Sunday, January 14, 2018

ये फिल्म पहले आ गई होती तो बहुत सारे लोग अपनी मर्जी का काम करे होते...


ये 2000 की जनवरी के आखिरी हफ्ते की बात रही होगी। मैं 11वीं क्लास में था। फिजिक्स और मैथ्स की कोचिंग पढ़कर मुझे 11 बजे तक लौट आना था लेकिन मैं साढ़े 3 तक नहीं लौटा। पापा परेशान हुए तो कुछ शुभचिंतक मुझे खोजने के लिए निकले। ये मोबाइल का दौर नहीं था। खोजने वाले कुछ दूर ही गए होंगे कि उन्हें मैं आता दिखा।

एक रहस्यमयी मुस्कान के साथ उन्होंने कहा चलो पापा इंतजार कर रहे हैं। घर में क्या होना था मुझे पता था। मैं उसका लोड नहीं ले रहा था। टपकते कोहरे भरी उस शाम में पापा ने जूते पहने हुए थे। पापा कभी हाथ या डंडे से नहीं मारते थे। सर्दी इतनी थी कि उन्होंने अपने जूते उताकर मारने के बजाय पास पड़ी सफेल नीली रुपानी चप्पल से मुझे मारा। ये वाली चप्पलें जब थोड़ी पुरानी हो जाती हैं तो वह बहुत लगती थीं। बाद में सुबह के भूखे लड़के को मम्मी ने खाना दिया मैं रो-रोकर खाना खाता गया।

अगर वो फिल्म आमिर खान की मेला न होकर अनुराग कश्यप की मुक्केबाज रही होती तो मैं रो लेने के बाद पापा से कहता कि पापा मुझे फिल्में देखना अच्छा लगता हैं। ये फिल्में मुझे बनाएंगी, बिगाड़ेंगी नहीं। मैं पापा को जानता हूं वो मान जाते और शायद मैं फिल्मों में कुछ अदना सा ही सही काम कर रहा होता। पर ये मुक्केबाज तब नहीं अब आई...

अनुराग कश्यप की यह फिल्म उन लाखों युवाओं को अपना वो 'सो कॉल्ड खराब' काम करते रहने की ताकत देती जिसके लिए वे बने हुए होते हैं। फिल्म के एक सीन में विनीत सिंह अपने बाप से कहते हैं कि मेरे पास दिमाग नहीं है। मुझे नहीं समझ में आई पढ़ाई। कहां से आता दिमाग? आपके पास दिमाग है? मम्मी के पास दिमाग है? पापा चुपचाप पेंचकस से टेबल फैन का पेंच कसते रहे। पापा को सच्चाई पता है। जिंदगी भर टेबुल फैन के पेंच कसने, बिजली के फ्यूज बनाने वाले बाप या सिर्फ चावल में कंकड़ खोजने वाली और होली में चिप्स बनाने में दिमाग खपाने वाली मां के बच्चे दिमाग कहां से लाएं? ये तो जेनेटिक मामला होता है।

 मैं ऐसे 20 से 25 लड़को को निजी तौर पर जानता हूं जो जिन्होंने अपने बाप की इच्छा पर इंजीनियरिंग, बीबीए या एमबीए किया। वह नौकरियां उनके लिए नहीं थीं। बाद में वे लौटकर आए और प्राइमरी स्कूल की सुरक्षित नौकरी में लग गए। मिलने पर कहते हैं कि इस नौकरी में 'रिस्क' नहीं है। वे अब साल में एक बार वैष्णों देवी और तीन बार ससुराल घूमने जाते हैं। वे खुश हैं। मुक्केबाज फिल्म हर शहर, कस्बे या गांवों के उन 25-30 के लिए नहीं है। उनके लिए जुड़वा 2 थी जिसने 100 करोड़ कमाए हैं।

मैंने स्टूडेंट लाइफ की तमाम सारी फिल्में 8 से 10 रुपए के टिकट वाले 'फर्स्ट क्लास' में बैठकर देखी हैं। मेरे आसपास कई बार रिक्शा, टैंपो या ऑटो चलाने वाले भी होते थे। मिथुन या गोविंदा की फिल्में देखकर जब वह निकलते थे तो कम से कम उस पूरा दिन वह सवारी से इस लहजे में बात करते थे कि वह उनके नौकर नहीं है और उनसे भी तमीज से बात की जाए। उनको ये वाला आत्मविश्वास मिथुन देते थे और कई बार गोविंदा भी।  यही वाला आत्मविश्वास मुक्केबाज उन तमाम श्रवण सिंह या सुनैना मिश्रा को देती है जो एक साथ जिंदगी के कई पाटों में पिस रहे होते हैं। ये कोई स्पोटर्स फिल्म नहीं है। एक जिंदगी की फिल्म है। जिसे लोगों को घोटकर पी लेनी चाहिए।

