Saturday, June 28, 2014

'चचा महेश' मोहित सूरी की कुछ मदद करें


पर्दे पर प्रेम को दिखाना, खुद के जीवन में प्रेम करने से ज्यादा जटिल वस्तु है। फिर जब इसी प्रेम के न मिलने से उपजे गुस्से को दिखाना हो और मामला 'बदला टाइप' वाला हो जाए तो यह काम और भी कठिन हो जाता है। इसलिए फिल्मकार सुविधा का रास्ता चुनते रहे हैं। प्रेमी या तो प्रेम करता है या फिर किसी से बदला लेता है। दोनो काम एक साथ नहीं करता। भारत में इस‌ीलिए जो प्रेम कहानियां बनती हैं उनके विलेन बड़े चिर‌परिचित से होते हैं। अमरीश पुरी भी अंतिम सीन में "जा सिमरन अपनी जिंदगी जी ले" कहकर तालियां बटोरते आए है। लेकिन गलतियां वहां होती हैं जब हम विदेश की किसी फिल्म के क्राफ्ट को थोड़े बहुत बदलावों के साथ हिंदी सिनेमा में लागू करते हैं। यह सोचकर की लोग अब नए किस्म का सिनेमा देखना चाहते हैं। मोहित सूरी की एक विलेन यही कई सारी गलतियां करती है।

मैंने तो नहीं देखी लेकिन सुनते हैं कि एक विलेन कोरियाई फिल्म 'आई सॉ द डेविल' फिल्म से काफी हद प्रेरित है। मोहित को निश्चित ही खून करने वाले मनोरोगी का मनोविज्ञान 'फिल्मी' लगा होगा। उन्होंने सोचा होगा कि इसी के इर्द-गिर्द प्रेम की फंतासी बुन दी जाए तो दर्शकों को एक कोरियाई फिल्म के साथ यश चोपड़ा या करन जौहर की फिल्म मुफ्त में मिल जाएगी। अब उन्होंने खूनी का खून करने की जो वजहें पकड़ी है वह बेहद हास्यास्पद है।

एक विलेन की कई औसत अच्छाईयां उसके खराब क्राफ्ट के आगे दम तोड़ती रहती है। कई दृश्य इतने बचकाने हैं कि
हम किसी उत्साही सिनेमा छात्र की पहली डाक्यूमेंट्री देख रहे हैं। अच्छे गाने और बेहतर ऐक्टिंग फिल्म को बचाने का प्रयास करती है लेकिन इंटरवल के बाद यह उसमें भी नाकाम हो जाती है। एक रोमांटिक फिल्म की जरूरत यह है कि फिल्‍म में प्यार हो, प्यार दिखे, अवरोध आएं। अवरोध के तनाव को हम महसूस करें और तनाव खत्म होने पर हमें राहत लगे। ‌एक विलेन के जिस हिस्से में यह प्रेम रचा जा रहा होता है वहां हम ऐसा कुछ भी महसूस नहीं करते। प्यार दोनों कर रहे होते हैं लेकिन यह दोनों ही यह एहसास दर्शकों को नहीं करा पाते।

फिर जब यह फिल्म थ्रिलर होना चाहती है तो वह उसकी भी शर्ते और जरूरतें पूरी नहीं करती। फिल्म के पहले दृश्य में ही नायिका को मरते दिखा दिया जाता है। फिर इंटरवल आते-आते यह साफ हो जाता है कि किसने और क्यों मारा है। इंटरवल के ठीक पहले के दृश्य में बदला लेने वाला नायक उस विलेन से कहता है कि मैं तुम्हें एकदम से नहीं मारूंगा लेकिन रोज-रोज मारूंगा। विलेन तो बच जाता है लेकिन मारने की वह परिकल्पना दर्शकों को जान निकाल देती है। दर्शक "मारने के सौ तरीके" नाम की कोई फिल्म देखने नहीं गए थे।

यदि किसी ‌फिल्म से नकल करके  कोई इतने बड़े बजट की फिल्म बन रही है तो वाकई उस फिल्म में इतनी मामूली कमियां नहीं होगी जितनी एक विलेन में दिखती हैं। फिल्म में विलेन बने रितेश देशमुख का पात्र मजबूत हो सकता था बस उसे अच्छे से लिखा गया होता। बीवी से अपमान सहने वाला एंगल बहुत आलोचना की गुंजाइश रखता है। उन दृश्यों का अधकचरापन मोहित सूरी की शिकायत करता है।

सिद्घार्थ मेल्होत्रा और श्रद्घा कपूर ने अपनी सीमाओं के अनुसार अच्छी ऐक्टिंग की है। श्रद्घा तितली पकड़ने के शौक रखने के साथ कुछ फिलॉसफिकल बातें भी करती हैं। जिनसे हीरो प्रभावित होता रहता है। और क्या चाहिए। गाने नाचने वाले थे नहीं इसलिए वह नाची नहीं। सिद्घार्थ चुप रहने में अच्छे लगते हैं लेकिन उनका यह चुप रहना उनकी ठीक पहले की फिल्‍म हंसी तो फंसी में ज्यादा अच्छा लगता है। एक्‍शन के लिए हिंदी फिल्‍मों में अक्षय कुमार और सलमान खान ही काम पर लाए जाने चाहिए।

लगातार खराब फिल्मों के इस दौर में 'एक विलेन' कुछ कम खराब फिल्म कही जा सकती है। जब साजिद खान हमशक्ल की सफलता का जश्न मना सकते हैं तो मोहित शूरी इस फिल्म के बदले दो और ऐसी फिल्में बना सकते हैं। नाम '2 विलेन' और '3 विलेन' हो सकते हैं। 'महेश चचा' मोहित सूरी की कुछ मदद करें। फिल्मों में गर्मागर्म दृश्य की घोर कमी महसूस की गई। युवाओं में इस बात का रोष दिखा।