनाकर पेश किया गया है। वह चिपकू किरदार गर्लफ्रेंड या पत्नी किसी रुप में हो सकता है जो आपके जीवन की उन्मुक्तता या स्वतंत्रता को खत्म कर दे। यह फिलासफी बड़े शहरों से जल्दी ही छोटे शहरों में आएगी। फिलहाल यहां चिपकने वालों की कमी महसूस की जा रही है। फरहान अख्तर, रितिक रोशन और अभय देओल के अलावा कैटरीना कैफ मुख्य भूमिका में हैं। सभी ने अपनी पात्रों के अनुरूप अभिनय किया है। अपनी टाइमिंग डायलॉग डिलवीरी की वजह से फरहान दर्शकों के सबसे प्रिय चेहरे बनते हैं। हां एक और बात रितिक रोशन ने कई दृश्यों में आमिर खान की कॉपी की है।

Tuesday, July 12, 2011

दर्शक बहुत भावुक होता है वह डरेगा भी और रोएगा भी




फिल्म समीक्षा: मर्डर:२



दिन का समय हो और आपका पैर नदी, नाले या कहीं और पानी में सड़ रही लाश पर पड़ जाए। आपके मन में डर बाद में पैदा होगा घिन पहली आएगी। मुकेश भट्ट की फिल्म मर्डर:२ दर्शकों को कुछ ऐसा ही एहसास कराती है। जो दृश्य डराने के लिए फिल्माए गए हैं वह आपके मन में एक लिजलिजापन पैदा करते हैं। जोर-जोर से प्रचारित की गई इस सेक्स थ्रिलर में थ्रिल के नाम पर कुछ ऐसे ही घिनौने दृश्य हैं जिन्हें यह मानकर फिल्म में रखा गया है कि वह दर्शकों को रोमांचित कर देंगे। ऐसी पटकथा जिस पर एक अच्छी साइक लॉजिकल थ्रिलर फिल्म बन सकती थी को एक चालू फिल्म बनाकर पेश किया गया है। मर्डर का सीक्वेल कही गई इस फिल्म में न तो मर्डर जैसा संस्पेस और न ही उसके जैसा रोमांस। एक मनोरोगी जो लड़कियों की हत्याएं करता है को फिल्म का मुख्य खलनायक बनाया गया है। दर्शक अंत तक इंतजार करते रहते हैं कि इस फिल्म का असल विलेन कोई और होगा और यह उनके लिए शॉकिंग होगा। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। वह मनोरोगी फिल्म का मुख्य खलनायक निकला जिसे दर्शकों ने फिल्म शुरु होने के २५ मिनट के भीतर जान लिया था। यह वैसा ही है कि कहानी का नाम हो बाप ने मारा और कहानी खत्म होने पर हत्यारा बाप ही निकले। अंत के पांच मिनट को छोडक़र वह पात्र जिसे निर्देशक खलनायक के रूप में पेश कर रहे होते हैं दरअसल दर्शकों का मनोरंजन कर रहा होता है। इमराश हाशमी के अलावा फिल्म में जैकलीन फर्नाडीज और प्रशांत नारायण मुख्य भूमिकाओं में हैं। फिल्म के नायक भले ही इमरान रहे हों पर दर्शकों को याद प्रशांत नारायण का अभिनय रह जाता है जिन्होंने विक्षिप्त मनोरोगी की भूमिका निभाई है। प्रशांत नारायण को दर्शक ये साली जिंदगी में छोटे और भिंडी बाजार में फतेह की भूमिका में हम देख चुके हैं। जिन-जिन दृश्यों में इमरान हाशमी और प्रशांत नारायण आमना-सामना होता है इमरान के सीमाएं स्पष्ट दिखती हैं। अभिनय के मामले में प्रशांत निश्चित ही दीपक डोबरियाल और इमरान खान की श्रेणी में रखे जा सकते हैं। एक बात अंत तक समझ में नही आती ्र कि जैकलीन फर्नाडीज को फिल्म में लिया क्यों गया। यह भूमिका किसी उभरती हुई मॉडल को मिलती तो वह जैकलीन से ज्यादा ही एक्सपोज कर देती। जैकलीन फर्नाडीज की ऐक्टिंग देखकर रोमांस या सेक्स तो नहीं जागता पर उनकी ऐक्टिंग पर हंसी जरूर आती है। फिल्म में जैसे ही इमरान हाशमी उनके पास आते हैं वह कपड़े उतारना शुरू कर देती हों। मानो इमरान कोई धोबी हों । सेक्स जैसे कुछ दृश्यों को फिल्माने में जैकलीन के चेहरे पर न कोई भाव और न ही उत्तेजना। सब कुछ लिखी हुई पटकथा की तरह कि अब टॉप उतारना और अब जींस उतारना है। कुछ अन्य दृश्यों में भी तय पटकथा के अनुसार कि अब रोना है, अब शराब पीना है और अब शराब के नशे में सडक़ पर गिरना है। भट्ट कैंप की फिल्मों में संगीत उसका सबल पक्ष होता है मर्डर:२ में यह पक्ष भी कमजोर रहा है। मुकेश और महेश भट्ट की इस फिल्म में कहीं-कहीं तीसरे भट्ट विक्रम साहब की भी छाप देखने को मिलती है। निर्देशक मोहित सूरी के बारे में क्या कहा जाए। फिल्म के कुछ दृश्यों को देखकर लगा कि वह दर्शकों को बिल्कुल बेवकूफ भावुक मानते हैं।

