Saturday, January 18, 2014

पता नहीं क्या होता कि 'लगाओ लगाओ' के नारे सिसकियों में बदल जाते

 
(बेहतर होगा कि इस पोस्ट को पढ़ने से पहले इस पोस्ट के नीचे वाली पोस्ट पढ़ ले, शायद बेहतर कांटीन्यूटी के लिए)

इस पहली फिल्‍म के आधे घंटे में ही मन कई सारी जिज्ञासाओं से भर उठा। मुझे समझ में नहीं आता कि जो लड़की पूरे कपड़े पहनकर एक बेहद संकरे बाथरूम में शॉवर ले रही थी वह तो फिल्म में कही थी ही नहीं। न ही वो भाई साहब जो एक महिला से सेक्स करने की चाहत तो रखते थे लेकिन उनके हाथ बढ़ते-बढ़ते फिर पीछे हो जाते। कपड़े वह भी कई बार पूरे ही पहने हुए होते इसलिए उतारने का शायद नैतिक साहस न रखते।

मैं यह पूछना तो चाह रहा था लेकिन मेरे अंदर की घबराहट और 'शराफत' ने मुझे ऐसा करने से रोका। उस पहली फिल्म में इंटरवल में किसी राजनीतिक पार्टी के चुनावी पंपलेट में लिपटे लगभग ठंडे समोसे का टेस्ट भी मुझे नहीं पता। करीब एक बजे शुरु हुई फिल्‍म 2 बजकर दस मिनट पर खत्म हो गई। ‌

सिनेमाहाल से निकलने पर वही सारी मॉकड्रील फिर करनी पड़ी जो जाते वक्त की थी। अलबत्‍ता हम सबके चेहरे मुरझाए हुए थे। मैं अंदर से उत्साहित जरूर था लेकिन ऐसा लगने नहीं देना चाहता था।

बाद में इन फिल्मों को लेकर भी एक टेस्ट डेवलप होता गया। कुछ वैसे ही जैसे सिगरेट या शराब पीने वाला आदमी शुरुआत किसी एक ब्रांड से करता है बाद में उस ब्रांड को लेकर उसमें टेस्ट विकसित होने शुरू होते हैं।

यह सी ग्रेड फिल्‍में मुझे तो मुख्यतः दो तरह की लगीं। पहली जिनका मूल थीम डर होता। सफेद मैक्सी या गाउन पहने हुए एक मोटी लड़की का बलात्कार ऐसा पुरुष करता था जिसके चेहरे पर टैमोटो शॉप चिपका हुआ होता था। कई बार उनके चेरहे पर लगा मुखौटा साफ-साफ दिख जाता। किसी घटिया होटल के उन कमरों के बल्ब बार-बार जलते बुझते। खिड़कियां खुलती बंद होतीं और बादल चमकते। इन अनुकूल माहौल के बीच बलात्कार हो रहा होता।

बलात्कार के बीच में या बाद में फिल्म का हीरो एम्बेस्डर या मारुती 800 जैसी किसी कार से आता। भूत उसका देखकर भाग जाता। फिर वह हीरो उस महिला के साथ वही करता जो भूत करने की इच्छा रखता। इन फिल्मों के नाम भी एक ही जैसे थे। सूनसान महल, मौत का दरवाजा, खूनी प्रेमिका, हवेली के पीछे, शैतानी ड्रैकूला जैसी फिल्मों की खासियत ये थी कि दिन में तो सबकुछ ठीक होता।

कई बार तो फिल्म की महिला नायिका कई सारी महिला सहेलियों के साथ कॉलेज पढ़ने भी जाती। लेकिन रात होते-होते अचानक ही सब कुछ बदल जाता। तेज हवाएं चलतीं। चमक-गरज के साथ छींटे पड़ते और भूत आ जाता।

इन सभी फिल्‍मों के भूत एक जैसे ही थे। कुछ शारीरिक बदलावों के साथ भूतनियां भी। खासियत यह होती कि जब भूत बलात्कार कर रहा होता और लड़की चिल्ला रही होती लेकिन भूत को अपने से परे नहीं हटाती तभी एक वीडियो चलने लगता। इस वीडियो में दो लोग कुश्ती जैसा कुछ लड़ रहे होते और सिनेमाहाल में सन्नाटा सा खिंच जाता। कही बार इसी दौरान इंटरवल की पट्टी लिखी आ जाती और हॉल समोसे और कोल्डड्रिंक के नारे से भर जाता।

