Sunday, May 22, 2011

इसे २०११ की बेवफाई कह सकते हैं

फिल्म समीक्षा: प्यार का पंचनामा



यह शायद पहली हिंदी फिल्म है जिसमे ब्रेकअप सुखांत अंत लेकर आता है और दर्शक ब्रेकअप होने पर ताली पीटते हैं। हिंदी फिल्मों में अमूमन नायक-नायिका के बीच प्रेम की गाड़ी गलतफहमी या किसी अन्य वजहों से पटरी से उतरती है लेकिन फिल्म खत्म होते-होते दोनों में से कोई एक आत्मसमर्पण कर देता है, गलती मान लेता है या उसकी आंखे खुल जाती है या उसे किसी में रब दिख जाता है। मतलब जब फिल्म खत्म होगी तो नायक-नायिका साथ में ही रहेंगे। यह हिंदी फिल्मों की परंपरा है। प्यार का पंचनामा इस बनी-बनाई लकीर को नई सिरे से परिभाषित करने का काम करती है। हिंदी फिल्मों मेेंं लडक़ी के बेवफा होने की व्याख्या खूब हुई है। पर लड़कियों का संबंधों के प्रति नान सीरियस होने, उनके अवसरवादी या स्वार्थी होने पर किसी निश्कर्ष के साथ चर्चाएं पहली बार हुई हैं। प्रेम को लेकर लापरवाह या स्वार्थी होना बेवफाई जैसा ही घातक है यह दर्शकों ने पहली बार पहसूस किया। शायद लड़कियों को भी यह एहसास पहली हुआ है कि वह उनका अनकांसेस माइंड रिलेशनशिप को लेकर जो करता है वो गलत है। इस फिल्म में पहली बार जैसी स्थितियां दूसरी भी हैं। मसलन लव रंजन ने किसी फिल्म का निर्देशन पहली बार किया है। देवेंद्र शर्मा, इशिता शर्मा, कार्तिक तिवारी, नुसरत भरुचा, राव भर्तिया और सोनाली सहगल भी पहली बार बड़े पर्दे पर दिखीं हैं। फिल्म में नयापन दिखे इसलिए एक भी पात्र ऐसा नहीं है जिसे हम दूसरी किसी फिल्म में देख चुके हों। फिल्म की कहानी सुनने में उतनी प्रभावित नहीं करती जितनी कि हम देखते हुए महसूस करते हैं। यह साफ कर दें कि कहानी इस प्रकार की नहीं है कि लडक़ा लडक़ी से प्यार करता है और लडक़ी किसी और से प्यार करती है। हिंदी फिल्म के दर्शक बदल रहे हैं । उन्हें अब हीरो के रूप में दैवीय शक्तियों से लैस व्यक्ति नहीं चाहिए। अब नायक ऐसा चाहिए जो कभी जीते तो कभी स्थितियों के सामने धराशयी हो जाए। फिल्म में जब-जब नायक धराशायी होते दिखे दर्शकों ने उन्हें अपने अधिक करीब महसूस किया है। फिल्म का सबसे बेहतर पक्ष संवाद हैं। यह संवाद आज के दौर के हैं। चूंकि फिल्म की प्रष्ठभूमि दिल्ली है इसलिए यह संवाद उतने द्विअर्थी नहीं लगते जितने कि वहां या अन्य बड़े शहरों में रोजमर्रा की जिंदगी में युवाओं द्वारा बोले जाते हैं। अभिनय इस फिल्म का दूसरे सबसे अच्छा पक्ष है। सभी ६ कलाकारों ने अपनी-अपनी भूमिका को जिंदादिली के साथ जिया है। लिक्विड, चौधरी और रज्जों जैसे पात्रों को यह कलाकार बिल्कुल उतर कर जीते हैं। कुछ ओवरएक्टिंग के दृश्यों के उपेक्षा कर दे तो। अगर फिल्म की एकमात्र चूक की चर्चा की जाए तो वह फिल्म का कुशल संपादन न होना है। फिल्म को आसानी से १५ मिनट कम किया जा सकता था। एक-आध गाने हटाए जा सकते थे। फिल्म को एक बार देखा जा सकता है। कपल तो खासतौर पर देखें। पहले अलग-अलग फिर इकट्ठा।