Wednesday, July 6, 2011

डेल्ही बेली एहसास कराती है कि दर्शक परिपक्व हो गए हैं

फिल्म समीक्षा: डेल्ही बेली

खुशवंत सिंह कोई बहुत अच्छे अफसानानिगार या स्तम्भकार नहीं हैं। वह इसलिए अधिक चर्चित हुए हैं क्यों कि उन्होंने ऐसे विषयों पर लिखा है जिन पर दूसरे लेखक अश्लील कहकर नाक-भौं सिकोड़ते रहे हैं। आमिर खान हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के खुशवंत सिंह हो सकते हैं। हो सकता है कि इस फिल्म की सफलता के बाद एक साथ कई खुशवंत सिंह पैदा हो जाएं। आमिर की फिल्म डेल्ही बेली मुख्य धारा की पहली ऐसी हिंदी फिल्म है जिसमे खुलेपन के साथ सेक्स को प्रदर्शित किया गया है। सेक्स दृश्यों या संवाद को दिखाने में कहीं कोई कुंठा या असमंजस मन में नहीं दिखा है। आमिर किसी असमंजस के साथ इस फिल्म को लेकर आए भी नहीं थे। फिल्म बनाने से पहले ही उन्होंने घोषणा कर दी थी कि वह एक सेक्स कॉमेडी फिल्म बना रहे हैं, कहीं कोई धोखा देने का इरादा नहीं। मल्टीप्लेक्सों में टिकट भी सिर्फ एडल्ट को दिए जा रहे हैं। प्रदर्शन के बाद फिल्म चर्चित हो गई। अब मजा देखिए। चर्चा इस बात पर हो रही है कि फिल्म के दृश्य और संवाद अश्लील हैं। लोग कह रहे हैं फिल्म में गालियां हैं। कहा जा रहा है कि टट्टी-पेशाब के दृश्यों को अश्लील तरीके से चित्रित किया गया है। विडंबना। चर्चा इस बात पर नहीं हुई कि फिल्म की कहानी में कोई नयापन नहीं है। कुछ गुंडों के साथ हीरे की खोज में पगलाया गैंगस्टर और हीरों से छुटकारा पाने की जुगत में नायकों की टीम पहले भी कई फिल्मों में देखी जा चुकी है। डेल्ही बेली में उसी को एक बार फिर दोहराया गया है। फर्क सिर्फ इतना है कि इन दृश्यों से रिसते हास्य को सेक्स कॉमेडी से पगा दिया गया है। कहानी के स्तर पर कोई नयापन नहीं। चर्चा इस बात पर भी नहीं हुई कि आमिर अपने भानजे इमरान से सर्वश्रेष्ठ नहीं निकलवा पाएं। अच्छी अदाकारी और टाइमिंग वाले एक्टर विजय राज को बहुत अच्छे संवाद नहीं मिले हैं। फिल्म का क्लाइमेक्स बहुत प्रभावकारी नहीं बन पाया। पर इन बुराईयों में फिल्म की अच्छाइयां भारी पड़ती हैं। अर्से बाद कोई ऐसी कॉमेडी फिल्म आई है कि जिसे रात में दो बजे या ट्रैफिक के रेड सिग्नल में याद करके हंसा जा सके। बिल्कुल नवीन और मौलिक दृश्य। फिल्म के गाने भी सुनने में मनोरंजक कम मनोरंजक नहीं हैं। ऐसा बहुत कम होता है। हां फिल्म में गालियों कुछ कम की जा सकती थीं। स्वाभाविक जिंदगी में तो हम और भी बहुत कुछ करते हैं जब उसे फालतू और रूटीन मानकर फिल्म में शामिल नहीं किया जाता तो गालियों को क्यों। अपनी कमियों और सीमाओं के बावजूद फिल्म आलोचना से अधिक तारीफ का हक रखती है। और हां हिंदी भाषा अपने बढ़ते वर्चस्व पर पीठ थपथपा सकती है। पहले सिर्फ अंग्रेजी में आ रही इस फिल्म को बाद मे हिंदी में डब किया गया और यह अंग्रेजी से ज्यादा हिंदी के प्रिंटों में रिलीज की गई।

