Friday, October 19, 2018

मिडिल क्लास को भी किसी भी उम्र में सेक्स करने का पूरा हक है, और हां शराब पीने का भी



शराब पीना और सेक्स करना जैसे 'बुरे काम' कितने बुरे हैं इनकी डिग्री परिवेश तय करता है। मध्यमवर्गीय आदमी के लिए ये दोनों ही टैबू हैं। वो ये दोनों काम करता तो है गिल्ट के साथ। सेक्स तो बहुत ही बुरी चीज है। शादी के बाद जब  लड़की
 प्रेगनेंट होती है तो उसे ये बात अपने भाई और पिता से बताने में झिझक होती है। झिझक की वजह ये होती है कि वह मां बनने वाली है तो इसका मतलब ये है कि उसने सेक्स किया होता है। ज्यादातर मध्यमवर्गीय परिवारों में ये बातें आज भी वाया मां परिवार  के मेल मेंबर तक पहुंचती हैं । बधाई हो एक ऐसे विषय पर बनी फिल्म है जिसमें एक युवा इस झिझक के साथ जीता है कि उसकी मां 'फिर से मां' बनने वाली है। वो भी तब जब वह खुद अफेयर में  है और शादी करने वाला है। जाहिर है कि बच्चा जूठा आम खाने से तो वजूद में आया नहीं होगा तो ज्यादा शर्म की बात ये है कि उसके मां बाप अभी भी सेक्स करते हैं। उसके मां-बाप भी अनजाने में हुए इस पाप को कवर करते हुए चलते हैं। घर में, मोहल्ले में, ऑफिस में। चूंकि एबॉर्शन करना उनके लिए इससे बडा पाप है इसलिए वह बच्चा रखने के अपेक्षाकत छोटे पाप के साथ सरवाइव करने का फैसला लेते हैं। फिल्म कॉमिक अंदाज में बहुत ही कठिन और डिस्कश ना करने वाली चीजों की चर्चा करती हुई चलती है। एक शानदार भावुक क्लाइमेक्स के  साथ।

सेक्स को मुख्य विषय बनाकर भारत में कुछ बहुत अच्छी फिल्में बनाई गई हैं। इसमें से कुछ गुमशुदा हैं और कुछ को चर्चाएं मिलीं। दिल कबडडी, मिक्सड डबल, रात गई बात गई जैसी फिल्में गुमशुदा और असफल रही हैं। विक्की डोनर, शुभ मंगल सावधान को आप सफल की कैटेगरी में रख सकते हैं। बधाई हो इन सभी फिल्मों से  एक कदम आगे की फिल्म है। बिना अश्लील हुए और मुंह छिपाए ये फिल्म सेक्स जैसे विषय पर खुलकर बात करती है। घर की दादी के मुंह से जब निरोध शब्द निकलता है तो हमें अटपटा नहीं लगता है। हम हंसते हैं। फिर फिल्म खत्म होते होते खुद शादी की दहलीज में खड़े लडके को अपने मां बाप का सेक्स करना बुरा नहीं लगता। जो कुछ समय पहले बहुत ही लिजलिजा सा ख्याल लगता है। और लडका शर्मिंदगी में अपनी 'अपरक्लास प्रेमिका' से बात करना तक बंद कर देता है क्योंकि उसे डर है वह उसे जज करेगी।

बधाई हो इधर समाज और खासकर शहरी कल्चर में आई एक नई टेंडेंसी पर भी बात करती है। लड़की और उसकी फैमिली को मिडिल क्लास का लड़का तो पसंद आता है पर उसे फैमिली उसे 'डाउन मार्केट' लगती है। लड़का इसलिए पसंद आता है क्योंकि वह महसूस करती हैं कि लड़के को खुद भी 'मिडिल क्लास' होने पर शर्म है और वह मिडिल क्लास से 'वाया अपर मिडिल क्लास' अपर क्लास में शिफ्ट हो रहा है। शादी के बाद लड़की उसकी इस शिफिटिंग में  मदद करेगी। एक्चुअली ये एक अनकही डील होती है। मैंने आसपास हाल ही में अमीर हुए बहुत से ऐसे मध्यमवर्गीय लडके देखे हैं जो अपनी ससुराल के स्टेटेस का ख्याल रखते हुए ऐसे मां बाप से उचित दूरी बना लेते हैं जिन्हें मॉल के एक्सीलेटर में पैर रखने में डर लगता है या वह हाथ से ही रेस्टोरेंट में दाल चावल खाने लगते हैं। पत्नी के सामने उनकी अपनी उस बोली में बात करने में झिझक होती है जिसे वह सालों से बोलते आ  रहे हैं।