Friday, May 20, 2011

दर्शक दया करने आए ताली बजाने के लिए नहीं

फिल्म समीक्षा: स्टेनली का डिब्बा


स्टेनली का डिब्बा देखने गए अधिसंख्य दर्शक पूरी फिल्म में इस बात का इंतजार करते रहे कि कब भयंकर इमोशनल दृश्य आएं और वह रोना शुरू कर दें। मम्मियां तो खासतौर पर अपने को इसके लिए तैयार करके आईं थी। अगर रुलाना फिल्म की सफलता थी तो यह फिल्म असफल कही जाएगी। अंत के आठ या दस मिनट में कुछ भावुक दृश्यों की आस बंधी थी पर वह दृश्य इमोशनल न बनाकर फिल्मी बना दिए गए। स्टेनली को एक ऐसे हीरो के रूप में पेश कर दिया गया जो सारी समस्याएं बगैर किसी से शेयर किए हुए झेलता रहता है। दर्शकों को यहीं खटका लगता है। वह स्टेनली की विवशता और स्थितियोंं पर आंसू बहाने के लिए आए थे। जब किसी के लिए करुणा उपज आए तो ठीक उसी वक्त उसके लिए प्रशंसा नहीं निकलती। निर्देशक इस मनोविज्ञान को समझ नहीं पाए। फिल्म के निर्देशक, लेखक और निर्माता अमोल गुप्ते हैं। फिल्म में बड़ा सा रोल भी उन्होंने हथिया रखा था। अमोल २००७ में आई फिल्म तारे जमीं के क्रिएटिव निर्देशक थे। तारे जमीं की सफलता के बाद उन्होंने घोषणा की थी कि वह बच्चों पर एक और फिल्म बनाएंगे। स्टेनली का डिब्बा का निर्माण २००८ से शुरू हुआ। फिल्म की शूटिंग दो सालों में हर शनिवार के कुछ घंटों में हुई है। तारे जमीं के उलट फिल्म बिल्कुल पिटे-पिटाये बाल मजदूरी विषय पर केंद्रित है। जैसे दहेज, भष्ट्राचार, घूसखोरी विषय गंभीर होते हुए भी अब हमे चिंतित नहीं करते कुछ वैसा ही रवैय्या हमारा बाल मजदूरी पर भी है। मतलब समस्या गंभीर है पर हम उसके बारे में दो सेकेंड भी सोचना नहीं चाहते। स्टेनली का डिब्बा फिल्म बीच से ही विखर गई। खत्म होने के १५ मिनट पहले तक यह एक हिंदी केे एक भुखड़ टीचर की कहानी लगती है और अंत में दर्शक निराश होकर लौटते हैं।

