Thursday, April 18, 2019

आइए 'कलंक' पर हंसते हैं, ये खिल्ली उड़ाने वाली फिल्म है, समीक्षा वाली नहीं


'कलंक' दरअसल पूरी ठसक के सा‌थ यह बताने का प्रयास करती है कि यदि पैसा पानी की तरह बहाया जाए तो चुनाव भी जीते जा सकते हैं और इंडस्ट्री के टॉप चेहरों को लेकर एक बेहद उबाऊ फिल्म भी बनाई जा सकती है और डंके की चोट पर उसका अथाह प्रमोशन भी किया जा सकता है। ऐसी फिल्म जिसके एक-एक सीन पर लाखों खर्च किए गए हों।  टू स्टेटस जैसी सफल फिल्म बना चुके और कई सारी सफल फिल्मों के असिस्‍टेंट रहे अभिषेक वर्मन की इस फिल्म में आपको ‌‌हिंदी सिनेमा की बीती हुई कई झलकियां या किरदार दिख सकते हैं। फिल्म के सेट और कलर डिजाइन में भंसाली का अक्स साफ दिखता है। कई जगह यह फिल्म सांवरियां और राम-लीला जैसी लगती है, रंगों के चटक और धूसर होने के मामले में।  फिल्म की अच्छी बात ये है कि सभी किरदारों ने अभिनय अच्छा किया है, बुरी बात ये है कि वह सभी एक खराब फिल्म के लिए अभिनय कर रहे थे। बंटवारे जैसी सेंसटिव बैकग्राउंड पर बनी यह फिल्म उस हिस्से को बेहद सतही तरीके से छूती है जिस पर इसका क्लाइमेक्ट टिका होता है। फिल्म इतनी लंबी और उबाऊ है कि कुछ अच्छे दृश्य, सिनेमेटोग्राफी और गाने भी उसे बचा नहीं पाते हैं।
 फिल्म की स्टोरीलाइन बचकाना है। इसकी कहानी टीवी सीरियलों जैसी है और इसके संवाद किसी थके हुए पत्रकार के चोरी किए हुए आर्टिकल की लंबी-लंबी लाइनों जैसे हैं, जिस पर वह खुद आत्ममुग्‍ध है। यह एक ऐसी फिल्म है जिसका मजाक उड़ाया जाना चाहिए। फिल्म के हर बचकानेपन और उनकी हरकतों का मजाक। फिल्म में सोनाक्षी सिन्हा कैंसर से मर रही होती हैं। मरने के दो साल पहले वो बला की खूबसूरत दिखती हैं। मैचिंग की साड़ियां, मेकअप, खूब सारी चूड़ियां पहनकर वो लाहौर से राजस्‍थान किसी के घर जाती हैं। उस घर में आलिया भट्ट पतंगे लूट रही होती हैं। शोले में शादी से पहले वाली जया भादुड़ी जैसी चुलबुली लड़की वाले अंदाज में। पता नहीं उनके बीच में क्या रिश्ता है लेकिन सोनाक्षी चाहती हैं कि वह उनके घर जाएं और मरने तक उनके साथ रहें और मरने के बाद उनके पति से उनकी शादी हो जाए। सोनाक्षी सिन्हा की इस तरह की ख्वाहिशें पहले भी पालती रही हैं। लुटेरा में उन्होंने कुछ ख्वाहिशें रणवीर सिंह से पाली थीं, सेकेंड हॉफ में उनकी ख्वाहिशें रणवीर से शिफ्ट  होकर उनके दरवाजे पतझड़ में झड़ रहे एक पेड़ से हो जाती हैं। फिर बाद में रणवीर उनके लिए एक पत्ती बनाते हैं। हिंदी सिनेमा ऐसी उल जलूल ख्वाहिशें लड़कियों के मन में पालता रहा है और प्रेमी उसे पूरा कर-करके फना होते रहे हैं।

