Friday, December 21, 2018

मैं आज थिएटर में अपने सुपरस्टार की तेरहवीं खाकर आया हूं

मेरे अंदर ड्रॉपर से निब पेन में स्याही भरने का सहूर भी नहीं आया था, मेरे पैर इतने लंबे नहीं हुए थे कि मैं पापा की 20 इंची सायकिल चला सकूं, तब तक मुझे नहीं पता होता था कि गाने में आवाज शाहरुख या आमिर की ना होकर सोनू निगम और उदित नारायण होती थी उसके बहुत पहले शाहरुख खान सुपरस्टार बन चुके थे। आपकी समझ आने के पहले ही यदि किसी का आभामंडल आपके पूरे वजूद पर छा जाए तो उसके तिलिस्म को टूटते हुए देखने का दर्द भी है और मज़ा भी। ज़ीरो फिल्म के शाम के शो में मैं ये तिलिस्म टूटता हुआ देखकर आ रहा हूं, और जाहिर है कि ये मज़े लेकर भी। इंटरवल के बाद जब दर्शक अपने इस सुपरस्टार की खिल्ली उड़ाते हुए हॉल से निकलने लगे तो लगा कि मैं अपने इस हीरो की तेरहवी की पंगत में खाने बैठा हूँ। दो-तीन ये पंगत और चलेगी। फिर सब मरने वालों को भी भूल जाएंगे और पंगत में परोसी गई सब्जी या चटनी को भी।

मुझे याद नहीं आता कि शाहरुख की ऐसी भी कोई फ़िल्म रही है जिस पर दर्शक उसे पूरा करने का सब्र भी ना रख पाए हों। हैरी मेट सेजल और फैन भी शाहरुख की असफल फिल्में थीं लेकिन वो तिलिस्म को तोड़ने वाली फिल्में नहीं थीं। रॉ वन घाटा देने वाली फिल्म थी और डियर जिंदगी बहुत सफल न होकर भी उनकी रेंज को दिखाने वाली।

 जीरो फिल्म अपने अभिनय की वजह से शाहरुख की सबसे खराब फिल्म नहीं है। एक्टिंग के मामले में हो सकता है कि ये शाहरुख़ की मास्टरपीस कही जाए लेकिन ये शाहरुख के दुरुपयोग वाली फिल्म जरूर कही जाएगी। युगों युगों तक। साथ ही ये उनके मिस जजमेंट की फ़िल्म है, ये आनंद एल राय और हिमांशु शर्मा की सीमाओं को दिखाने वाली फिल्म है, एक निर्देशक और लेखक के फेल होने की फ़िल्म है। एक नकली और बनावटी किरदारों वाली फिल्म है। एक नए हाथों से सुपरस्टार को न संभाल पाने वाली फिल्म है।

ऐसा नहीं है कि शाहरुख रियलस्टीक सिनेमा के हीरो रहे हों और सच में पंजाब में कोई बाप अपनी बेटी से 'जा सिमरन जी ले अपनी जिंदगी कहता हो' शाहरूख का पूरा सिनेमा ही नकली रहा है। लेकिन ये नकली उनका अपना बनाया हुआ नकली था। जो नकली होते होते असली सा होता गया। जिसमें फिलिंग और अदाएं असली थीं। जिसमें शाहरुख असली थे, उनका इश्क असली था, उनकी फैलती हुए बाहें असली थीं, उनका स्विट्जरलैंड असली था, शिफॉन की साड़ी पहने पहाड़ में डांस कर रही उनकी प्रेमिका असली थी और अंत में किसी भी सूरत में होने वाली उनकी जीत असली थी।

आत्मविश्वास से भरे किसी बौने की प्रेम कहानी पहली नजर में दिलचस्प लग सकती है और ये शायद शाहरुख को लगी भी हो लेकिन उसका ट्रीटमेंट इतना घटिया होगा ये उन्हें तो समझ में आना चाहिए था। उनको पता होना चाहिए था कि नकली मेरठ चल सकता है ये किरदार और उनकी मोहब्बत नहीं चल पाएगी।
इंटरवल तक कैसे भी गिर पड़ते चलने वाली ये फ़िल्म मेरठ से मुंबई पहुँचते ही किसी नौसिखिया डायरेक्टर की फ़िल्म लगने लगती है। ऐसा लगता है कि आनंद एल रॉय की पहली फिल्म स्ट्रेंजर के बाद इस फ़िल्म को बना रहे हैं। बीच में कोई और उनके नाम से फिल्में बनाता रहा है। संवादों से कमाल के किरदार रचने वाले हिमांशु शर्मा शायद शाहरुख का लोड बर्दाश्त नहीं कर पाए।

 फ़िल्म की अच्छी बात ये है कि कमाल की घटिया स्क्रीप्ट होने के बाद भी किसी भी किरदार का अभिनय घटिया नहीं था। आनंद और हिमांशु को छोड़कर सब अपनी इज़्ज़त और इमेज बचा लेते हैं। रेस 3, ठग के बाद ज़ीरो का ये प्रदर्शन के ट्रेंड नहीं शो कर रहा है?

Friday, November 9, 2018

विजय कृष्ण आचार्य के हाथ काट लेने चाहिए, वह मना करें तो उनका लिंग काट लेना चाहिए


ठग्स ऑफ हिंदुस्तान दरअसल बहुत बुरी फिल्म नहीं है। दरअसल ये एक निर्देशक की सिनेमाई लिमिटेशन की कहानी है। ऐसा लगा है कि कोई अपना पैर अलग-अलग साइज के दूसरों के जूतों में डालकर चलने की कोशिश कर रहा है। चलने में कभी जूता आगे घिसक जाता है तो कभी पांव। ठग... जैसा बचकानापन जीवन में भी होता है। एक आदमी जब अंदर से बिलो एवरेज होकर पैसों के दम पर बड़ा  दिखना चाहता है तो वह अपने उन कॉम्पलेक्स को महंगे लिबास, महंगी विदेशी घडियों,  लग्जरी गाड़ियों या फोर बेड रुम  फ्लैट से ढकने की कोशिश करता है। वह आपको महंगी विदेशी शराब ऑफर  करता हूं लेकिन उस शराब दो घूंट निगलने के बाद जब वह बोलता तो उसकी कलई घुल जाती है। उसका सतहीपन उभरकर उतराने लगता है।

एक फिल्माकर के  तौर पर यही खालीपन विजय कृष्ण आचार्य निर्देशित ठग्स ऑफ हिंदुस्तान के हर सीन में दिखता है। वह अपनी सीमाओं और बचकानेपन को बडे सितारों के आभामंडल, वीएफएक्स तकनीक, बड़े-बड़े सेट से ढकने की कोशिश करते हैं। हर एक सीन में जहां इमोशन दिखने चाहिए, किरदार के लेयर्स दिखने चाहिए उन्होंने उसे बस वैसे ही ड्रामेटिक बना दिए जैसे स्टार प्लस में आने वाले धारावाहिकों के सीन। जहां आप किसी किरदार से कनेक्ट नहीं हो पाते बस उसे होते हुए देखते रहते हैं। चूंकि वहां ब्रेक होते हैं, एपीसोड की लेंथ 22 मिनट की होती है इसलिए आप उसे झेल लेते हैं लेकिन तीन घंटे की फिल्म को लगातार झेलना कठिन हो जाता है। आपका मन करता है कि आप यहां से निकल जाएं और फील करें कि आपकी रियल दुनिया उतनी बोरिंग नहीं है जितनी की ये फिल्म।

कई जगहों पर ये फिल्म कॉमेडी की तरह होती है जो निर्देशक की नजर में भव्य एक्शन होता है। अमिताभ बच्चन बहुत बुजुर्ग आदमी के मेकअप में हैं। चेहरे पर इतनी घनी दाढी है कि समझ में नहीं आता कि आवाज कहां से निकल रही है। वह एक लडकी के साथ कुछ कुछ देर में अंग्रेजों के जहाज लूटने लगते हैं। लडकी की अपनी एक अलग कहानी है। वह हर समय गुस्से में होती है। जब वह युद्व नहीं भी कर रही होती है, शाम को समंदर की तरफ निहार रही होती है तब भी वह उतनी ही नाराज दिखती है।  नाराजगी ऐसी की जैसे मम्मियां गुस्से वाला मुंह बनाकर बच्चे को डराएं और बच्चा डर के मारे दूध पीले। उधर अमिताभ जब वह युद्व के लिए जा रहे होते हैं तो एक चील या बाज जैसा कोई जीव उडकर आने की दस्तक देता है और एक खास तरह की आवाजें बैकग्राउंड से निकलने लगती है। ऐसा 90 दशक की कई घटिया फिल्मों में दर्शक देख चुके होते हैं।

गुस्से वाली ये लडकी है हर बार एक तरह से फिसलकर तीर चलाती है। अमिताभ मुंह से भें भें की आवाज निकालते हैं और सामने वााले जहाज में गोले बरसने लगते हैं। जब गोले फूटने लगते हैं तो वह हेया हेया जैसी आवाज दो बार निकालते हैं। जहाज लूटने के ये सीन फिल्म में कई बार हैं। अमिताभ बच्चन हर बार वैसा ही करते हैं। लाल पोशाक पहने कंपनी के सैनिकों की भर्ती की जांच होनी चाहिए। उनको भर्ती किसने किया था? उन्हें कभी भी कोई भी मार सकता है। एक नॉन प्रोफेशनल सैनिक भी सात से आठ लाल कपडों वालों को मार देता है। वह किसी को मार रहे हैं ऐसा फिल्म में कभी नहीं दिखाया गया है। लंदन को इस फिल्म पर ऐतराज जताना चाहिए।

मजे की बात ये है कि अमिताभ अपना गिरोह छिपाकर रखते हैं तो जहाज लूटकर वह करते क्या हैं। वह खुद भी जहाज से चलते हैं लेकिन कई बार वह नाव से भी चलते हैं। लडकी के विपरीत अमिताभ जहाज लूटने के बाद शांत हो जाते हैं। और शाम को बंजर जमीन में खेती करने लगते हैं। फिल्म का क्लाइमेक्स हास्यास्पद है। आचार्य जी 2018 में आप जहर वाले लडडू खिलाकर सैनिकों को बेहोश करता हुआ दिखाओगे? फिल्म बनाने का आपका लाइसेंस क्यों न रदद कर दिया जाए। आपके हाथ क्यों ना काट लिए जाएं और आप मना करें तोआपका लिंग क्यों ना काट लिया जाए?