Friday, May 13, 2011

डराते तो, फिर ठीक से डराते

फिल्म समीक्षा: रागिनी एमएमएस


एकता कपूर के निर्माण में बनी फिल्म रागिनी एमएमएस १३ मई को नहीं बल्कि १५ अप्रैल को रिलीज होने वाली थी। प्रदर्शन के लिए फिल्म के फाइनल प्रिंट आऊट निकलवाए जा रहे थे कि अचानक प्रिंटर खराब हो गया। एकता ने भगवान बजंरग बली से मनौती मांगी कि यदि प्रिंट खराब नहीं हुए तो वह हनुमान चालीसा का उपयोग फिल्म में कहीं न कहीं करेंगी। फिल्म में और कहीं हनुमान चालिसा पाठ की गुजांइश बनती नहीं थी कि इसलिए फिल्म की शुरुआत की उन्होंने हनुमान चालिसा के पाठ से की। रागिनी एमएमएस के ठीक एक सप्ताह पहले घोषित भुतही फिल्म हांटेड प्रदर्शित हुई थी। मल्टीप्लेक्सों में फिल्म इस शुक्रवार भी उपलब्ध थी। एकता ने जानबूझ कर रागिनी को भुतही फिल्म कहने के बजाय इसे एमएमएस की एक सच्ची घटना पर आधारित बताया। फिल्मी गलियारों में भी इस बात की चर्चा होती रही कि रागिनी एमएमएस भी लव सेक्स और धोखा की तरह प्रयोगधर्मी फिल्म है। इंटरवल के थोड़ा पहले तक रागिनी एक बी ग्रेड फिल्म लगती है। अपनी अश्लील दृश्यों और संवादो को जोड़ दें तो सी ग्रेड जैसी। एकता कपूर और फिल्म निर्देशक पवन कृपलानी की निगाह दो तरह के दर्शकों पर थी। पहले वह जो फिल्म के पोस्टरों से उत्साहित होकर कुछ देख लेने के जुगत में आए थे। दूसरे वह जिन्हें भूतों की अलौकिक क्षमताओं से बहुत उम्मींदे होती हैं। पहली श्रेणी के दर्शकों को भूत से चिढ़ थी। नायक-नायिका के बीच जब कुछ होने को होता तो चुड़ौल के रूप में मराठी बोलने वाला भूत आ धमकता। दूसरे किस्म के दर्शक यहां थोड़े खुश होते कि भूत टिक-टिक की आवाज निकालकर फिर खसक लेता। इंटरवल के पहले तक दोनों ही तरह के ही दर्शक तरसाए गए। मंध्यातर के बाद पहले किस्म के लोगों को अनदेखा करके सिर्फ डराने का प्रयास किया गया। इंटरवल के बाद की कहानी में एकता कपूर और निर्देशक के बीच में कुछ ठनी से दिखती है। एकता रागिनी को लव सेक्स और धोखा के पैटर्न में विकसित और खत्म करना चाहती थीं तो निर्देशक इसे हॉरर फिल्म बनाने में आमादा थे। भुतही फिल्मों में आमतौर पर भूत को अपना अतीत बताने का कुछ समय दिया जाता है। इस फिल्म में भूत के लिए यह गुंजाइश नहीं रखी गई।आश्चर्य इस बात का है कि जब दर्शकों को सिर्फ डराना ही था तो उन्हें छोटी-छोटी किस्तों में क्यों डराया गया। दोनों ही श्रेणी के दर्शक किसी भारी-भरकम क्लाइमेक्स की कल्पना कर रहे थे कि तभी अचानक फिल्म खत्म हो जाती है। एकता को यहां पर या तो सिर्फ डराना था या एमएमएस कांड को चटखारे के साथ पेश करना था। दोनों को दिखाने के चक्कर में किसी के साथ न्याय नहीं हो पाया है। फिल्म में सबसे अच्छी बात दोनों मुख्य कलाकारों का अभिनय है। राजकुमार यादव खासतौर पर प्रभावित करते हैं। वह अभिनेता जैसी शक्ल या डायलॉग डिलवरी तो नहीं रखते पर खुद को होशियार मानने वाले शहरी मध्यमवर्ग युवा का अच्छा प्रतिनिधित्व जरूर करते हैं। कैनाज मोतीवाला का अभिनय भी अच्छा रहा। कस्बों और गांव में जब यह फिल्म पहुंचेगी तो दर्शकों यह समझ नहीं आएगा कि नायक ने नायिका को बांध क्यों दिया था। सेक्स के शहरी चोचले वहां के दर्शकों के लिए एक बड़ा प्रश्न बनकर उभरेंगे।

