Saturday, January 28, 2012

लो लौट आया अंधा कानून का युग

फिल्म समीक्षा: अग्निपथ



कुछ फिल्में ऐसी होती हैं जिन्हेंं देखते वक्त आप सिर्फ फिल्म के बारे में सोचते हैं और फिल्म खत्म होने के बाद एक सेकेंड नहीं। अग्निपथ वैसी ही फिल्म है। लगभग सवा तीन घंटे की यह फिल्म आपको एक अलग दुनिया में ले जाकर खड़ा कर देती हैं। जहां पर आपके तर्क चुप होकर फिल्म का मजा ले रहे होते हैं। आप तार्किक मस्तिष्क यह जानता है कि किसी भी देशकाल में मुंबई में सरेआम लड़कियां बेचने का बाजार नहीं सजा, आप जानते हैं कि कोई कांचा नाम का व्यक्ति किसी को यूंही फांसी नहीं चढ़ा सकता। आप यह भी जानते हैं कि कि तीन बार चाकू पेट से निकलने के बाद फाइट नहीं की जा सकती, फिर भी हम ऐसे दृश्यों पर विश्वास करते हैं। यह निर्देशक और अभिनेताओं की जीत है, कि हम उनके दुख और सुख को लेकर जज्बाती होते हैं। नायक को पडऩे वाला तमाचा हमे लगता है। अग्निथ ९० के दशक की अंधा कानून टाइप फिल्मों की याद दिलाती हैं जिन्हें देखकर जब दर्शक सिनेमाघरों से बाहर निकलता था तो उसका लगता था कि दुनिया उतनी बुरी नहीं जितनी कि दिखाई गई है। शोषण और बदले का स्वांग अरसे बाद किसी मुख्य धारा की फिल्म में इतनी भव्यता के साथ प्रस्तुत किया गया है। कुछ नया सिनेमा रचने और देखने की ख्वाहिश रखने वाले मुट्ठी पर लोग ऐसी फिल्मों की अपार सफलता से दुखी हो सकते हैं। डर इस बात का होगा कि कहीं ऐसी फिल्मों की कतार न लग जाए। इस अग्निथ में यह कहीं नहीं दर्शाया गया कि फिल्म का देशकाल क्या है। ब्लैक एंड व्हाइट अखबार, और दूरदर्शन देखकर यह अंदाजा भर लगता है कि फिल्म आज से करीब ३० बरस पहले की है। १९९० में जब यश जौहर ने अमिताभ बच्चन को लेकर यह फिल्म बनाई थी तब फिल्म का ढांचा उतना नकली और फिल्मी नहीं लगा होगा जितना की अब लगता है। फिल्म का सबसे प्रभावकारी पक्ष अभिनय है। अभिनय के मामले में संजय दत्त और रितिक रोशन से ऊपर का दर्जा ऋषि कपूर को दिया जाएगा। जितनी देर वह पर्दे पर रहते हैं वही छाए रहते। चिकनी चमेली अच्छी लगी हैं। फिल्म का सबसे खराब पक्ष संपादन है। तीस मिनट आराम से काटे जा सकते थे। अब चंूकि फिल्म चल रही इसलिए इस बात की चर्चा नहीं होगी। यदि आप टाइमपास के लिए फिल्म देखते हैं तो फिल्म आपके लिए है।