आपको आमिर खान को वेस्ट करने में भी शर्म आनी चाहिए। साथ में फातिमा सना शेख को भी। इनकी दंगल देखिए और आठ दस बार देखिए। हो सकता है कि शूटिंग के बाद आमिर हंसते रहे हों कि वह कर क्या रहे हैं। लेकिन उन्हें ये भी पता था कि दीवाली वीकेंड में  ये फिल्म उनके कैरियर की सबसे बडी फिल्म बनने वाली है। आपने कैटरीना कैफ को बहुत सेक्सी दिखाया है। उनसे एक्टिंग नहीं करवाई है। ये आपका एकमात्र ठीक काम है। उनको देखकर कंपनी के सैनिकों के साथ साथ दर्शकों का भी मन सेक्स करने का हो सकता है।

सिनेमा में कहानी कुछ नहीं होती। वह हमेशा एक पेज  की होती है। निर्देशक और लेखक की ताकत इस बात में होती है कि कैसे उस एक पेज की कहानी को 100 पन्नों की पटकथा में बदलें। उन पन्नों में किरदार हों, सीन हों। कहानी उसमें एक स्वेटर की तरह बुनी हो जिसमें कंधा भी हो, बांह भी। पेट और पीठ भी। ठग्स ऑफ हिंदुस्तान में ऐसा कुछ  भी नहीं है। इस फिल्म के बाद विजय कृष्ण आचार्य बस उस जमात में आकर खडे हो जाते हैं जहां प्रभुदेवा,  साजिद वााजिद,  साजिद खान,  अभिनव कश्यप, शिरीष कुंदर  जैसे जैसी घटिया निर्देशक पहले से खडे हुए होते हैं। जब आप ये लाइन पढकर  होंगे उस समय इस फिल्म के सबसे जल्दी सौ करोड कमाने की खबरें भी आ चुकी होंगी। एक सप्ताह बाद आप इस फिल्म की सक्सेज पार्टी की तस्वीरें भी दिखेंगे। भारतीय सिनेमा को अभी और जलील होना है...

Friday, October 19, 2018

मिडिल क्लास को भी किसी भी उम्र में सेक्स करने का पूरा हक है, और हां शराब पीने का भी



शराब पीना और सेक्स करना जैसे 'बुरे काम' कितने बुरे हैं इनकी डिग्री परिवेश तय करता है। मध्यमवर्गीय आदमी के लिए ये दोनों ही टैबू हैं। वो ये दोनों काम करता तो है गिल्ट के साथ। सेक्स तो बहुत ही बुरी चीज है। शादी के बाद जब  लड़की
 प्रेगनेंट होती है तो उसे ये बात अपने भाई और पिता से बताने में झिझक होती है। झिझक की वजह ये होती है कि वह मां बनने वाली है तो इसका मतलब ये है कि उसने सेक्स किया होता है। ज्यादातर मध्यमवर्गीय परिवारों में ये बातें आज भी वाया मां परिवार  के मेल मेंबर तक पहुंचती हैं । बधाई हो एक ऐसे विषय पर बनी फिल्म है जिसमें एक युवा इस झिझक के साथ जीता है कि उसकी मां 'फिर से मां' बनने वाली है। वो भी तब जब वह खुद अफेयर में  है और शादी करने वाला है। जाहिर है कि बच्चा जूठा आम खाने से तो वजूद में आया नहीं होगा तो ज्यादा शर्म की बात ये है कि उसके मां बाप अभी भी सेक्स करते हैं। उसके मां-बाप भी अनजाने में हुए इस पाप को कवर करते हुए चलते हैं। घर में, मोहल्ले में, ऑफिस में। चूंकि एबॉर्शन करना उनके लिए इससे बडा पाप है इसलिए वह बच्चा रखने के अपेक्षाकत छोटे पाप के साथ सरवाइव करने का फैसला लेते हैं। फिल्म कॉमिक अंदाज में बहुत ही कठिन और डिस्कश ना करने वाली चीजों की चर्चा करती हुई चलती है। एक शानदार भावुक क्लाइमेक्स के  साथ।

सेक्स को मुख्य विषय बनाकर भारत में कुछ बहुत अच्छी फिल्में बनाई गई हैं। इसमें से कुछ गुमशुदा हैं और कुछ को चर्चाएं मिलीं। दिल कबडडी, मिक्सड डबल, रात गई बात गई जैसी फिल्में गुमशुदा और असफल रही हैं। विक्की डोनर, शुभ मंगल सावधान को आप सफल की कैटेगरी में रख सकते हैं। बधाई हो इन सभी फिल्मों से  एक कदम आगे की फिल्म है। बिना अश्लील हुए और मुंह छिपाए ये फिल्म सेक्स जैसे विषय पर खुलकर बात करती है। घर की दादी के मुंह से जब निरोध शब्द निकलता है तो हमें अटपटा नहीं लगता है। हम हंसते हैं। फिर फिल्म खत्म होते होते खुद शादी की दहलीज में खड़े लडके को अपने मां बाप का सेक्स करना बुरा नहीं लगता। जो कुछ समय पहले बहुत ही लिजलिजा सा ख्याल लगता है। और लडका शर्मिंदगी में अपनी 'अपरक्लास प्रेमिका' से बात करना तक बंद कर देता है क्योंकि उसे डर है वह उसे जज करेगी।

बधाई हो इधर समाज और खासकर शहरी कल्चर में आई एक नई टेंडेंसी पर भी बात करती है। लड़की और उसकी फैमिली को मिडिल क्लास का लड़का तो पसंद आता है पर उसे फैमिली उसे 'डाउन मार्केट' लगती है। लड़का इसलिए पसंद आता है क्योंकि वह महसूस करती हैं कि लड़के को खुद भी 'मिडिल क्लास' होने पर शर्म है और वह मिडिल क्लास से 'वाया अपर मिडिल क्लास' अपर क्लास में शिफ्ट हो रहा है। शादी के बाद लड़की उसकी इस शिफिटिंग में  मदद करेगी। एक्चुअली ये एक अनकही डील होती है। मैंने आसपास हाल ही में अमीर हुए बहुत से ऐसे मध्यमवर्गीय लडके देखे हैं जो अपनी ससुराल के स्टेटेस का ख्याल रखते हुए ऐसे मां बाप से उचित दूरी बना लेते हैं जिन्हें मॉल के एक्सीलेटर में पैर रखने में डर लगता है या वह हाथ से ही रेस्टोरेंट में दाल चावल खाने लगते हैं। पत्नी के सामने उनकी अपनी उस बोली में बात करने में झिझक होती है जिसे वह सालों से बोलते आ  रहे हैं।

फाइनेंसियल डिफरेंस को फिल्म दुनिया में पहले भी दिखाया जाता रहा है पर जरा फिल्मी अंदाज से। प्यार झुकता नहीं है से लेकर राजा हिंदुस्तानी जैसी फिल्में में ये डिस्कोर्स आए हैं। यहां भी कटघरे में 'लडके का क्लास' है। लडकी का पाप सिगार पीते हुए लडके की मासिक कमाई पूछता है और फिर अकडकर अपनी बेटी के एक दिन का खर्च बताता है। पर इधर अमीर लोग भी जरा 'संस्कारी और मॉडेस्ट' हो गए हैं। इसका रिफ्लेक्शन फिल्मों में आया है। उन्हें मिडिल क्लास से बू तो आती है लेकिन उसके आगे वह एक किस्म का सेफ्टी वाल्वलगा देते हैं। 'शिफ्टिंग इन फ्यूचर' का सेफ्टी वाल्व। बधाई हो इस टेंडेसी को बहुत 'क्लासी' तरीके से दिखाती है, बगैर अपर क्लास को जलील किए। खासकर मिडिल क्लास  के लडके का मिडिल क्लास में घर वापसी का सीन।

फिल्म का सबसे खूबसूरत पक्ष किरदारों की ऐक्टिंग और उनके किरदार का गठन है। आयुष्मान खुराना, नीना गुप्ता और गजराज राव मंझे हुए अभिनेता है। उन्होंने तो अच्छा किया ही दादी के रोल में सुरेखा सिकरी ने बेहद उम्दा काम किया है। बधाई हो एक जरुरी तौर पर देखी जाने वाली फिल्मों में है। हम हिंदी सिनेमा के सबसे सुनहरे दौर में जी रहे हैं। इसके टेस्ट को चख लेना चाहिए। कोई ठिकाना नहीं कि पांच साल के बाद हमें क्या मिलने लगे। कई बार मनमोहन को हटाने के चक्कर में हम क्या चुन लेते हैं।

Wednesday, October 3, 2018

'पटाखा' टीवी सीरियलों की लोकप्रिय कहानियों का 'इंटलेक्चुअल वर्जन' है

विशाल भारद्वाज की पटाखा देखते हुए आपको दूरदर्शन में 'चिक शैंपू पेश करते हैं' के दौर वाली फिल्में याद आ सकती हैं। ऐसी फिल्में जो सबकी समझ में आ जाएं। मेरे घर में जब भी अनोखा बंधन, प्यार झुकता नहीं, स्वर्ग या फिर इधर बाद में विवाह या बागबान जैसी फिल्में आईं तो बुश टीवी वाला कमरा हाउसफुल चला। उसी कमरे ने वह बुरा दौर भी देखा जब टीवी पर हू तू तू, जख्म, फिजा, क्या कहना जैसी फिल्में आईं। विशाल की पटाखा 'टीवी की इन सर्वमान्य फिल्मों' से दो मामलों में अलग है। पहली उसमें  कोई जाना-पहचाना चेहरा या स्टार नहीं है। दूसरा उसमें बीच-बीच में 'भारद्वाज स्कूल ऑफ फिल्म मेकिंग' के इंटलेक्चुअल छींटे और शटायर हैं। फिल्म के एक सीन में खुद को परेशान कर रहे है  युवक से नायिका बोलती है कि मारुंगी एक तो गुजरात में  जाकर गिरोगे। परेशान करने वाले को गुजरात में जाकर गिराना यूपी या बिहार में नहीं यही विशाल का पॉलिटिकल कमेंट है।

