Friday, July 26, 2019

कोटा फैक्ट्रीः फिल्म जो आपको शायद कुछ अनदेखी चीजें दिखाने की कोशिश करती है

TVF या AIB जैसी प्लेटफॉर्म्स से फूटने वाली हंसी ज्यादातर मौकों पर गैरसंस्कारी, गैरसामाजिक और 'बालिग' साबित की जाती रही है। इससे कभी फर्क ही नहीं पड़ा कि उसके सेंस ऑफ हॅयूमर की IMDb रे‌टिंग धवन, प्रियदर्शन, वोरा या शेट्टी पैटर्न से निकली बनावटी और रिपेटेटिव फिल्मों से ऊपर होती है।

पांच एपीसोड वाली वेब सीरिज 'कोटा फैक्ट्री' से टीवीएफ ने शायद अपनी इमेज को बड़ा और 'जिम्मेदार' बनाने की कोशिश की है। यह फिल्म इंजीनियर बनाने की मंडी कोटा की कहानी को बगैर फिल्मी या हीरोइक बनाए उसे शानदार तरीके से दिखाने में सफल होती है।

अपनी मूल किस्से में कोटा फैक्ट्री किसी गुदड़ी के लाल के हीरो बन जाने की या कोचिंग मंडी की पोल खोलने जैसी बचकाने कहानी कहने की कोशिश नहीं करती। ना ही कोचिंग मंडी के किसी संचालक को विलेन बनाने की चाह रखती है। वो सिर्फ मीडिल क्लास, अपर मीडिल क्लास से आए कुछ बच्चों के जरिए सपनों और यथार्थ का एक फिलासिफिकल सिनेमा गढ़ने की कोशिश करती है। जिस फिलॉसिफी में मनोरंजन भी भरपूर है। छात्रों की इस दुनिया में सुपर 30 जैसे अमीर-गरीब, दलित-सवर्ण वाले इक्वेशन नहीं हैं।

दसवीं या ग्यारहवीं पास करके दूसरे शहर से पहली बार इस शहर में आया एक अजनबी बच्‍चा कैसा अपना परिवेश खुद तैयार करता है। सिगरेट-शराब जैसी आदतों से खुद को बचाता या अपने को इनवॉल्व करता है। कैसे उस नए परिवेश में वह सहज होता है। कैसा वह सरवाइव करने वाले कुछ नुस्‍खे और चालाकियां सीखता है। कैसे सा‌थ पढ़ रही लड़कियों के संग मोहब्बत की शुरुआत करता है। कैसे छोटे-छोटे फेल्योर और एचीवमेंट पर टूटता या संवारता है। बस इन्हीं बातों के इर्द गिर्द या पूरी सीरिज चला करती है। कहीं कोई बड़ी घटना या ड्रामा का अतिरेक नहीं। कोई विलेन नहीं तो कोई हीरो भी नहीं।

फिल्‍म में कोटा शहर, उसकी कोचिंग मंडियां, टीचर्स, हॉस्टल, मकान मालिक, चाय की दुकानें, इश्क सब बराबर भी हैं और संतुलित भी। कैमरा या स्क्रिप्ट किसी एक खास चीज को टटोलने की कोशिश नहीं करता। हॉस्टल के कमरे को बस उतने ही सरसरी निगाह से देखने की कोशिश की गई है जैसी निगाह से कोई सोहल-सत्रह बरस का बच्‍चा उसे देख सकता है। 'ऑब्जरवेशन के निर्मल वर्मा स्टाइल' से ना तो हॉस्टल के उस कमरे को देखा गया है और ना ही किरदार। फिल्म का पूरा फोकस किरदारों की बदल रही जिंदगियों के साथ आगे बढ़ रही कहानी पर होता है। कुछ कमाल या धमाल घटनाएं फिल्म में नहीं है लेकिन एक भी लम्हा ऐसा नहीं है जिसे आप फिल्म में गैरजरुरी मानें।