Friday, June 17, 2011

इस बार दर्शक भी फ्राई होते हैं


फिल्म समीक्षा: भेजा फ्राई:
भेजा फ्राई पार्ट वन और टू दोनों ही फिल्मों की धुरी विनय पाठक हैं। पर्दे पर अपने से उल्टे मिजाज वाले कलाकार को अपनी बातों से बोल-बोल कर पका देना ही फिल्म का विषय है, आउटलाइन है, पंचिग लाइन और क्लाइमेक्स है । दोनों ही फिल्मों में बोर करने वाले कलाकार विनय पाठक उर्फ भारत भूषण हैं। बोर होने वाले इस बार बदल गए हैं। पार्ट टू में केके मेनन ने रजत कपूर को रिप्लेस किया है। भेजा फ्राई:२ भेजा फ्राई वन की सफलता से उत्साहित होकर बनाई गई फिल्म है। छोटे बजट की इस फिल्म ने अच्छा व्यवसाय किया था। फिल्म थोड़ा भव्य लगे इसलिए अबकी बार इसे बंद कमरे से निकाल लिया गया है। शायद इसी भव्यता ने कुछ गलतियां करा दी हैं। पहली गलती पटकथा स्तर पर है। शुद्ध हिंदी बोलने वाले को हंसी का पात्र दिखाना, निर्जन टापू में बनी एक झोपड़ी में बिजली की सुविधा होना, इनकम टैक्स अधिकारी से बचने के बजाय उसे जान से मार देने की योजना बनाना, भारत भूषण का अपने दोस्त से कॉमिक्स के पात्रों जैसी लड़ाई करने जैसे दृश्यों के अलावा और भी कई दृश्य दर्शकों को बुरी तरह से इरीटेट करते हैं। दूसरी गलती संवाद स्तर पर है। भारत भूषण का बाचाल होना इस बार दर्शकों का भी भेजा फ्राई करता है। उनके संवाद लाउड तो लगे ही हैं उनमें कहीं-कहीं ओवर ऐक्टिंग भी दिखती है। संवाद हास्य पैदा नहीं करते। हंसने के एक दृश्य से दूरी दूसरे दृश्य से बहुत दूर है। फिल्म का क्लाइमेक्स बहुत ही साधारण है। फिल्म का सबसे बेहतर पक्ष अभिनय है। विनय पाठक, केके मेनन के अलावा अमोल गुप्ते ने हमेशा की तरह अच्छा अभिनय किया है। मिनिषा अच्छी लगती हैं उन्हें थोड़ी अच्छी भूमिकाएं मिलनी चाहिए।

Wednesday, June 15, 2011

यंगस्तान के खोखलेपन की कहानी:



फिल्म समीक्षा: शैतान

समांतर सिनेमा के एक ही मंच पर खड़े होने के बावजूद अनुराग कश्यप एंड कंपनी श्याम बेनेगल एंड कंपनी से उतनी ही दूर दिखती है जितनी कि वह चोपड़ा एंड घई से कंपनी से दूर होने का दावा करती है। शिल्प और विषय चयन के मामले अनुराग शायद विशाल भारद्वाज, सुधीर मिश्र या किरण राव के अधिक करीब जान पड़ते हैं। अनुराग की फिल्में शहरी दर्शकों में भी एक इलीट वर्ग की तलाश लगातार कर रहीं हैं। यह वर्ग आम जीवन में शेष वर्ग से अलग होने का दावा करता है। यह अलगाव बौद्धिक स्तर का है। चूंकि अनुराग इस वर्ग की समझ पर विश्वास करते हैं इसलिए उनकी कुछ फिल्में जैसे ब्लैक फ्राइडे और नो स्मोकिंग थोड़ी दुरूह भी हो गईं हैं। शैतान फिल्म से अनुराग का जुड़ाव निर्माता के रूप में है। फिल्म के निर्देशक बीज्वाय नांबियार हैं। उनकी नई-नवेली पत्नी काल्की ने फिल्म में प्रमुख भूमिका निभाई है। लगभग दो घंटे की इस फिल्म में शुरू के २० मिनट सिर्फ पात्रों की जीवन शैली दिखायी गई है। दृश्यों का कहीं कोई संयोजन या क्रम नहीं। एक सडक़ दुर्घटना के बाद शैतान एक फिल्म जैसी लगनी शुरू होती है। दुर्घटना के दोषी फिल्म के मुख्य पांच पात्र हैं। वह जेल जाना नहीं चाहते। पुलिस भी उन्हें जेल भेजना नहीं चाहती। इस उपकार के बदले वह उनसे २५ लाख रूपए चाहती है। छोटे-छोटे फॉर्मूलों और चालाकियों से अपनी जिंदगी मेंं बिलासता जुटाने वाले यह युवा पुलिस को यह रकम देने के लिए भी एक प्लान तैयार करते हैं। पूरी फिल्म इस अनमेच्योर प्लान के फेल होने और फेल होने की वजहों की कहानी कहती है। कहानी के आधार पर फिल्म में कुछ नयापन नहीं है। पुलिस ब्लैकमेलिंग, अपहरण और हत्याओं से बुनी पटकथा दर्शक कोई पहली बार नहीं देख रहे थे। फर्क बस उसको दर्शाने में रहा है। अनुराग ने घटनाओं से अधिक घटनाओं की वजहों पर फोकस किया है। फिल्म बिना वजह की लगातार पार्टियोंं में व्यस्त, कोकीन, शराब, सिगरेट के माहौल में जी रही युवा पीढ़ी की कमजोरी का ताना-बाना पेश करती है। फिल्म के यह पात्र छोटे से दबाव में स्थितियों और रिश्तों से पलायन करते दिखे हैं। यंगस्तिान के भीतर का खालीपन की समीक्षा शायद पहली बार हुई है। कलाकारों ने पात्रों के मुताबिक संतुलित अभिनय किया है।

