फिल्म समीक्षा डॉन: २
पिछले दिनों रिलीज हुईं हॉलीवुड की कोई भी एक सस्पेंश थ्रिलर फिल्म चुन लीजिए जिसका नायक सिक्रेट एजेंट हो। वह अपने देश के लिए दुश्मन देश के रक्षा मंत्रालय से कोई फाइल या चिप चुराने के प्रयास में है। थोड़े-बहुत अवरोध के बाद उसे चिप मिल जाती है। अब इसी फिल्म का भारतीयकरण कर दीजिए। भारतीयकरण करने के लिए आपको फिल्म में कुछ डॉयलॉग डालने होंगे। थोड़ी बहुत कॉमेडी कनी होगी। नायक का किसी लडक़ी के साथ दिली मोहब्बत दिखानी होगी। चिप की जगह या तो हीरे हों या फिर करेंसी रखना होगा क्यों कि भारतीय दर्शक इस बात को नहीं समझ पाएंगे कि चिप या फाइल चुरायी क्यों जा रही है। और हां किसी भी सूरत में नायक मरना नहीं चाहिए। तो ऐसी ही कई हॉलीवुड फिल्मों का देशी वर्जन है डॉन:२। हॉलीवुड फिल्मों की तरह डॉन:२ में बिना मतलब की बातें कम से कम हैं। नायक काम के वक्त मोहब्बत में डूबे गीत नहीं गाता। उसकी अंतरात्मा उसे गलत काम के लिए धिक्कारती नहीं है। फिल्म और मनोरंजन के नजरिए से देखें तो डॉन दर्शकों को निराश नहीं करती। पटकथा कसी हुई और घटनाएं ताबड़तोड़ होने की वजह से फिल्म दर्शकों को अपने से जोड़ कर रखती है। जिन्होंने डॉन का पहला पार्ट न भी देखा हो तो उनके लिए मुश्किल बहुत नहीं है। दर्शकों को चौंकाने के लिए सस्पेंश भरे मोड़ भी हैं। और बाद में भारतीयों के लिए कुछ नारी सशक्कतीकरण और मानवता की भी बाते हैं। तो फिल्म देख सकते हैं। शाहरुख इस फिल्म में भी अपनी जैसी ही ऐक्टिंग करते हैं। प्रियंका के लिए कुछ करने को था नहीं। लारा दत्ता अच्छे लगने के लिए रखी गईं पर वह अच्छी लगी नहीं। ओमपुरी और बोमेन ईरानी तो सदाबहार अभिनेता हैं जहां चााहो लगा दो। फिल्म के अंत में डॉन थ्र्री की संभावनाएं भी रखी गई हैं। फिलहाल तो फरहान इसका सीक्वेल न बनाने की बात कह चुके हैं।
Friday, December 23, 2011
Friday, December 9, 2011
गोवा पहुंचते ही बहक गई फिल्म
फिल्म समीक्षा: लेडीज वर्सेज रिकी बहल
यश चोपड़ा बैनर की यह फिल्म न ही रणवीर सिंह की है और न ही अनुष्का की। यह फिल्म सिर्फ परिणिती चोपड़ा की है। ऑडी से निकलते वक्त यदि दर्शकों को फिल्म में कुछ याद रह जाता है तो वह है हरियाणिवी अंदाज में चुटीले डॉयलॉग बोलती डिंपल चड्ढा। प्रियंका चोपड़ा की इस चचेरी बहन का शरीर हिंदी फिल्म की पारंपरिक नायिका जैसा भले ही नहीं है पर बाकी सबकुछ उचित अनुपात में है। इस किरदार का वजन फिल्म की नायिका से भी ज्यादा है। पता नहीं ऐसा जानबूझ कर हुआ है या अनजाने में। यह फिल्म दो बातें और साफ करती हैं। पहली कि रणवीर सिंह में अकेले किसी फिल्म को खींचने का माद्दा नहीं है और दूसरी यह कि यह गलत कहा जाता रहा है कि उनकी और अनुष्का की जोड़ी पर्दे पर अच्छी लगती है। फिल्म में जहां-जहां अनुष्का और रणवीर के रोमांटिक सीन या संवाद हैं यह फिल्म बैंड बाजा बारात लगने लगती है। रणवीर सिंह के हिस्से में संवाद नहीं हैं। उन्हें शायद चुप रहने के लिए कहा गया था। संवाद अनुष्का के हिस्से में भी नहीं हैं पर उन्हें कम से कम एटीट्यूट दे दिया गया है। ऐसा एटीट्यूड जो फिल्म खत्म होने के दस मिनट पहले खत्म होने लगता है। मनोरंजन की दृष्टि से फिल्म बुरी नहीं है। इंटरवल तक फिल्म न सिर्फ मनोरंजन करती है बल्कि हंसाती भी है। इंटरवल के बाद फिल्म जहां गोवा पहुंचाती है वहां यह फिल्म बर्बाद होती है। इधर कई ऐसी फिल्में आईं हैं जो गोवा पहुंचते ही बर्बाद हो गईं। अनुष्का का रणवीर से सच्चा प्यार होने वाला प्लाट सबसे कमजोर है। चूंकि दर्शकों को पता था कि नायक भले ही चोरी-चकारी कर रहा हो पर अंत तक हिंदी फिल्मों का हीरो बन जाएगा। दर्शकों को निराश नहीं किया गया अंत जितना पारंपरिक हो सकता था उतना रहा। अदिति शर्मा सुंदर हैं। उन्हें बार-बार सभ्यता में डूबी उस लडक़ी का किरदार दे दिया जाता है जो सलवार शूट भी आधी बांह का नहीं पहन सकती। पहले मौसम अब रिकी बहल। फिल्म के गाने भी एक और अभिनेत्री दीपानिता शर्मा की तरह सिर्फ लाउड रहे।
Friday, December 2, 2011
फिल्म क्या सिल्क को श्रृद्धांजलि देने के लिए बनी है !
