Friday, December 21, 2018

मैं आज थिएटर में अपने सुपरस्टार की तेरहवीं खाकर आया हूं

मेरे अंदर ड्रॉपर से निब पेन में स्याही भरने का सहूर भी नहीं आया था, मेरे पैर इतने लंबे नहीं हुए थे कि मैं पापा की 20 इंची सायकिल चला सकूं, तब तक मुझे नहीं पता होता था कि गाने में आवाज शाहरुख या आमिर की ना होकर सोनू निगम और उदित नारायण होती थी उसके बहुत पहले शाहरुख खान सुपरस्टार बन चुके थे। आपकी समझ आने के पहले ही यदि किसी का आभामंडल आपके पूरे वजूद पर छा जाए तो उसके तिलिस्म को टूटते हुए देखने का दर्द भी है और मज़ा भी। ज़ीरो फिल्म के शाम के शो में मैं ये तिलिस्म टूटता हुआ देखकर आ रहा हूं, और जाहिर है कि ये मज़े लेकर भी। इंटरवल के बाद जब दर्शक अपने इस सुपरस्टार की खिल्ली उड़ाते हुए हॉल से निकलने लगे तो लगा कि मैं अपने इस हीरो की तेरहवी की पंगत में खाने बैठा हूँ। दो-तीन ये पंगत और चलेगी। फिर सब मरने वालों को भी भूल जाएंगे और पंगत में परोसी गई सब्जी या चटनी को भी।

मुझे याद नहीं आता कि शाहरुख की ऐसी भी कोई फ़िल्म रही है जिस पर दर्शक उसे पूरा करने का सब्र भी ना रख पाए हों। हैरी मेट सेजल और फैन भी शाहरुख की असफल फिल्में थीं लेकिन वो तिलिस्म को तोड़ने वाली फिल्में नहीं थीं। रॉ वन घाटा देने वाली फिल्म थी और डियर जिंदगी बहुत सफल न होकर भी उनकी रेंज को दिखाने वाली।

 जीरो फिल्म अपने अभिनय की वजह से शाहरुख की सबसे खराब फिल्म नहीं है। एक्टिंग के मामले में हो सकता है कि ये शाहरुख़ की मास्टरपीस कही जाए लेकिन ये शाहरुख के दुरुपयोग वाली फिल्म जरूर कही जाएगी। युगों युगों तक। साथ ही ये उनके मिस जजमेंट की फ़िल्म है, ये आनंद एल राय और हिमांशु शर्मा की सीमाओं को दिखाने वाली फिल्म है, एक निर्देशक और लेखक के फेल होने की फ़िल्म है। एक नकली और बनावटी किरदारों वाली फिल्म है। एक नए हाथों से सुपरस्टार को न संभाल पाने वाली फिल्म है।

ऐसा नहीं है कि शाहरुख रियलस्टीक सिनेमा के हीरो रहे हों और सच में पंजाब में कोई बाप अपनी बेटी से 'जा सिमरन जी ले अपनी जिंदगी कहता हो' शाहरूख का पूरा सिनेमा ही नकली रहा है। लेकिन ये नकली उनका अपना बनाया हुआ नकली था। जो नकली होते होते असली सा होता गया। जिसमें फिलिंग और अदाएं असली थीं। जिसमें शाहरुख असली थे, उनका इश्क असली था, उनकी फैलती हुए बाहें असली थीं, उनका स्विट्जरलैंड असली था, शिफॉन की साड़ी पहने पहाड़ में डांस कर रही उनकी प्रेमिका असली थी और अंत में किसी भी सूरत में होने वाली उनकी जीत असली थी।

आत्मविश्वास से भरे किसी बौने की प्रेम कहानी पहली नजर में दिलचस्प लग सकती है और ये शायद शाहरुख को लगी भी हो लेकिन उसका ट्रीटमेंट इतना घटिया होगा ये उन्हें तो समझ में आना चाहिए था। उनको पता होना चाहिए था कि नकली मेरठ चल सकता है ये किरदार और उनकी मोहब्बत नहीं चल पाएगी।
इंटरवल तक कैसे भी गिर पड़ते चलने वाली ये फ़िल्म मेरठ से मुंबई पहुँचते ही किसी नौसिखिया डायरेक्टर की फ़िल्म लगने लगती है। ऐसा लगता है कि आनंद एल रॉय की पहली फिल्म स्ट्रेंजर के बाद इस फ़िल्म को बना रहे हैं। बीच में कोई और उनके नाम से फिल्में बनाता रहा है। संवादों से कमाल के किरदार रचने वाले हिमांशु शर्मा शायद शाहरुख का लोड बर्दाश्त नहीं कर पाए।

 फ़िल्म की अच्छी बात ये है कि कमाल की घटिया स्क्रीप्ट होने के बाद भी किसी भी किरदार का अभिनय घटिया नहीं था। आनंद और हिमांशु को छोड़कर सब अपनी इज़्ज़त और इमेज बचा लेते हैं। रेस 3, ठग के बाद ज़ीरो का ये प्रदर्शन के ट्रेंड नहीं शो कर रहा है?