Sunday, May 22, 2011

इसे २०११ की बेवफाई कह सकते हैं

फिल्म समीक्षा: प्यार का पंचनामा



यह शायद पहली हिंदी फिल्म है जिसमे ब्रेकअप सुखांत अंत लेकर आता है और दर्शक ब्रेकअप होने पर ताली पीटते हैं। हिंदी फिल्मों में अमूमन नायक-नायिका के बीच प्रेम की गाड़ी गलतफहमी या किसी अन्य वजहों से पटरी से उतरती है लेकिन फिल्म खत्म होते-होते दोनों में से कोई एक आत्मसमर्पण कर देता है, गलती मान लेता है या उसकी आंखे खुल जाती है या उसे किसी में रब दिख जाता है। मतलब जब फिल्म खत्म होगी तो नायक-नायिका साथ में ही रहेंगे। यह हिंदी फिल्मों की परंपरा है। प्यार का पंचनामा इस बनी-बनाई लकीर को नई सिरे से परिभाषित करने का काम करती है। हिंदी फिल्मों मेेंं लडक़ी के बेवफा होने की व्याख्या खूब हुई है। पर लड़कियों का संबंधों के प्रति नान सीरियस होने, उनके अवसरवादी या स्वार्थी होने पर किसी निश्कर्ष के साथ चर्चाएं पहली बार हुई हैं। प्रेम को लेकर लापरवाह या स्वार्थी होना बेवफाई जैसा ही घातक है यह दर्शकों ने पहली बार पहसूस किया। शायद लड़कियों को भी यह एहसास पहली हुआ है कि वह उनका अनकांसेस माइंड रिलेशनशिप को लेकर जो करता है वो गलत है। इस फिल्म में पहली बार जैसी स्थितियां दूसरी भी हैं। मसलन लव रंजन ने किसी फिल्म का निर्देशन पहली बार किया है। देवेंद्र शर्मा, इशिता शर्मा, कार्तिक तिवारी, नुसरत भरुचा, राव भर्तिया और सोनाली सहगल भी पहली बार बड़े पर्दे पर दिखीं हैं। फिल्म में नयापन दिखे इसलिए एक भी पात्र ऐसा नहीं है जिसे हम दूसरी किसी फिल्म में देख चुके हों। फिल्म की कहानी सुनने में उतनी प्रभावित नहीं करती जितनी कि हम देखते हुए महसूस करते हैं। यह साफ कर दें कि कहानी इस प्रकार की नहीं है कि लडक़ा लडक़ी से प्यार करता है और लडक़ी किसी और से प्यार करती है। हिंदी फिल्म के दर्शक बदल रहे हैं । उन्हें अब हीरो के रूप में दैवीय शक्तियों से लैस व्यक्ति नहीं चाहिए। अब नायक ऐसा चाहिए जो कभी जीते तो कभी स्थितियों के सामने धराशयी हो जाए। फिल्म में जब-जब नायक धराशायी होते दिखे दर्शकों ने उन्हें अपने अधिक करीब महसूस किया है। फिल्म का सबसे बेहतर पक्ष संवाद हैं। यह संवाद आज के दौर के हैं। चूंकि फिल्म की प्रष्ठभूमि दिल्ली है इसलिए यह संवाद उतने द्विअर्थी नहीं लगते जितने कि वहां या अन्य बड़े शहरों में रोजमर्रा की जिंदगी में युवाओं द्वारा बोले जाते हैं। अभिनय इस फिल्म का दूसरे सबसे अच्छा पक्ष है। सभी ६ कलाकारों ने अपनी-अपनी भूमिका को जिंदादिली के साथ जिया है। लिक्विड, चौधरी और रज्जों जैसे पात्रों को यह कलाकार बिल्कुल उतर कर जीते हैं। कुछ ओवरएक्टिंग के दृश्यों के उपेक्षा कर दे तो। अगर फिल्म की एकमात्र चूक की चर्चा की जाए तो वह फिल्म का कुशल संपादन न होना है। फिल्म को आसानी से १५ मिनट कम किया जा सकता था। एक-आध गाने हटाए जा सकते थे। फिल्म को एक बार देखा जा सकता है। कपल तो खासतौर पर देखें। पहले अलग-अलग फिर इकट्ठा।

