Tuesday, July 26, 2011

फिल्म को बुरी बताने पर पाप लग जाएगा।

फिल्म समीक्षा सिंघम:



सिंघम को बुरी फिल्म बताने से पाप लग सकता है। जिस फिल्म को हर शहर में इतनी आस्था और भक्तिभाव के साथ देखा जा रहा हो वह खराब कैसे हो सकती है। सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों में हाउसफुल के जिन तख्तियों पर दबंग के बाद धूल जम गई थी सिंघम ने उस धूल को झाड़ा है। सिनेमाघरों में कतार बनाकर टिकट लिए गए है। इन लंबी कतारों से बीच-बीच में नारे लगाने जैसे शोर उठे हैं। धक्का-मुक्की हुई है, जेबी कटी हैं एक-दूसरे को उसकी औकात बताई गई है। यह फिल्म शुरू होने के पहले के जश्न है। फिल्म छूटने के बाद सडक़ों पर जाम जैसे नजारे बने हैं। दर्शकों ने सिंघम के संवादों का प्रयोग एक-दूसरे पर किया है। हलचल और उत्सव की तरह आई इस फिल्म को खराब कैसे बताया जा सकता है। सिंघम एक फिल्म नहीं बल्कि एकनजरिया है। नजरिया दर्शक को समझने और आंकने का। जहां धोबीघाट, लक बाइ चांस, ये साली जिंदगी, आईएम, शैतान और जिंदगी न मिलेगी दोबारा जैसी फिल्मे दर्शकों को समझदार मान रही हैं तो वहीं दबंग, वांटेड, रेडी डबल धमाल और अब सिंघम जैसी फिल्में दर्शकों को भावुक और बेवकूफ। इन फिल्मों को बनाने के पीछे सिर्फ एक नजरिया है कि दर्शक पर्दे पर हीरो को हीरो जैसा ही देखना चाहता है। एक थप्पड़ मारने पर आदमी ६ फुट ऊपर जाकर फिर मारने वाले के पैरों पर गिरे ऐसा सिर्फ हीरो ही कर सकता है। सिंघम इस नायक को पर्दे पर स्थापित करती है। दर्शक सिंघम के किरदार से पूरी तरह से जुड़ता है। उसके आक्रोश, विवशता और पराक्रम से भी । सिंघम २०१० में इसी नाम से आई आई साउथ की फिल्म का रीमेक है। इंटरवल के पहले तक सिंघम साउथ की ही फिल्म लगती है। इंसपेक्टर के बेवकूफ शार्गिद के सड़े हुए चुटकले, नंदू जैसा मोटा किरदार, उसकी ओवर ऐक्टिंग, सोने की मोटी चेन पहने काले रंग के गुंडों की पिटाई, नायक द्वारा पिटाई का दृश्य देखने के बाद नायिका का आत्मसमर्पण जैसे दृश्य ऑडी में बैठे आधे दर्शकों को इरीटेट कर रहे होते हैं। निर्देशक यह मान रहा है कि फोन पर शीला की जवानी की मिमिक्री करने वाला नंदू और भूत बनकर सब को डरा रही नायिका दर्शकों को हंसा रही है। पर यह बात भी इतनी ही सत्य कि यह दृश्य आधों का मनोरंजन कर रहे होते हैं। सीटियां और टिप्पणियां तो अब मल्टीप्लेक्सों में सुनाई देने लगी है। इंटरवल के पहले तक सिंघम दबंग से भी घटिया है। इंटरवल के बाद यह कुछ देखने लायक बनती है। शूल, गंगाजल, इंडियन के अलावा पुलिसिया बैकग्राउंड पर बनी कुछ फिल्मों की झलक और संवाद यहां देखने को मिले हैं। सार वही कि पुलिस अगर चाहे तो क्या नहीं कर सकती । डायलॉग की जो कमी दर्शक पहले ऑफ में महसूस कर होते हैं सेंकेंड हॉफ उसकी भरपाई करता है। कुछ मनोरंजन के साथ आपकी चेतना को भी जगाते हैं। फिल्म का क्लाइमेक्स प्रैक्टिकल और मीनिंगफुल है। अजय देवगन और प्रकाश राज ने बेहतरीन अभिनय किया है। प्रकाश राज जैसा हंसाने वाला खलनायक ९० के दशक में परेश रावल की याद दिलाता है। काजल अग्रवाल से जो काम कहा गया उन्होंने किया। गोवा जैसे शहर में पूरी बाह का सलवार- शूट पहनकर वह अच्छी लगी है। उन्होंने सत्तर के दशक की नायिकाओं की तरह समय-समय नायक का मार्गदर्शन किया है। प्यार तो वह उससे टूटकर करती ही हैं। फिल्में अब नेताओं को भी ओबलाइन करने लगी हैं।ठाकरे परिवार खुश हो जाए इसलिए फिल्म में बहुत संवाद मराठी में रखे गए हैं इस बात की परवाह किए बिना कि दर्शक माझी सटकले का क्या अर्थ लगाएगा।

