Saturday, July 13, 2013

समीक्षकों के लुटाए स्टारों पर न जाइए, यह फिल्म आपको मिल्‍खा सिंह का सरकारी विज्ञापन भी लग सकती है

'भाग मिल्‍खा भाग' बहुत मेहनत और ईमानदारी से बनायी हुई फिल्म है। ईमानदारी के साथ एक समस्या होती है। वह खूब सारी अच्छाईयों के साथ कुछ कमियां भी जुटा लेती है। जैसे कि जब हम ईमानदार होते हैं तब हम यह परवाह करना बंद कर देते हैं कि सामने वाला ईमानदारी से किए हुए हमारे काम को सराहेगा या नहीं। कुछ-कुछ ऐसा ही 'भाग मिल्‍खा भाग' के साथ होता है।
'भाग मिल्‍खा भाग' मिल्‍खा सिंह को बताने में इतनी ईमानदार हो जाती है कि वह भूल जाती है कि आखिरकार वो है एक फिल्म। दर्शक जब टिकट खरीद रहा होता है तो उसके जेहन में एक फिल्‍म होती है। दर्शक टिकट मिल्‍खा सिंह की जिंदगी को देखने को देखने के लिए नहीं बल्कि उनकी जिंदगी पर बनी फिल्म देखने के लिए टिकट खिड़की पर खड़ा होता है। फिल्म में एकमात्र खटकन इस फिल्म में फिल्म में 'फिल्म' का न होना है। 'भाग मिल्‍खा भाग' कई जगहों पर मिल्‍खा सिंह का सरकारी विज्ञापन नजर आती है। मिल्‍खा सिंह से जुड़े हुए छोटे-छोटे किस्सों को ‌इतना डिटेल कर दिया है कि कहीं-कहीं पर लगता है कि यह हीरो हम पर थोपा जा रहा है। कि साहब मिल्‍खा सिंह पर ताली बजाइए। वह एक रेस और जीत आया है। हीरो को हीरो न दिखाकर भी उसे हीरो बनाने की तीन फिल्मों का जिक्र करता हूं। एक फिल्म राकेश मेहरा की 'रंग दे बसंती' ही है। आमिर खान उस फिल्म के हीरो होते हैं। फिल्म का मीटर आमिर ही तय कर रहे होते हैं लेकिन कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि आमिर हम पर थोपे जा रहे हैं। दूसरी फिल्म राजकुमार हिरानी की है। आमिर यहां भी हैं। 'थ्री इडिट्स' का हीरो तमाम सारी खूबियां रखता है लेकिन फिल्म उसे हीरो के रूप में महिमामंडित नहीं करती। हीरो प्रतिभाशाली है लेकिन उसमें एक इंसान के रूप कई सारी कमियां हैं। 'पान सिंह तोमर' का हीरो भी हम पर थोपा नहीं गया। हम सहज की उसकी विवशताओं के संग हो लेते हैं और उसे हीरो बना देते हैं। 'भाग मिल्‍खा भाग' के कई सीन ऐसे हैं जहां हीरो को एक हीरो के रूप में प्रोजेक्ट किया जा रहा है। कुछ किस्से हमें अच्छे लगते हैं, हम उनमें भावुक होते हैं और उस हीरो को नमन करते हैं, लेकिन हम हर बार उसे हीरो बनता नहीं देखना चाहते। तमाम अच्छाईयों के साथ 'भाग मिल्‍खा भाग' की एक कमी यह भी है कि यह फिल्म दर्शकों के रोमांच और जिज्ञासा के शिखर पर लाकर उन्हें स्‍खलित होने का सुख नहीं देती। यह फिल्म कभी रोमांच के पहाड़ को सतत न चढ़कर कहीं-कहीं बिल्कुल फ्लैट हो जाती है। चूंकि फिल्‍म का मुख्य विषय दौड़ ही है इसलिए कई जगह यह अपने को दोहराती भी है। 'मौसम' फिल्म की तरह इस फिल्म का संपादन करने वाले संपादक शायद राकेश ओमप्रकाश मेहरा के बौ‌द्घिक आतंक और आग्रह से घबराए रहे होंगे। यह फिल्म आसानी से 40 मिनट छोटी हो सकती थी। कुछ नयी उपकथाएं जोड़ी जा सकती थी। कुल मिलाकर भाग मिल्‍खा भाग एक अच्छी फिल्म है जो यदि ईमानदारी से संपादित की जाती तो मनोरंजक भी हो सकती थी। इस फिल्म को देखते वक्त आशुतोष गौरवीकर की 'खेलें हम जी जान से' याद आती है।