Friday, May 20, 2011

दर्शक दया करने आए ताली बजाने के लिए नहीं

फिल्म समीक्षा: स्टेनली का डिब्बा


स्टेनली का डिब्बा देखने गए अधिसंख्य दर्शक पूरी फिल्म में इस बात का इंतजार करते रहे कि कब भयंकर इमोशनल दृश्य आएं और वह रोना शुरू कर दें। मम्मियां तो खासतौर पर अपने को इसके लिए तैयार करके आईं थी। अगर रुलाना फिल्म की सफलता थी तो यह फिल्म असफल कही जाएगी। अंत के आठ या दस मिनट में कुछ भावुक दृश्यों की आस बंधी थी पर वह दृश्य इमोशनल न बनाकर फिल्मी बना दिए गए। स्टेनली को एक ऐसे हीरो के रूप में पेश कर दिया गया जो सारी समस्याएं बगैर किसी से शेयर किए हुए झेलता रहता है। दर्शकों को यहीं खटका लगता है। वह स्टेनली की विवशता और स्थितियोंं पर आंसू बहाने के लिए आए थे। जब किसी के लिए करुणा उपज आए तो ठीक उसी वक्त उसके लिए प्रशंसा नहीं निकलती। निर्देशक इस मनोविज्ञान को समझ नहीं पाए। फिल्म के निर्देशक, लेखक और निर्माता अमोल गुप्ते हैं। फिल्म में बड़ा सा रोल भी उन्होंने हथिया रखा था। अमोल २००७ में आई फिल्म तारे जमीं के क्रिएटिव निर्देशक थे। तारे जमीं की सफलता के बाद उन्होंने घोषणा की थी कि वह बच्चों पर एक और फिल्म बनाएंगे। स्टेनली का डिब्बा का निर्माण २००८ से शुरू हुआ। फिल्म की शूटिंग दो सालों में हर शनिवार के कुछ घंटों में हुई है। तारे जमीं के उलट फिल्म बिल्कुल पिटे-पिटाये बाल मजदूरी विषय पर केंद्रित है। जैसे दहेज, भष्ट्राचार, घूसखोरी विषय गंभीर होते हुए भी अब हमे चिंतित नहीं करते कुछ वैसा ही रवैय्या हमारा बाल मजदूरी पर भी है। मतलब समस्या गंभीर है पर हम उसके बारे में दो सेकेंड भी सोचना नहीं चाहते। स्टेनली का डिब्बा फिल्म बीच से ही विखर गई। खत्म होने के १५ मिनट पहले तक यह एक हिंदी केे एक भुखड़ टीचर की कहानी लगती है और अंत में दर्शक निराश होकर लौटते हैं।

Friday, May 13, 2011

डराते तो, फिर ठीक से डराते

फिल्म समीक्षा: रागिनी एमएमएस


एकता कपूर के निर्माण में बनी फिल्म रागिनी एमएमएस १३ मई को नहीं बल्कि १५ अप्रैल को रिलीज होने वाली थी। प्रदर्शन के लिए फिल्म के फाइनल प्रिंट आऊट निकलवाए जा रहे थे कि अचानक प्रिंटर खराब हो गया। एकता ने भगवान बजंरग बली से मनौती मांगी कि यदि प्रिंट खराब नहीं हुए तो वह हनुमान चालीसा का उपयोग फिल्म में कहीं न कहीं करेंगी। फिल्म में और कहीं हनुमान चालिसा पाठ की गुजांइश बनती नहीं थी कि इसलिए फिल्म की शुरुआत की उन्होंने हनुमान चालिसा के पाठ से की। रागिनी एमएमएस के ठीक एक सप्ताह पहले घोषित भुतही फिल्म हांटेड प्रदर्शित हुई थी। मल्टीप्लेक्सों में फिल्म इस शुक्रवार भी उपलब्ध थी। एकता ने जानबूझ कर रागिनी को भुतही फिल्म कहने के बजाय इसे एमएमएस की एक सच्ची घटना पर आधारित बताया। फिल्मी गलियारों में भी इस बात की चर्चा होती रही कि रागिनी एमएमएस भी लव सेक्स और धोखा की तरह प्रयोगधर्मी फिल्म है। इंटरवल के थोड़ा पहले तक रागिनी एक बी ग्रेड फिल्म लगती है। अपनी अश्लील दृश्यों और संवादो को जोड़ दें तो सी ग्रेड जैसी। एकता कपूर और फिल्म निर्देशक पवन कृपलानी की निगाह दो तरह के दर्शकों पर थी। पहले वह जो फिल्म के पोस्टरों से उत्साहित होकर कुछ देख लेने के जुगत में आए थे। दूसरे वह जिन्हें भूतों की अलौकिक क्षमताओं से बहुत उम्मींदे होती हैं। पहली श्रेणी के दर्शकों को भूत से चिढ़ थी। नायक-नायिका के बीच जब कुछ होने को होता तो चुड़ौल के रूप में मराठी बोलने वाला भूत आ धमकता। दूसरे किस्म के दर्शक यहां थोड़े खुश होते कि भूत टिक-टिक की आवाज निकालकर फिर खसक लेता। इंटरवल के पहले तक दोनों ही तरह के ही दर्शक तरसाए गए। मंध्यातर के बाद पहले किस्म के लोगों को अनदेखा करके सिर्फ डराने का प्रयास किया गया। इंटरवल के बाद की कहानी में एकता कपूर और निर्देशक के बीच में कुछ ठनी से दिखती है। एकता रागिनी को लव सेक्स और धोखा के पैटर्न में विकसित और खत्म करना चाहती थीं तो निर्देशक इसे हॉरर फिल्म बनाने में आमादा थे। भुतही फिल्मों में आमतौर पर भूत को अपना अतीत बताने का कुछ समय दिया जाता है। इस फिल्म में भूत के लिए यह गुंजाइश नहीं रखी गई।आश्चर्य इस बात का है कि जब दर्शकों को सिर्फ डराना ही था तो उन्हें छोटी-छोटी किस्तों में क्यों डराया गया। दोनों ही श्रेणी के दर्शक किसी भारी-भरकम क्लाइमेक्स की कल्पना कर रहे थे कि तभी अचानक फिल्म खत्म हो जाती है। एकता को यहां पर या तो सिर्फ डराना था या एमएमएस कांड को चटखारे के साथ पेश करना था। दोनों को दिखाने के चक्कर में किसी के साथ न्याय नहीं हो पाया है। फिल्म में सबसे अच्छी बात दोनों मुख्य कलाकारों का अभिनय है। राजकुमार यादव खासतौर पर प्रभावित करते हैं। वह अभिनेता जैसी शक्ल या डायलॉग डिलवरी तो नहीं रखते पर खुद को होशियार मानने वाले शहरी मध्यमवर्ग युवा का अच्छा प्रतिनिधित्व जरूर करते हैं। कैनाज मोतीवाला का अभिनय भी अच्छा रहा। कस्बों और गांव में जब यह फिल्म पहुंचेगी तो दर्शकों यह समझ नहीं आएगा कि नायक ने नायिका को बांध क्यों दिया था। सेक्स के शहरी चोचले वहां के दर्शकों के लिए एक बड़ा प्रश्न बनकर उभरेंगे।