मेनस्ट्रीम सिनेमा की सबसे बड़ी विडंबना ये है कि ये कभी मीडियॉकर या एवरेज आदमी की कहानी ही नहीं कहता। या कहता भी है तो कहानी कहते-कहते उसे बड़ा बना देता है। ज्यादातर मौको में उसके लिए फिल्म का हीरो या तो बहुत गरीब होता है या फिर एक्सट्रा टैलेंटेड अमीर या कोई नई कैटेगरी। कोटा फैक्ट्री अपने बच्‍चों के साथ ऐसा नहीं करती। हाल ही में लगभग इसी विषय पर आई सुपर 30 से उलट यह फिल्म हर स्टूडेंड को सिर्फ एक खांचे में रखने की कोशिश करती है। जहां स्टूडेंट की जाति इतना निरर्थक सवाल है कि आपस में बच्‍चों को पता ही नहीं होता कि वह जिसे जिस नाम से बुला रहे होते हैं वह उनका इनीशियल है या सरनेम।

कोटा फैक्ट्री का एक और सबसे मजबूत पक्ष किरदारों की शानदार ऐक्टिंग है। लीड किरदार कर रहे मयूर मोरे ने एक इंजीनियरिंग छात्र की उलझनों को खूबसूरती से जिया है। नए-नए बने प्रेम को वह बहुत ही सहज तरीके से पर्दे पर उतारते हैं। टीचर का किरदार करने वाले जीतेंद्र कुमार से आप वाकिफ हैं। टीवीएफ के बहुत पुराने वीडिया में उन्होंने अरविंद केजरीवाल से प्रेरित अर्जुन केजरीवाल का किरदार निभाया था। टीवीएफ के बहुत सारे वीडियो में वह नजर आए हैं। फ़िल्म में उनके वन लाइनर भी अच्छे हैं और मोनोलॉग भी। एहसास छन्ना, रंजन राज और उर्वी सिंह के रोल देखकर लगता है कि ये कोटा के स्‍टूडेंट हैं, आप जाएंगे तो आपको वो वही टकरा जाएंगे।

इस फिल्म के कुछ खूबसूरत डायलॉग पढ़िए, आपका फिल्म देखने का मन बनाने के लिए ये काफी होंगे। वैसे ये फिल्म आपको देखनी चाहिए। पूरी फिल्म कलर्ड न होकर ब्लैक एंड व्हाइट है। क्यों है इसके लिए शायद गूगल करना पड़े।

"कोई पूछेगा तो बताएंगे कि बेटा आईआईटी की तैयारी कोटा से कर रहा है, कहने में कूल लगता है"

"बच्चे तो दो साल में कोटा से निकल जाते हैं, लेकिन कोटा सालों तक उनसे नहीं निकलता"

"दोस्ती कोई रिवीजन नहीं है जिसे किया ही जाए"

"मां-बाप के फैसले गलत हो सकते हैं, उनकी नियत कभी गलत नहीं होती"

"तुम अमीर लोग किसी भी दिन केक खा लेते हो क्या "

"महिला मित्र तो उनकी है पर स्नेह ज्यादा मुझसे करती है"

"इफ यू आर स्मार्टेस्ट इन द क्लास, इन मीन्स यू आर इन रॉन्ग क्लास "

लैला फिल्‍म देखिए, कुछ डर हैं जो आपको बेहतर इंसान बना सकते हैं


कबीर सिंह जैसे मीनिंगलेस सिनेमा के बीच इन दिनों लैला जैसा मीनिंगफुल ऑप्शन भी आपके लिए मौजूद है। नेटफ्लिक्स पर ये वेब सीरीज भले ही सीक्रेट गेम्स या मिर्जापुर जैसी चर्चा न बटोर पा रही हो पर ये एक देखी जानी वाली फिल्म है।

फ़िल्म अघोषित रूप से एक पोलिटिकल टोन लिए हुए हैं। राइट विंगर्स को शायद फ़िल्म का विषय हाइपोथिटिकल लगने के साथ खुद को टारगेट करने वाला भी लगे। फ़िल्म एक डर पैदा करने में सफल होती है। ये डर राजनीति में धर्म के मिश्रण का है।

ये डर देश के बहुसंख्यक लोगों के श्रेष्ठ होने का है, ये डर ऊंची जातियों के खुद को ऊंचा मानने का है और ये डर अल्पसंख्यक को नीच और घटिया मानने का भी है। ये डर दिखता है कि यदि भारत लिंचिंग के हादसों को ऐसे ही सेलिब्रेट करता रहा, और राम का नाम पुजारी से ज्यादा हत्यारे लेने लगे तो ये आने वाले समय में ये देश 'आर्यावर्त' की शक्ल ले सकता है।

