Saturday, April 30, 2011

· नायक-नायिका की बपौती नहीं रहीं फिल्में।

सिनेमा अब सिर्फ नायक-नायिका की बपौती नहीं रहा। जल्द ही लोग फिल्म देखने से पहले यह पूछना-देखना छोड़ देंगे कि फिल्म में हीरो-हीरोइन कौन है। अब बन रहीं फिल्में एक बड़े नाम के आसपास घूमने के बजाय पटकथा के इर्द-गिर्द घूमती हैं। उस पटकथा को जो जस्टीफाई करे वही फिल्म का हीरो। जिन लोगों ने निर्देशक द्वय राजनिधि मोरू और कृष्णा डीके की फिल्म शोर इन द सिटी देखी होगी वह जल्दी इस बात से सहमत होंगे।  टीम में स्थान बनाने की कवायद करने वाले एक्टर सुदीप किशन का चेहरा-मोहरा फिल्म यूनिट के स्पॉट ब्वाय जैसा है। चूंकि पटकथा सुदीप के चरित्र को ध्यान में रखकर लिखी गई इसलिए औसत चेहरे वाला कलाकार भी हीरो जैसा लगता है। जरा गौर कीजिए कि आज से पांच साल पहले सुदीप किशन जैसे कलाकारों के लिए फिल्म में कोई जगह थी। थी भी तो क्या इतनी थी। फिल्म में डमरू की भूमिका करने वाले पिताबश त्रिपाठी को फिल्म के हीरो माने तुषार कपूर जितने फुटेज मिले हैं। एक फिल्म में  हीरो का किरदान निभा चुके निखिल द्विवेदी को पिताबश से कम मौके मिले हैं। पिताबश भले ही दीपक डोबिरियाल जितनी अभिनय या संवाद क्षमता न रखते हों लेकिन निर्देशक ने उन पर वैसा ही एतबार किया है जैसा तनु वेड्स मनु में दीपक के उपर किया गया है। फिल्म देखने के बाद यदि आप याद रखने लायक कुछ खोजेंगे तो निश्चित ही आपको  डमरू का हंसाने वाला उतावलापन और किकेटर की पेमिका बनी एक गुमनाम कलाकार गिरिजा ओवक का यथार्थवादी अभिनय सबसे पहले याद आएगा। फिल्म ९९ में पहली बार दिखे अमित मिस्त्री शोर में उसी तरह की भूमिका को भले ही रिपीट करते दिखे हों पर पर जब-जब वह पर्दे पर आए हैं एक ताजगी से आई है। सबसे बड़े चेहरे होने के बावजूद तुषार फिल्म के हीरो नहीं बन पाए हैं। एकता कपूर के बैनर की इस फिल्म में यदि तुषार को एक हीरों के रूप में पेश नहीं किया जाता है तो यह मानिए अब बॉलीवुड में सतयुग आ गया है। भूमिकाएं नायक-नायिका को देखकर नहीं बल्कि स्थितियों को देखकर मिलेंगी। इसी हफ्ते रिलीज हुई दूसरी फिल्म चलो दिल्ली इन्हीं तथाकथित छोटे कलाकारों को समर्पित फिल्म है जिन्हें अभी तक बॉलीवुड चरित्र नायक कहकर इनका महत्व कम करता रहा है।

Sunday, April 17, 2011

फिजूल की बातें हुई शुरू।


दोस्तों तरतीब-रोहित में फिजूल की बातों का सिलसिला आज से शुरू होता है।