रोहित मिश्र

Saturday, May 7, 2011

दर्शक डरते तो हैं पर हंसते ज्यादा हैं

 फिल्म समीक्षा: थ्रीडी हांटेड
                 
                 जो लडक़ी बहुत खूबसूरत नहीं होती, शादी पर लडक़े वालों को वह पसंद आ जाए इसके लिए माता-पिता लडक़ी के परिचय में कुछ यह जोड़ देते हैं कि लडक़ी खाना अच्छा बनाती है, खूम झमाझम नाचती है। कोयल जैसा गाती है या कुछ और अच्छा कर लेती है। विक्रम भट्ट ने कुछ ऐसा ही अपनी फिल्म हांटेड के साथ किया है। विक्रम को पता था कि हांटेड राज या १९२० जैसी खूबसूरत  फिल्म नहीं बन पाई है इसलिए उन्होंने उसके साथ थ्रीडी होने की विशेषता चस्पा कर दी। हांटेड के थ्रीडी प्रिंट बहुत ही सीमित संख्या में प्रदर्शित हुए हैं। अधिसंख्य स्थानों पर यह  टू डी के रूप में ही रिलीज हुई है। विक्रम ने चालाकी से फिल्म की चर्चा थ्रीडी पर ही फोकस रखी। उसका उन्हें उनका फायदा भी मिल रहा है। मतलब लडक़ी को लडक़े वालों ने फिलहाल पसंद कर लिया है। कहानी के आधार पर फिल्म घिसी-पिटी है। पिछली कुछ हॉरर फिल्मों की तरह यहां भी विदेशी विश्वविद्यालय से ऊंची पढ़ाई करके लौटा होनहार युवक है। वतन लौटते ही उसको गुमनाम क्षेत्र में बनी हवेली को संभालना है। हवेली के आसपास घूमता एक पागल है। पादरी है ।धार्मिक बाबा हैं। मंत्रो का उच्चारण है। एक लडक़ी है और एक आत्मा है। यह बताने की जरूरत नहीं है कि आत्मा बिगड़ी हुई है। इतने बातें तो दर्शक फिल्म शुरू होने के सात मिनट के अंदर जान जाते हैं। जिज्ञासा बस इतनी बचती है कि फिल्म में उसे कैसे दिखाया जाता है। फिल्म के कुछ दृश्य हॉरर फिल्मों की पारंपराओं जैसे हैं। यहां-वहां लाश के बिखरे टुकड़े, चीख-चिल्हाट। हवेली के किसी हिस्से से आवाज निकलना। किताबों का गिरना कुर्सी का सरकाना आदि.. । फिल्म के कुछ दृश्य बहुत ही घटिया हैं। फिल्म में नायक की शक्तियां  असंतुलित होने के साथ अपरिभाषित है। भूत की शक्तियों में भी असंतुलन है। कभी वह ईटों की कई दीवारों एक साथ बना-बिगाड़ देता है तो कभी दरवाजे की एक कुंडी भी नहीं खोल पाता। क्लाइमेक्स भूत के मरने को बहुत डरावने तरीके से नहीं दिखा पाता। फिल्म का अंत कुछ भ्रम पैदा करने वााला है। मिथुन चक्रवर्ती के बेटे मिमोह चक्रवर्ती इस फिल्म में नाम बदलकर महाक्षय चक्रवर्ती हो गए हैं। एक-दो दृश्यों को छोडक़र वह बिल्कुल असर नहीं छोड़ते। नवोदित टिया बाजपेई के पास एक्टिंग के नाम पर चीखने का मौका था और उन्होंने पूरा दम लगाकर चीखा भी है। फिल्म में बुरी आत्मा बने आरिफ जकारिया से बेहतर काम उनके मेकअप मैन ने किया है। कहानी के साथ ही इस फिल्म के गाने भी विक्रम की पुरानी फिल्मों से कमजोर हैं। फिल्म को एक बार उसके थ्रीडी होने के लिए देखा जा सकता है। पर यह पता करने के बाद कि वहां फिल्म टूडी में है या थ्रंीडी में।
                                                      रोहित मिश्र

