Friday, August 31, 2012

६ साल बाद सिर्फ एक कदम बढ़ पाए हैं शिरीष

जोकर फिल्म इस बात का गहराई से एहसास कराती है कि कई अच्छी फिल्मों से जुड़े फिल्मकार मिलकर एक घटिया फिल्म भी बना सकते हैं। फिल्म के निर्देशक शिरीष कुंदर ने अपने अकेले के बूते सिर्फ एक ही फिल्म जानेमन बनाई है। उस उलझी हुई फिल्म के ६ साल बाद उन्होंने जोकर का निर्देशन किया है। शिरीष का निर्देशन इस फिल्म में एक पायदान ऊपर चढ़ता है पर फिल्म विषय के स्तर पर इतनी कमजोर है कि बेहतर निर्देशन, ठीक-ठाक ऐक्टिंग और आयटम सॉन्ग भी फिल्म को बचा नहीं पाते। कहीं यह फिल्म पीपली लाइव हो जाना चाहती है तो कहीं कोई मिल गया। अब कोई न कह पाए कि यह फिल्म पूरी तरह से किसी फिल्म की नकल है तो कुछ अपनी मौलिकता डालने की भी घटिया कोशिश की गई है। अक्षय कुमार एक जैसी ही ऐक्टिंग करते हैं। सोनाक्षी सिन्हां पूरी फिल्म में अक्षय कुमार की चापलूसी करती रही हैं। पिताबश त्रिपाठी जैसे कलाकार का घटिया उपयोग किया गया है।

Friday, August 24, 2012

लगा कि पारसी बचाओ एसोसिएशन की फिल्म चल रही है और सारे पारसी जमकर ओवरएक्टिंग कर रहे हैं।

इसे कुछ इस तरह से समझिए। टेलीफोन बनाने वाले ग्राहम बेल और बिजली बल्ब बनाने वाले थामस एडीसन कहें कि मैं एक प्रयोग करूंगा। बरसात की बूंदे जब धरती पर टकराएंगी तो उनके घर्षण से जो ऊर्जा निकलेगी उससे मैं बिजली बनाऊंगा। लोग उनकी बात माने या न माने पर हवा में उड़ाकर खारिज नहीं करेंगे। चूंकि यह दोनों वैज्ञानिक हैं और बिजली बनाने के इस प्रयोग के पहले वह दुनिया को कुछ दे चुके हैं। बिजली तो खैर नहीं बनेगी पर ऐसी प्रयोगों से एतबार उठेगा। बिजली बनाने की कुछ ऐसी ही कोशिश संजय लीला भंसाली, फराह खान और बोमेन ईरानी ने की है। शीरी फरहाद फिल्म न तो संजय के जीवन का माइल स्टोन थी, न फराह के और न ही बोमेने के। इस कोशिश का निष्कर्श कैसा भी होता उनके करियर पर इसका कोई फर्क नहीं पडऩे वाला था। फराह नियमित ऐक्टिंग नहीं करने लगतीं, उनकी जोड़ी बोमेन के साथ रिपीट नहीं होने लगती, मेच्योर कलाकरों को लेकर प्रेम कहानियां बननी नहीं शुरू हो जातीं, संजय के नाम की स्तुती नहीं गायी जाने लगती। जब इसके हिट होने से कुछ बदलने वाला नहीं था तो ऑफबीट के नाम पर किसी भी व्यक्ति ने फिल्म में अपना बहुत दिमाग नहीं लगाया। सबने उतना ही किया जितना की वह प्रोफेशनली अभ्यस्त हो गए हैं।
एक बहुत ही स्तरीय कहानी को घटिया पटकथा में तब्दील कर दिया गया। बोमेन जैसे दिग्गज कलाकार ने एक औसत से परफार्सेंस दे दी। सालों कैमरे के पीछे रहने वाली फराह के लिए ऐक्टिंग थोड़ा फन हो गया। बेला सहगल के नाम पर एक फिल्म का निर्देशन दर्ज हो गया और संजय लीला भंसाली भंसाली ने कुछ पैसे कमाने के साथ अपने निर्माण में बनने वाली फिल्मों की संख्य बढ़ा ली। नुकसान सिर्फ उन दर्शकों का हुआ जो इस ऑफबीट फिल्म देखने के लिए पूरी संजीदगी से आए थे। है। फिल्म बनाने की ऐसी घटिया कोशिशें समांतर सिनेमा के उस ढंाचे पर चोट पहुंचाती हैं जिस पर धीमे-धीमे आम दर्शकों का विश्वास जमने लगा है। संजय लीला भंसाली की फिल्मों में पारसी परिवेश के दृश्यों की झलक मिलती रहती है। इस बार उन्होंने हद की है। अन्य फिल्मों के सारे जाने-पहचाने पारसी चेहरे इस फिल्म में एक जगह आ गए हैं। पारसी शायद लाऊड तरीके से बोलते ही हैं या कोई और वजह, हर किरदार ने जमकर ओवरऐक्टिंग की है। एक्टिंग के साथ बोलने की टोन में भी, कपड़ों में, शौक और रहन सहन में भी कहीं-कहीं तो यह फिल्म अखिल भारतीय पारसी बचाओ एसोसिएशन की फिल्म लगने लगती है। उसको श्रृद्धांजलि देती हुई।