विशाल एक ऐसे फिल्मकार हैं जिनकी राजनीतिक समझ उनकी फिल्मों में रिफ्लेक्ट होती है। उनके सिनेमा का एक छोटा सीन या संवाद एक बहुत बडी बात या विडंबना को कहने की कोशिश करता है। देशकाल और राजनीतिक विचार उनकी फिल्मों में बार-बार आते जाते रहते हैं। पटाखा इस मामले में अलग है। इस बार केंद्र में वाकई एक मनोरंजक कहानी है जो भदेस है। देशी है। कहानी किस कालखंड की है ये नहीं मालूम। फिल्म में दिखाई गईं रेलगाडियों के डिब्बे नीले हैं तो यह मान लेते हैं कि ये इसी दौर की बात है। इस बार जोर सिनेमा की भव्यता पर ना होकर एक सामान्य कहानी को डायलॉग, सीन और अभिनय से चमत्कारिक बनाने में है। अगर इस आधार पर चीजों को परखा जाए तो वे सफल रहे हैं। यह फिल्म दर्शकों को लगातार इंगेज्ड रखती है। पर ये उन लोगों को कुछ निराश कर सकती है जिनके लिए विशाल,  हैदर, मकबूल, मटरु, या रंगून  जैसा सिनेमा रच चुके थे। ये कुछ वैसा ही है कि निर्मल वर्मा अपनी कोई कहानी शरदचंद या कुछ हद तक जैनेंद्र की तरह लिख दें। या फिर महेश भटट कुछ नया करने के लिए रोहित शेटटी की स्टाईल में एक कॉमेडी फिल्म बनाएं और जिसका नायक उनकी मेकिंग स्टाईल के अनरूप ही अवैध संतान हों। ये सब अच्छा रचते या बनाते हैं पर अपनी तरह से।

सिनेमा में इमेज एक ताकत भी है और कमजोरी भी। दो बहनों की लड़ाई वाली यह फिल्म विशाल के लिए कुछ वो दर्शक जोड सकती है जिन्हें रंगून बहुत हैवी लगी हो,  हैदर लेफ्ट धारा के आसपास और मटरु शुद्व राजनीतिक। पर विशाल की कुछ और फिल्में जैसे ओमकारा, सात खून माफ और कमीने विशुद्व रुप से मनोरंजक फिल्में थीं जिनका कैनवास बहुत बडा था और  घटनाएं एक परिवार  के बीच की। इन फिल्मों से तुलना करने पर पटाखा पीछे छूट जाती है और लगता है कि हम नेशनल न्यूज चैनल में कोई लोकल खबर देखने लगे। उनके इस सिनेमा में फिलॉसफी कम है और घटनाएं ज्यादा। फिलॉसिफी का पूरा जिम्मा फिल्म में सूत्रधार बने सुनील ग्रोवर पर ही है। वह मसखरे अंदाज में लोकल से ग्लोबल और ग्लोबल से इंटलैक्चुअल बातों की तरफ बढ जाते हैं। बहनों की लडाई की निरर्थकता को भारत-पाकिस्तान से जोडना उसी कवायद का हिस्सा है। ऐसे कई सारे कमेंट हैं जो फिल्म के ह्रयूमर को डार्क बनाकर ये बताने की कोशिश करते हैं कि यह अनोखा बंधन या प्यार झुकता नहीं जैसी नहीं है।

सिनेमा में सही तरीके से गांव को ना दिखाना खटकता है। गांव की लडकियां सुंदर भी हो सकती हैं और गोरी भी। ऐसी बहुत सी लडकियां मैंने देखी हैं जिनके दांत बहुत सुंदर और चमकदार होते हैं। फिल्म उन्हें टाइप्ड दिखाती है। जब वीडियो कॉलिंग है तो जींस भी हो सकती है और छोटे बालों वाली हेडर स्टाईल भी।  महिलाएं ही घर को तोडती हैं पुरूषों की इसी बनी बनाई मानसिकता को भी विशाल हवा देते हैं। जाहिर है आज से बीस साल के बाद जब विशाल सिनेमा नहीं बना रहे होंगे तब उनको हैदर के लिए ही याद रखा जाएगा ना कि पटाखा के लिए। आप देखना चाहें तो देख सकते हैं  क्योंकिफिल्म बुरी नहीं है। बस ये बदले हुए विशाल की है। जो शायद बटर चिकन और नॉन खा-खाकर थक गए थे और उन्होंने बटर खिचडी का ऑर्डर दिया हो।

Monday, September 17, 2018

चूहे बिल बनाते हैं और सांप उसमें रहते हैं, इस बार चूहे ने बिल नहीं बनाया


चूहे बिल बनाते हैं और सांप उनमें रहा करते हैं। सांप आलसी होते हैं वो काटते भी तब हैं जब उन्हें खुद अपने लिए डर लगता है। चूहे पूरे दिन काटते हैं बिना किसी डर के। अनुराग कश्यप फिल्मी दुनिया के चूहे रहे हैं उनका दूसरों के बनाए बिलों में  गुजारा नहीं हुआ है। डिब्बाबंद 'पांच' से  लेकर 'मुक्काबाज'  तक सब उन्हीं के बिल हैं। ये बिल इतने संकरे और स्टाइलिश हैं कि अगर कोई सांप उसमें घुसना चाहे तो उसकी चमड़ी छिल जाए। मनमर्जिंया अनुराग की पहली  ऐसी फिल्म है जब अनुराग दूसरों के बिल में घुसे हैं। इस फिल्म में उन्होंने कुछ रचा नहीं। ना ही किरदार, ना वातावरण, ना कहानी और ना ही नई भाषा। बस बने बनाए पहले के फॉर्मूलो को जरा अपने ढंग से एडिट भी कर दिया। जैसे एक सब एडिटर डेस्क पर बैठकर रिपोर्टर की एक कॉपी को एडिट कर देता  है। कुछ अपने शब्द डाल देता है और उसके हटा देता है।

फिल्म में कई सारे सीन ऐसे हैं जहां अनुराग कश्यप की झलक मिलती तो है लेकिन यह उनकी फिल्म नहीं लगती। इसकी कई वजह हो सकती हैं। सबसे बड़ी शायद ये  कि अनुराग शायद अपने आइसोलेशन से उकता गए हों और उन्हें अब मेनस्ट्रीम की शोहरत आकर्षित करने लगी हो। या उनको लगने लगा हो कि फिल्में अब फिल्म फेस्टिवल के लिए नहीं बल्कि भारतीय  फेस्टिवल के अनुरूप बनानी चाहिए। फैमिली ऑडियंश का एक बडा वर्ग जो उनसे चिढता है उसे वे अपने करीब बैठाना चाहते हों। चाहते हों कि उनकी फिल्में परिवार को लोग देखने आएं और फिल्म देखकर खुशी खुशी खाना ऑर्डर करें और फिल्म को भूल जाएं।


सेक्स के बाद सलवार में  नाड़ा बांधती तापसी पन्नू के उस सीन को छोड दे तों फिल्म ज्यादातर जगहों पर संस्कारी ही है। बस थोडा थोडा वैसा ही  साहस दिखाने की कोशिश करती है जैसे यूपी या मप्र के किसी स्कूल मास्टर, या बैंक कैशियर की लडकी जब पहली बार सिगरेट का  कश  खींचती है या वोदका का पहला घूंट भरती है तो उसे लगता है कि उसने बहुत बडी बगावत कर ली। इस फिल्म को देखते हुए मुझे आडवाणी का जिन्ना की मजार में जाना याद आ गया। जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष कहना याद आया। याद आया कि कैसे 2003 में अटल बिहारी बाजपेई  ने हज यात्रियों के लिए बडी छूट की घोषणा की थी। फिर राहुल गांधी के वे चित्र भी दिमाग में आए जिसमें वे रामनामी ओढे मंदिरों के चक्कर लगा रहे  थे। ये भी याद आया कि प्रणब दा संघ के एक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि बनकर गए  थे।

मनमर्जियां लंबी फिल्म है पर बुरी नहीं। किरदार अच्छे लगते हैं। पर कुछ कुछ टाइप्ड भी। क्लाइमेक्स का तो ऐसा है कि आप पहले से दो दिन लिख लें, फिर अक्कड़ बक्कड़ खेल लें। उसी में से कोई एक निकलेगा। टाइप्छ ऐसे कि प्रेमी, प्रेम अच्छा करेगा, सेक्स जुनूनी करेगा। बिल्कुल संतुष्ट कर देगा। लडकी को सिगरेट और शराब पीने की लिबर्टी देगा, जीवन की छोटी छोटी बातों में जज नहीं करेगा। लेकिन यही प्रेमी जिम्मेदार नहीं होगा।  पैसा नहीं कमाएगा। पति के रूप में जिम्मेदार नहीं दिखेगा। लडकी जो एक सुरक्षा चाहिए होती है वह नहीं देगा। इसके उलट फिल्म के पास एक पति भी होगा। और लगेगा कि वह पति के रुप में ही पैदा हुआ है। वह बहुत भयंकर किस्म का जिम्मेदार  होगा। संवेदनशील होगा लेकिन ठीक से सेक्स नहीं कर पाएगा। शायद सेक्स में प्रयोग बिल्कुल ना करें। 69 पोजीशन उसे पता ना हो। फ्लेवर्ड कंडोम का यूज ना करता हो। क्योंकि उसका जन्म जिम्मेदारी उठाने के लिए हुआ था ना कि सेक्स करने के लिए। मनमर्जियां ये  सब बहुत पुरानी मानसिकतााओं की हवा देती हैं, बस जरा नए तरीके से।


