Friday, March 23, 2012

यह मशीन खोद क्या रही है, बाद में मालूम होगा।

फिल्म समीक्षा: एजेंट विनोद



सडक़ों पर जब जेसीबी की मशीनें खुदाई करना शुरू करती हैं तो खुदाई के शुरुआती दिनों में लोग सिर्फ यह कयास लगाते रहते हैं कि खुदाई हो क्यों रही है। खुदने का सटीक कारण बहुत बाद में आम हो पाता है। सडक़ों की की खुदाई और फिल्म एजेंट विनोद में बड़ी समानता है। फिल्म में दर्शक बहुत बाद में यह जान पाते हैं कि फिल्म में एजेंट विनोद कर क्या रहे हैं। बताया उनको शुरू से जाता है पर यह इतना भ्रमित है कि दर्शक उसमें घुसने का प्रयास नहीं करते। जेम्स बांड सरीखी जासूसी फिल्म देखने के आदी हो चुके दर्शकों को यह फिल्म बहुत ही बांसी और ठहरी हुई लग सकती है। ऐसा है भी। फिल्म की सबसे बड़ी कमी दो दृश्यों के बीच लिंक न होना है। इसके अलावा चरित्रों की अधिकता और उनको स्थापित न करना भी फिल्म में लगातार अखरता है।। फिल्म वहां अच्छी लगी है जहां घटनाएं हैं। जैसी ही घटनाओं के घटने का क्रम धीमा होता है फिल्म अझेल लगने लगती है। फिल्म की एडटिंग भी कमजोर है। फिल्म की लंबाई को आराम से २० से २५ मिनट कम किया जा सकता था। फिल्म की खूबसूरती सैफ अली खान का अभिनय और खासतौर पर उनके लिए लिखे गए चुटीले संवाद हैं। करीना कपूर पता नहीं क्यों सैफअली खान के साथ अच्छी नहीं लगतीं। प्यार की पुंगी बजा के गाने का प्रयोग फिल्म में नहीं हुआ। दर्शक उसका इंतजार अंत तक करते रहे। सैफ अली खान फिल्म के प्रोड्यूसर भी हैं इसलिए निर्देशक श्रीराम राघवन पर वह कई जगह हावी होते दिखे हैं।

Friday, March 9, 2012

फिल्म तो दरअसल सुजॉय घोष की है।

फिल्म समीक्षा: कहानी


कुछ फिल्मों की नायक उनकी पटकथा होती है। पटकथा, नायक इसलिए होती है क्यों कि यह पटकथा किसी भी चरित्र के साथ भेदभाव नहीं करती। कहानी में यदि दर्शकों को विद्या बागची प्रभावित करती हैं तो उन्हें अडिय़ल खान और शर्मीले राना भी याद रहते हैं। ऐसे फिल्मी पात्रों को शिद्दत के साथ लिखा और फिल्माया जाता है। फिल्म कहानी का सबसे सशक्कत हिस्सा कसी हुई पटकथा ही है। कहानी कहने के सही अंदाज में। फिल्म के निर्देशक को इस बात का श्रेय देना चाहिए कि फिल्म के प्रमोशन के दौरान उत्साह में उनसे फिल्म की कहानी लीक नहीं हुई। फिल्म के अंतिम चंद लम्हों में फिल्म अचानक यू टर्न लेती है। यह यू-टर्न वाकई शॉकिंग है। कहानी तो वैसे है अलग अंदाज की फिल्म पर कहीं-कहीं यह भारत की सस्पेंस फिल्मों जैसी लगती है। फिल्म की सबसे बड़ी यूएसपी उसकी सिनेमेटोग्राफी है। कोलाकाता की लाइफ स्टाईल, तौर-तरीके, जीवन जीने का अंदाज सभी कुछ फिल्म की कहानी का हिस्सा है। कहानी दरअसल विद्या बालन की नहीं निर्देशक सुजॉय घोष की फिल्म है। विद्या तो अच्छा अभिनय करती ही हैं। पीपली लाइव में पत्रकार और पान सिंह तोमर में डकैत बने नवाजुद्दीन शिद्दकी दीपक डोबरियाल और प्रशांत नारायण जैसी संभावनाएं जगाते हैं।

Friday, March 2, 2012

नायक, नायक तभी बनता है जब खलनायक हो

फिल्म समीक्षा: पान सिंह तोमर



आमिर खान के मरहूम पिता ताहिर हुसैन साहब एक बड़े फिल्म निर्माता थे। हुसैन साहब के पास जब कोई निर्देशक फिल्म की स्क्रिप्ट के साथ आता तो वह उससे बड़े इत्मिनान से पूंछते कि मियां बताओ की आप की कहानी उठती कहां से है, तनाव कहंा हैं और तनाव स्खलित कैसे होगा। तिंग्माशु धुलिया यदि पान सिंह तोमर की स्क्रिप्ट लेकर ताहिर साहब के पास जाते तो ताहिर साहब शायद यह कहते दिखते कि और तो ठीक है मियां पर आपकी फिल्म में तनाव फिल्म खत्म होने के ३५ मिनट पहले ही स्खलित हो गया है। आगे की फिल्म दर्शक क्यों देखेगा। तिंग्माशु धूलिया की इस महात्वाकांक्षी और भव्य फिल्म की एकमात्र खराबी यह है कि इंटरवल के १५ मिनट बाद फिल्म अपना चार्म खो देती है। आमतौर पर फिल्मों में नायक का इंतकाम फिल्म के आखिरी रील में पूरा होता है। आखिरी रील से पहले उस इंतकाम तक पहुंचने की पटकथा बुनी होती है। पान सिंह तोमर में नायक के पास इतना बड़ा अवरोध नहीं है कि वह उसे एक हीरो के रूप में खड़ा कर दे। जिस अवरोध को दर्शक अवरोध मानते हैं वह फिल्म खत्म होने के करीब ३५ मिनट पहले बहुत ही साधारण तरीके से खत्म हो गया होता है। एक धावक के डाकू बनने की कहानी असाधारण है पर डाकू बन जाने के बाद उसके मरने तक की कहानी भटकी हुई। यह इरफान का अभिनय और संजय चौहान के संवाद ही थे कि खत्म होने से पहले खत्म हो चुकी इस फिल्म को पूरा करने के लिए दर्शक सीट पर बैठे रहते हैं। थोड़ी ईमानदारी से कहें तो इस बार संजय चौहान भी अपने संवादों में वैसा जाूद नहीं घोल पाए जैसा उन्होंने साहब बीवी और गैंगस्टर में किया था। तिंग्माशु की पिछली दो फिल्मों शार्गिद और साहब बीवी के उलट इस फिल्म में उतराद्र्ध के बाद नाटकीय घटनाक्रम भी नहीं रहे। पान सिंह तोमर एक भव्य फिल्म है पर यह फिल्म, फिल्म होने की कई सारी शर्ते नहीं पूरी करती। अपने पिता की कथित असफलता को परिभाषित करते हुए आमिर खान ने एक बार कहा था कि निर्देशक को बाजार के प्रति उतना ही जवाबदेह होना चाहिए जितना कि वह अपनी कला के प्रति होता है।