Thursday, July 21, 2011

समझदारों द्वारा समझदारों के लिए बनाई गई फिल्म

फिल्म समीक्षा: जिंदगी न मिलेगी दोबारा




फरहान अख्तर को दोस्त मनोविज्ञान का फिल्मकार कहा जा सकता है। दिल चाहता है और रॉक ऑन के बाद जिंदगी मिलेगी न दोबारा उनकी ऐसी तीसरी फिल्म है जिसमे वह दोस्तों के बीच की किस्सागोई को एक संदेशात्मक अंदाज में पेश करते हैं। कहानी को कहने में कहींं कोई बनावटीपन या उपदेशात्मक प्रपंच नहीं हैं। फरहान इस फिल्म में निर्माता, अभिनेता और एक गायक की हैसियत से जुड़े हुए हैं। फिल्म की निर्देशक फरहान की जुड़वा बहन जोया अख्तर हैं। जोया इसके पहले लक बाय चांस जैसी खूबसूरत फिल्म का निर्देशन कर चुकी हैं। तीन इंटलैक्चुवल दोस्तों की कहानी कहने वाली फिल्म जिंदगी न मिलेगी दोबारा एक अच्छे उपन्यास को पढऩे जैसा संतोष देती है। तीन मुख्य पात्रों की यह दोस्ती शोले के जय-वीरू अंदाज वाली दोस्ती नहीं हैं। वह दोस्त इसलिए हैं क्यों कि वह एक-दूसरे की फ्रीक्वेंसी को समझते हैं। कहां पर और कितना दूसरे की जिंदगी में इनवाल्व हुआ जाए उन्हें यह मालूम है। यहां एक-दूजे कि खिल्ली भी उड़ायी जाती है और मोहब्बत भी की जाती है। पूरी फिल्म साफ्ट कॉमेडी के ताने-बाने पर बुनी है। फिल्म में हास्य के जो पल हैं वह बहुत ही सहज तरीके से आते-जाते रहते हैं। हंसाने के लिए किसी सीन को क्रिएट नहीं किया गया है। स्वाभाविक संवादों से हंसी निकलती है। दोस्ती के साथ-साथ फिल्म दार्शनिक अंदाज में जीने के तरीके को भी परिभाषित करती है। फिल्म दिखाती है कि इंटलैक्चुवल व्यक्ति जरूरी नहीं कि अपनी हर समस्या या कमजोरी को पहचान कर उसे खत्म करने की क्षमता रखता है। दूसरे की दृष्टि से भी जिंदगी को समझा जा सकता है। जिंदगी मिलेगी न दोबारा समझदारों की फिल्म है। दबंग, रेडी और सिंघम जैसी फिल्मों के माहौल के बीच ऐसी फिल्म बनाना साहसिक काम है। अच्छी बात यह है कि फिल्म इंडस्ट्री में ऐसी साहसिक लोग बढ़ रहे हैं। प्यार का पंचनामा के बाद जिंदगी मिलेगी न दोबारा ऐसी दूसरी फिल्म है जिसमे लडक़ी के किरदार को चिपकू बनाकर पेश किया गया है। वह चिपकू किरदार गर्लफ्रेंड या पत्नी किसी रुप में हो सकता है जो आपके जीवन की उन्मुक्तता या स्वतंत्रता को खत्म कर दे। यह फिलासफी बड़े शहरों से जल्दी ही छोटे शहरों में आएगी। फिलहाल यहां चिपकने वालों की कमी महसूस की जा रही है। फरहान अख्तर, रितिक रोशन और अभय देओल के अलावा कैटरीना कैफ मुख्य भूमिका में हैं। सभी ने अपनी पात्रों के अनुरूप अभिनय किया है। अपनी टाइमिंग डायलॉग डिलवीरी की वजह से फरहान दर्शकों के सबसे प्रिय चेहरे बनते हैं। हां एक और बात रितिक रोशन ने कई दृश्यों में आमिर खान की कॉपी की है।