रोहित मिश्र

Saturday, May 7, 2011

दर्शक डरते तो हैं पर हंसते ज्यादा हैं

 फिल्म समीक्षा: थ्रीडी हांटेड
                 
                 जो लडक़ी बहुत खूबसूरत नहीं होती, शादी पर लडक़े वालों को वह पसंद आ जाए इसके लिए माता-पिता लडक़ी के परिचय में कुछ यह जोड़ देते हैं कि लडक़ी खाना अच्छा बनाती है, खूम झमाझम नाचती है। कोयल जैसा गाती है या कुछ और अच्छा कर लेती है। विक्रम भट्ट ने कुछ ऐसा ही अपनी फिल्म हांटेड के साथ किया है। विक्रम को पता था कि हांटेड राज या १९२० जैसी खूबसूरत  फिल्म नहीं बन पाई है इसलिए उन्होंने उसके साथ थ्रीडी होने की विशेषता चस्पा कर दी। हांटेड के थ्रीडी प्रिंट बहुत ही सीमित संख्या में प्रदर्शित हुए हैं। अधिसंख्य स्थानों पर यह  टू डी के रूप में ही रिलीज हुई है। विक्रम ने चालाकी से फिल्म की चर्चा थ्रीडी पर ही फोकस रखी। उसका उन्हें उनका फायदा भी मिल रहा है। मतलब लडक़ी को लडक़े वालों ने फिलहाल पसंद कर लिया है। कहानी के आधार पर फिल्म घिसी-पिटी है। पिछली कुछ हॉरर फिल्मों की तरह यहां भी विदेशी विश्वविद्यालय से ऊंची पढ़ाई करके लौटा होनहार युवक है। वतन लौटते ही उसको गुमनाम क्षेत्र में बनी हवेली को संभालना है। हवेली के आसपास घूमता एक पागल है। पादरी है ।धार्मिक बाबा हैं। मंत्रो का उच्चारण है। एक लडक़ी है और एक आत्मा है। यह बताने की जरूरत नहीं है कि आत्मा बिगड़ी हुई है। इतने बातें तो दर्शक फिल्म शुरू होने के सात मिनट के अंदर जान जाते हैं। जिज्ञासा बस इतनी बचती है कि फिल्म में उसे कैसे दिखाया जाता है। फिल्म के कुछ दृश्य हॉरर फिल्मों की पारंपराओं जैसे हैं। यहां-वहां लाश के बिखरे टुकड़े, चीख-चिल्हाट। हवेली के किसी हिस्से से आवाज निकलना। किताबों का गिरना कुर्सी का सरकाना आदि.. । फिल्म के कुछ दृश्य बहुत ही घटिया हैं। फिल्म में नायक की शक्तियां  असंतुलित होने के साथ अपरिभाषित है। भूत की शक्तियों में भी असंतुलन है। कभी वह ईटों की कई दीवारों एक साथ बना-बिगाड़ देता है तो कभी दरवाजे की एक कुंडी भी नहीं खोल पाता। क्लाइमेक्स भूत के मरने को बहुत डरावने तरीके से नहीं दिखा पाता। फिल्म का अंत कुछ भ्रम पैदा करने वााला है। मिथुन चक्रवर्ती के बेटे मिमोह चक्रवर्ती इस फिल्म में नाम बदलकर महाक्षय चक्रवर्ती हो गए हैं। एक-दो दृश्यों को छोडक़र वह बिल्कुल असर नहीं छोड़ते। नवोदित टिया बाजपेई के पास एक्टिंग के नाम पर चीखने का मौका था और उन्होंने पूरा दम लगाकर चीखा भी है। फिल्म में बुरी आत्मा बने आरिफ जकारिया से बेहतर काम उनके मेकअप मैन ने किया है। कहानी के साथ ही इस फिल्म के गाने भी विक्रम की पुरानी फिल्मों से कमजोर हैं। फिल्म को एक बार उसके थ्रीडी होने के लिए देखा जा सकता है। पर यह पता करने के बाद कि वहां फिल्म टूडी में है या थ्रंीडी में।
                                                      रोहित मिश्र