फ़िल्म में आर्यावर्त देश की कहानी कही गई है। जो आज से करीब 30 साल आगे की कहानी है। ये एक काल्पनिक देश की कहानी जरूर है लेकिन फ़िल्म पूरा संकेत देती है कि ये कहानी भारत देश ही है, जहां डायनामाईट लगाकर ताजमहल गिराया जा रहा है। जहाँ आर्ट, कल्चर, सिनेमा में पाबंदी की बात हो रही हैं, क्योंकि ये चीजें टाइम और दिमाग दोनों खराब करती हैं और जहां 'घर वापसी' कराई जा रही है।

फ़िल्म में सभी कलाकारों की अदाकारी उम्दा है। लीड रोल में हुमा कुरैशी की अब तक के अपने करियर में सर्वश्रेष्ठ हैं। दीपा मेहता ने पहले दो एपिसोड डायरेक्ट किए हैं। निश्चित ही ये फ़िल्म की जान है। फ़िल्म देखी जानी चाहिए।

कबीर सिंह हीरो नहीं है, कोई बात नहीं, उसे एक किरदार तो मानिए

सेक्स के लिए आमत्रंण देने वाली लड़की(लड़के के कथनानुसार) के साथ रेप की कोशिश करने वाला, सेक्स की तड़प खत्म करने के लिए अंडरवियर में बर्फ उड़ेल लेने वाला, हर तरह के नशे में डूबा रहने वाला, अपनी प्रेमिका को रेस्पेक्ट न देने वाला, हमारा हीरो नहीं हो सकता, बिल्कुल नहीं हो सकता।

ठीक है कोई दिक्कत नहीं। मत मानिए उसे हीरो। पर वो एक किरदार तो है। उसे एक किरदार की तरह तो देखिए। और क्यों चाहिए आपको हर फिल्म में हीरो। बिना हीरो के फ़िल्म नहीं देख पाएंगे आप? आप ऊब नहीं गए हिंदी सिनेमा के साफ सुथरे और परफेक्ट हीरो से?

उबकाई नहीं आती आपको सालों, दशकों से नैतिकता में लिपटे नायक को देख देखकर। बनावटी कृत्य करते देख जी नहीं करता ऐसा किरदार प्रोटोगेनिस्ट के रूप में पर्दे में दिखे जो अपनी बुराइयों और सीमाओं के साथ जीए। हर जगह वो आदर्श नहीं हैं, वो हर काम वैसा नहीं करता जो सामाजिक रूप से सही हो। तो कभी कभार ऐसे किरदारों से भी काम चला लीजिए जो हमारे जैसे हैं..

और फिर हिंदी सिनेमा से आदर्श नायक हमेशा के लिए चले थोड़ी गए। नावो मर गए हैं न ही कोमा में हैं। अपनी प्रेमिका ऐश्वर्या को असल जिंदगी में मारने वाले सलमान कहीं चले नहीं गए। वो यहीं हैं और 'बनावटी' भारत जैसे किरदार करते रहेंगे।

यही पर बच्चन भी हैं, बाकी कपूर्स और खान भी। फिर अक्षय तो हैं ही। शाहरुख भूखों मर जाएंगे लेकिन अंडरवियर के अंदर बर्फ डालने वाला सीन नहीं करेंगे। क्योंकि उनकी इमेज किरदार से भी बड़ी है और दर्शकों को शायद उनके किरदार से मतलब भी नहीं।

कबीर सिंह को एक किरदार के तौर पर देखा जाना ही उसके साथ न्याय होगा। यदि आप यहां भी हीरो वाले Do,s और dont लगा देंगे तो मुश्किल होगी...उसके लिए भी और आपके लिए भी..

अगर प्रेम के तौर तरीकों में भी स्त्रीवाद खंगालिएगा, तो उस सेक्स पोजीशन का भी रिव्यू कीजिए जिसमें स्त्री नीचे है...