फिल्म समीक्षा: द डर्टी पिक्चर
किसी की जिंदगी में कितने भी उतार-चढा़व, जीत-हार या उपलब्धियां क्यों न हों पर वह इतने मनोरंजक और सिस्टमैटिक नहीं होते कि उन्हें फिल्मा भर देने से एक मुकम्मल फिल्म बनकर तैयार हो जाए। फिल्म को फिल्म की तरह बनाना पड़ता है। किसी की जिंदगी उससे झलक सकती है पर वह फिल्म पूरी-पूरी जिंदगी नहीं हो सकती। डर्टी पिक्चर देखने वाले ज्यादातर दर्शक यह जानते थे कि यह फिल्म साउथ अभिनेत्री सिल्क स्मिता के जीवन पर आधारित है। बावजूद इसके वह इस फिल्म से एक फिल्म की उम्मीद कर रहे थे। शुरुआत से लेकर अंत तक उन्होंने एक फिल्म की आशा रखी, फिल्म जैसे डायलॉग और उतार-चढ़ाव लेकिन मिलन लूथरिया फिल्म बनाने के बजाय सिल्क को श्रृंद्धांजलि देते दिखे। गली मोहल्ले से आई एक महात्वाकांक्षी पर अनकल्चरड लडक़ी की कहानी कहते हुए वह पूरीे फिल्म को सिर्फ उस लडक़ी के नजरिए से दिखाने की कोशिश करने लगे। उसके अलावा भी कोई और नजरिया या दुनिया हो सकती है शायद इस बारे में सोचा ही नहीं गया। वह इस अनकल्चरड पर महात्वाकांक्षी लडक़ी को नायिका के रूप में खड़ा तो कर देते हैं पर उस नायिका के क्षरण और उस क्षरण की वजह गिनाते समय फिल्म उनसे छटक जाती है। इंटरवल के बाद यह फिल्म, फिल्म न होकर कुछ- कुछ घटनाओं की एडटिंग भर है।
डर्टी पिक्चर देखते हुए कहीं-कहीं देवदास और खेले हम जी जान से फिल्में याद आती हैं। देवदास का नायक देवदास था पर देवदास बनाते समय संजय लीला भंसाली को यह याद रहा कि वह देवदास की आदतों का महिमामंडन नहीं कर रहें बल्कि एक फिल्म बना रहे हैं। जिसमे ऐश्वर्य भी हैं और माधुरी भी। जो गलती आशुतोष गौरवीकर ने खेले हम जी जान में की थी वह गलती लूथरिया डर्टी पिक्चर में करते हैं। फिल्म बनाने के बजाय लूथरिया सिल्क की आदतों और प्रवृतियों को दिखाते रहे। फिल्म के शुरुआती कुछ मिनट खासे उबाऊ हैं। बाद में फिल्म पटरी तो पकड़ लेती है पर फिल्म में ऐसी मनोरंजक घटनाएं नहीं हैं कि दर्शक उससे जुड़े रहे। फिल्म का सबसे बेहतर पक्ष एक्टिंग और सबसे खराब पक्ष एडटिंग है। नसीर के हिस्सें में जितना था उतना उन्होंने अद्भुत किया है। विद्या कॅरियर के शायद अपने सबसे बेहतर रोल में हैं। अपने पतन के दृश्यों में उन्होंने यादगार अभिनय किया है। इमरान को महात्मा बनते देख अच्छा लगा। तुषार कपूर के लिए बेहतर है कि वह रोहित शेट्टी से बात करके गूंगे की कोई भूमिका फिर से मांग ले। बोलते हुए वह बड़े दयनीय लगते हैं।
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