Friday, February 15, 2019

गली ब्वॉय आपकी रूह को अच्छी लगेगी, इसे देख लीज‌िए


मल्टीप्लेक्स के नम अंधेरे कमरे के चारों ओर चमक रहे लाल रंग के एक्जिट बोर्ड के बाहर एक दूसरी दुनिया बसी होती है। पिछले ढाई घंटे बिताई हुई फंतासी दुनिया से उलट एक असली दुनिया। अमूमन हॉल की सीढ‌ि़यां उतरते-उतरते आप उस दुनिया के संग हो लेते हैं जहां आपको जीना होता है, और जहां से आप आए होते हैं। बीते ढाई घंटे का देखा और सीखा हुआ उस दुनिया में काम नहीं आता। आप मानते हैं कि जो कुछ अभी देखा गया है वह सिर्फ एक फिल्म थी। पर कुछ फिल्में उस एक्जिट बोर्ड के बाहर चलकर आपके साथ आती हैं, आपके जीवन में। कुछ बातें दुबककर वहां पर बैठ जाती हैं जहां से सोच और नजरिया तय होता है। गली ब्वॉय हिंदी सिनेमा की उन गिनी चुनी फिल्‍मों में  शामिल हो जाती है जो ऐसा करने का हुनर रखती है। 

लक बाय चांस, जिंदगी मिलेगी ना दोबारा जैसी ही यह फिल्म, फिल्म कम एक नॉवेल ज्यादा लगती है। जहां नायक की एंट्री, इंटरवल या फिल्म के खत्म होने पर एक तनाव क्रिएट और रिलीज नहीं किया जाता। सब कुछ सतत सामान्य ढंग से होता रहता है। फिल्म के सीन किताब के पन्ने जैसे होते हैं। कोई पन्ना बोर‌िंग तो हो सकता है लेकिन वह वहां गैरजरूरी नहीं होता है। निश्चति ही ये फिल्म आपका धांसू मनोरंजन नहीं करती, पर्दे पर कोई तूफान नहीं खड़ा करती। वैलेंटाइन डे पर रिलीज होकर भी उसके पास ऐसी कोई अदाएं नहीं हैं जिस पर प्रेमी रीझ सकें, उसे दिखाकर प्रेमिकाओं को रिझा सकें। आलिया और रणवीर के होने के बाद भी ये आपको 'हॉट कपल की गर्म प्रेम कहानी' जैसी गलतफहमियां पालने का मौका नहीं देती। जोया की बाकी फिल्मों की तरह ही यह फिल्म भी जीवन के कुछ दर्शन देती है। रिश्तों की लेयर्स और सपनों की जटिलताओं के बीच फंसे जीवन को जरा नए अंदाज में देखने का दर्शन। आपके अंदर की फड़फड़ाहट को हवा देती है और बताती है कि ये फड़फड़ाहट दरअसल जुर्म नहीं है। 

रीमा कागदी और जोया अख्तर की लिखी इस फिल्म का विषय बहुत यूनीक नहीं कहा जा सकता। फिल्म का अंत भी आप प्रेडिक्ट कर सकते हैं। अंडरडॉग को हीरो बनाने वाले विषयों से सिनेमा भी भरा हुआ है और साहित्य भी। 'गुदड़ी के लाल' की गौरव गाथाएं हमने अपने स्कूलों के दिनों से पढ़ रखी हैं। गली ब्वॉय की खूबसूरती इस बात में है कि यहां एक अंडरडॉग को हीरो बनाने की प्रोसस नई किस्म की है। सपने के बीच आने वाले 'फैमिली हरडेल' तो पुराने हैं लेकिन उनको सॉल्व करने की एप्रोच नई। 'सपने ऐसे हों जो आपकी सच्‍चाई से मैच करें', यह बात बहुत पुरानी कहावत 'जितनी चादर हो उतना ही पैर फैलाओ' कहावत का अपग्रेड वर्जन है। पूरी फिल्म इस घिसी पिटी थ्योरी की काट में लगी रहती है, आखिरकार सफल रहती है। सफल भी चुपके से होती है, फिल्मी स्टाईल में हंगामा मचाकर नहीं। 

 
मुंबई का धारावी हिंदी सिनेमा के लिए एक ऑफ बीट विषय जैसा है। कई फिल्मकारों ने उसे अलग-अलग एंगल से देखने और एक्सप्लोर करने की कोशिश की है। धारावी, सलाम बांबे, काला जैसी कुछ फिल्में आम दर्शकों को भी याद आती हैं। आमतौर पर धारावी या झोपड़पटटी की लाइफस्टाइल दिखाने के लिए फिल्मकार कैमरे को आगे करते रहे हैं। कैमरा खूबसूरती से उस दुनिया को कैप्चर करता रहा है और हम एक बाहरी की तरह बैठकर उस दुनिया के यथार्थ को देखते हैं। उस दुनिया का यथार्थ हमारा अपना यथार्थ नहीं होता रहा है, हम उसे डॉक्यूमेंट्री जैसा देखते आए हैं। मानों फिल्म वहां के बारे में बताकर हमारा सामान्य ज्ञान बढ़ा रही हो। गली ब्वॉय ऐसा बिल्कुल नहीं करती।

