Saturday, February 24, 2018

इश्क से ज्यादा जरुरी है बेवफाई करना या बेवफाई से गुजरना, क्यों??



अपने करेंट प्रेमी/प्रेमिका के माथे पर 'मौके पर काम आएगा' लिख उसे स्टैंडबाई मोड पर रखकर दूसरे के बिस्तर में घुस जाना एक नई तरह की बेवफाई है। इसमें रिश्ते पूरी तरह से खत्म नहीं होते बस रिश्तों को लेकर लैबिलेटी वाली फीलिंग खत्म हो जाती है। जब चाहें तब इसे एक फोन कॉल से रिन्वूय भी कर सकते हैं। बेवफाई की दुनिया में ये एडवांस प्रैक्टिस है। ये बात मुझे पिछले दिनों किसी ने बताई थी। 'हम हमारे बीच कुछ रहा नहीं, इसे और कॉम्पलीकेटेड नहीं करते, यहीं खत्म करते हैं' बेवफाई की दुनिया की ये आउटडेटेड लाइन है। ये बात भी।

 बेवफाई की दुनिया इश्क से बड़ी दुनिया है। सम्मोहन भी इश्क से ज्यादा है। हिंदी फिल्में और उर्दू शायदी इस दुनिया का एक आसान और लोकप्रिय चेहरा पेश करती रही हैं। उर्दू की शायरी प्रेमी को पवित्र और बड़े दिल वाला दिखाती रही है तो वहीं हिंदी सिनेमा का मकसद इस रिश्तें में हालातों को विलेन बनाने का रहा है। फिल्मों की बेवफाई इतनी स्पष्ट रही है कि उसे पकौड़े तलने वाला स्कील्ड युवा भी समझ जाए और रिक्शा चलाने वाला नॉन स्कील्ड भी।

लव रंजन अपनी फिल्मों में बेवफाई की उन्हीं लेयर्स को दिखाने की कोशिश करते हैं जो अब तक सिनेमा में उस तरह एप्रोच नहीं की गईं। या उनकी मैपिंग बेवफाई के रुप में हुई ही नहीं। प्यार का पंचनामा के दो पार्ट के बाद सोनू के टीटू की स्वीटी भी उसी मिजाज या सोच की फिल्म है जिसके लिए लव जाने जाते हैं। शहरी बैकड्रॉप वाली ये फिल्में एक बहुत बड़े वर्ग को अपनी आवाज सी लगती हैं। लव के निशाने पर लड़कियां ही रही हैं। वे लड़कों के उस बड़े तबके की आवाज बनने की कोशिश करते रहे हैं जिन्हें ये लगता है कि इश्क के मामले में लड़कियां लड़कों से ज्यादा क्लीयर और अपारचुनिस्ट होती हैं।


प्यार का पंचनामा की दोनों फिल्मों में लव ये दिखाने की कोशिश करते हैं कि लड़कियां किस तरह से लड़कों का शोषण करती हैं। उनके किस्से मनोरंजक होते हैं। कुछ हकीकत कुछ फसाने जैसे। प्रेमी-प्रेमिका साथ बैठकर ये फिल्में देखते हैं और दोनों एंज्वाय करते हैं। लड़का बीच में उठकर पॉपकॉर्न भी लाता है। हॉल खाली होने पर पप्पी भी ले लेता है। यानी बिगड़ता कुछ नहीं है। लड़कियों को भी लगता है कि हां उन्होंने कभी ना कभी तो ऐसा किया है। फिल्म के क्लाइमेक्स में लड़कियां, लड़कों से दूर हो जाती हैं और हॉल में बैठी आडियंश को यह जस्टिस लगता है।

सोनू के टीटू की स्वीटी में फर्क ये है कि लव के पास वो तर्क और किस्से खत्म हो गए हैं जिनसे वह ये बात साबित करते रहे हैं कि लड़कियां बुरी होती हैं। इस बार लव ने सिक्स सेंस को चुना। दोस्त का सिक्स सेंस कह रहा है कि लड़की गलत है और फिल्म के आखिरी सीन में सिक्स सेंस की ही जीत होती है। यहां दोस्ती और लड़की में शर्त लगी होती है। फिल्म के एक सीन में स्वीटी बनीं नुसरत भरुचा कहती हैं कि दोस्ती और लड़की में हमेशा लड़की जीतती रही है।