तो फिर आलिया शादी करके उनके घर आ जाती हैं और उनके पति रात में पर्दे की आड़ में ही कह जाते हैं कि सोनाक्षी सिन्हा ही उनकी पत्नी हैं। इस रिश्ते में इज्जत तो होगी लेकिन प्यार नहीं। क्योंकि प्यार वो अपनी पत्नी से करते हैं। वो ये बात नहीं बताते हैं कि सेक्स होगा या नहीं? पहले का समाज इस मामले में शालीन था। वह प्यार को ही सेक्स मानता था। महेश भट्ट इस फिल्म को बनाते तो वह कहलवा देते कि प्यार तो नहीं होगा लेकिन सेक्स तो होगा। तो उस रात के बाद आलिया कुछ दिन घर में वैसे ही घुट-घुटकर जीती हैं जैसे जोधा अकबर में ऐश्वर्य जी रही होती हैं। वह समय काटने के लिए कबूतरों को सहलाती थीं और आलिया समय काटने के लिए छज्जे में बैठकर दूर बज रहे गाने को सुनती हैं और शाम को सुसाइड करने की प्रैक्टिस करती हैं। बाद में वह पत्रकार बन जाती हैं।

अदभुत खूबसूरत लाहौर के उस मुहल्ले में एक जीबी रोड जैसा रेड लाइट इलाका है। लेकिन है बहुत बढ़िया। वहां कोई भला आदमी भी जाए तो उसे गिल्ट ना हो। उस सुंदर मोहल्ले में शहर के लोहार रहते हैं। उसी मोहल्ले में माधुरी दीक्षित लड़कियों को गाना सिखाती हैं और वहीं पर वरुण धवन अपने कसरती बदन से तलवारें बनाया करते हैं। उनकी आंखों में सुरमा लगा रहता है और वह ज्यादातर ऊपरी भाग में नंगे रहते हैं। एक्सट्रा कैरिकुलम ऐक्टिविटी के तहत वह समय काटने के लिए वह बैलों से लड़ते हैं। आलिया भट्ट उन्हें लड़ता हुआ देखती हैं और प्रभावित होती हैं। एक मुस्लिम लीग का नेता है, जो वहां के अखबार के संपादक से बहुत नाराज रहता है। वह समय काटने के लिए लोहार का दोस्त रहता है और उसे तरह-तरह की समझाइश दिया करता है। अखबार के संपादक का परिचय अभी आगे आएगा।

आलिया, माधुरी से  गाना सीखने जाती हैं और उन्हें उस लोहार से प्यार हो जाता है। लोहार वरुण धवन उन्हें पिक ड्रॉप की सेवाएं देते हैं। नाव से। नाव कोई और चलाता है वह सिर्फ मॉरल सपोर्ट देते हैं। बाद में लोहार महेश भट्ट स्टाइल में नाजायज संतान निकलता है। इस नाजायज संतान की मां माधुरी होती हैं और पिता आलिया भट्ट के ससुर संजय दत्त। पूरा मोहल्‍ला जानता है वरुण के अवैध पिता संजय दत्त हैं। बस संजय दत्त के बेटे और दो बीवियों सोनाक्षी सिन्हा और आलिया भट्ट के पति आदित्य राय कपूर को यह बात मालूम नहीं होती है। जो बातें पूरा मोहल्ला जानता है वह बाद उनका बेटा क्लाइमेक्स में जानता है। संजय दत्‍त का बेटा पेशे से एक अखबार का संपादक कम मालिक है। शायद वर्ककोहल्कि होने की वजह से उन्हें यह बात पता ना चल पाई हो।  एक छोटा सा अखबार जो विज्ञापन के संकट से जूझ रहा है लेकिन परिवार इतनी बड़ी और आधुनिक कोठी में रहता है कि लगता है गोदी मीडिया आज से नहीं आजादी से पहले से ही देश में था। आलिया भट्ट लोहारों के उस मोहल्ले में रिपोर्टिंग करती हैं। गाने सीखती हैं, कुल मिलाकर पूरा दिन वहीं रहती हैं। वह मोहल्ले में जो रपट लिखती हैं उन्हें डेस्क गिरा देती है। संपादक डेस्क से प्रमोट होकर संपादक बना होता है उसे फील्ड का ज्ञान कम होता है।  वह रिपोर्टर की कद्र नहीं करता। उनके पिता उसे कई बार फील्ड में जाकर काम करने के लिए कहते हैं, लेकिन वह गुर्राकर उन्हें चुप करा देता है। संजय दत्‍त को इतना निरीह दर्शकों ने पहले कभी नहीं देखा होगा। फिल्म के एक सीन में लोहार वरुण धवन उनका गला तक पकड़ लेते हैं। संजय दत्त उस समय कुर्ता पैजाम पहने होते हैं और उनकी जेब में कोई तंमचा-पिस्तौल भी नहीं होती है।