Friday, August 17, 2012

मेरे पापा की उम्र के सलमान खान फिल्म में लव इन फस्र्ट साइट वाला प्रेम कर रहे हैं और फिल्म को ३३ करोड़ की ऐतिहासिक ओपनिंग मिल रही है

हिंदी फिल्म उद्योग शादी को अभी कठिन ही बनाए रखना चाहता है। समय के साथ कठिनाई के तरीके बदलते रहे हैं। अमीर किंतु बेरोजगार लडक़े के सिगार पीते पिता, घर पर सिलाई करके बेटी को स्वाभिमानी बनाए रखने वाली मां, कभी जाति तो कभी एक छोटी सी घटना विवाह में अड़ंगा बनती रही है। एक था टाइगर शादी के इसी पारंपरिक अवरोध की कहानी है। चूंकि फिल्मों में मां-बाप तो अब रहे नहीं इसलिए इस फिल्म में नायक-नायिका की शादी में दो राष्ट्रों की गोपनियता और उनकी सामरिक नीतियां आड़े आ रही हैं। १५ अगस्त पर सुबह से बजते देशभक्ति के गीतों और टीवी पर आ रहीं देशभक्ति की फिल्मों की वजह से हम थोड़ा बहुत देशप्रेमी हो जाते हैं। एक था टाइगर अपने प्रोमो और डायलॉग से यही साबित करती थी कि यह एक खांटी देशभक्ति की फिल्म है जिसमें कैटरीना-सलमान की प्रेम कहानी बीच-बीच में दर्शकों के मनोरंजन के लिए आएगी। फिल्म में होता इसका उल्टा है। सलमान की पूरी जाबांजी नायिका से विवाह रचाने के अवरोधों को निपटाने में व्यर्थ होती है। इस फिल्म को रिलीज करने में मल्टीप्लेक्सों के साथ छोटे और मछोले शहरों के सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों ने भरपूर उत्साह दिखाया है। इन सिनेमाघरों को बदले पर आधारित फिल्में हमेशा रास आई हैं। वह बदला मिथुन चक्रवर्ती का हो, सन्नी देओल का हो या फिर सलमान खान का। इस बदले को देखने आए दर्शकों को फिल्म से कुछ नहीं मिला। वह एक प्रेमी के रूप में ही नजर आए। चूंकि फिल्म ३३ करोड़ की ओपनिंग कर चुकी है तो यह फिल्म को खराब कहना वैसा ही होगा कि जैसे कहा जाए कि भारत की सडक़ों पर दाएं चलिए, केले के छिलके सडक़ पर छितराइए।
सलमान खान और मेरे पापा की उम्र में बस इतना अंतर है कि जब मेरे पापा दसवीं कर रहे होंगे तो सलमान दूसरी या तीसरी क्लस में रहे होंगे। सलमान की फिल्मों को जिस उम्र के युवा देखने आते हैं उनके पापाओं और डैडियों की उम्र सलमान खान के लगभग बराबर होगी। १६ साल की लड़कियों के पिता तो सलमान से छोटे भी हो सकते हैं। दो-तीन सालों में ५० की सरहद छूने वाले सलमान खान यदि ऐसी प्रेम भरी सफल फिल्में कर सकते हैं तो यह २५ से ३० साल के नए कलाकारों के लिए अफसोस और चिंतन का विषय होना चाहिए। एक फिल्म जो अपनी डायलॉग, स्क्रीनप्ले, अभिनय और कहानी से इतनी औसत है वह अब तक सबसे बड़ी फिल्म कैसे बन जाती है यह हम सबके सोचने का विषय है। दबंग और बॉडीगार्ड के विपरीत इस फिल्म की अच्छाई यह है कि यहां फूहड़ सहकलाकारों की जगह गिरीश कर्नाड और रणीवर शौरी जैसे कलाकार हैं। कर्नाड को तो और भी फिल्में लगातार करनी चाहिए।

