Friday, July 13, 2012

बच गए त्याग की लखनवी परंपरा पहले आप- पहले आप से

कॉकटेल हैं तो एक प्रेम त्रिकोण ही। पैटर्न एक लडक़ा और दो लडक़ी वाला। पूरी फिल्म में फिल्मकार की कोशिश इस बात पर है कि यह पारंपरिक प्रेम त्रिकोण न लगे। फिल्म निर्माण के समय यह संकट रहा होगा कि कहानी सुनने के स्तर पर यह फिल्म भी अब तक बन चुकीं सैकड़ों फिल्मों जैसी एक प्रेम त्रिकोण ही लगती है, फिर अलग क्या। निर्माता सैफ अली खान को इस संकट से इम्तियाज अली ने अपनी पटकथा और संवादों से उबारा होगा। यह फिल्म के संवाद ही हैं जिनकी वजह से फिल्म पारंपरिक होते हुए भी पारंपरिक होने से बच गई। फिल्म के लेखक इम्तियाज अली, निर्देशक होमी अदजानिया पर इसलिए भी भारी पड़े हैं यह फिल्म अपने दृश्यों से नहीं बल्कि अपने संवादों से २०१२ की प्रेम ट्रेैंगल होने का एहसास जगाती है।
संवाद का एक नमूना देखिए, नायक अपने प्रेम में डूबी हुई दो नायिकाओं से कहता है, कि चलो बैठते हैं बात करते हैं, जब बड़े-बड़े नाभकीय मुद्दे, विश्व आतंकवाद छोटी सी टेबल पर हल हो जाते हैं तो यह क्यों नहीं। नहीं बाद में वही सब कुछ होगा एक-दूसरे से छिपना-छिपाना। फिर दूर हट जाओ मैं तुम्हारी शकल भी नहीं देखना चाहती। अलग दिखने की कोशिश इतनी संजीदा है कि उसे स्पष्ट रूप से कहकर साफ कर दिया गया है कि हमारा इरादा क्या है। एक समय जब नायिकाओं पर स्वार्थ के बाद त्याग का भूत सवार होता है तो लगा कि यह फिल्म २००२ में रिलीज हुई कुंदन शाह की फिल्म दिल है तुम्हारा के रास्ते चल देगी या सुनील दर्शन किसी फिल्म से प्रेरित हो जाएगी। जहां त्याग की भावनाएं लखनऊ की परंपरा के अनुसार पहले आप पहले आप की तरह एक-दूसरे पर थोपी जाती हैं।
कॉकटेल सैफ अली खान के अभिनय के लिए भी जानी जाएगी। सैफअली खान एक्टिंग अपने बुढ़ापे के समय में सीख पाए हैं। फ्लर्ट के रोल तो वैसे भी उन पर जंचते हैं फिर बार भ्रमित प्रेमी और प्रेम के तनाव में दबे किरदार को उन्होंने बखूबी जिया है। इम्तियाज अली के फिल्मों के पात्र वैसे भी फिल्म के अंतिम रील में अपना जीवन साथी चुनते आए हैं। डायना
पैंटी अपने स्वाभाविक अभिनय से उम्मीद जगाती हैं। जिसमें उनका चेहरा उनकी मदद करता है। दीपिका पादुकोन की भूमिका उनकी हैसियत के हिसाब से है। फिल्म के गाने और उनका पिक्चराइजेशन लजवाब है।

Saturday, July 7, 2012

पैटर्न डेविड धवन वाला और स्मार्टनेस ठग्गू के लड्डू वाली

(ऐसा कोई सगा नहीं जिसको हमने ठगा नहीं)कानपुर के मशहूर ठग्गू के लड्डू अपनी दुकान के सामने यह स्लोगन लिखकर ठगे जाने की आशंका को हास्य में उड़ा देते हैं। लोग उनके लड्डुओं की क्वॉलिटी पर तो चर्चा करते हैं उसके महंगे होने पर नहीं। ठग्गू के लड्डू वाला फॉमूर्ला रोहित शेट्टी ने बोल बच्चन में अपनाया है। बाद में लोग कहें कि यह फिल्म में अमोल पालेकर वाली गोलमाल की कॉपी है इसलिए उन्होंने गोलमाल फिल्म के कुछ किस्से को ही फिल्म की महत्वपूर्ण घटना बना लिया। बात जस्टीफाई हो गई। यह फिल्मकार की फिल्म के लिए की गई एकमात्र स्मार्ट कोशिश है।
बाकी की कोशिशें उन दर्शकों के लिए हैं जो रॉस्कल्स, रेडी, डबल धमाल और राउडी राठौर जैसी फिल्में देखकर यह कहते हुए निकलते हैं कि मजा आ गया। उन दर्शकों को इस फिल्म में मजा की घात पांच जितना मजा आया होगा। फिल्म बुरी है भी नहीं है। एक बार प्लाट जमने के बाद दर्शक इस फिल्म के साथ जुड़ते हैं। सबकुद पता होने पर भी उसके घटने का इंतजार किया जाता है। शुरू के कुछ मिनट थोड़ा उबाउ बहुत ज्यादा फिल्मी लगते हैं। रोहित शेट्टी, डेविड धवन के उस फॉर्मूले को बढ़ाने वाले फिल्मकार हैं जहां फिल्म का कैनवास बड़ा होता है, स्टार बड़े होते हैं, लोकेशन भव्य होता है, अभिनय का दायरा छोटा और संवाद घटिया स्तर के होते हैं।
मानवता की भावना फिल्म के आखिरी तीन मिनट में आती है। सब किरदार चोरी-चकारी छोड़ अच्छे इंसान बन जाते हैं। खराब अंग्रेजी को पर्दे पर दिखाने की अच्छी एक्सरसाइज की गई होगी। आर बाल्की की आने वाली फिल्म इंगलिश-विंगलिश में दर्शक इसे और सिस्मैटिक और क्लासिकल ढंग से देख सकेंगे। आसिन की अब तक की सबसे कमजोर फिल्म।