कुछ समय के बाद मैने महसूस किया। कि इंटरवल के बाद हॉल कुछ खाली हो जाता है। मेरे दोस्त मेरी अज्ञानता पर मुस्कुराए। हमेशा की ही तरह मुझे खुद ही इसका उत्तर बाद में मिल गया।

दूसरी तरह की फिल्‍में अपने नाम से ही लोगों को आकृष्ट करने की कोशिश करतीं। बीवी नरम साली गरम, प्यारी पडोसन, रात की बात, 151 सहेलियां, दोस्त की बीवी, एक रात की बात, हवस की रात जैसे नामों वाली फिल्में यह स्पष्ट कर देतीं कि उनका मजमून क्या है। लेकिन अंदर ज्यादातर धोखा होता।

इन फिल्मों में न तो कहीं ठंडी बीवी होती और न ही गरम साली। इन फिल्मों में ज्यादातर प्रेम कहानी होती। कई बार इन फिल्‍मों का हीरो खंडाला या मसूरी जैसे किसी हिल स्टेशन में एक रोमांटिक गाना गाता और हीरोईन भरकस नाचने का प्रयास करती। यश चोपड़ा की फिल्‍मों की तरह ही मैने कुछ फिल्मों में प्रेम त्रिकोण भी देखे। रोमांस यहां भी होता लेकिन यश चोपड़ा से थोड़ा अलग।

बाद में जिस तरह का प्रैक्टिल रोमांस इमरान हाशमी ने किया कुछ उसी तरह के रोमांटिक सीन इन फिल्मों में भी होते। बस यहां किंग साइड बेडरूम में बिछे काले रंग के मखमली कंबल न होकर, किसी सस्ते होटल के कमरे में पीछे आयताकर डिजाइन वाले चादर होते। इन दृश्यों के आते ही सिनेमाहॉल के उस बदबूदार माहौल में रंगीनियां घुल जातीं जहां फिल्‍म की शुरुआत से ही 'लगाओ-लगाओ' के नारे उठ रहे होते।

                                                                                                           जारी है

Monday, January 13, 2014

आपको भी रह-रहकर याद आती हैं डर-डर के देखी गईं ये फिल्में




मन तो दसवीं क्लास से ही ऐसी फिल्मों को बस देख डालने का हुआ करता था। घर और स्कूल के आसपास दीवारों पर इन फिल्मों के बड़े-बड़े पोस्टर लगते। इन पोस्टरों में एक मोटी सी लड़की नहाने जैसा कुछ उपक्रम कर रही होती। इनसेट में एक पुरुष लड़की के साथ कुछ करने की कोशिश में होता और एक इनसेट चुंबन जैसा कुछ दृश्यदिखा रहा होता। कई बार कोई भूत भी लड़की को डराता और लड़की ब्लाउज पहनकर डरने की ऐक्टिंग कर रही होती। पोस्टर देख मन लगातार मचलता। लेकिन उन दिनों फिल्म देखना ही संज्ञेय अपराध में शुमार था। फिर ऐसी फिल्म देखना के बारे में सोचना ही रुह कंपा देता। 

वक्त बदला, गंगा में कुछ और पानी बहा। फिर वह समय भी आया जब इन फिल्मों के लिए साहस जुटाने का साहन होने लगा। साहस इन पोस्टरों की वजह से ही हुआ। जुर्म करने की प्रेरणा इन फिल्मों के नामों ने दी। कच्ची जवानी, बरसात में जवानी, रंगीली भाभी, जवान साली जैसे नामों वाली यह फिल्में अंतश्‍ा तक कोहराम मचा रहीं थीं। इसके लिए कोई भी बगावत करने का मन हुआ।

