Sunday, December 25, 2016

दंगलः ये हमारे पापाओं और डैडियों की भी कहानी है, भले ही हम गीता-बबिता नहीं थे...



मैं दसवीं में था और उन दिनों मेरे पापा के पास रेड चीफ की एक पुरानी सैडिंल हुआ करती थी। भूरे कलर की उस सैंडिल का शेप बिगड़ चुका था। पापा अब उसे पहनते नहीं थे। वह अब दूसरे कामों में आ रही थी। जब मैं पढ़ता तो मेरे बैठने के बगल में ही वह सैंडिल रखी होती। रेड चीफ की उस सैंडल से मानों सैकड़ों मर्तबा मार खाई है। सुबह के 6 बजे भी और रात के 11 बजे भी। पापा जब मारते तो बहुत मारते। वह जाड़ा गर्मी और बरसात का अंतर न करते।  पढ़ाई में मेरा मन तब नहीं लगा जब उसमें लगाने की जरूरत थी। पापा मेरे फोकस न करने से चिंतित थे और हर बाप की तरह चाहते थे कि मैं इतना काबिल तो बन ही जाऊं कि रोटी कमा सकूं। पापा का सपना मुझे गोल्ड मेडल जितवाना नहीं था और न ही कोई अपने कोई अधूरे सपने मुझ पर थोप रहे थे। पर एक संतान के भविष्य के साथ उनका जुड़ाव दंगल के महावीर फोगाट से कम नहीं था। ये मेरी नहीं हर मध्यमवर्गीय बेटे और पिता की कहानी होगी या हो सकती है। हमारे पिता महावीर फोगाट ही थे हम भले ही गीता या बबिता न बन सके। 

दंगल फिल्म वाकई गीता-बबिता की  फिल्म नहीं है। ये एक पिता की फिल्म है। उसकी कमजोरी और आशाओं की फिल्म है। आमिर अपनी फिल्‍मों में वैसे भी खुद को लगातार पर्दे पर ना दिखाने के समर्थक होते हैं इस बार वह गौण रहकर भी फिल्म के नायक होते हैं। क्लाइमेक्स के उस सीन में जहां गीता गोल्ड के लिए लड़ रही होती हैं, कैमरा, गीता और हमारा मन आमिर को खोज रहा होता है। गीता ने भले ही देश के लिए गोल्ड जीता हो लेकिन दरअसल वह गोल्ड अपने बुढ़ा रहे पिता के लिए जीत रही होती है। एक फिल्म के रुप में दंगल एक मजबूत फिल्म है। पर फिल्म से ज्यादा यह एक पिता और बेटी के संबंधों का सत्य दस्तावेज है। फिल्म बिना प्रगतिशील हुई बाप-बेटी के इन संबंधों को हमारे सामने रखती है। दर्शक के रुप में अब यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम कौन सा हिस्सा पकड़े और किसे जाने दें...

जिस दौर में मैं या मेरी उम्र के लोग बड़े हो रहे थे उस दौर में हमारे पिता हमारे दोस्‍त नहीं हुआ करते थे। जिंदगी को थोड़ा और पीछे ले जाएं तो पिता को दरअसल पुत्र का विरोधी सा माना या देखा जाता है। पिता यानीकि उसके हर शौक और इच्छाओं का विरोधी। पिता और पुत्र आपस में बात नहीं करते थे। आदेश दिए और लिए जाते थे। पिता और पुत्र के बीच का शारीरिक स्पर्श सिर्फ पैर छूने के दौरान होता था। मेरी उम्र् लगभग  15 साल थी। मैं कानपुर रेलवे स्टेशन पर किसी ट्रेन के इंतजार में था। एक पिता और पुत्र मेरे बगल में आकर खड़े होते हैं। 23 या 24 साल की उम्र का लड़का अपने पिता को डैड कह रहा  था। पिता पुत्र की वह जोड़ी प्लेटफार्म पर बेंच पाने की आश में थोड़ा मूव करती है। कुछ कदम चलने के बाद पिता अपने हाथ बेटे के कंधे पर दोस्त के अंदाज में रख लेता है। बाप अपने बेटे के कंधे पर भी हाथ रखकर चल सकता है यह मेरे लिए नया अनुभव था। फिल्मों में उस समय अमीर घरानों के बेटे-बेटियां अपने पिताओं को डैड या डैडी कहकर बुलाते थे। ये निष्कर्ष निकालकर की अमीर पिता और बेटे के बीच संबंध ऐसे ही होते होंगे मैंने अपना फोकस इस बात से हटा लिया था। दंगल, सालों पुरानी उस छोटी सी बात को ताजा करती है। 