ये सब करते-करते फिल्म क्लाइमेक्स में पहुंच जाती है। फिल्म के क्‍लाइमेक्स में ट्रेन में लाहौर छोड़कर जाते हुए लोगों का सीन है। लोग शायद अमृतसर जा रहे हैं। इस सीन को  बेहद बचकाने तरीके से फिल्माया गया है। दस हजार से ज्यादा भीड़ को 15 से 20 लोग भगा रहे हैं। आश्चर्य है कि वो हजारों लोग एक दर्जन लोगों की वजह से भाग भी रहे हैं। संपादक भी भाग रहे होते हैं। लोहार वरूण और आलिया भी भाग रही होती हैं। संजय दत्त पहले ही जा चुके होते हैं। माधुरी वहीं रहने का फैसला लेती हैं। सोनाक्षी सिन्हा पहले ही शांत‌ि से मर चुकी होती हैं। मुस्लिम लीग का नेता सबको मार रहा होता है। उस दौरान कांग्रेस का जिक्र नहीं आता है। शायद अभिषेक वर्मन को पता होता तो दो सीन यहां नेहरु के भी रख देते। लेकिन दिक्कत ये थी कि नेहरु का सीन आता तो एक दो सीन नरेंद्र मोदी के डालने पड़ते। बिना मोदी के नेहरु अधूरे हैं।

मजाक उड़ाने से इतर अगर इस फिल्म पर बात करें तो इस फिल्म की स्टोरीलाइन इतनी बुरी नहीं है। यदि किरदारों को सही तरीके से सहेजा जाता। किरदार असली लगते, उनके हिस्से आए संवाद बनावटी न लगते। फिल्म में माधुरी और संजय दत्त की जगह कोई और होता। बंटवारे को कायदे से फिल्मा लिया गया होता तो यह फिल्म डूबने बच जाती। बहुत अरसे बात मैंने कोई फिल्म देखी जिसमें मेरी दो बार आंख लगी। लेकिन तभी गाने आ गए और आंख खुल गई। फिल्म में संवाद की तरह गाने में जरुरत से ज्यादा हैं। आलिया और वरुण ने हमेशा की तरह अच्छी ऐक्टिंग की है। माधुरी दीक्षित को अब अपने बड़े होते बच्चों पर ध्यान देना चाहिए। चुनाव लड़ना भी एक सही विकल्प है। संजय दत्त को अपने ऊपर एक और फिल्म बनवानी चाहिए...


Saturday, April 6, 2019

रॉः एक बुरी फिल्म, जिसके पास शानदार होने के सारे मसाले थे...