12वीं की परीक्षाओं के लगभग दो महीने पहले की बात है। दोपहर हो जाने के बाद कोहरा छटा नहीं था। स्कूल के कोई ट्रस्टी मर गए थे जिसकी वहज से कांडोनेंस हुआ। मेरे कुछ मित्र फिल्म देखने का कार्यक्रम पहले ही बना चुके थे। यह वह मित्र थे जो लंबे समय से ऐसी फिल्में देख रहे थे और अब इस अपराध बोध से उबर भी चुके थे।

मैने उनको दबी जुबान में फिल्म देखने की इच्छा जताई थी। जहां तक मुझे याद आ रहा है फिल्म का नाम दूधवाली था। मैं होशियार था कि कहीं दूधवाली देखने की इच्छा मेरी इमेज पर प्रश्न न खड़े कर दे। पर वह मेरे सही मायने में दोस्त थे। उन्होंने मुझ पर अपराध बोध हावी नहीं होने दिया। उन्होंने ऐसा जताया कि मैं जय संतोषी मां या बार्डर सरीखी कोई फिल्म देखने जा रहा हूं। मुझसे मेरे हिस्से के 12 रुपए मांगे गए। मुझे संक्षेप में वहां पहुंचने का प्लान बताया गया। मैं सुन सबको रहा था लेकिन मेरे दिमाग से दूधवाली हट नहीं रही थी। हम साइकिलों से शार्टकर्ट रास्तों से दूधवाली फिल्म दिखाने वाले सिनेमाघर में पहुंच चुके ‌थे।

जैसे कि इन दिनों दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल मफलर बांधते हैं वैसे कई केजरीवाल चेहरे को मफलर से कसे हुए सिनेमाहॉल की लॉबी में टहलते पाए गए। सभी उत्साहित थे और लगभग सभी घबराए हुए। दर्शकों की संख्या 25 से 30 की थी। यहां मुख्य रूप से तीन तरह के लोग थे। एक हम जैसे स्कूली और कॉलेज के लड़के, दूसरे रिक्‍शे और ऑटो वाले और तीसरे अधेड़। सभी एक-दूसरे को भरपूर सम्मान दे रहे थे और कोई किसी की आंखों में झांक नहीं रहा था।

हम में से कुछ दर्शकों की अंर्ताआत्मा उन्हें यहां से चले जाने के लिए प्रेरित करती लेकिन यह दूधवाली का ही प्रताप था कि वह वहां जमे रहे। हम सभी ने 10 रुपए की दर वाले फर्स्ट क्लास के टिकट यह सोचकर लिए कि बैठना तो फैमिली में ही है। हम चार लोग तीन साइकिलों से गए थे। तीन रुपए साइकिल का किराया हुआ। लोग मुख्य गेट का शटर खुलवाने के परेशान थे। इसकी दो वजहें थीं पहली वजह दूधवाली की सम्मोहक बैठने की मुद्रा और दूसरा उन्हें बाहर टहलते हुए कोई भी देख सकता ‌था। करीब 12 बजकर 50 मिनट पर मुख्य गेट खुला।

गेट खुलते ही मेरे पेट में एक तरंग सी दौड़ गई। मुझे लगा कि मैं रोमांच के नए सागर में गोता लगाने जा रहा हूं। नए लोग तुरंत ही सिनेमाहॉल के अंदर घुसकर सीट लेने में उत्साहित दिखे पर कुछ अनुभवी हॉल के अंदर लगे छोटे-छोटे पोस्टरों में दूधवाली को करीब से देखने की कल्पना में थे। प्लानिंग के अनुसार हम फैमिली में ही बैठे और कोने की सीट लिया। पहलवान छाप साबुन के विज्ञापन के बाद फिल्म शुरु हुई। पूरे पर्दे पर नहीं बल्कि आधे पर्दे पर। फिल्म का कैनवास कुछ-कुछ साउथ का था। कुछ देर के बाद बालों से भरी पीठ, निकले हुए पेट और मूंछों वाले पुरुष एक मोटी लड़की का दमन कर रहे होते। दिखने को तो बस पुरुष की पीठ दिखती और उसका हिलना-डुलना दिखता। चूंकि पीछे से कुछ आवाजें आती रहतीं इसलिए मामला बहुत संगीन सा लगता रहा।
                                                                                                                    
                                                                                                                      जारी है...