फिल्म के किरदार खासकर अभिषेक बच्चन का किरदार ना चाहते हुए भी 'हम दिल दे चुके सनम' के अजय देवगन और 'तनु वेडस मनु' के माधवन जैसा ही लगता है। तापसी पन्नू के किरदार का कन्फयूजन  इम्तियाज अली से चुराया हुआ लगता  है। कहीं कहीं ये करण जौहर की फिल्म भी लगने लगती है। कहीं शाद अली की तो कहीं दिबाकर बनर्जी की। बस अनुराग की नहीं लगती। जिंदगी में हमें किसी के जैसा नहीं बनना चाहिए। रन वीवीएस लक्ष्मण भी बनाते हैं और वीरेंद्र सहवाग भी। दोनों के अपने चाहने वाले हैं। लेकिन दोनों के रन बनाने के तरीके अलग अलग हैं। अनुराग की फैन फालोइंग खानों जैसी नहीं है लेकिन उनके सिनेमा को पसंद  करने वाले हैं और बढ रहे हैं। इसकी उनको कद्र होनी चाहिए।

कुछ फिल्मों से  तापसी पन्नू वैसी ही लग रही हैं जैसे एक समय परिणिती चोपडा लगती थीं। अपने कोस्टार पर चढी हुई। बिस्तर पर भी और सीन में भी। ये अच्छा लगता है लेकिन कई  बार जबरिया भी। हमारे आसपास ऐसी लडकियां नहीं हैं जो  अपनी स्कूटी से प्रेमी के घर चली जाएं या अपनी बुलेट से अरेंज्ड मैरिज वाले दूल्हे के घर जाएं और उसे मना कर आएं।  ये फेमेनिज्म का एक नया तरीका है। अच्छा लगता है कई लडकियों को। लेकिन बहुत सारी लडकियां इसे ओवरडोज मानती हैं और मानती हैं कि ये फेमेनिज्म नहीं है।

अभिषेक इस फिल्म में एक सरप्राइज पैकेज हैं। अभिषेक के खराब दिनों में भी मैंने उन्हें एक अच्छा कलाकार माना। ऐसा  कलाकार जिसे अच्छे निर्देशक कम मिले। जो मिले उन्होंने रिपीट नहीं किया। मनमर्जियां में अभिषेक का मॉडेस्ट होना बनावटी नहीं लगता। लगता  है कि ये बंदा इतना बर्दाश्त तो कर ही लेता है। 'एक दूसरे को खा जाओ, घुसे रहो एक दूसरे में' वाला सीन 'कभी अलविदा  ना कहना' का बी पार्ट लगता है। इस सीन को और लंबा होना चाहिए  था। इतना था कुछ था उस आदमी के पास उस हालात में कहने के लिए  पर जाने क्यों उस सीन को एक मिनट में ही समेट दिया गया।

इधर दो चार साल में जो  कलाकार प्रकट हुए हैं उनमें विक्की कौशल की रेंज सबसे बडी है। मनमर्जिया देखते हुए मुझे लस्ट स्टोरी और राजी वाले  विक्की याद  आ रहे थे। एक बहुत लंबी रेंज वाला ये अभिनेता वाकई  बहुत दूर तक जाने वाला है। सबकुछ ठीक है फिल्म में। बस ये कुछ लंबी कम होती और आखिरी में डायरेक्टेड बाई में अनुराग की जगह कोई  और नाम चमक गया होता। 

Friday, August 3, 2018

मुसलमान एक परसेप्शन बेस्ड जीव है, 'मुल्क' चाहता है कि ये टूटे


मुसलमान एक परसेप्शन बेस्ड जीव है। परसेप्शन यूं ही नहीं बना। इसके बनने और मजबूत होने में सालों लगे हैं। कश्मीर में हुई एक घटना गोरखपुर के किसी सुबोध शुक्ला का परसेप्शन और मजबूत कर देती है। या कोई चंदन मार दिया जाता है। मुसलमान का आतंकी होना एक अलग डिग्री का परसेपशन है। लेकिन वह अनपढ होता है, जाहिल है, कई सारी शादियां करता है। वह किसी के साथ भी सेक्स कर सकता है, बहुत सारे बच्चे पैदा करता है। गंदगी में रहता है और इस्लाम को छोडकर हर धर्म  का विरोधी होता है। और सबसे बडी बात ये है कि वह विश्वास करने का पात्र नहीं है। ये ऐसे परसेप्शन है जो रोजमर्रा की जिंदगी में हर रोज मुसलमान अपने सामने वालों की आंखों में खुद के लिए देखता है।

अब तो यूज्ड टू है। यही परसेप्शन उसे 'हम और वो' में बांटते रहे हैं। दर्दनाक पहलू ये है कि मुसलमाानों ने खुद को लेकर बन रहे इस परसेप्शन का विरोध नहीं किया, बल्कि उनका ही विरोध करने लगे जो इस तरह के परसेप्शन के साथ जी रहे होते हैं। मेरा अपना फर्स्ट हैंड एक्सपीरियंस हैं कि प्रगतिशील और आर्थिक रुप से बहुत सक्षम मुसलमान खुद को इस 'सो कॉल्ड गंदगी' से दूर कर लेते हैं। और वो ये बात कहते भी हैं कि 'हम' उनके जैसे नहीं हैं। मुल्क फिल्म में एसएसपी का किरदार निभाने वाले दानिश जावेद मुसलमानों के इसी तबके की सोच की नुमाइंदगी करते हैं।


मुल्क मुसलमानों को लेकर बने इन्हीं परसेप्शन की बात करती है। फिल्म के एक सीन में जब आतंकवादी के पूरे परिवार को ही सरकारी वकील आतंकी साबित कर रहे होते हैं तो उसी क्रम में वह मुसलमानों के यहां बहुत बच्चे होने का तंज कसते हैं। इस  तंज पर  कोर्ट रुम में बैठे हुए लोग ही नहीं हंसे थे। मेरे बगल में बैठे लोगों के चेहरे और शरीर में भी हल्की सी हरकत हुई थी। बावजूद इसके वे पढे लिखे लोग थे और कई सारी मसाला फिल्मों को छोडकर मुल्क देखने आए थे। उनके शरीर की ये हरकत बताती है कि धर्म को लेकर बहुत सारी चीजें ऐसी हैं जो अब उनके कंटोल में नहीं हैं। उनका अनकांसेस माइंड इन चीजों पर रिक्शन दे देता है। 

मुल्क ऐसे ही परसेप्शन को खारिज करने का प्रयास करती है। पर तकरीर से नहीं। वो ये कोशिश करती है कि हम बनारस के उस मुसलमान परिवार का हिस्सा बनकर सोचे जिसके घर का एक लडका आतंकवादी बन जाता है। उस घर के लोगों पर क्या बीतती है जिसके घर की दीवारों पर गो बैक पाकिस्तान के नारे लिख दिए जाते हैं। उसी घर में जिसके यहां दो दिन पहले हुई दावत में हिंदू मुसलमान दोस्तों ने साथ बैठकर खाना खाया था। एक मां अपने आतंकी बेटे की लाश लेने से मना कर देती है। किसी सामाजिक दबाव में नहीं बल्कि उसकी अंतरआत्मा इस बात को गंवारा नहीं करती। ये भारत देश ऐसे मुसलमानों से भरा पडा है।

हो सकता है कि इस देश में ऐसे मुसलमाान भी हों तो पाकिस्तान की जीत पर पटाखे बजाएं। हो सकता है कि ओसामा बिन लादेन की तकरीरे सुनते हों। हो सकता है कि उवैसी उनको एक काबिल और उनकी बात कहने वाला नेता लगता हो। लेकिन ऐसे मुसलमान कितने हैं। क्या इन चंद मुसलमानों की वजह से पूरी कौम को कटघरे में रख दिया जाएगा? फिल्म इस बारे में आपसे से सोचने के लिए कहती है। फिल्म कतई नहीं कहती कि मुसलमान कटटर नहीं है। उनके अंदर भी कटटरता है। दूसरे कौमों के लिए जहर है। धर्म को लेकर वह जाहिल हैं, लेकिन कितने फीसदी? दो- चार फीसदी की सजा 100 प्रतिशत को तो नहीं मिलनी चाहिए।

एक मैसेज देने के अलावा फिल्म, फिल्म के रुप में भी बहुत सक्षम है। कैमरावर्क बेहद शानदार है। हर एक किरदार की एक्टिंग लाजवाब है। पूरी जिंदगी मसखरी भरे रोल करने वाले मनोज पहवा ने एक आतंकी बेटे के बाप का क्या खूबसूरत रोल किया है। तापसी एक बेहद प्रतिभाशाली अभिनेत्री बनकर उभरी हैं। उनकी बॉडी लैंग्वेज बहुत बेहतरीन है। अमिताभ बच्चन की तरह ही रिषी कपूर जवानी से बेहतर फिल्में अब कर रहा हैं। आशुतोष राणा को प्लीज हिंदी फिल्में दीजिए। नहीं तो ये फिर से साउथ इंडिया की फिल्में करने लगेंगे। अनुभव सिन्हा के सारे पाप इस फिल्म ने धो डाले हैं। उम्मीद है कि वह अब जिद जैसी फिल्म बनाने की जिद नहीं करेंगे। मुल्क एक जरुरी तौर पर देखी जाने वाली फिल्म है। देखे जाने के बाद  पूरी रात बैठकर चर्चा की जाने वाली फिल्म है। कोशिश करें....