अपने नाम और ट्रेलर से ही कमजोर और सुस्त सी लगनी वाली 'रोमियो अकबर वाल्टर' जिसे शॉर्ट में रॉ कहा गया है आखिरकार एक सुस्त फिल्म निकली। एक बड़े और भव्य लैंडस्कैप का स्कोप रखने के बाद भी यह फिल्म अपनी लिखावट और बुनावट की वजह से दम तोड़ देती है।आखिरी के 15-20  मिनट जरूर अच्छे और सधे हुए हैं लेकिन वहां तक पहुंचते-पहुंचते फिल्म अपना चार्म और दर्शक अपना सब्र खो चुके होते हैं।  फिल्म एक स्वेटर की तरह होती हैं। बांह और कंधा बहुत अच्छा बुना हुआ हो लेकिन गले या छाती की फिटिंग खराब हो तो पूरा स्‍वेटर ही खराब कहा जाता है। ‌फिर ऊन चाहे जितना अच्छा लगा हो। इस फिल्म का तो ऊन भी औसत था। 

 हॉलीवुड की तरह एक डिफाइन जॉनर ना होते हुए भी बॉलीवुड में समय-समय पर जासूसी बेस्ड फिल्में आती रही हैं। कोई ना मिलने पर जीतेंद्र और धर्मेंद्र तक जासूस बने हैं। कल्पना कीजिए कि जीतेंद्र कहीं के जासूस हों। लेकिन ये भी हुआ है क्या कर सकते हैं। इधर एक था टाइगर जैसी मसाला और बकवास फिल्म भी आपके पास है और राजी जैसी सधी हुई 'घरेलू किस्म की' जासूसी फिल्म भी। श्रीराम राघवन की एक असफल पर स्टाईलिश फिल्म एजेंट विनोद भी याद आती है और निखिल आडवाणी की डीडे भी। अक्षय कुमार इस उपापोह में रहे कि वह जासूस बनें या खुल्ल्मखुल्ला देशभक्त्, कई बार जासूस बनते बनते रह गए हैं। 

रोमियो अकबर वॉल्टर के साथ समस्‍या ये है कि फिल्म को अपना शुरू और अंत तो मालूम है लेकिन बीच के दो घंटे में घटनाएं किस तरह से पिरोकर उन्हें स्टेबलिस की जाएं ये हुनर निर्देशक के पास नहीं था। याद करेंगे तो आपको बॉलीवुड की कई ऐसी फिल्में याद आएंगी जिनकी कहानी तो अच्छी है लेकिन पटकथा कमजोर होने की वजह से फिल्‍म खराब बनकर निकली। इस फिल्‍म का जासूस भारत की एक बैंक से उठकर पाकिस्तान पहुंच तो जाता है लेकिन उससे कराया क्या जाए ये स्‍क्रिप्ट, घटनाओं और उनकी डिटेलिंग से स्टेबलिस नहीं कर पाती। किस तरह की सूचनाएं लीक करानी हैं, उनका उपयोग देश में किस तरह से हो सकता है, सूचना लीक कराने के प्रॉसेस में रिस्क कैसा है, हीरो अपने प्रजेंस ऑफ माइंड से रिस्क को कैसे कवर करता है, उसकी आइडेंटी कैसे लीक होती है ये सब जरूरी चीजें फिल्म के डायरेक्टर रॉबी ग्रेवाल मिस करते हैं। यही छोटी छोटी बारीकियां मेघना गुलजार राजी पर करीने से पकड़ती हैं। रॉबी ग्रेवाल ने इसके पहले समय और आलू चाट जैसी फिल्में बनाई हैं। मैंने आलू चाट फिल्म देखी है लेकिन गूगल पर आलू चाट टाइप करने पर वह चाट और दही भल्ले की तस्वीरें खोल देता है। यानी फिल्म में याद रखने जैसा कुछ नहीं है। किसी हॉलीवुड फिल्म से चुराई गई सुष्मिता सेन की समय वैसी भी एक बकवास और भुला दी गई फिल्म है। इसके अलावा ग्रेवाल का और कोई काम मुझे याद नहीं आता। उनका वीकिपीडिया पेज भी अब तक नहीं है। फिल्‍में अपनी जगह हैं पर उन्हें कम से कम पेज तो बनाना चाहिए। 

