Monday, February 24, 2014

'हाइवे' की आलोचना करना बहुत आसान है, गलती आपकी है भी नहीं...


कोई फिल्‍म जब छूटती है तो उस समय मल्टीप्लेक्सों के कॉरीडोर या गलियारे उस फिल्म की चर्चाओं से पटे होते हैं। आमतौर पर उस समय मुंह से निकलने वाली टिप्पणियां स्वाभाविक होती हैं। शुक्रवार की रात एक मल्टीप्लेक्स में जब हाइवे का हाऊसफुल शो खत्म हुआ तो नजारा ऐसा नहीं था। लोग यह तय नहीं कर पा रहे थे कि वह इस फिल्म की तारीफ करें या घनघोर बुराई।

सभी एक-दूसरे की की टिप्पणी का इंतजार कर रहे थे। उनका मन यह जज नहीं कर पा रहा था कि फिल्‍म अच्छी है या बुरी। दर्शक इस फिल्‍म पर सोचे हुए को ही सोचना चाहते थे। कोई आकर कह दे कि अच्छी है तो उनके पास अच्छे के लिए तर्क थे और कोई कह दे कि बुरी है तो बुरे के लिए तर्क।

यह दुविधा सिर्फ दर्शकों में नहीं रही। फिल्म समीक्षक भी इस भ्रम से घिरे नजर आए। शुरुआती प्रतिक्रियाएं यह आईं कि फिल्म बुरी है। बुरी होने के पीछे ठोस धाराणाएं नहीं थी। खराब होने के पीछे तर्क यह थे कि फिल्म स्लो है और ज्ञान की बड़ी बड़ी बातें कही गईं। वह भी आलिया भट्ट के मुंह से। फिर कहीं से तारीफ का स्वर छूटे और लोग तारीफें करने लगे।

हाइवे दरअसल दो फिल्मों का एक संयुक्त गठबंधन है। और यह बेमेल गठबंधन है। फिल्म की कमजोरी यही है कि यह गंठबधंन कहीं से मेल नहीं खाता। थोड़ा सब्जेक्टिव बात करते हैं। जो लोग यह फिल्‍म देख चुके हैं उन्हें यह बात आसानी से समझ आ जाएगी कि यदि 'शुक्ला अंकल वाला चैप्टर' पूरी तरह से फिल्म से निकाल भी दिया जाए तो फिल्म की सेहत पर फर्क नहीं पड़ता। या इस तर्क पर भी बात की जा सकती है कि शुक्‍ला अंकल वाला चैप्टर फिल्म में डाला ही क्यों गया। लेकिन क्या कुछ कथित गैरजरूरी दृश्यों की वजह से फिल्म खारिज की जा सकती है।

फिल्म को लेकर अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाएं इसलिए आईं क्योंकि मन अच्छे होने या बुरे होने का आकलन अपने पिछले अनुभव से करता है। हाइवे की सबसे बड़ी खूबसूरती यही रही कि यह फिल्म अपनी बनावट और क्रॉफ्ट दोनों में ही नई शैली की फिल्‍म है।

मुझे तो नहीं याद आ रहा है कि हिंदी फिल्‍मों में कोई ऐसी कहानी आज तक दिखी है जिसमें नायक और नायिका के बीच आकर्षण तो हो लेकिन यह आकर्षण प्रेमी वाला आकर्षण न हो। मुझे यह भी याद नहीं आ रहा है कि रणदीप हुड्डा जैसे सख्त चेहरे और जरूरत से ज्यादा कमसिन और मासूम आलिया की जोड़ी इसके पहले कभी फिल्मों में बनी हो। सड़क के इर्द-गिर्द सिमटी स्वाभाविक खूबसूरती को कभी इस तरह से नहीं देखा गया।

लोगों को इस खारिज या स्वीकार्य करने में तब शायद ज्यादा सुविधा होती कि आलिया उस खूनी ट्रक वाले से प्यार कर लेतीं और वह ट्रक वाला चुन-चुनकर ऐसे लोगों को मारता ‌जिसने आलिया को कष्ट दिए थे। इम्तियाज ने ऐसा नहीं किया और बहुत लोगों को फिल्‍म के बारे में राय रखने के लिए भ्रम में डाल दिया। 

हाइवे के क्लाइमेक्स से मुझे सालों पहले आई ओमकारा फिल्‍म का क्लाइमेक्स याद आता है। क्लाइमेक्स सीन में मरी पड़ी करीना के ऊपर झूले में मरे हुए अजय देवगन का शरीर झूल रहा होता है। दर्शक इस फिल्म के क्‍लाइमेक्स पर भी तय नहीं कर पाए थे कि इस रचनाशीलता को गाली दें या इस पर मर मर मिटें।