Friday, June 29, 2018

संजू: जीवन में पहली बार आमिर खान का कम लंबा होना अखरा है



राजू की फिल्म थ्री इडियटस के समय ऐसी खबरें आती थीं कि आमिर हिरानी के काम में काफी दखल देते हैं और स्क्रिप्ट में बदलाव सेट पर ही करवा देते हैं। राजू इसे खारिज नहीं किया करते  थे और मीडिया से कहते कि आमिर सीनियर और  संजीदा कलाकार हैं और हमें उनके क्रिएटवि सजेशन अच्छे लगते हैं। बाद के एक इंटरव्यू में आमिर ने ऐसे ही सवालों का एक लैंडस्केप आंसर दिया था। आमिर ने कहा था कि वे स्क्रिप्ट नहीं बदला रहे थे दरअसल उस फिल्म में  राजू ने उनका जो किरदार गढा  था वह बहुत ही आदर्शवादी थी। इतना कि उसे हर सीन में अच्छे होने को स्टेबलिस करना होता। मैं उस किरदार के अच्छे होने का लोड नहीं उठा पा रहा था। मैंने बस उस किरदार  के अच्छे होने को माइल्ड किया है। और वो जो माइल्ड हुआ तो वह राजू को भी अच्छा लगा।

जो गलती हिरानी थ्री इडियटस में  आमिर की वजह से करते  करते बच गए थे वही गलती संजू में कई बार दिखती है। राजकुमार हिरानी अपने दोस्त संजय को एक अच्छे इंसान के तौर पर स्टेबलिस करना चाहते हैं। वह चाहते हैं कि कोर्ट से संजय को जो  सजा मिली है वो तो  वह काट ही चुके हैं पब्लिक परसेप्शन में भी उनकी इमेज बदले। राज कुमार हिरानी संजय के समर्थन में इतना एकतरफा हैं कि उन्हें उनकी हर हरकत को जस्टीफाई  करते चलना पडा है। फिल्म संजय की अच्छाई से कहीं कहीं दब सी जाती है। फिल्म बाकी कलाकार उसे  निकालते  दिखते हैं।

फिल्म के दो हिस्से हैं। पहला डग्स लेने वाला संजय दत्त और दूसरा आतंकी संजय दत्त। पहले हिस्से में यह फिल्म थोडी चुलबुली है। वह संजय को एक 'नेक लापरवाह' के रुप में  स्थापित करती हुई  चलती है। अगर वो डग्स ले रहे हैं तो उसका दुष्परिणाम कितने गहरे हैं फिल्म इस पर वह बात नहीं करती। बस इसे एक आदत मान लेती है। लेकिन  इस गंदी आदत से निकलकर  एक आदमी बनने की कोशिशों को वह 'मैदान फतेह' के रुप में दिखाती है। नशा करने वाला संजय दत्त आम आदमी बन जाते हैं और  इंटरवल हो जाता है।


इंटरवल के  बाद हिरानी संकेतों में बात नहीं कहते। वो सीधे उनके बचाव में उतर आते हैं। संजय दत्त का आर्म्स रखना, उनके आतंकियों के साथ में मेलजोल रखना, उनका गिरफतार  होना, जेल जाना। फिल्म इन सबका दोष संजय पर 25 प्रतिशत डालती है और बाकी 75 प्रतिशत कसूर  मीडिया पर। ये फिल्म सिर्फ संजय को ही स्टेबलिस नहीं करती। वो उन्हें एक अच्छे पुत्र, अच्छे दोस्त, अच्छे पति और अच्छे पिता के रुप में दावेदारी करती हुई चलती है। पिता और पुत्र के संबंधों को बहुत आदर्श तरीके से पेश करने में राजू ने बहुत सारे सीन खर्च कर डाले हैं। आपके इमोशन को वे पूरा निचोडना चाहते हैं। लेकिन ये सब कुछ 25 प्रतिशत स्वाभाविक लगती है और 75 प्रतिशत बलात।


ये एक बडी फिल्म है और अच्छी भी। दो सौ करोड से उपर कमाने वाली फिल्म। लेकिन ये फिल्म हिरानी की फिल्म नहीं है। पीके और थ्री इडियटस बनाने वाले हिरानी फिल्म। जब हिरानी इस फिल्म में अपनी ही एक फिल्म मुन्नाभाई एमबीबीएस का जिक्र ले आते हैं तो कहीं कहीं  ये बचकाना भी लगता है। और भी यहीं पर आमिर खान याद आ जाते हैं।

आमिर खान यदि इतने लंबे होते तो कि वह संजय दत्त जैसे दिख सकते तो यकीनन संजू एक बेहतर फिल्म होती। आमिर  का कम लंबा होना मुझे मेरे  कम लंबे होने से ज्यादा जीवन में पहली बार अखरा। और शुक्रिया अनुराग कश्यप और नीरज घेवान। बॉलीवुड को विक्की कौशल जैसा अभिनेता देने के लिए।

Thursday, June 14, 2018

काला: यहां पर ये डिस्केलमर लगा देना चाहिए कि ये फिल्म सिर्फ दलित- मुसलमानों के लिए है, यह बेहद डरावना है


यह हिंदी सिनेमा की  खूबसूरती है दर्शक जब किसी फिल्म को  देखने का चुनाव करता  है तो उसके जेहन में यह बात नहीं आती कि फिल्म के नायक का धर्म क्या है, यदि वह हिंदू है तो उसकी जाति क्या  है, दर्शक ये भी पता करने की कोशिश नहीं करता कि उसके हीरो ने पर्दे पर जो रोल निभाया है वह किस जाति का है। या वह किस जाति के खलनायक का  विरोध कर रहा है। सिनेमा की यह खूबसूरती 'काला' में कई जगह बारीक तरीके से तहस नहस की गई। इसका ये तहस नहस किया जाना भविष्य के  के  प्रति डर पैदा करता है। वैसा ही डर जैसे हमनें वोट देने के लिए पार्टियां  चुनी हैं वैसे ही हमें  फिल्म देखने के लिए हीरो चुनने  होंगे।

मैं तमिलनाडु की राजनीति को करीब से नहीं जानता। वहां पर दलित मुसलमान के गठजोड की क्या संभावनांए हैं या सवर्ण जातियों  का विरोध करने पर  किस किस्म की गोलबंदी हो सकती है ये भी नहीं पता। लेकिन ऐसा लगता  है कि यह फिल्म फ्रेम दर  फ्रेम  फिल्म में मुख्य किरदार निभा रहे रजनीकांत के राजनीतिक एजेंडे को कलात्मक तरीके से रखती चल रही है। रजनी नई पार्टी का एलान कर चुके हैं। जिसे कुछ समय के बाद अस्थिर तमिलनाडु  की राजनीति में उतरना है, जहां जयललिता मर चुकी हैं और करुणानिधि बूढे होने की हद तक बूढे हो चुके हैं।

 सिनेमा एक्सप्रेसन का एक माध्यम है लेकिन काला उसका मिसयूज करती दिखती है। एक  खास उदेश्य की  पूर्ति के लिए। सिनेमा में जमींदार, लाला, मुनीम, पंडित जैसे किरदार कहानियों के हिस्से रहे हैं। लेकिन इन्हें इनकी गंदी मानसिकता के होने से जोडा गया ना कि इनकी जाति से। ऐसा नहीं कहा गया और ना ही दिखाया गया  कि सभी क्षत्रिय, ब्राहाम्ण या श्रीवास्तव घटिया लोग हैं। जमींदार होने को एक सोच का नाम दिया गया ना कि जाति का। यदि जमींदार  क्लाइमेक्स  में हीरो से पिटता है तो सिनेमा ने इसे क्षत्रियों की हार के तौर पर नहीं दिखाता रहा है।

काला इसके उलट खडी होती है। इस फिल्म का नायक दलित समुदाय से आता है, वह मुंबई की उस धारावी बस्ती का नेता है जहां मुसलमान और दलित रहते हैं। इस नेता की पहली प्रेमिका मुसलमान होती है। शादी उससे नहीं हो पाती है। शादी दलित से होती है। इसे दोनों तबको का समर्थन प्राप्त है। यहां तक तो ठीक होता है।  लेकिन फिल्म में इन दो जातियों के अलावा समाज की बाकी जातियों का हर आदमी विलेन है। यदि वो ब्राहाम्ण है तो उसकी एकमात्र ख्वाहिश लोगों से पैर छुलवाने की है। मेरी अपनी जानकारी में  ये पहला ऐसा सिनेमा है जहां पर बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की तस्वीर का बार-बार  इरादतन लाया गया। वह फिल्म के एक किरदार  हैं। उनके विचार तक बताए गए। और ऐसा महसूस कराया गया कि यह फिल्म सिर्फ दलितों के लिए बनाई गई। दलित चेतना के लिए। सिनेमा से इसका कोई सरोकार  नहीं है।


फिल्म के क्लाइमेक्स सीन में एक सवर्ण के घर में रामचरित मानस की कथा चल रही होती है। एक ऐसे सीन का वर्णन हो रहा होता है जहां राम, रावण को मार रहे होते हैं। मुझे थोडा भी जानने वाला व्यक्ति जानता है कि मेरा किसी धर्म  से कोई लगाव नहीं है। लेकिन उस सीन में राम द्वारा रावण के  मारने की पूरी प्रक्रिया को  को ना सिर्फ गलत ठहराया गया  बल्कि उस पर मजाक भी किया गया। वो रावण जिसे राम मार देते हैं वह कुछ देर बाद और मजबूत तरीके से उभर आता है। और इसे रावण की जीत के तौर पर दिखाया जाता है। मुझे सतयुग के राम और रावण में रुचि नहीं है। मुझे गलत और सही चुनने में रुचि है। फिल्म गलत को सिर्फ इसलिए गलत नहीं कहती कि वह सोच से गलत है बल्कि यह स्थापित करने का प्रयास करती है कि उस इसलिए गलत है क्योंकि वह उंची जातियों से है।

एक खास उदेश्यों के तहत बनाया गया यह सिनेमा, सिनेमा को तो कहीं नहीं ले जाता लेकिन एक बात जरूर बताकर चला जाता है कि एक्सप्रेशन के इस माध्यम से अपने राजनीतिक हित भी साधे  जा सकते हैं। मैं रजनीकांत या साउथ पैटर्न की फिल्मों का समर्थक नहीं रहा हूं। उनके विषय और उनकी  मेकिंग  स्टाइल से। मुझे ये फिल्म चिढाती हुई सी लगी। कि आप यदि उंची जाति में पैदा  हुए हैं  तो  आपने पाप किया है और आप बाई डिफाल्ट गलत हैं।  सिनेमा का यह तरीका हमें गलत तरीके  से  आगे ले जाएगा क्योंकि उनका जवाब देने के लिए उतने ही संकीर्ण मानसिकता के उंची जातियों के  लोग सिनेमा की दुनिया  में बैठे हुए हैं। फिल्म देखकर मुझे कई बार लगा कि इस फिल्म के साथ डिस्कलेमर लगाया जाना चाहिए कि यह सिर्फ मुसलमान और दलितों के लिए है। जिन्हें आगे चलकर अलग अलग चुनावों में अलग अलग पार्टियों के लिए वोट करना है। 

Saturday, April 14, 2018

आजकल भी बेहतर इश्क हो सकता है, राजेश खन्ना को याद करने की जरूरत नहीं है...