Wednesday, August 8, 2012

यह सही मायने में पहली सीक्वेल फिल्म है

वासेपुर:१, एक घर पर अंधाधुंध गोली चलने की घटना के साथ शुरू हुई थी, जैसे ही वह दृश्य पार्ट:२ के बीचो-बीच स्वाभाविक रुप से आता है हमें एहसास होता है कि हम एक असाधारण तरीके से बनी हुई ऐसी सीक्वेल फिल्म देख रहे है जो सही मायने में अपनी पहली फिल्म का विस्तार है। बिना किसी खास परिचय के हम उस फिल्म के विस्तार में शामिल हो चुके होते हैं जिसे हमने एक महीने से अधिक समय पहले देखा है। वासेपुर:२ हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की शायद पहली ऐसी फिल्म होगी जिसमें कलाकारो के नाम के साथ नायक के जनाजे के दृश्य है। ऐसे नायक के जनाजे का जिसे फिल्म देखने आए दर्शकों में से आधे इस उम्मीद में देखने आए थे कि शायद हिंदी फिल्म की परंपरा के अनुसार कई गोली लगने के बाद भी वह जिंदा हो। पार्ट:१ के हीरो मनोज बाजपेई थे और क्लाइमेक्स में यह साफ नहीं हुआ था कि वह जीवित हैं अथवा मर गए। २० सेकेंड में ही साफ हो जाता हैं कि वह मर गए है। अब ?। दर्शकों के लिए यह एक बड़ा प्रश्न था।
मनोज बाजपेई के जनाजे के दृश्यों से नवाजुद्दीन पर कैमरा जूम होना शुरू हो जाता है। उसकी आदतों पर, उसकी कमजोरियों पर और उसकी सोच पर। पटना से लेकर लेकर जोधपुर और मुरादाबाद से लेकर बिलासपुर तक के फिल्मी दर्शकों के लिए नवाजुद्दीन की हैसितय एक्सट्रा कलाकार से ज्यादा नहीं है। शुरूआती दृश्यों में जब उनकी चिलम पीने की आदत पर खिल्ली उड़ाई जा रही होती है तो दर्शक उस खिल्ली से सहमत होते हैं। उन्हें वाकई यह ऐतबार नहीं होता है कि नवाजुद्दीन इस फिल्म में मनोज बाजपेई जैसी भूमिका निभाने जा रहे हैं जो बदले की इस परंपरा को आगे बढ़ाएगा। फिल्म के निर्देशन की गहराई यहीं से शुरू होती है। पटकथा, घटनाएं, घटनाओं का अध्ययन, चुटीले संवाद के बीच नवाजुद्दीन को ऐसे फिट किया गया है कि वह फिल्म की सबसे महत्वपूर्ण जरूरत लगने लगते हैं। फिल्म के अंतिम दृश्य में दर्शक वाकई नहीं चाहते कि फैजल की हत्या हो।
वासेपुर:२ पात्रों की उपयोगिता की फिल्म है। फिल्म का हर किरदार यह साबित करता है कि उसकी जगह और कोई दूसरा नहीं ले सकता। नवाजुद्दीन का पात्र इसलिए मजबूत लगता है क्योंकि उसके आसपास हुमा कुरैशी, रिचा चड्ढा, पीयूष मिश्रा, तिंग्माशु धूलिया, राजकुमार यादव, जीसान कादरी जैसे कलाकारों का एक गुट है। हर कलाकार अपने किरदार को मानो घोल कर पी गया हो। फिल्म में जहां-जहां कुत्ते आए हैं निर्देशन ने उनसे भी अब तक का सबसे बेहतर काम लिया है। पहले ही फिल्म की तरह यह फिल्म भी अपने दृश्यों की डिटेलिंग से प्रभावित करती है। फिल्म किस सन की बात कर रही है इसे उस दौर में प्रदर्शित हुई फिल्में प्रदर्शित करती हैं। फिल्म देखने वाले हर पात्र पर फिल्म का गहरा प्रभाव है। उस समय फिल्में चूंकि बिगडऩे का एक सूचक मानी जाती थीं इसलिए रामधीन सिंह खुद के बचे रहने के पीछे फिल्म न देखने का कारण देते हैं। फिल्म के संवादों और गानों पर वाकई बहुत मेहनत की गई हैै। दर्शक भी अब मेच्योर हो गए हैं मादरचोद, गाण, बेटी चोर, चोदनपट्टी जैसे शब्द उन्हें फिल्म का ही हिस्सा लगते हैं। वह इन शब्दों के आने पर पहले जैसे उछलते-कूदते नहीं। फिल्म के प्रारंभिक लेखक और डिफनिट की भूमिका निभाने वाले जीशान कादरी प्रभावित करते हैं।