हाइवे फिल्‍म कई बातों के साथ अपने अलग किस्म के सेंस ऑफ ह्रयूमर के लिए भी याद रखी जाएगी। सिनेमेटोग्राफी पर तो काफी कुछ कहा ही जा चुका है। हो सकता है कि यह फिल्‍म कुछ लोगों के बीच इम्तियाज अली के साहस के लिए भी याद की जाए। आमतौर पर लोग लोकप्रिय होने को ही अच्छा होना मान लेते हैं ऐसे लोगों को इम्तियाज ने करेक्ट किया है।

Thursday, February 6, 2014

चलो, सब मिलकर जय हो के साथ 'सलमान परिवार' की तारीफ करते हैं


अरबाज खान के बाद जिस दिन सोहेल खान ने निर्देशक बनने का फैसला लिया था उसी दिन से मुझे सलीम खान की किस्मत से एक किस्म की ईष्या होनी शुरू हो गई थी। तीन लड़के और तीनों ही इतने होनहार।

सलमान खान जिस तरह का अर्थपूर्ण अभिनय करते हैं वह खुद में ऐतिहासिक है। कमर ‌हिलाना, धूम के चश्मे को पीठ पर टांगना, तौलियो को दोनों पैरों के बीच से निकालकर आगे पीछे करने जैसे दृश्य हिंदी सिनेमा के इतिहास में कोई भी बड़े से बड़ा फिल्मकार अब तक करना तो दूर सोच भी नहीं कर पाया। यह सलमान खान का ही प्रताप था कि उन्होंने दबंग, दबंग 2 और बॉडीगार्ड जैसी कालजयी फिल्में दीं। देश को सलमान की अविश्वसनीय अभिनय क्षमता पर हमेशा से ही पूरा विश्वास रहा है।

क्या हुआ जो सलमान का दूसरा भाई अरबाज फिल्मों में हीरो के रूप में उतना सफल नहीं हो पाया। लेकिन हैलो ब्रदर जैसी फिल्मों में उसने भी दिखाया कि उसके अंदर एक बहुत बड़ा अभिनेता छिपा हुआ है। खैर हिंदी फिल्‍मों के दर्शक हमेशा से ही अच्छे अभिनेताओं की परख नहीं कर पाए हैं। इसका खामियाजा अरबाज को भुगतना पड़ा। लेकिन कहते हैं न कि अंगारे में छिपी आग को उस पर चढ़ी राख दबा नहीं सकती। कुछ ऐसा ही अरबाज के साथ हुआ। जब उसने दबंग 2 फिल्म का निर्देशन किया तो अचानक व्यवसायिक और कला सिनेमा बनाने वाले प्रतिष्ठित निर्देशकों को लगा कि वह अभी तक कर क्या रहे थे। इतना सक्षम फिल्मकार उनके बीच में था जिसको उन्होंने कभी नोटिस ही नहीं किया।

तीसरे भाई के साथ भी हिंदी सिनेमा के दर्शकों ने कम जुल्म नहीं किया। सोहेल खान नाम के इस भाई को एक तो निर्देशकों ने कम ‌फिल्में दीं। सलमान के कहने पर उसको फिल्में तो दी गईं लेकिन उस अच्छे अभिनेता से साजिशवस खराब अभिनय कराया गया। प्रतिभा खुद को भीड़ से हमेशा निकाल लेती है। सोहेल ने भी ऐसा ही किया। उसने हिंदी सिनेमा में सितारों की भीड़ से खुद को अलग कर लिया। उसकी राहें उसे कहीं और बुला रही थीं। सोहेल एक ऐसा सिनेमा बनाना चाहता था कि जिसे युगों-युगों याद किया जाए। वह 70 के पर्दे पर ऐसे सीन रचना चाहता था कि जिसे देखकर दर्शक बस रो पड़े और रोते हुए ही घर जाएं। इन्हीं सब सोच को मिलाकर उसने जय हो फिल्म रची।

और आ गई जय हो

जब हिंदी सिनेमा का 1000 साल का इतिहास लिखा जाएगा तो उसमें श्रेष्ठ फिल्मों में जय हो का नंबर तीसरा या चौथा तो होगा ही। क्योंकि राम गोपाल वर्मा जैसे सक्षम फिल्मकार ने आग जैसी कालजयी फिल्म पहले ही बना दी थी। उस फिल्म तक को फिरोज खान की जानशीं भी नहीं पहुंच पाई। तुषार कपूर से जैसे वर्सेटाइल एक्टर की भी कुछ फिल्में भी हो सकता है कि जय हो को पिछाड़ दें। लेकिन मैने कहा न कि जय हो तीसरी या चौथी फिल्‍म तो बनेगी ही। जय हो के एक-एक फ्रेम में इतनी मेहनत की गई है कि उस एकमात्र फिल्‍म को देखकर निर्देशन की रुचि रखने वाले युवा निर्देशक बन सकते हैं। डेजी शाह की अभिनय क्षमता किसी भी महात्वाकांक्षी लड़की को यह दिखाएगी कि अभिनेत्री बनने के लिए कितनी मेहनत करनी पड़ती है।

आगे का पूरा महाकाब्य सलमान पर ही है

                                                                                                           जाइएगा नहीं जारी है