Friday, January 13, 2012

सिर्फ अभिनय के बूते फिल्म ढोने की असफल कोशिश

फिल्म समीक्षा: चालीस चौरासी


यह फिल्म इंटरवल के बाद आपको अच्छी लगनी शुरू हो सकती है पर तब तक देर हो चुकी होती है। ह्रदय शेट्टी निर्देशित यह फिल्म पहली निगाह में आपको अनुराग कश्यप, तिग्मांशु धूलिया या सुधीर मिश्रा टाइप की फिल्म लग सकती है। अच्छी बात यह है कि दबंग, बॉडीगार्ड और रॉ-वन जैसी फिल्मों के साथ चालीस चौरासी, यह साली जिंदगी, साहब बीवी और गैंगस्टर जैसी फिल्में भी बन रही हैं। पर ऐसी फिल्में बना भर लेने से ऐसी फिल्म बनाने का जोखिम लेने वालों की जिम्मेदारी कम नहीं हो जाती। इस फिल्म के साथ ऐसा ही हुआ है। चालीस चौरासी के निर्देशक ने चार ऐसे कलाकार तो चुने जो वाकई ऐक्टिंग कर लेते हैं। समस्या कहानी और पटकथा स्तर की है। दरअसल निर्देशक के पास जो कहानी थी वह ३० मिनट की थी। यह तीस मिनट क्लाइमेक्स के हैं और बेहतर हैं। फिल्म के बाकी बचे १ घंटे तीस मिनट इन अच्छे ३० मिनटों पर भी पानी फेर देते हैं। बिना अच्छी पटकथा के सिर्फ अभिनय के बूते कोई फिल्म नहीं चलाई जा सकती है यह बात तो निर्देशक को समझनी चाहिए थी। पर कर्मिश्यल फिल्मों से निकल कुछ अलग बनाने बनाने की खुशफहमी निर्देशक पर इतनी ज्यादा थी कि वह और कुछ सोच नहीं पाए।

Friday, January 6, 2012

बहुत दिन बाद दिखे शोले वाले रमेश सिप्पी

फिल्म समीक्षा प्लेयर्स



प्लेयर्स के बारे में यह चर्चा थी कि यह हॉलीवुड फिल्म द इटालियन जॉब का रीमेक है। इस चर्चा से अब्बास-मस्तान वाकई दुखी हुए होंगे। क्यों कि सच्चाई यह है कि प्लेयर्स हॉलीवुड फिल्म का हिंदी रीमेक होने के साथ-साथ कई हिंदी फिल्म निर्देशकों के प्रिय दृश्यों का कॉकटेल भी है। फिल्म में इन दृश्यों का छिडक़ाव किया गया है। इस फिल्म में जहां-जहां कॉमेडी हुई है डेविड धवन याद आए हैं, जहां इमोशन हैं वहां करन जौहर और क्लाइमेक्स में शोले वाले रमेश शिप्पी। शोले की तर्ज पर यहां खलनायक को हीरो नहीं मारता उसे फिल्म की नायिका मारती है क्यों कि उसे अपने बाप की मौत का बदला लेना होता है। फिल्म में सोना लूटो अभियान समिति के सदस्य मास्को की चलती ट्रेन से सोना लूटते हैं। सोना लूट लिया जाता है। यह इंटरवल तक की कहानी है। इंटरवल के बाद की कहानी बेहद घटिया और फिल्मी फॉर्मूलों के साथ आगे बढ़ती है। एक-दूसरे के साथ धोखा, डबल क्रास जैसे दृश्य और कहानी हम ढेर सी फिल्मों में देख चुके हैं। प्लेयर्स में ऐसा कुछ भी नया नहीं है। अभिनय पक्ष इस फिल्म का सबसे गंदा पक्ष है। अभिषेक बच्चन धूम में किए गए अभिनय की जेरॉक्स कॉपी जैसे दिखते हैं और विपाशा बसु अजनबी फिल्म जैसी। सोनम कपूर आयशा या आयत बनकर ही अच्छी लगती हैं। इस फिल्म वह कायदे से संवाद भी नहीं बोल पाईं हैं। नील नितिन मुकेश को इतनी बड़ी और प्रभावी भूमिका मिलना चौंकाता है। ओमी वैद्य अभी थ्री इडियट्स के खुमार से नहीं निकल पाए हैं। बिचारे कम बोलने वाले बॉबी देओल को सोना लूटते ही सुला दिया गया। चुप रहकर बढिय़ा ऐक्टिंग कर रहे थे वह।