Tuesday, July 12, 2011

दर्शक बहुत भावुक होता है वह डरेगा भी और रोएगा भी




फिल्म समीक्षा: मर्डर:२



दिन का समय हो और आपका पैर नदी, नाले या कहीं और पानी में सड़ रही लाश पर पड़ जाए। आपके मन में डर बाद में पैदा होगा घिन पहली आएगी। मुकेश भट्ट की फिल्म मर्डर:२ दर्शकों को कुछ ऐसा ही एहसास कराती है। जो दृश्य डराने के लिए फिल्माए गए हैं वह आपके मन में एक लिजलिजापन पैदा करते हैं। जोर-जोर से प्रचारित की गई इस सेक्स थ्रिलर में थ्रिल के नाम पर कुछ ऐसे ही घिनौने दृश्य हैं जिन्हें यह मानकर फिल्म में रखा गया है कि वह दर्शकों को रोमांचित कर देंगे। ऐसी पटकथा जिस पर एक अच्छी साइक लॉजिकल थ्रिलर फिल्म बन सकती थी को एक चालू फिल्म बनाकर पेश किया गया है। मर्डर का सीक्वेल कही गई इस फिल्म में न तो मर्डर जैसा संस्पेस और न ही उसके जैसा रोमांस। एक मनोरोगी जो लड़कियों की हत्याएं करता है को फिल्म का मुख्य खलनायक बनाया गया है। दर्शक अंत तक इंतजार करते रहते हैं कि इस फिल्म का असल विलेन कोई और होगा और यह उनके लिए शॉकिंग होगा। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। वह मनोरोगी फिल्म का मुख्य खलनायक निकला जिसे दर्शकों ने फिल्म शुरु होने के २५ मिनट के भीतर जान लिया था। यह वैसा ही है कि कहानी का नाम हो बाप ने मारा और कहानी खत्म होने पर हत्यारा बाप ही निकले। अंत के पांच मिनट को छोडक़र वह पात्र जिसे निर्देशक खलनायक के रूप में पेश कर रहे होते हैं दरअसल दर्शकों का मनोरंजन कर रहा होता है। इमराश हाशमी के अलावा फिल्म में जैकलीन फर्नाडीज और प्रशांत नारायण मुख्य भूमिकाओं में हैं। फिल्म के नायक भले ही इमरान रहे हों पर दर्शकों को याद प्रशांत नारायण का अभिनय रह जाता है जिन्होंने विक्षिप्त मनोरोगी की भूमिका निभाई है। प्रशांत नारायण को दर्शक ये साली जिंदगी में छोटे और भिंडी बाजार में फतेह की भूमिका में हम देख चुके हैं। जिन-जिन दृश्यों में इमरान हाशमी और प्रशांत नारायण आमना-सामना होता है इमरान के सीमाएं स्पष्ट दिखती हैं। अभिनय के मामले में प्रशांत निश्चित ही दीपक डोबरियाल और इमरान खान की श्रेणी में रखे जा सकते हैं। एक बात अंत तक समझ में नही आती ्र कि जैकलीन फर्नाडीज को फिल्म में लिया क्यों गया। यह भूमिका किसी उभरती हुई मॉडल को मिलती तो वह जैकलीन से ज्यादा ही एक्सपोज कर देती। जैकलीन फर्नाडीज की ऐक्टिंग देखकर रोमांस या सेक्स तो नहीं जागता पर उनकी ऐक्टिंग पर हंसी जरूर आती है। फिल्म में जैसे ही इमरान हाशमी उनके पास आते हैं वह कपड़े उतारना शुरू कर देती हों। मानो इमरान कोई धोबी हों । सेक्स जैसे कुछ दृश्यों को फिल्माने में जैकलीन के चेहरे पर न कोई भाव और न ही उत्तेजना। सब कुछ लिखी हुई पटकथा की तरह कि अब टॉप उतारना और अब जींस उतारना है। कुछ अन्य दृश्यों में भी तय पटकथा के अनुसार कि अब रोना है, अब शराब पीना है और अब शराब के नशे में सडक़ पर गिरना है। भट्ट कैंप की फिल्मों में संगीत उसका सबल पक्ष होता है मर्डर:२ में यह पक्ष भी कमजोर रहा है। मुकेश और महेश भट्ट की इस फिल्म में कहीं-कहीं तीसरे भट्ट विक्रम साहब की भी छाप देखने को मिलती है। निर्देशक मोहित सूरी के बारे में क्या कहा जाए। फिल्म के कुछ दृश्यों को देखकर लगा कि वह दर्शकों को बिल्कुल बेवकूफ भावुक मानते हैं।