गूगल करने पर पता चलता है कि फिल्म 70 के दशक के एक रॉ एजेंट रवींद्र कौशिक की कहानी पर आधारित है। यह सुनना थोड़ा गर्व भी पैदा कर सकता है और इस पर हंसी भी आ सकती है कि पाकिस्तान का आर्मी चीफ भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ का एजेंट था। आर्मी चीफ होकर वह सालों तक भारत को खुफिया सूचनाएं पास करता रहा और पाकिस्तान को इसकी भनक भी न लगी। यह इंदिरा गांधी के समय की बात थी। ऐसा एजेंट अगर हमारे पास अभी होता तो नरेंद्र मोदी इसी आधार पर कम से कम पांच लोकसभा और 25 विधानसभा चुनाव जीत लेते। अच्छी बात ये रही कि रवींद्र कौशिक सही समय पर यहां से चले गए और अभिनंदन को मोदी जी के पास छोड़ गए। 

 
फिल्म का कैनवास बांग्लादेश के निर्माण के समय का है। फिल्म ‌रियल लगे इसलिए इंदिरा गांधी की ओरजिनल तस्वीरें फिल्म में प्रयोग की गईं। कई जगह पर उनका जिक्र आया है। कई फिल्‍मों के बाद ऐसी कोई फिल्‍म दिखी जिसमें गाधी परिवार को दिखाया गया हो और उन पर कोई ऐलीगेशन ना हो। रॉ फिल्म इंदिरा को लेकर तटस्थ दिखती है।  मुक्तवाहिनी सेना से जुड़े तथ्य भी सच के आसपास रखे गए। प्रयास ये किया गया कि इस फिल्म को काल्पनिक के बजाय एक सत्य मानकर देखा जाए। लेकिन जिस फिल्म में रॉ चीफ जैकी श्राफ बने हों उसमें इस तरह की फिलिंग आ ही नहीं सकती। श्रॉफ ने अपनी कुव्वत भर अच्छा काम किया है लेकिन उनकी पिछली फिल्मों के निभाए गए किरदार उनको लेकर सीरियस होने ही नहीं देते। जैकी का रोल काफी बड़ा और मजबूत है। वहां कोऔर कोई और होता तो बेहतर होता। 

सबसे ज्यादा खटक जॉन अब्राहम को सही तरीके से यूज ना करने को लेकर होती है। सुजीत सरकार की मद्रास कैफे देखने के बाद लाखों दर्शकों ने जॉन को लेकर अपना परसेफ्शन बदला था। पहले एक लवर, फिर कॉमेडी-एक्‍शन वाली इमेज में बंध चुके जॉन को सुजीत सरकार ने एक झटके से निकालकर बहुत बड़े अभिनेता बना दिया था। जॉन बाद में परमाणु, सत्यमेव जयते जैसी फिल्मों में बार-बार वहीं पहुंचने की कोशिश करते हैं। इस फिल्म में उनके पास शेड तो बहुत हैं लेकिन निर्देशक उनसे एक याद रखने वाला किरदार नहीं निकलवा पाए हैं। फिल्म में मौनी रॉय के साथ डाला गया एक रोमांटिक किस्म का ट्रैक जॉन को और कमजोर करता है। टीवी देखने वाले दर्शक उन्हें नागिन के नाम से जानते हैं। वे फिल्म में जब भी आई हैं जॉन अपने उदेश्य से भटक गए हैं। चूंकि पिछले शुक्रवार भी खराब फिल्में थीं आने वाले शुक्रवार में भी कुछ खास नहीं है इसलिए फिल्‍म पैसा कमा सकती है और ये बहुत बुरी भी नहीं है। देश रेस 3, ठग ऑफ ‌हिंदुस्तान और नोटबंदी का दौर देख चुका है...