 इस बार कुछ बदला सा है। जैसे हैदर कश्मीर को कश्मीर की तरह देखती है एक आउट साइडर की तरह नहीं वैसे ही गली ब्वॉय धारावी को धारावी के नजरिए से देखने का प्रयास करती है। उसकी निगाहों में उसकी लिए सेम्पेथी नहीं है, ना ही स्पेशल फील किए जाने का ऐहसास। फिल्म के नायक के सामने जो जीवन है, सच्‍चाईयां हैं, कांच की कतरन से ढकी चाहरदीवारियां हैं, उस जीवन की जो कसमाकस है वो धारावी ही नहीं कानपुर, बेगूसराय, कटनी या बिलासपुर में भी उसी तरीके से हो सकती हैं। आपकी हो सकती है, मेरी हो सकती है आपके मौसी के लड़के की हो सकती है। आपके प्रेमी की हो सकती है, आपकी प्रेमिका की हो सकती है। मुख्य ‌किरदार मुराद को उठाकर किसी भी परिवेश में रख दें तो भी फिल्म वैसी ही रहेगी। यहां परिवेश मुराद को स्टेबलिश करने में मदद करता है लेकिन मुराद का किरदार कैमरे या परिवेश पर आश्रित नहीं है। 

चूंकि फिल्म के नायक का सपने रैप सिंगर से गुजरकर पूरे होने हैं तो फिल्म में रैप भी एक किरदार की तरह है। रैप की जुबान पर उतना ही काम किया गया है जितना रणवीर के किरादार पर। रैप दरअसल पोएट्री और रिदम का मिक्चर है इस बात को साबित करने के ल‌िए गली ब्वॉय लगातार एक फिलासिफकल पोएट्री का सहारा लेती रहती है। रैप में बोले गए गानों की जुबान भी दरअसल डायलॉग ही हैं। वह फिल्म के हिस्से हैं। मुझे याद पड़ता है कि गुलाल के बाद दूसरी बार किसी फिल्म के गानों में पोलिटकिल सटायर शामिल किया गया है। गली बॉय रैपर्स नैज़ी और डिविन के जीवन से प्रेरित है, जो बस्तियों से स्टारडम तक पहुंचे थे। इसे हॉलीवुड की एक फिल्म 8 Mile से भी प्रेरित बताया जा रहा है। इस बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता। जोया को दरअसल हालातों में फंसे एक युवक को फोकस में रखकर अपनी बात कहनी थी। फिर उसका सपना रैप बनाने का भी सकता है या रैंप पर चलने का भी। 

फिल्म के सब प्लाट्स उम्दा हैं। रुढ़ियों में जकड़े, अटके, आर्थिक रुप से निचले पाएंदान पर खड़े एक मुसलमान परिवार की जिंदगी स्याह पक्ष फिल्म में एक किरदार की तरह हैं। पहली बीवी को बिना तलाक दिए दूसरी शादी कर लेना, अपनी से आधी उम्र की बीवी को घर के जवान लड़के की तरफ फिजकली अट्रैक होना, पहली बीवी के भाई का अपनी बहन को नहीं बल्‍कि पुरुष के नजर‌िए को समर्थन करना जैसे बातें बहुत गहराई से अंडरलाइन की गई हैं। अभिनय इस फिल्म की सबसे मजबूत कड़ी है। रणवीर स‌िंह एक बार फिर से वैसे ही अच्छे लगे हैं जैसे वह लुटेरा में लगे थे। सिंबा जैसा ओवरएक्टिंग के रोल के बाद गली ब्वॉय का मुराद बनना इस एक्टर की रेंज दिखाता है। 

आलिया भटट की खूबसूरती ये है कि एक दो जगह को छोड़कर वह कहीं से आलिया नहीं लगतीं। वह हर जगह एक 'अधकचरे उदार' मुस्लिम परिवार में पल रही सकीना ही लगती हैं। अपनी तमाम कमियों और सीमाओं के सा‌थ जी रहे एक अधेड़ गरीब मुसलमान की भूमिका विजय राज शानदार तरीके से जीते हैं। कॉमेडी से इतर उनका इस्तेमाल शायद पहली बार हुआ है। 'एक और विजय', विजय वर्मा पहली बार प्रियदर्शन की फिल्म रंगरेज में नोटिस किए गए थे। उनके ‌हिस्से में पिंक और मानसून शूटआउट जैसी फिल्में भी हैं लेकिन यह फिल्‍म उन्हें पहली बार स्‍टेबलसि करती हैं। सिद्वांत चतुर्वेदी की चर्चा इस फिल्म के बाद बहुत होने वाली है। कल्‍कि कोचलीन वैसी हैं जैसी वो थीं। अमृता सुभाष, रमन राघव में अपनी भूमिका का मानों एक्सटेंशन कर रही हैं। फिल्म की लंबाई कुछ कम हो सकती थी। ऐसा सेकेंड हॉफ  में लगता है।