मुक्केबाजी का एक खेल जीतने के बाद यह जन गण मन बजाकर यहां हैपी इंडिग नहीं होती है। एक मैच के बाद जिंदगी की एक रिंग होती है जिसमें एक साथ कई हालात मुक्केबाज बनकर आप पर टूटते हैं। ये हालत सिर्फ विलेन भगवान दास मिश्रा के जने हुए नहीं हैं। ये हालात हमारे घरों के भी हैं। जहां एक बीवी पूरा दिन इस इंतजार में रहती है कि दिनभर अकेली रहने के बाद उसका पति शाम को लौटकर उससे रोमांटिक बातें करेगा और तमाम सारे ना पूरे हो पाने वाले ख्वाब उसे दिखाएगा। एक मां होती है जो ये सोचती है कि उसकी बहू उसके पैर दबाएगी। एक बाप होता है जो ये सोचता की उसका लड़का कहीं सरकारी नौकरी में फिट हो जाएगा। और एक ख्वाब होता है जो इन 'जरुरी ख्वाबों' के बीच कहीं फिट नहीं होता।

मुक्केबाज आपको प्रेम करना सिखाती है। फिल्मों में जो प्रेम, चोपड़ा, जौहर या घई हमें दिखाते रहे हैं उनके नकली प्रेमों को तमाचा जड़ती हुई यह फिल्म बताती है कि अपने हालातों के बीच अपनी रुटीन जिंदगी और कर्तव्य पूरा करते हुए किस तरह से प्रेम किया जा सकता है। प्रेम करने के लिए जरुरी नहीं है कि अंबेडकर पार्क या लोदी गार्डन में हाथ पकड़कर डुएट गाए जाएं। शिमला जाएं और घोड़े जैसे किसी जानवर पर बैठकर फोटो खिंचवाए जाएं...

ये एक कॉमेडी फिल्म भी है। अनुराग कश्यप की फिल्म का हास्य उनके अनुभवों और रेंज का रिफलेक्शन दिखाता है। वह जोक के सहारे आपको नहीं हंसाते। बहुत कम चर्चित हुई उनकी एक फिल्म अग्ली का एक पुलिस स्टेशन का सीन देखिए। जिसमें पुलिस इंसपेक्टर अपनी खोई हुई बच्ची की कंपलेन लिखाने आए पिता से लगभग 6 मिनट तक बात करता है। उस सीन की कुरुपता का हास्य देखिए। ऐसे कई सारे कॉमिक सीन सिर्फ अनुराग कश्यप रच सकते हैं। बेहद तनाव और दर्द भरे हालातों के बीच किरदारों की बातचीत आपको हंसा देती है। जॉनी लीवर की जरुरत यहां नहीं है। बुरे से बुरे हालात में फंसा आदमी भी हंसता है। वैसा ही स्वाभाविक हंसी या पर्दे पर आती है।

जाति ऊंची हो या नीची, जातिवाद में जकड़कर किस तरह से नुकसान कर रही हैं ये बताना हो तो अनुराग कश्यप की यह फिल्म भारत के गांव गांव में वैसे ही दिखाए जानी चाहिए जैसे किसी जमाने में निरोध की जरुरत बताने वाले विज्ञापनों की वाल पेटिंग हुई थी। लोग निरोध का इस्तेमाल करने लगे थे या नहीं लेकिन उसके बारे में या उसके फायदों के बारे में जान जरुर गए थे।

फिल्म की कास्टिंग कैसे होती है इसे देखने के लिए भी अनुराग की फिल्में देखनी चाहिए। भोजपुरी फिल्मों के अशलील और बेहूदा रोल करने वाले रवि किशन जब यहां एक लिबरल दलित कोच बनते हैं तो लगता है कि रवि किशन हमेशा से ही एक कोच रहे हैं। वो एक्टिंग तो सिर्फ पार्ट टाइम करते हैं। गैंग्स ऑफ वासेपुर में जो लाइन नवाज ने खींची थी विनीत उसे बहुत ऊपर ले गए। पहली फिल्म कर रहीं जोया हुसैन का अभिनय बताता है कि फिल्म निर्देशक का ही माध्यम है। जोया हुसैन चुप रहकर भी फिल्म में सबसे ज्यादा बोलती हैं।

अनुराग कश्यप की यह फिल्म उसी तरह से लाइफ टाइम राष्ट्रीय फिल्म घोषित कर देनी चाहिए जैसी महात्मा गांधी को राष्ट्रीय पिता और मोर को लाइफ टाइम के लिए राष्ट्रीय पखेरु घोषित किया गया है...