फाइनेंसियल डिफरेंस को फिल्म दुनिया में पहले भी दिखाया जाता रहा है पर जरा फिल्मी अंदाज से। प्यार झुकता नहीं है से लेकर राजा हिंदुस्तानी जैसी फिल्में में ये डिस्कोर्स आए हैं। यहां भी कटघरे में 'लडके का क्लास' है। लडकी का पाप सिगार पीते हुए लडके की मासिक कमाई पूछता है और फिर अकडकर अपनी बेटी के एक दिन का खर्च बताता है। पर इधर अमीर लोग भी जरा 'संस्कारी और मॉडेस्ट' हो गए हैं। इसका रिफ्लेक्शन फिल्मों में आया है। उन्हें मिडिल क्लास से बू तो आती है लेकिन उसके आगे वह एक किस्म का सेफ्टी वाल्वलगा देते हैं। 'शिफ्टिंग इन फ्यूचर' का सेफ्टी वाल्व। बधाई हो इस टेंडेसी को बहुत 'क्लासी' तरीके से दिखाती है, बगैर अपर क्लास को जलील किए। खासकर मिडिल क्लास  के लडके का मिडिल क्लास में घर वापसी का सीन।

फिल्म का सबसे खूबसूरत पक्ष किरदारों की ऐक्टिंग और उनके किरदार का गठन है। आयुष्मान खुराना, नीना गुप्ता और गजराज राव मंझे हुए अभिनेता है। उन्होंने तो अच्छा किया ही दादी के रोल में सुरेखा सिकरी ने बेहद उम्दा काम किया है। बधाई हो एक जरुरी तौर पर देखी जाने वाली फिल्मों में है। हम हिंदी सिनेमा के सबसे सुनहरे दौर में जी रहे हैं। इसके टेस्ट को चख लेना चाहिए। कोई ठिकाना नहीं कि पांच साल के बाद हमें क्या मिलने लगे। कई बार मनमोहन को हटाने के चक्कर में हम क्या चुन लेते हैं।

Wednesday, October 3, 2018

'पटाखा' टीवी सीरियलों की लोकप्रिय कहानियों का 'इंटलेक्चुअल वर्जन' है

विशाल भारद्वाज की पटाखा देखते हुए आपको दूरदर्शन में 'चिक शैंपू पेश करते हैं' के दौर वाली फिल्में याद आ सकती हैं। ऐसी फिल्में जो सबकी समझ में आ जाएं। मेरे घर में जब भी अनोखा बंधन, प्यार झुकता नहीं, स्वर्ग या फिर इधर बाद में विवाह या बागबान जैसी फिल्में आईं तो बुश टीवी वाला कमरा हाउसफुल चला। उसी कमरे ने वह बुरा दौर भी देखा जब टीवी पर हू तू तू, जख्म, फिजा, क्या कहना जैसी फिल्में आईं। विशाल की पटाखा 'टीवी की इन सर्वमान्य फिल्मों' से दो मामलों में अलग है। पहली उसमें  कोई जाना-पहचाना चेहरा या स्टार नहीं है। दूसरा उसमें बीच-बीच में 'भारद्वाज स्कूल ऑफ फिल्म मेकिंग' के इंटलेक्चुअल छींटे और शटायर हैं। फिल्म के एक सीन में खुद को परेशान कर रहे है  युवक से नायिका बोलती है कि मारुंगी एक तो गुजरात में  जाकर गिरोगे। परेशान करने वाले को गुजरात में जाकर गिराना यूपी या बिहार में नहीं यही विशाल का पॉलिटिकल कमेंट है।