Friday, August 3, 2012

सन्नी लियोन एक चारा थीं, जिससे दर्शकरूपी मछली पकड़ी गई।

भीगकर मल्टीप्लेक्स पहुंचे दर्शक टिकट लेते वक्त से ही सन्नी लियोन का अखंड जाप कर रहे थे। उनकी जुबान में न फिल्म का नाम था, न महेश या पूजा भट्ट थे और न ही फिल्म के नायकद्वय। कुछ दर्शक ऑडी गेट के ठीक बाहर ऐसे उत्तेजित थे कि मानो गेट खुलते ही सन्नी लियोन अपनी ख्याति के अनुरूप उन्हें बिल्कुल निवस्त्र साक्षात मिल जाएंगी। उत्साह इतना चरम पर था कि फिल्म के पहले आने वाले फिल्मों के ट्रेलर पर भी वह सन्नी लियोन को नंगे देखे जाने वाली फ्रीवेंक्सी से ही सीटियां और तालियां बजाए जा रहे थे। फिल्म के कुछ शुरुआती संवाद इसलिए नहीं सुने जा सके क्योंकि दर्शकों को सन्नी लियोन दिखनी शुरू हो गई थीं और दर्शक उत्सहित थे।
यह भट्ट कैंप की कामयाबी थी जो इन दर्शकों को बारिश होने के बावजूद मल्टीप्लेक्स तक खींच लाई थी। यह कामयाबी उस प्रचार की थी जिसमें इस फिल्म को भारत की सबसे अश्लील फिल्म कहकर प्रचारित किया गया था। दर्शक इसे सही इसलिए भी मान रहे थे क्योंकि फिल्म की नायिका पोर्न फिल्मों की नायिका रही हैं। लगभग सवा दो घंटे की इस फिल्म को दर्शकों ने सिर्फ इस उत्साह में एक घंंटे पूरे मनोयोग से देखी कि सन्नी अब कपड़े उतारने वाली हैं। फिल्म का ट्रैक एकबार गंभीर हो जाने के बाद दर्शकों को अचानक लगा कि वह बुरी तरह से ठगे गए। उन्हें अब तक फिल्म में ऐसा कोई सीन नहीं मिला था जिसे वह दर्जनों फिल्मों में पहले न देख चुके हों। उन्हें लगा कि सन्नी लियोन एक चारा थी जिससे दर्शक रूपी मछली पकड़ी गई।
जिस लियोन को वह न्यूड होने की कल्पना मन में लेकर आए थे वह उस समय हिंदी के पारंपरिक घिसे-पिटे संवादों का पाठ कर रहीं थीं या फिर सांसों को उपर-नीचे। यदि इस बीच यदि कुछ अच्छा भी बीत रहा था तो वह उसके खिल्ली उड़ा रहे थे। पूरी फिल्म जितनी खटिया तरीके से लिखी गई उसका निर्देशन भी उतने ही घटिया तरीके से हुआ। एक निर्देशक के रूप में पूजा की और कलाकार के रूप में अरुणोदय की सबसे खराब फिल्म।