इश्क और जर्नलिज्म का कभी कोई स्वर्णयुग नहीं रहा है। डिपेंड करता है कि आपको इश्क और ये दूसरा वाला काम करने का मौका किन हालातों में मिले। अमर प्रेम फिल्मों के दौर में भी लपंट किस्म के प्रेम होते रहे हैं और लंपट ठहराई गई इस पीढ़ी में अमर प्रेम की कहानियां भी रची जा रही हैं। अक्टूबर एक सो कॉल्ड प्रेम कहानी है। सो कॉल्ड इसलिए कि यदि आप उससे कनेक्ट होते हैं तो ये इश्क लगता है, कनेक्ट नहीं हो पातें तो एक कुछ बेमतलब के दृश्यों का दस्तावेज।

लड़की कोमा में है। कोमा की हालत में आईसीयू में पड़ी एक लड़की से इश्क हो सकता है? हां बिल्कुल हो सकता है। बिल्कुल हो सकता है वाली इसी फीलिंग को जूही चतुर्वेदी और सुजीत सरकार जस्टीफाई करने की कोशिश करते हैं। वो बहुत मेहनत नहीं करते। जबरिया कुछ भी नहीं। वो चाहते हैं कि आप मेहनत करें। आप वरुण धवन बने डैन की जगह पर खुद को खड़ा करें और शिवली से प्यार करके देखें। क्या आप प्यार कर पाते हैं?

सुजीत की एक और फिल्म पीकू की तरह ही इस फिल्म के पास कोई कहानी नहीं है। घटनाएं नहीं है। उत्तेजना और उसका स्खलन नहीं है। बस कुछ दृश्य हैं और उनकी बारीक डिटेलिंग है। बहुत अच्छा कैमरा वर्क है। और पर्दे पर एक सुकुन हैं। सुकून ऐसा कि अक्टूबर फिल्म देखकर निकला दर्शक तुरंत ही पार्किंग के लिए या ट्रैफिक में ओवरटेक या गलत कट के लेने के लिए किसी से झगड़ा नहीं कर सकता। फिल्म देखने के बाद मन चुप हो जाता है और एकांत तलाशता है।

वो दर्शक जो सिनेमा से कुछ बेसिक जरुरतें पूरी होते देखना चाहते हैं। अपने लगाए हुए टिकट पैसों के बदले भरपूर मनोरंजन और एक कल्पनाई फंतासी दुनिया में जाना चाहते हैं अक्टूबर उनको निराश कर सकती है। ऐसे दर्शक पूरी फिल्म अब कुछ होने वाला है कि फीलिंग के साथ जीते हैं और आखिरकार बिदा हो जाते हैं। वो बाद में इंतजार करते हैं उस रिपोर्ट को जो बताती है कि अक्टूबर फ्लॉप हो गई।


अक्टूबर सिर्फ हीरो-हीरोइन की कहानी नहीं है। होटल और अस्तपताल की दुनिया के साथ-साथ फिल्म तमाम सारे किरदारों पर भी बात करना चाहती हैं। शिवली और डैन की मां, शिवली के अंकल, होटल में डैन के बॉस उसकी फीमेल कलीग, उसका दोस्त ये सब सिनेमाई किरदार नहीं थे। ये सब हमारे आसपास के लोग हैं जिन्हें फिल्मों के कैमरे ने कभी डिकोड करने की कोशिश ही नहीं की। हीरोइन की दोस्त सोचती क्या है सिनेमा के पास इसे अंडरलाइन करने की कभी फुर्सत नहीं रही है। अक्टूबर के पास ये फुरसत है। शायद ये फुरसत इसलिए भी कि उसके पास बताने के लिए और कुछ है भी नहीं। हम किरदारों से इतना कनेक्ट हो जाते हैं कि वो हमें कहीं मिल जाएं तो हमें उनके पास जाकर पूछने का मन होगा कि उन्होंने आखिर ऐसा क्यों किया था?

अक्टूबर एक डरावना प्रयोग है। सिनेमा में जहां फिल्मकार एक-एक मिनट को रंगीन और जवां बना देने की जीतोड़ कोशिश करते हैं। सुजीत का कैमरा कोहरे में डूबी दिल्ली की सुबह दिखाने में व्यस्त है। उसे होटल के बगल से मेट्रो को गुजरता दिखाने में आनंद आता है। हरश्रंगार के गिरते फूलों में  उसे दिलचस्पी है।अस्पताल के आईसीयू वार्ड, डॉक्टर के कनवरशेसन और वहां की नर्स की जिंदगी को भरपूर दिखा देने की जानलेवा चाहत है। इस बात की परवाह किए बगैर की एक घंटे के बाद भी फिल्म की कहानी वहीं की वहीं हैं और दर्शक एक प्रेम कहानी देखने आया था। उसे नहीं पता था कि फिल्म की हीरोइन बाल मुंडवा के आईसीयू में लेटी हुई मिलेगी।


फिल्म में जिस किस्म का सेंस ऑफ हयूमर है अब ये बाजारों में नहीं मिलता। जो चीजें नहीं बिकती दुकानदार उन्हें रखना बंद कर देते हैं। सुजीत के लिए ये चीजें जूही ने जुटाई हैं। छोटे-छोटे दृश्यों में हल्का सा हास्य हमें हंसा देता है। ये वाली हंसी डेविड धवन, नीरज वोरा, प्रियदर्शन की हंसी से अलग होती है। हम बहुत तेज नहीं हंसते और बहुत देर तक नहीं हंसते। लेकिन जो हंसते हैं वो याद रहता है।

अक्टूबर अपेक्षाओं के बोझ से दबी हुई फिल्म थी। सुजीत पिछले कुछ समय में अलग लेवल पर का एक बहुत अच्छा सिनेमा रच रहे थे। अक्टूबर जैसी फिल्में तभी दिमाग में आती हैं जब आप पूरी तरह से आत्मविश्वास से भरे हुए हों। सुजीत की बाकी फिल्मों से तुलना करने पर ये फिल्म थोड़ी कमजोर है। कमजोर इसलिए नहीं कि ये अक्टूबर है। अक्टूबर जैसी फिल्में तो एकबार ही बनती हैं। ना उसके पहले बनी होती हैं और ना बाद में बनेंगी।

Saturday, February 24, 2018

इश्क से ज्यादा जरुरी है बेवफाई करना या बेवफाई से गुजरना, क्यों??



अपने करेंट प्रेमी/प्रेमिका के माथे पर 'मौके पर काम आएगा' लिख उसे स्टैंडबाई मोड पर रखकर दूसरे के बिस्तर में घुस जाना एक नई तरह की बेवफाई है। इसमें रिश्ते पूरी तरह से खत्म नहीं होते बस रिश्तों को लेकर लैबिलेटी वाली फीलिंग खत्म हो जाती है। जब चाहें तब इसे एक फोन कॉल से रिन्वूय भी कर सकते हैं। बेवफाई की दुनिया में ये एडवांस प्रैक्टिस है। ये बात मुझे पिछले दिनों किसी ने बताई थी। 'हम हमारे बीच कुछ रहा नहीं, इसे और कॉम्पलीकेटेड नहीं करते, यहीं खत्म करते हैं' बेवफाई की दुनिया की ये आउटडेटेड लाइन है। ये बात भी।

 बेवफाई की दुनिया इश्क से बड़ी दुनिया है। सम्मोहन भी इश्क से ज्यादा है। हिंदी फिल्में और उर्दू शायदी इस दुनिया का एक आसान और लोकप्रिय चेहरा पेश करती रही हैं। उर्दू की शायरी प्रेमी को पवित्र और बड़े दिल वाला दिखाती रही है तो वहीं हिंदी सिनेमा का मकसद इस रिश्तें में हालातों को विलेन बनाने का रहा है। फिल्मों की बेवफाई इतनी स्पष्ट रही है कि उसे पकौड़े तलने वाला स्कील्ड युवा भी समझ जाए और रिक्शा चलाने वाला नॉन स्कील्ड भी।

लव रंजन अपनी फिल्मों में बेवफाई की उन्हीं लेयर्स को दिखाने की कोशिश करते हैं जो अब तक सिनेमा में उस तरह एप्रोच नहीं की गईं। या उनकी मैपिंग बेवफाई के रुप में हुई ही नहीं। प्यार का पंचनामा के दो पार्ट के बाद सोनू के टीटू की स्वीटी भी उसी मिजाज या सोच की फिल्म है जिसके लिए लव जाने जाते हैं। शहरी बैकड्रॉप वाली ये फिल्में एक बहुत बड़े वर्ग को अपनी आवाज सी लगती हैं। लव के निशाने पर लड़कियां ही रही हैं। वे लड़कों के उस बड़े तबके की आवाज बनने की कोशिश करते रहे हैं जिन्हें ये लगता है कि इश्क के मामले में लड़कियां लड़कों से ज्यादा क्लीयर और अपारचुनिस्ट होती हैं।