विशाल एक ऐसे फिल्मकार हैं जिनकी राजनीतिक समझ उनकी फिल्मों में रिफ्लेक्ट होती है। उनके सिनेमा का एक छोटा सीन या संवाद एक बहुत बडी बात या विडंबना को कहने की कोशिश करता है। देशकाल और राजनीतिक विचार उनकी फिल्मों में बार-बार आते जाते रहते हैं। पटाखा इस मामले में अलग है। इस बार केंद्र में वाकई एक मनोरंजक कहानी है जो भदेस है। देशी है। कहानी किस कालखंड की है ये नहीं मालूम। फिल्म में दिखाई गईं रेलगाडियों के डिब्बे नीले हैं तो यह मान लेते हैं कि ये इसी दौर की बात है। इस बार जोर सिनेमा की भव्यता पर ना होकर एक सामान्य कहानी को डायलॉग, सीन और अभिनय से चमत्कारिक बनाने में है। अगर इस आधार पर चीजों को परखा जाए तो वे सफल रहे हैं। यह फिल्म दर्शकों को लगातार इंगेज्ड रखती है। पर ये उन लोगों को कुछ निराश कर सकती है जिनके लिए विशाल,  हैदर, मकबूल, मटरु, या रंगून  जैसा सिनेमा रच चुके थे। ये कुछ वैसा ही है कि निर्मल वर्मा अपनी कोई कहानी शरदचंद या कुछ हद तक जैनेंद्र की तरह लिख दें। या फिर महेश भटट कुछ नया करने के लिए रोहित शेटटी की स्टाईल में एक कॉमेडी फिल्म बनाएं और जिसका नायक उनकी मेकिंग स्टाईल के अनरूप ही अवैध संतान हों। ये सब अच्छा रचते या बनाते हैं पर अपनी तरह से।

सिनेमा में इमेज एक ताकत भी है और कमजोरी भी। दो बहनों की लड़ाई वाली यह फिल्म विशाल के लिए कुछ वो दर्शक जोड सकती है जिन्हें रंगून बहुत हैवी लगी हो,  हैदर लेफ्ट धारा के आसपास और मटरु शुद्व राजनीतिक। पर विशाल की कुछ और फिल्में जैसे ओमकारा, सात खून माफ और कमीने विशुद्व रुप से मनोरंजक फिल्में थीं जिनका कैनवास बहुत बडा था और  घटनाएं एक परिवार  के बीच की। इन फिल्मों से तुलना करने पर पटाखा पीछे छूट जाती है और लगता है कि हम नेशनल न्यूज चैनल में कोई लोकल खबर देखने लगे। उनके इस सिनेमा में फिलॉसफी कम है और घटनाएं ज्यादा। फिलॉसिफी का पूरा जिम्मा फिल्म में सूत्रधार बने सुनील ग्रोवर पर ही है। वह मसखरे अंदाज में लोकल से ग्लोबल और ग्लोबल से इंटलैक्चुअल बातों की तरफ बढ जाते हैं। बहनों की लडाई की निरर्थकता को भारत-पाकिस्तान से जोडना उसी कवायद का हिस्सा है। ऐसे कई सारे कमेंट हैं जो फिल्म के ह्रयूमर को डार्क बनाकर ये बताने की कोशिश करते हैं कि यह अनोखा बंधन या प्यार झुकता नहीं जैसी नहीं है।

सिनेमा में सही तरीके से गांव को ना दिखाना खटकता है। गांव की लडकियां सुंदर भी हो सकती हैं और गोरी भी। ऐसी बहुत सी लडकियां मैंने देखी हैं जिनके दांत बहुत सुंदर और चमकदार होते हैं। फिल्म उन्हें टाइप्ड दिखाती है। जब वीडियो कॉलिंग है तो जींस भी हो सकती है और छोटे बालों वाली हेडर स्टाईल भी।  महिलाएं ही घर को तोडती हैं पुरूषों की इसी बनी बनाई मानसिकता को भी विशाल हवा देते हैं। जाहिर है आज से बीस साल के बाद जब विशाल सिनेमा नहीं बना रहे होंगे तब उनको हैदर के लिए ही याद रखा जाएगा ना कि पटाखा के लिए। आप देखना चाहें तो देख सकते हैं  क्योंकिफिल्म बुरी नहीं है। बस ये बदले हुए विशाल की है। जो शायद बटर चिकन और नॉन खा-खाकर थक गए थे और उन्होंने बटर खिचडी का ऑर्डर दिया हो।