Friday, August 3, 2018

मुसलमान एक परसेप्शन बेस्ड जीव है, 'मुल्क' चाहता है कि ये टूटे


मुसलमान एक परसेप्शन बेस्ड जीव है। परसेप्शन यूं ही नहीं बना। इसके बनने और मजबूत होने में सालों लगे हैं। कश्मीर में हुई एक घटना गोरखपुर के किसी सुबोध शुक्ला का परसेप्शन और मजबूत कर देती है। या कोई चंदन मार दिया जाता है। मुसलमान का आतंकी होना एक अलग डिग्री का परसेपशन है। लेकिन वह अनपढ होता है, जाहिल है, कई सारी शादियां करता है। वह किसी के साथ भी सेक्स कर सकता है, बहुत सारे बच्चे पैदा करता है। गंदगी में रहता है और इस्लाम को छोडकर हर धर्म  का विरोधी होता है। और सबसे बडी बात ये है कि वह विश्वास करने का पात्र नहीं है। ये ऐसे परसेप्शन है जो रोजमर्रा की जिंदगी में हर रोज मुसलमान अपने सामने वालों की आंखों में खुद के लिए देखता है।

अब तो यूज्ड टू है। यही परसेप्शन उसे 'हम और वो' में बांटते रहे हैं। दर्दनाक पहलू ये है कि मुसलमाानों ने खुद को लेकर बन रहे इस परसेप्शन का विरोध नहीं किया, बल्कि उनका ही विरोध करने लगे जो इस तरह के परसेप्शन के साथ जी रहे होते हैं। मेरा अपना फर्स्ट हैंड एक्सपीरियंस हैं कि प्रगतिशील और आर्थिक रुप से बहुत सक्षम मुसलमान खुद को इस 'सो कॉल्ड गंदगी' से दूर कर लेते हैं। और वो ये बात कहते भी हैं कि 'हम' उनके जैसे नहीं हैं। मुल्क फिल्म में एसएसपी का किरदार निभाने वाले दानिश जावेद मुसलमानों के इसी तबके की सोच की नुमाइंदगी करते हैं।


मुल्क मुसलमानों को लेकर बने इन्हीं परसेप्शन की बात करती है। फिल्म के एक सीन में जब आतंकवादी के पूरे परिवार को ही सरकारी वकील आतंकी साबित कर रहे होते हैं तो उसी क्रम में वह मुसलमानों के यहां बहुत बच्चे होने का तंज कसते हैं। इस  तंज पर  कोर्ट रुम में बैठे हुए लोग ही नहीं हंसे थे। मेरे बगल में बैठे लोगों के चेहरे और शरीर में भी हल्की सी हरकत हुई थी। बावजूद इसके वे पढे लिखे लोग थे और कई सारी मसाला फिल्मों को छोडकर मुल्क देखने आए थे। उनके शरीर की ये हरकत बताती है कि धर्म को लेकर बहुत सारी चीजें ऐसी हैं जो अब उनके कंटोल में नहीं हैं। उनका अनकांसेस माइंड इन चीजों पर रिक्शन दे देता है। 

मुल्क ऐसे ही परसेप्शन को खारिज करने का प्रयास करती है। पर तकरीर से नहीं। वो ये कोशिश करती है कि हम बनारस के उस मुसलमान परिवार का हिस्सा बनकर सोचे जिसके घर का एक लडका आतंकवादी बन जाता है। उस घर के लोगों पर क्या बीतती है जिसके घर की दीवारों पर गो बैक पाकिस्तान के नारे लिख दिए जाते हैं। उसी घर में जिसके यहां दो दिन पहले हुई दावत में हिंदू मुसलमान दोस्तों ने साथ बैठकर खाना खाया था। एक मां अपने आतंकी बेटे की लाश लेने से मना कर देती है। किसी सामाजिक दबाव में नहीं बल्कि उसकी अंतरआत्मा इस बात को गंवारा नहीं करती। ये भारत देश ऐसे मुसलमानों से भरा पडा है।

हो सकता है कि इस देश में ऐसे मुसलमाान भी हों तो पाकिस्तान की जीत पर पटाखे बजाएं। हो सकता है कि ओसामा बिन लादेन की तकरीरे सुनते हों। हो सकता है कि उवैसी उनको एक काबिल और उनकी बात कहने वाला नेता लगता हो। लेकिन ऐसे मुसलमान कितने हैं। क्या इन चंद मुसलमानों की वजह से पूरी कौम को कटघरे में रख दिया जाएगा? फिल्म इस बारे में आपसे से सोचने के लिए कहती है। फिल्म कतई नहीं कहती कि मुसलमान कटटर नहीं है। उनके अंदर भी कटटरता है। दूसरे कौमों के लिए जहर है। धर्म को लेकर वह जाहिल हैं, लेकिन कितने फीसदी? दो- चार फीसदी की सजा 100 प्रतिशत को तो नहीं मिलनी चाहिए।

एक मैसेज देने के अलावा फिल्म, फिल्म के रुप में भी बहुत सक्षम है। कैमरावर्क बेहद शानदार है। हर एक किरदार की एक्टिंग लाजवाब है। पूरी जिंदगी मसखरी भरे रोल करने वाले मनोज पहवा ने एक आतंकी बेटे के बाप का क्या खूबसूरत रोल किया है। तापसी एक बेहद प्रतिभाशाली अभिनेत्री बनकर उभरी हैं। उनकी बॉडी लैंग्वेज बहुत बेहतरीन है। अमिताभ बच्चन की तरह ही रिषी कपूर जवानी से बेहतर फिल्में अब कर रहा हैं। आशुतोष राणा को प्लीज हिंदी फिल्में दीजिए। नहीं तो ये फिर से साउथ इंडिया की फिल्में करने लगेंगे। अनुभव सिन्हा के सारे पाप इस फिल्म ने धो डाले हैं। उम्मीद है कि वह अब जिद जैसी फिल्म बनाने की जिद नहीं करेंगे। मुल्क एक जरुरी तौर पर देखी जाने वाली फिल्म है। देखे जाने के बाद  पूरी रात बैठकर चर्चा की जाने वाली फिल्म है। कोशिश करें....