दरअसल दंगल की सबसे बड़ी खूबी बेटी और बाप के खुरदरे संबंध ही हैं। एक बाप जो अपने बेटियों से मजाक नहीं करता, उनके साथ हंसता नहीं, गले लगाकर उन्हें शाबासी नहीं देता है। उनसे उतनी ही बात करता है जितनी करनी बेहद जरुरी है।  जिस परिवेश से फोगाट आते हैं ऐसा होने स्वाभाविक भी था। बेटे होने के लिए पुत्र जाप के लिए तैयार हो जाने वाले फोगाट से उम्‍मीद भी इससे ज्यादा नहीं होती। फिल्म की खूबसूरती यही है कि वह रियल रहती है। फोगाट को जबरन प्रगतिशील नहीं बनाया गया। फोगाट तब बनावटी जरुर लगते हैं जब वह सीढ़ियों में बैठकर अपनी बेटी को स्‍त्री सशक्कतीकरण की शिक्षा दे रहे होते हैं। फिल्म में आमिर खान की वह स्पीच गैर जरुरी लगी। फोगाट अपनी बेटियों को इसलिए आगे लेकर नहीं आए थे कि वह स्‍त्री सशक्कतीकरण में अपना हाथ बंटाना चाहते थे। 



  मैंने अपने जिंदगी में बहुत कम ऐसे बाप देखे हैं जो किशोरी से जवां हो रही बेटियों से खुलकर बात करते हैं। जब मैं यह बात लिखकर रहा हूं तो मेरे दिमाग में निश्चित ही 2016 न होकर 2000 के आसपास का कस्बाई माहौल है। अपवाद को छोड़कर मध्यमवर्गीय संस्कार में जी रहे किसी पिता को अपने बेटी को गले लगाते नहीं देखा है।  फोगाट इस परंरपरा जो कि एक संस्कार से लगती है का निर्वाह करते हैं। फिल्म में कई ऐसे दृश्य हैं जहां दर्शकों को लगता है कि अब बेटी फोगाट के सीने से लग जाएगी। ऐसा कई जगह पर हुआ पर ऐसा होता नहीं है। फोगाट गोल्‍ड जीतने वाली बेटी से गले न लगकर उसका हाथ से मेडल लेकर उसे देखते हैं। यह बेहद अटपटा तो है लेकिन रियल है। यही ईमानदारी दंगल की खूबसूरती है। 

 दंगल खुद को फिल्म बनाने की बहुत कोशिश नहीं करती। बॉयोपिक फिल्में कई बार इस उपापोह से जूझती हैं कि उन पर छेड़छाड़ करने का आरोप भी न लगे और सिनेमा भी सधा रहे। किसी एक की जिंदगी में इतना मसाला कभी नहीं होता कि उस पर एक मुक्कमल फिल्म बना दी जाए। फिल्म बनाने के लिए फिल्मी होना पड़ता है। दंगल भी कई जगह पर फिल्मी हुई है पर उसका फिल्मी होना अच्छा लगता है। कोचिंग एकेडमी पहुंचने के बाद गीता का बदलाव और पिता के रुप में इसकी कुढ़न फिल्म का सबसे बेहतर हिस्सा है। आमिर और उस नई नवेली लड़की दोनों ने ही इस बदलाव को शानदार तरीके से पर्दे पर उकेरा है। 

यहां फोगाट हमारे पारंपरिक पिताओं से अलग हटते हैं। आमतौर पर एक पिता अपने आप को तब पीछे खींचने लगता है जब  उसे लगता है कि उसकी संतान उससे ज्यादा काबिल हो रही है। दोनों की काबलियतों के बीच कभी मुकाबला नहीं होता। कहावत भी है कि संसार में सिर्फ बाप का ही एक रिश्ता ऐसा होता है जो यह चाहता है कि उसका बेटा उससे भी ज्यादा काबिल हों। यहां फोगाट बेटी की तरक्की से बहुत सहमत नहीं होते। यह जानते हुए भी कि बेटी कुछ नया सीख रही है। 

चूंकि फिल्म आमिर खान की होती है इसलिए कुछ समय के लिए बेटी को 'भटक गई' के रुप में दिखाया जाता है। पिता को सार्वजनिक रुप से अपमानित करने के बाद जब गीता एक के बाद एक मैच हार रही होती है तो दर्शकों को एक अजीब सा खलसुख मिलता है। दर्शक तब राहत की सांस लेते हैं जब गीता को अपनी गलती मानता हुआ दिखाया जाता है। फिल्म यहां पर गीता के साथ नाइंसाफी करती है। काबिल हो जाना किसी का अपमान करना होता है। फोगाट गीता के काबिल हो जाने को अपने अपमान से जोड़ते हैं। और बाद में फिल्म इसे जस्टीफाई भी करती है। कुल मिलाकर दंगल हिंदी सिनेमा की सबसे संपन्न फिल्मों में से एक है। जिसे एक जरुरी काम की तरह देखा जाना चाहिए।