प्यार का पंचनामा की दोनों फिल्मों में लव ये दिखाने की कोशिश करते हैं कि लड़कियां किस तरह से लड़कों का शोषण करती हैं। उनके किस्से मनोरंजक होते हैं। कुछ हकीकत कुछ फसाने जैसे। प्रेमी-प्रेमिका साथ बैठकर ये फिल्में देखते हैं और दोनों एंज्वाय करते हैं। लड़का बीच में उठकर पॉपकॉर्न भी लाता है। हॉल खाली होने पर पप्पी भी ले लेता है। यानी बिगड़ता कुछ नहीं है। लड़कियों को भी लगता है कि हां उन्होंने कभी ना कभी तो ऐसा किया है। फिल्म के क्लाइमेक्स में लड़कियां, लड़कों से दूर हो जाती हैं और हॉल में बैठी आडियंश को यह जस्टिस लगता है।

सोनू के टीटू की स्वीटी में फर्क ये है कि लव के पास वो तर्क और किस्से खत्म हो गए हैं जिनसे वह ये बात साबित करते रहे हैं कि लड़कियां बुरी होती हैं। इस बार लव ने सिक्स सेंस को चुना। दोस्त का सिक्स सेंस कह रहा है कि लड़की गलत है और फिल्म के आखिरी सीन में सिक्स सेंस की ही जीत होती है। यहां दोस्ती और लड़की में शर्त लगी होती है। फिल्म के एक सीन में स्वीटी बनीं नुसरत भरुचा कहती हैं कि दोस्ती और लड़की में हमेशा लड़की जीतती रही है।

नुसरत की ये बात कुछ अलग तरीके से मुझे किसी ने 12वीं में बताई थी। कॉलेज में एक लड़ाई हुई थी। मेरे एक दोस्त ने समोसा खाते हुए दार्शनिक अंदाज में बताया था कि कॉलेज में होने वाली 99 फीसदी लड़ाइयां लड़कियों के लिए ही होती हैं। बस लड़कियों के नाम बदल जाया करते हैं। इस बार लड़ाई रेखा चौधरी के लिए हुई थी। रेखा चौधरी में पता नहीं ऐसा क्या जादू था कि उन्हें बहुत लड़के अलग-अलग और सामूहिक रुप से प्यार करते थे। इस घटना के बाद मैंने रेखा को 100 मीटर से लेकर 10 मीटर तक की दूरी से देखा। मुझे रेखा से इश्क नहीं हो सका। इस बात अफसोस मुझे बीएससी पार्ट 2 तक था। बाद में सुनने में आया कि रेखा चौधरी, राकेश सिंह के साथ भाग गई थीं। भागी हुई लड़कियों को लेकर मेरे मन बहुत सम्मान रहा है। मैं उनके साथ बैठकर इडली सांभर खाना चाहता हूं। मुझे खाती हुई लड़कियों को देखना बहुत पसंद है। वो खाएं और मैं उनके देखूं। बाद में वह अपने खाए हुए के पैसे खुद दें।



सोनू के टीटू की स्वीटी की सबसे अच्छी बात ये है कि इस फिल्म के पास कोई कहानी ना होते हुए भी ये अपने किस्से और दृश्यों से दर्शकों को उलझाए रखती है। कार्तिक तिवारी, नुसरत भरुचा और सनी सिंह तीनों ने ही सिचुवेशनल कॉमेडी की है। कार्तिक तो लाजवाब लगते हैं। लेकिन इस फिल्म का सरप्राइज पैकेट आलोक नाथ हैं। जब आदमी जिंदगी भर शराब नहीं पीता या पोर्न नहीं देखता तो उसे बाद में ये काम बहुत मात्रा में करने पड़ते हैं। आलोक नाथ के साथ वही हुआ है।

संस्कारी आलोक नाथ के इस फिल्म में जितने भी सीन हैं उसमें में वह लगातार शराब पीते दिखें। क्या मजेदार तरीके से शराब पीते हैं और उसी मजेदार तरीके से टाइमिंग के साथ वनलाइनर बोलते हैं। ये आलोक नाथ के लिए सबसे बड़ी फिल्म है। इस फिल्म ने आलोक नाथ से आलोक नाथ का पीछा छुटवाया है।

लव रंजन की यह फिल्म देखी जानी चाहिए। लेकिन यह एक चिंता का विषय यह है कि बेवफाई की इस सब्जेक्ट में लव खाली होते दिख रहे हैं। उनकी फिल्मों में यदि बेवफाई अपने मजबूत रुप में दिखे इसके लिए जरुरी है कि समाज में नई स्टाइल की बेवफाई क्वाइन की जाए। जाते-जाते साहिर लुधयानिवी के इस शेर का मजा लीजिए...

अपनी तबाहियों का मुझे कोई ग़म नहीं
तुम ने किसी के साथ मोहब्बत निभा तो दी

Friday, February 9, 2018

पैडमैन: एक बहुत जरुरी फिल्म, जो थोड़ा और पहले बननी चाहिए थी




पैडमैन एक अच्छी फिल्म है। ईमानदार। बस मुझे यह थोड़ी सी लेट आई हुई लगी। एक जगह पर ये फिल्म खुद बताती है कि यह 2001 का भारत है 2018 नहीं। ये फिल्म यदि 2001 में आती तो यह मुझे अपने आसपास की कहानी लगती। जब मैं अपने आसपास कह रहा हूं मेरे दिमाग में निश्चित ही उड़ीसा, छत्तीसगढ़ या झारखंड अति पिछड़े गांव नहीं हैं। मेरे आसपास का एक मध्यमवर्गीय संसार हैं। उत्तर भारत के गांवों और कस्बों का संसार। जो अब शहर बनना चाहता हैं। ऑनलाइन शॉपिंग करना चाहता है। वह मध्यम वर्ग जहां तक यह फिल्म या फिल्म की पायरेटेड की डीवीडी पहुंच पाएंगी। 

यह एक काल्पनिक सिनेमा नहीं है। ये एक ऐसी कहानी है जिसे आप देखते हुए खुद को भी टटोलते चलते हैं। मैंने 2001 का भारत देखा है। वैसा ही गांव देखा है जैसा फिल्म में है। मैंने वह सोच देखी है जब महिलाएं अपने इनर वियर ब्लाऊज या किसी दूसरे सम्मानित कपडे़ के नीचे सुखाती थीं। पता नहीं किस शर्म से? उसे वह किससे छिपाना चाहती थी? पैड तब भी घरों में आते थे लेकिन वह बहुत छिपाकर रखे जाते थे। पीरियड में घर से बाहर तो नहीं लेकिन रसोई से बाहर करने के रिवाज देखे हैं। फिर मैंने इसी गांव और कस्बे को बदलते देखा है। पीरियड पर खाने बनाते हुए देखा है। लड़कियों को दुकान में जाकर पैड मांगते देखा है। भले ही वह आज भी चाहती हैं कि पैड उन्हें काली पॉलीथिन या अखबार में लपेटकर मिलें।



बाल्की 2018 में 2001 की बात कहना चाह रहे हैं। यही बात मुझे फिल्म से डिसकनेक्ट करती है। 2018 के जिस परिवेश में मैं या मेरे जैसा उम्र के युवा हैं उस परिवेश में मेरी फीमेल दोस्त जरुरत पड़ने पर बताती हैं कि वो आज डाऊन हैं। कई बार उस पर जोक भी कर देती हैं। ऐसा बताने वाली ये लड़कियों की अपब्रिगिंग मुंबई या पुणे की नहीं है। वह भी उप्र, मप्र या बिहार की हैं। उन्होंने वह समय देखा है और उसे बदलते हुए भी। लड़कियां कई बार छुटटी की मेल में ये बात मेंशन कर देती हैं कि वह पीरियड की वजह से नहीं आफिस नहीं आ पा रही हैं। और उन्हें यह सब सामान्य लगता है। वह पीरियड आने का डिडोरा नहीं पीटना चाहतीं लेकिन इसे वह अब एक टैबू नहीं मानतीं।  


लेयर्स में बंटे इस देश में शर्म भी अपने केचुल अलग अलग समय पर छोड़ती है। कस्बे और छोटे शहरों की दुकानों में ये पैड अभी भी काली पॉलीथिन या अखबार में लपेट कर मिल रहे होंगे लेकिन शहरों और महानगरों में शॉपिंग की ट्राली में ये  पैड रिफाइंड की बोतल के बगल में रखे हुए होते हैं। कोई हिचक नहीं कोई अनईजी नेस नहीं। ये बदलता हुआ भारत है जिसने लड़कियों को बदला है। लड़कियों को लेकर लोगों की सोच बदली है। 

बाल्की इंसान के अंदर के काम्लेक्स को दिखाने में माहिर हैं। उनकी एक असफल मानी गई फिल्म शमिताभ मुझे बेहद पसंद है। इंगलिश विंगलिश अपने समय की फिल्म है और की एंड का समय से आगे की। लेकिन ये फिल्म समय से पीछे की फिल्म है। 

धर्म और परंपराओं को लेकर जो पात्र फिल्म में दिखते हैं वो थोड़े नकली लगते हैं। एक लड़का या लड़की अपने जकड़े हुए परिवेश से बाहर निकलकर जब थोड़ी खुली हवा पाते हैं तो वह उस हवा को उस परिवेश में भी भरना चाहते है जहां की रिवाजों से उन्हें अब घुटन महसूस होती है। 2001 में बदलाव का विरोध होता था अब बदलाव का स्वागत होता है। कम से कम मेरे जानने वाले परिवेश में। मैंने बहुत लोगों को अपने बच्चों के अनुसार अपनी सोच को बदलते देखा है। लव मैरिज को अरेंज मैरिज में कनवर्ट होते देखा है। ये बदलता समाज है। लड़की मां से झगड़कर पैड खरीद लेगी। गंदा कपड़ा नहीं लगाएगी। अव्वल तो मां इसकी नौबत ही नहीं आने देगी। 


पैडमैन एक अच्छी कोशिश है। फिल्म से ज्यादा उसे इस बात की तारीफें मिलनी चाहिए कि ऐसे विषय पर कर्मिशयल सिनेमा बनाने का प्रयास किया गया है। संवेदनशील विषय होने के बाद भी इसे कहीं से भी फूहड़ नहीं बनने दिया गया। हां, इंटरवल के बाद यह फिल्म अपने किरदार को स्थापित करने की कोशिशों में ज्यादा व्यस्त होती दिखती है। लेकिन यह खटकता भी नहीं है। 

मुझे अक्षय कुमार से अधिक राधिका आप्टे का अभिनय प्रभावित करता है। राधिका आप्टे में सिनेमा की कितनी बड़ी रेंज है यह देखने के लिए एक ही दिन में पार्च्ड, हंटर, बदलापुर और शोर इन द सिटी फिल्में देखनी चाहिए। अक्षय कुमार एक ही जैसी रोल करते जा रहे हैं। उन्हें अब एक ऐसी फिल्म करनी चाहिए जिसमें वह एक चोर या बने हों। वह सक्षम अभिनेता हैं उन्हें अपनी रेंज के दर्शन कराते रहना चाहिए।

Sunday, January 14, 2018

ये फिल्म पहले आ गई होती तो बहुत सारे लोग अपनी मर्जी का काम करे होते...