Wednesday, May 4, 2011

उम्मींदे के बोझ तले दब गई फिल्म

 आईएम फिल्म के निर्देशक ओनियर ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि सिर्फ मैं और संजय सूरी ही इस फिल्म के निर्माता नहीं हैं। भारत के अलग-अलग शहरों के ४०० सिनेप्रेमियों का पैसा इस फिल्म में लगा है। दरअसल सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक के माध्यम से निर्माताओं ने लोगों से फिल्म को आर्थिक सहयोग करने की अपील की थी। एक हजार रुपए से ५० हजार रुपए तक की रकम चेक द्वारा फिल्म के निर्माताओं को मिली। अनुराग कश्यप, अनुराग बासु जैसे फिल्म निर्देशकों सहित कई कलाकारों ने इस फिल्म में बगैर मेहनताना काम किया है। फिल्म बनने के पहले ही यह एक प्रयोगिक फिल्मी कहानी थी। भारत में ऐसे प्रयोग कम ही हुए हैं। ऐसी फिल्में बनने से पहले ही हजारों प्रबुद्ध लोगों की अपेक्षाओं के बोझ तले दब जाती हैं। दर्शक उम्मींद करते हैं कि जब निर्माता दूसरे के सामने पैसे की झोली फैला रहे हैं तो उनके पास पैसों को छोडक़र सबकुछ होगा। चौंकाने वाले कहानी, सशक्कत अभिनय और एक बहुत ही सार्थक संदेश। भारत में फिल्म निर्माण के मामले में जब ऐसे प्रयोग हुए हैं तो हिंदी दर्शकों के इस मामले में लगभग अपरिपक्व ही माना गया है। ऐसी फिल्में अंग्रेजी में बनी हैं और उनकी डबिंग हिंदी सहित अन्य भाषाओं में हुई है। पहले तो ओनियर और संजय सूरी के इस प्रयास और साहस पर बधाई मिलने चाहिए कि उन्होंने हिंदी दर्र्शकों की परिपक्वता पर विश्वास किया है। हिंदी में बनाई गई धोबीघाट जैसी फिल्म न चलने के बाद भी उनकी विश्वसनीयता खतरे में नहीं आई है। हां रिस्क न लेने की सोच के चलते हर डॉयलाग यहां तक कि गानों का अंग्रेजी अनुवाद पर्दे पर आता रहा है। फिल्म के कई संवाद ठेठ बंगाली और कश्मीरी में भी हैं। लगभग ११० मिनट की इस फिल्म में चार कहानियां हैं। चारो कहानी एक-दूसरे से सीधी जुड़ी हुई तो नहीं हैं पर एक-दूसरे से कनेक्ट जरूर हैं। चार में से दो कहानियां पुरुष समलैंगिकता पर केंद्रित हैं। एक कहानी स्पर्म डोनेशन की है और एक कश्मीरी पंडितों की व्यथा की। नंदिता दास, जूही चावला, मनीषा कोईराला, संजय सूरी, राहुल बोस और अनुराग कश्यप इन चार कहानियों के प्रमुख चेहरे हैं। कश्मीरी पंडितों की व्यथा या समस्या पर शायद ही इधर कोई फिल्म आई है। कश्मीरी पंडितों की समस्या चेहरे पर आए मुहांसों और अनचाहे बालों जैसी है। जिसके चेहरे पर आएं उसके लिए बहुत बड़ी और दूसरों के लिए नगण्य। वही दर्शक इस कहानी से जुड़ते हैं जिन्हें थोड़ा बहुत कश्मीरी पंडितों के निष्कासन की कहानी मालूम है। शेष को मनीषा और जूही की ऐक्टिंग भर याद रहती है। नंदिता दास के टेस्ट ट्यूब बेबी प्रणाली से बच्चा पैदा करने की कहानी सबसे आकर्षक कही जा सकती है। इस कहानी को थोड़ा और विस्तार मिलना चाहिए था। फिल्म में सबसे जटिल कहानी संजय सूरी और अनुराग कश्यप की है। यह कहानी दर्शकों का अतिरिक्त ध्यान चाहती है। सीधे कहें तो समझ का इम्तहान। इस कहानी के आने पर मेरे साथ फिल्म देख रहे चार और दर्शको में से दो आपस में बात करने लगते हैं और दो कुछ खाने-पीने के जुगाड़ में ऑडी से बाहर निकल जाते हैं। बात को स्पष्ट रूप से न कहकर रूपक के माध्यम से दर्शाना इस कहानी की विशेषता है। संजय सूरी ने बेहद अच्छी और सधी हुई भूमिका निभाई है। कहानी में संजय सूरी और अनुराग कश्यप स्टेप फादर और बेटे की भूमिका में हैं। उन दोनों के बीच के अजीब प्रेम को दर्शक बहुत बाद में समझ पाते हैं। फिल्म की अंतिम कहानी भी कुछ-कुछ इसी कहानी जैसी है। वास्वविक दिखाने के स्वार्थ में इस कहानी के संवाद कुछ भद्दे और अश्लील हो गए हैं। रोमांच के लिहाज से यह कहानी सबसे सशक्कत है। यही से फिल्म खत्म होती है। पूरे भारत में फिल्म को दो तरह के दर्शकों ने देखा। पहले वह जो फिल्म के बारे में पहले से जानते थे और दूसरे वह जो इसे अन्य फिल्मों जैसी फिल्म मानकर गए थे। पहली श्रेणी के दर्शकों को यह समझ में नहीं आ रहा था कि इतना रिस्क लेने के बाद बनाई गई इस फिल्म को क्या यही कहानियां और विषय मिले थे। ऐसे बहुत से विषय हैं जिन पर फिल्में नहीं बनाई गई हैं पर उन पर फिल्में बनाई जा सकती हैं। ऐसे विषयों को क्यों नहीं चुना गया। कहानी चुनने के मामले में ईमानदारी अपनाई गई है समझदारी नहीं। पुरुष समलैंगिकता अब कोई नया विषय नहीं रहा। बस उसे दर्शाने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं। दूसरे श्रेणी के दर्शक यह समझ नहीं पा रहे थे कि इन चारों कहानियां का मतलब क्या हुआ। ऑडी से निकलते हुए चलो दिल्ली, शोर इन सिटी के पोस्टर देखते हुए उनके चेहरे बता रहे थे कि फिल्म चयन में उनसे गलती हो गई है।
                                                                                                                          रोहित मिश्र