नुसरत की ये बात कुछ अलग तरीके से मुझे किसी ने 12वीं में बताई थी। कॉलेज में एक लड़ाई हुई थी। मेरे एक दोस्त ने समोसा खाते हुए दार्शनिक अंदाज में बताया था कि कॉलेज में होने वाली 99 फीसदी लड़ाइयां लड़कियों के लिए ही होती हैं। बस लड़कियों के नाम बदल जाया करते हैं। इस बार लड़ाई रेखा चौधरी के लिए हुई थी। रेखा चौधरी में पता नहीं ऐसा क्या जादू था कि उन्हें बहुत लड़के अलग-अलग और सामूहिक रुप से प्यार करते थे। इस घटना के बाद मैंने रेखा को 100 मीटर से लेकर 10 मीटर तक की दूरी से देखा। मुझे रेखा से इश्क नहीं हो सका। इस बात अफसोस मुझे बीएससी पार्ट 2 तक था। बाद में सुनने में आया कि रेखा चौधरी, राकेश सिंह के साथ भाग गई थीं। भागी हुई लड़कियों को लेकर मेरे मन बहुत सम्मान रहा है। मैं उनके साथ बैठकर इडली सांभर खाना चाहता हूं। मुझे खाती हुई लड़कियों को देखना बहुत पसंद है। वो खाएं और मैं उनके देखूं। बाद में वह अपने खाए हुए के पैसे खुद दें।



सोनू के टीटू की स्वीटी की सबसे अच्छी बात ये है कि इस फिल्म के पास कोई कहानी ना होते हुए भी ये अपने किस्से और दृश्यों से दर्शकों को उलझाए रखती है। कार्तिक तिवारी, नुसरत भरुचा और सनी सिंह तीनों ने ही सिचुवेशनल कॉमेडी की है। कार्तिक तो लाजवाब लगते हैं। लेकिन इस फिल्म का सरप्राइज पैकेट आलोक नाथ हैं। जब आदमी जिंदगी भर शराब नहीं पीता या पोर्न नहीं देखता तो उसे बाद में ये काम बहुत मात्रा में करने पड़ते हैं। आलोक नाथ के साथ वही हुआ है।

संस्कारी आलोक नाथ के इस फिल्म में जितने भी सीन हैं उसमें में वह लगातार शराब पीते दिखें। क्या मजेदार तरीके से शराब पीते हैं और उसी मजेदार तरीके से टाइमिंग के साथ वनलाइनर बोलते हैं। ये आलोक नाथ के लिए सबसे बड़ी फिल्म है। इस फिल्म ने आलोक नाथ से आलोक नाथ का पीछा छुटवाया है।

लव रंजन की यह फिल्म देखी जानी चाहिए। लेकिन यह एक चिंता का विषय यह है कि बेवफाई की इस सब्जेक्ट में लव खाली होते दिख रहे हैं। उनकी फिल्मों में यदि बेवफाई अपने मजबूत रुप में दिखे इसके लिए जरुरी है कि समाज में नई स्टाइल की बेवफाई क्वाइन की जाए। जाते-जाते साहिर लुधयानिवी के इस शेर का मजा लीजिए...

अपनी तबाहियों का मुझे कोई ग़म नहीं
तुम ने किसी के साथ मोहब्बत निभा तो दी

Friday, February 9, 2018

पैडमैन: एक बहुत जरुरी फिल्म, जो थोड़ा और पहले बननी चाहिए थी




पैडमैन एक अच्छी फिल्म है। ईमानदार। बस मुझे यह थोड़ी सी लेट आई हुई लगी। एक जगह पर ये फिल्म खुद बताती है कि यह 2001 का भारत है 2018 नहीं। ये फिल्म यदि 2001 में आती तो यह मुझे अपने आसपास की कहानी लगती। जब मैं अपने आसपास कह रहा हूं मेरे दिमाग में निश्चित ही उड़ीसा, छत्तीसगढ़ या झारखंड अति पिछड़े गांव नहीं हैं। मेरे आसपास का एक मध्यमवर्गीय संसार हैं। उत्तर भारत के गांवों और कस्बों का संसार। जो अब शहर बनना चाहता हैं। ऑनलाइन शॉपिंग करना चाहता है। वह मध्यम वर्ग जहां तक यह फिल्म या फिल्म की पायरेटेड की डीवीडी पहुंच पाएंगी। 

यह एक काल्पनिक सिनेमा नहीं है। ये एक ऐसी कहानी है जिसे आप देखते हुए खुद को भी टटोलते चलते हैं। मैंने 2001 का भारत देखा है। वैसा ही गांव देखा है जैसा फिल्म में है। मैंने वह सोच देखी है जब महिलाएं अपने इनर वियर ब्लाऊज या किसी दूसरे सम्मानित कपडे़ के नीचे सुखाती थीं। पता नहीं किस शर्म से? उसे वह किससे छिपाना चाहती थी? पैड तब भी घरों में आते थे लेकिन वह बहुत छिपाकर रखे जाते थे। पीरियड में घर से बाहर तो नहीं लेकिन रसोई से बाहर करने के रिवाज देखे हैं। फिर मैंने इसी गांव और कस्बे को बदलते देखा है। पीरियड पर खाने बनाते हुए देखा है। लड़कियों को दुकान में जाकर पैड मांगते देखा है। भले ही वह आज भी चाहती हैं कि पैड उन्हें काली पॉलीथिन या अखबार में लपेटकर मिलें।