Wednesday, May 4, 2011

उम्मींदे के बोझ तले दब गई फिल्म

 आईएम फिल्म के निर्देशक ओनियर ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि सिर्फ मैं और संजय सूरी ही इस फिल्म के निर्माता नहीं हैं। भारत के अलग-अलग शहरों के ४०० सिनेप्रेमियों का पैसा इस फिल्म में लगा है। दरअसल सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक के माध्यम से निर्माताओं ने लोगों से फिल्म को आर्थिक सहयोग करने की अपील की थी। एक हजार रुपए से ५० हजार रुपए तक की रकम चेक द्वारा फिल्म के निर्माताओं को मिली। अनुराग कश्यप, अनुराग बासु जैसे फिल्म निर्देशकों सहित कई कलाकारों ने इस फिल्म में बगैर मेहनताना काम किया है। फिल्म बनने के पहले ही यह एक प्रयोगिक फिल्मी कहानी थी। भारत में ऐसे प्रयोग कम ही हुए हैं। ऐसी फिल्में बनने से पहले ही हजारों प्रबुद्ध लोगों की अपेक्षाओं के बोझ तले दब जाती हैं। दर्शक उम्मींद करते हैं कि जब निर्माता दूसरे के सामने पैसे की झोली फैला रहे हैं तो उनके पास पैसों को छोडक़र सबकुछ होगा। चौंकाने वाले कहानी, सशक्कत अभिनय और एक बहुत ही सार्थक संदेश। भारत में फिल्म निर्माण के मामले में जब ऐसे प्रयोग हुए हैं तो हिंदी दर्शकों के इस मामले में लगभग अपरिपक्व ही माना गया है। ऐसी फिल्में अंग्रेजी में बनी हैं और उनकी डबिंग हिंदी सहित अन्य भाषाओं में हुई है। पहले तो ओनियर और संजय सूरी के इस प्रयास और साहस पर बधाई मिलने चाहिए कि उन्होंने हिंदी दर्र्शकों की परिपक्वता पर विश्वास किया है। हिंदी में बनाई गई धोबीघाट जैसी फिल्म न चलने के बाद भी उनकी विश्वसनीयता खतरे में नहीं आई है। हां रिस्क न लेने की सोच के चलते हर डॉयलाग यहां तक कि गानों का अंग्रेजी अनुवाद पर्दे पर आता रहा है। फिल्म के कई संवाद ठेठ बंगाली और कश्मीरी में भी हैं। लगभग ११० मिनट की इस फिल्म में चार कहानियां हैं। चारो कहानी एक-दूसरे से सीधी जुड़ी हुई तो नहीं हैं पर एक-दूसरे से कनेक्ट जरूर हैं। चार में से दो कहानियां पुरुष समलैंगिकता पर केंद्रित हैं। एक कहानी स्पर्म डोनेशन की है और एक कश्मीरी पंडितों की व्यथा की। नंदिता दास, जूही चावला, मनीषा कोईराला, संजय सूरी, राहुल बोस और अनुराग कश्यप इन चार कहानियों के प्रमुख चेहरे हैं। कश्मीरी पंडितों की व्यथा या समस्या पर शायद ही इधर कोई फिल्म आई है। कश्मीरी पंडितों की समस्या चेहरे पर आए मुहांसों और अनचाहे बालों जैसी है। जिसके चेहरे पर आएं उसके लिए बहुत बड़ी और दूसरों के लिए नगण्य। वही दर्शक इस कहानी से जुड़ते हैं जिन्हें थोड़ा बहुत कश्मीरी पंडितों के निष्कासन की कहानी मालूम है। शेष को मनीषा और जूही की ऐक्टिंग भर याद रहती है। नंदिता दास के टेस्ट ट्यूब बेबी प्रणाली से बच्चा पैदा करने की कहानी सबसे आकर्षक कही जा सकती है। इस कहानी को थोड़ा और विस्तार मिलना चाहिए था। फिल्म में सबसे जटिल कहानी संजय सूरी और अनुराग कश्यप की है। यह कहानी दर्शकों का अतिरिक्त ध्यान चाहती है। सीधे कहें तो समझ का इम्तहान। इस कहानी के आने पर मेरे साथ फिल्म देख रहे चार और दर्शको में से दो आपस में बात करने लगते हैं और दो कुछ खाने-पीने के जुगाड़ में ऑडी से बाहर निकल जाते हैं। बात को स्पष्ट रूप से न कहकर रूपक के माध्यम से दर्शाना इस कहानी की विशेषता है। संजय सूरी ने बेहद अच्छी और सधी हुई भूमिका निभाई है। कहानी में संजय सूरी और अनुराग कश्यप स्टेप फादर और बेटे की भूमिका में हैं। उन दोनों के बीच के अजीब प्रेम को दर्शक बहुत बाद में समझ पाते हैं। फिल्म की अंतिम कहानी भी कुछ-कुछ इसी कहानी जैसी है। वास्वविक दिखाने के स्वार्थ में इस कहानी के संवाद कुछ भद्दे और अश्लील हो गए हैं। रोमांच के लिहाज से यह कहानी सबसे सशक्कत है। यही से फिल्म खत्म होती है। पूरे भारत में फिल्म को दो तरह के दर्शकों ने देखा। पहले वह जो फिल्म के बारे में पहले से जानते थे और दूसरे वह जो इसे अन्य फिल्मों जैसी फिल्म मानकर गए थे। पहली श्रेणी के दर्शकों को यह समझ में नहीं आ रहा था कि इतना रिस्क लेने के बाद बनाई गई इस फिल्म को क्या यही कहानियां और विषय मिले थे। ऐसे बहुत से विषय हैं जिन पर फिल्में नहीं बनाई गई हैं पर उन पर फिल्में बनाई जा सकती हैं। ऐसे विषयों को क्यों नहीं चुना गया। कहानी चुनने के मामले में ईमानदारी अपनाई गई है समझदारी नहीं। पुरुष समलैंगिकता अब कोई नया विषय नहीं रहा। बस उसे दर्शाने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं। दूसरे श्रेणी के दर्शक यह समझ नहीं पा रहे थे कि इन चारों कहानियां का मतलब क्या हुआ। ऑडी से निकलते हुए चलो दिल्ली, शोर इन सिटी के पोस्टर देखते हुए उनके चेहरे बता रहे थे कि फिल्म चयन में उनसे गलती हो गई है।
                                                                                                                          रोहित मिश्र
                          