ये 2000 की जनवरी के आखिरी हफ्ते की बात रही होगी। मैं 11वीं क्लास में था। फिजिक्स और मैथ्स की कोचिंग पढ़कर मुझे 11 बजे तक लौट आना था लेकिन मैं साढ़े 3 तक नहीं लौटा। पापा परेशान हुए तो कुछ शुभचिंतक मुझे खोजने के लिए निकले। ये मोबाइल का दौर नहीं था। खोजने वाले कुछ दूर ही गए होंगे कि उन्हें मैं आता दिखा।

एक रहस्यमयी मुस्कान के साथ उन्होंने कहा चलो पापा इंतजार कर रहे हैं। घर में क्या होना था मुझे पता था। मैं उसका लोड नहीं ले रहा था। टपकते कोहरे भरी उस शाम में पापा ने जूते पहने हुए थे। पापा कभी हाथ या डंडे से नहीं मारते थे। सर्दी इतनी थी कि उन्होंने अपने जूते उताकर मारने के बजाय पास पड़ी सफेल नीली रुपानी चप्पल से मुझे मारा। ये वाली चप्पलें जब थोड़ी पुरानी हो जाती हैं तो वह बहुत लगती थीं। बाद में सुबह के भूखे लड़के को मम्मी ने खाना दिया मैं रो-रोकर खाना खाता गया।

अगर वो फिल्म आमिर खान की मेला न होकर अनुराग कश्यप की मुक्केबाज रही होती तो मैं रो लेने के बाद पापा से कहता कि पापा मुझे फिल्में देखना अच्छा लगता हैं। ये फिल्में मुझे बनाएंगी, बिगाड़ेंगी नहीं। मैं पापा को जानता हूं वो मान जाते और शायद मैं फिल्मों में कुछ अदना सा ही सही काम कर रहा होता। पर ये मुक्केबाज तब नहीं अब आई...

अनुराग कश्यप की यह फिल्म उन लाखों युवाओं को अपना वो 'सो कॉल्ड खराब' काम करते रहने की ताकत देती जिसके लिए वे बने हुए होते हैं। फिल्म के एक सीन में विनीत सिंह अपने बाप से कहते हैं कि मेरे पास दिमाग नहीं है। मुझे नहीं समझ में आई पढ़ाई। कहां से आता दिमाग? आपके पास दिमाग है? मम्मी के पास दिमाग है? पापा चुपचाप पेंचकस से टेबल फैन का पेंच कसते रहे। पापा को सच्चाई पता है। जिंदगी भर टेबुल फैन के पेंच कसने, बिजली के फ्यूज बनाने वाले बाप या सिर्फ चावल में कंकड़ खोजने वाली और होली में चिप्स बनाने में दिमाग खपाने वाली मां के बच्चे दिमाग कहां से लाएं? ये तो जेनेटिक मामला होता है।

 मैं ऐसे 20 से 25 लड़को को निजी तौर पर जानता हूं जो जिन्होंने अपने बाप की इच्छा पर इंजीनियरिंग, बीबीए या एमबीए किया। वह नौकरियां उनके लिए नहीं थीं। बाद में वे लौटकर आए और प्राइमरी स्कूल की सुरक्षित नौकरी में लग गए। मिलने पर कहते हैं कि इस नौकरी में 'रिस्क' नहीं है। वे अब साल में एक बार वैष्णों देवी और तीन बार ससुराल घूमने जाते हैं। वे खुश हैं। मुक्केबाज फिल्म हर शहर, कस्बे या गांवों के उन 25-30 के लिए नहीं है। उनके लिए जुड़वा 2 थी जिसने 100 करोड़ कमाए हैं।

मैंने स्टूडेंट लाइफ की तमाम सारी फिल्में 8 से 10 रुपए के टिकट वाले 'फर्स्ट क्लास' में बैठकर देखी हैं। मेरे आसपास कई बार रिक्शा, टैंपो या ऑटो चलाने वाले भी होते थे। मिथुन या गोविंदा की फिल्में देखकर जब वह निकलते थे तो कम से कम उस पूरा दिन वह सवारी से इस लहजे में बात करते थे कि वह उनके नौकर नहीं है और उनसे भी तमीज से बात की जाए। उनको ये वाला आत्मविश्वास मिथुन देते थे और कई बार गोविंदा भी।  यही वाला आत्मविश्वास मुक्केबाज उन तमाम श्रवण सिंह या सुनैना मिश्रा को देती है जो एक साथ जिंदगी के कई पाटों में पिस रहे होते हैं। ये कोई स्पोटर्स फिल्म नहीं है। एक जिंदगी की फिल्म है। जिसे लोगों को घोटकर पी लेनी चाहिए।

मुक्केबाजी का एक खेल जीतने के बाद यह जन गण मन बजाकर यहां हैपी इंडिग नहीं होती है। एक मैच के बाद जिंदगी की एक रिंग होती है जिसमें एक साथ कई हालात मुक्केबाज बनकर आप पर टूटते हैं। ये हालत सिर्फ विलेन भगवान दास मिश्रा के जने हुए नहीं हैं। ये हालात हमारे घरों के भी हैं। जहां एक बीवी पूरा दिन इस इंतजार में रहती है कि दिनभर अकेली रहने के बाद उसका पति शाम को लौटकर उससे रोमांटिक बातें करेगा और तमाम सारे ना पूरे हो पाने वाले ख्वाब उसे दिखाएगा। एक मां होती है जो ये सोचती है कि उसकी बहू उसके पैर दबाएगी। एक बाप होता है जो ये सोचता की उसका लड़का कहीं सरकारी नौकरी में फिट हो जाएगा। और एक ख्वाब होता है जो इन 'जरुरी ख्वाबों' के बीच कहीं फिट नहीं होता।

मुक्केबाज आपको प्रेम करना सिखाती है। फिल्मों में जो प्रेम, चोपड़ा, जौहर या घई हमें दिखाते रहे हैं उनके नकली प्रेमों को तमाचा जड़ती हुई यह फिल्म बताती है कि अपने हालातों के बीच अपनी रुटीन जिंदगी और कर्तव्य पूरा करते हुए किस तरह से प्रेम किया जा सकता है। प्रेम करने के लिए जरुरी नहीं है कि अंबेडकर पार्क या लोदी गार्डन में हाथ पकड़कर डुएट गाए जाएं। शिमला जाएं और घोड़े जैसे किसी जानवर पर बैठकर फोटो खिंचवाए जाएं...

ये एक कॉमेडी फिल्म भी है। अनुराग कश्यप की फिल्म का हास्य उनके अनुभवों और रेंज का रिफलेक्शन दिखाता है। वह जोक के सहारे आपको नहीं हंसाते। बहुत कम चर्चित हुई उनकी एक फिल्म अग्ली का एक पुलिस स्टेशन का सीन देखिए। जिसमें पुलिस इंसपेक्टर अपनी खोई हुई बच्ची की कंपलेन लिखाने आए पिता से लगभग 6 मिनट तक बात करता है। उस सीन की कुरुपता का हास्य देखिए। ऐसे कई सारे कॉमिक सीन सिर्फ अनुराग कश्यप रच सकते हैं। बेहद तनाव और दर्द भरे हालातों के बीच किरदारों की बातचीत आपको हंसा देती है। जॉनी लीवर की जरुरत यहां नहीं है। बुरे से बुरे हालात में फंसा आदमी भी हंसता है। वैसा ही स्वाभाविक हंसी या पर्दे पर आती है।

जाति ऊंची हो या नीची, जातिवाद में जकड़कर किस तरह से नुकसान कर रही हैं ये बताना हो तो अनुराग कश्यप की यह फिल्म भारत के गांव गांव में वैसे ही दिखाए जानी चाहिए जैसे किसी जमाने में निरोध की जरुरत बताने वाले विज्ञापनों की वाल पेटिंग हुई थी। लोग निरोध का इस्तेमाल करने लगे थे या नहीं लेकिन उसके बारे में या उसके फायदों के बारे में जान जरुर गए थे।

फिल्म की कास्टिंग कैसे होती है इसे देखने के लिए भी अनुराग की फिल्में देखनी चाहिए। भोजपुरी फिल्मों के अशलील और बेहूदा रोल करने वाले रवि किशन जब यहां एक लिबरल दलित कोच बनते हैं तो लगता है कि रवि किशन हमेशा से ही एक कोच रहे हैं। वो एक्टिंग तो सिर्फ पार्ट टाइम करते हैं। गैंग्स ऑफ वासेपुर में जो लाइन नवाज ने खींची थी विनीत उसे बहुत ऊपर ले गए। पहली फिल्म कर रहीं जोया हुसैन का अभिनय बताता है कि फिल्म निर्देशक का ही माध्यम है। जोया हुसैन चुप रहकर भी फिल्म में सबसे ज्यादा बोलती हैं।

अनुराग कश्यप की यह फिल्म उसी तरह से लाइफ टाइम राष्ट्रीय फिल्म घोषित कर देनी चाहिए जैसी महात्मा गांधी को राष्ट्रीय पिता और मोर को लाइफ टाइम के लिए राष्ट्रीय पखेरु घोषित किया गया है...