बाल्की 2018 में 2001 की बात कहना चाह रहे हैं। यही बात मुझे फिल्म से डिसकनेक्ट करती है। 2018 के जिस परिवेश में मैं या मेरे जैसा उम्र के युवा हैं उस परिवेश में मेरी फीमेल दोस्त जरुरत पड़ने पर बताती हैं कि वो आज डाऊन हैं। कई बार उस पर जोक भी कर देती हैं। ऐसा बताने वाली ये लड़कियों की अपब्रिगिंग मुंबई या पुणे की नहीं है। वह भी उप्र, मप्र या बिहार की हैं। उन्होंने वह समय देखा है और उसे बदलते हुए भी। लड़कियां कई बार छुटटी की मेल में ये बात मेंशन कर देती हैं कि वह पीरियड की वजह से नहीं आफिस नहीं आ पा रही हैं। और उन्हें यह सब सामान्य लगता है। वह पीरियड आने का डिडोरा नहीं पीटना चाहतीं लेकिन इसे वह अब एक टैबू नहीं मानतीं।  


लेयर्स में बंटे इस देश में शर्म भी अपने केचुल अलग अलग समय पर छोड़ती है। कस्बे और छोटे शहरों की दुकानों में ये पैड अभी भी काली पॉलीथिन या अखबार में लपेट कर मिल रहे होंगे लेकिन शहरों और महानगरों में शॉपिंग की ट्राली में ये  पैड रिफाइंड की बोतल के बगल में रखे हुए होते हैं। कोई हिचक नहीं कोई अनईजी नेस नहीं। ये बदलता हुआ भारत है जिसने लड़कियों को बदला है। लड़कियों को लेकर लोगों की सोच बदली है। 

बाल्की इंसान के अंदर के काम्लेक्स को दिखाने में माहिर हैं। उनकी एक असफल मानी गई फिल्म शमिताभ मुझे बेहद पसंद है। इंगलिश विंगलिश अपने समय की फिल्म है और की एंड का समय से आगे की। लेकिन ये फिल्म समय से पीछे की फिल्म है। 

धर्म और परंपराओं को लेकर जो पात्र फिल्म में दिखते हैं वो थोड़े नकली लगते हैं। एक लड़का या लड़की अपने जकड़े हुए परिवेश से बाहर निकलकर जब थोड़ी खुली हवा पाते हैं तो वह उस हवा को उस परिवेश में भी भरना चाहते है जहां की रिवाजों से उन्हें अब घुटन महसूस होती है। 2001 में बदलाव का विरोध होता था अब बदलाव का स्वागत होता है। कम से कम मेरे जानने वाले परिवेश में। मैंने बहुत लोगों को अपने बच्चों के अनुसार अपनी सोच को बदलते देखा है। लव मैरिज को अरेंज मैरिज में कनवर्ट होते देखा है। ये बदलता समाज है। लड़की मां से झगड़कर पैड खरीद लेगी। गंदा कपड़ा नहीं लगाएगी। अव्वल तो मां इसकी नौबत ही नहीं आने देगी। 


पैडमैन एक अच्छी कोशिश है। फिल्म से ज्यादा उसे इस बात की तारीफें मिलनी चाहिए कि ऐसे विषय पर कर्मिशयल सिनेमा बनाने का प्रयास किया गया है। संवेदनशील विषय होने के बाद भी इसे कहीं से भी फूहड़ नहीं बनने दिया गया। हां, इंटरवल के बाद यह फिल्म अपने किरदार को स्थापित करने की कोशिशों में ज्यादा व्यस्त होती दिखती है। लेकिन यह खटकता भी नहीं है। 

मुझे अक्षय कुमार से अधिक राधिका आप्टे का अभिनय प्रभावित करता है। राधिका आप्टे में सिनेमा की कितनी बड़ी रेंज है यह देखने के लिए एक ही दिन में पार्च्ड, हंटर, बदलापुर और शोर इन द सिटी फिल्में देखनी चाहिए। अक्षय कुमार एक ही जैसी रोल करते जा रहे हैं। उन्हें अब एक ऐसी फिल्म करनी चाहिए जिसमें वह एक चोर या बने हों। वह सक्षम अभिनेता हैं उन्हें अपनी रेंज के दर्शन कराते रहना चाहिए।