    

Saturday, April 30, 2011

· नायक-नायिका की बपौती नहीं रहीं फिल्में।

सिनेमा अब सिर्फ नायक-नायिका की बपौती नहीं रहा। जल्द ही लोग फिल्म देखने से पहले यह पूछना-देखना छोड़ देंगे कि फिल्म में हीरो-हीरोइन कौन है। अब बन रहीं फिल्में एक बड़े नाम के आसपास घूमने के बजाय पटकथा के इर्द-गिर्द घूमती हैं। उस पटकथा को जो जस्टीफाई करे वही फिल्म का हीरो। जिन लोगों ने निर्देशक द्वय राजनिधि मोरू और कृष्णा डीके की फिल्म शोर इन द सिटी देखी होगी वह जल्दी इस बात से सहमत होंगे।  टीम में स्थान बनाने की कवायद करने वाले एक्टर सुदीप किशन का चेहरा-मोहरा फिल्म यूनिट के स्पॉट ब्वाय जैसा है। चूंकि पटकथा सुदीप के चरित्र को ध्यान में रखकर लिखी गई इसलिए औसत चेहरे वाला कलाकार भी हीरो जैसा लगता है। जरा गौर कीजिए कि आज से पांच साल पहले सुदीप किशन जैसे कलाकारों के लिए फिल्म में कोई जगह थी। थी भी तो क्या इतनी थी। फिल्म में डमरू की भूमिका करने वाले पिताबश त्रिपाठी को फिल्म के हीरो माने तुषार कपूर जितने फुटेज मिले हैं। एक फिल्म में  हीरो का किरदान निभा चुके निखिल द्विवेदी को पिताबश से कम मौके मिले हैं। पिताबश भले ही दीपक डोबिरियाल जितनी अभिनय या संवाद क्षमता न रखते हों लेकिन निर्देशक ने उन पर वैसा ही एतबार किया है जैसा तनु वेड्स मनु में दीपक के उपर किया गया है। फिल्म देखने के बाद यदि आप याद रखने लायक कुछ खोजेंगे तो निश्चित ही आपको  डमरू का हंसाने वाला उतावलापन और किकेटर की पेमिका बनी एक गुमनाम कलाकार गिरिजा ओवक का यथार्थवादी अभिनय सबसे पहले याद आएगा। फिल्म ९९ में पहली बार दिखे अमित मिस्त्री शोर में उसी तरह की भूमिका को भले ही रिपीट करते दिखे हों पर पर जब-जब वह पर्दे पर आए हैं एक ताजगी से आई है। सबसे बड़े चेहरे होने के बावजूद तुषार फिल्म के हीरो नहीं बन पाए हैं। एकता कपूर के बैनर की इस फिल्म में यदि तुषार को एक हीरों के रूप में पेश नहीं किया जाता है तो यह मानिए अब बॉलीवुड में सतयुग आ गया है। भूमिकाएं नायक-नायिका को देखकर नहीं बल्कि स्थितियों को देखकर मिलेंगी। इसी हफ्ते रिलीज हुई दूसरी फिल्म चलो दिल्ली इन्हीं तथाकथित छोटे कलाकारों को समर्पित फिल्म है जिन्हें अभी तक बॉलीवुड चरित्र नायक कहकर इनका महत्व कम करता रहा है।

Sunday, April 17, 2011

फिजूल की बातें हुई शुरू।


दोस्तों तरतीब-रोहित में फिजूल की बातों का सिलसिला आज से शुरू होता है।