Wednesday, July 6, 2011

डेल्ही बेली एहसास कराती है कि दर्शक परिपक्व हो गए हैं

फिल्म समीक्षा: डेल्ही बेली

खुशवंत सिंह कोई बहुत अच्छे अफसानानिगार या स्तम्भकार नहीं हैं। वह इसलिए अधिक चर्चित हुए हैं क्यों कि उन्होंने ऐसे विषयों पर लिखा है जिन पर दूसरे लेखक अश्लील कहकर नाक-भौं सिकोड़ते रहे हैं। आमिर खान हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के खुशवंत सिंह हो सकते हैं। हो सकता है कि इस फिल्म की सफलता के बाद एक साथ कई खुशवंत सिंह पैदा हो जाएं। आमिर की फिल्म डेल्ही बेली मुख्य धारा की पहली ऐसी हिंदी फिल्म है जिसमे खुलेपन के साथ सेक्स को प्रदर्शित किया गया है। सेक्स दृश्यों या संवाद को दिखाने में कहीं कोई कुंठा या असमंजस मन में नहीं दिखा है। आमिर किसी असमंजस के साथ इस फिल्म को लेकर आए भी नहीं थे। फिल्म बनाने से पहले ही उन्होंने घोषणा कर दी थी कि वह एक सेक्स कॉमेडी फिल्म बना रहे हैं, कहीं कोई धोखा देने का इरादा नहीं। मल्टीप्लेक्सों में टिकट भी सिर्फ एडल्ट को दिए जा रहे हैं। प्रदर्शन के बाद फिल्म चर्चित हो गई। अब मजा देखिए। चर्चा इस बात पर हो रही है कि फिल्म के दृश्य और संवाद अश्लील हैं। लोग कह रहे हैं फिल्म में गालियां हैं। कहा जा रहा है कि टट्टी-पेशाब के दृश्यों को अश्लील तरीके से चित्रित किया गया है। विडंबना। चर्चा इस बात पर नहीं हुई कि फिल्म की कहानी में कोई नयापन नहीं है। कुछ गुंडों के साथ हीरे की खोज में पगलाया गैंगस्टर और हीरों से छुटकारा पाने की जुगत में नायकों की टीम पहले भी कई फिल्मों में देखी जा चुकी है। डेल्ही बेली में उसी को एक बार फिर दोहराया गया है। फर्क सिर्फ इतना है कि इन दृश्यों से रिसते हास्य को सेक्स कॉमेडी से पगा दिया गया है। कहानी के स्तर पर कोई नयापन नहीं। चर्चा इस बात पर भी नहीं हुई कि आमिर अपने भानजे इमरान से सर्वश्रेष्ठ नहीं निकलवा पाएं। अच्छी अदाकारी और टाइमिंग वाले एक्टर विजय राज को बहुत अच्छे संवाद नहीं मिले हैं। फिल्म का क्लाइमेक्स बहुत प्रभावकारी नहीं बन पाया। पर इन बुराईयों में फिल्म की अच्छाइयां भारी पड़ती हैं। अर्से बाद कोई ऐसी कॉमेडी फिल्म आई है कि जिसे रात में दो बजे या ट्रैफिक के रेड सिग्नल में याद करके हंसा जा सके। बिल्कुल नवीन और मौलिक दृश्य। फिल्म के गाने भी सुनने में मनोरंजक कम मनोरंजक नहीं हैं। ऐसा बहुत कम होता है। हां फिल्म में गालियों कुछ कम की जा सकती थीं। स्वाभाविक जिंदगी में तो हम और भी बहुत कुछ करते हैं जब उसे फालतू और रूटीन मानकर फिल्म में शामिल नहीं किया जाता तो गालियों को क्यों। अपनी कमियों और सीमाओं के बावजूद फिल्म आलोचना से अधिक तारीफ का हक रखती है। और हां हिंदी भाषा अपने बढ़ते वर्चस्व पर पीठ थपथपा सकती है। पहले सिर्फ अंग्रेजी में आ रही इस फिल्म को बाद मे हिंदी में डब किया गया और यह अंग्रेजी से ज्यादा हिंदी के प्रिंटों में रिलीज की गई।