कबीर सिंह फ़िल्म के साथ कुछ स्त्री विमर्श की बातें भी समीक्षा के साथ सुनने को आ रही हैं, आपको भी मिली होंगी। आपत्ति इस बात पर है कि फ़िल्म का हीरो पूरी फिल्म में हीरोइन को 'अपनी बंदी' कहता है। इंटरवल के ठीक पहले का एक सीन भी दिक्कत पैदा कर रहा है जहां हीरो उसे थप्पड़ मारता है और कहता है कि उसकी कॉलेज में सिर्फ यही पहचान है कि वो उसकी बंदी है...आइए इस पर कुछ बातें करते हैं।

कबीर सिंह जिस अर्जुन रेड्डी फ़िल्म की कलर जिरोक्स है वो प्रेम में डूबी हुई एक फ़िल्म है। दो इंसान(लड़का या लड़की नहीं) एक दूसरे के बिना जिंदगी जीने की कल्पना नहीं कर सकते नहीं फर्क पड़ता कि वो दोनों अलग अलग तरह के इंसान हैं। एक अति डोमनेटिंग और प्रतिक्रियावादी और दूसरा हर हालात से एडजेस्ट कर लेने वाला। तो क्या दिक्कत ये है पहले वाला लड़का है?

प्रेम करने के सबके अपने अपने स्टाइल और रिजर्वेशन होते हैं। इश्क़ करने का कोई तयशुदा मैथमेटिकल या फाइनेंसियल फार्मूला नहीं है कि उसमें 44% प्यार हो, 17% फिजिकल अट्रैक्शन हो, 20% या उससे अधिक की रेस्पेक्ट हो, बाकी बचे 100 फीसदी में कुछ चीज़ें मिसलेनियस हों। जिसमें हॉबी मैच करना, एक दूसरे की फैमली को रेस्पेक्ट देना या सोशल मीडिया पर एक दूसरे को सपोर्ट करना शामिल हो सकता है। प्रेम, प्रेम है, ये कंडीशन नहीं मांगता। अर्जुन रेड्डी हो या कबीर सिंह दोनों किरदार ये बता लेते हैं कि यहां प्रेम की मात्रा उचित से भी ज्यादा है। प्रेम के शुरू के दिनों में और किसी और चीज़ की जरूरत भी नहीं लगती..

चलिए दोनों के थप्पड़ गिनते हैं

पूरी फिल्म में हीरो, हीरोइन को एक थप्पड़ और हीरोइन हीरो को तीन थप्पड़ मारती है। चर्चा सिर्फ पहले वाले थप्पड़ की है। यानी जिनको ऐतराज है वो इस बात में है कि प्रेम में जो न्यूनतम 20% की 'म्यूच्यूअल रिस्पेक्ट' होनी चाहिए वो नायिका को नहीं मिल मिली। कोई पुरुष भला ऐसे कैसे कर सकता है? डर ये दिखया गया कि लड़के अब लड़कियों को प्यार में रिस्पेक्ट करना बंद कर देंगे और स्त्री के ग्राफ में गिरावट होगी।

ऐसी दर्जनों हिंदी या रीजनल फिल्में होंगी जिसमें किसी कॉलेज की सबसे हॉट और खूबसूरत लड़की पर एक साधारण सा लड़का मर मिटता है। लड़की अपनी उन खूबियों के रिज़र्वेशन पर इतराती है, उसे अपनी स्ट्रेंथ पता होती है और लड़के के लिमिटेशन भी। वो लड़के को उसकी औकात बताते हुए चलती है लेकिन फाइनली प्यार कर लेती है। तो इस पर तो पुरुषों को आपत्ति होनी चाहिए थी क्योंकि रेस्पेक्ट का 20% वाला पैरामीटर यहां भी ब्रेक हो रहा था।

एक और सीन पर ऐतराज है। यहां लड़का अपनी प्रेमिका को टैडी बियर टाइप की लड़की से दोस्ती करने के लिए कहता है क्योंकि वो ज्यादा 'रिलायबल' होती हैं, इस सीन पर दिक्कत स्वाभाविक है, लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि कबीर सिंह मूलतः एक तेलुगू फ़िल्म है। जहां के सिनेमा में मोटापा, हकलाहट, तोतलाहट और यहां तक कि गैस पास करने पर हास्य निकालने की कोशिश की जाती है। शायद वो दर्शक इसके आदी हैं और उन्हें अब ये यूज़ड्ड टू लगता है। साउथ की तमाम सारी हिंदी रिमेक में भी शरीर पर टिप्पणी करके हंसी पैदा करने वाले सीन देखने को मिले हैं। इन फिल्मों की सफलता ये बताती है दर्शकों को शायद ये अटपटा नहीं लगता। शायद ये सोचकर हिंदी वर्जन में भी इसे हटाया नहीं गया।

कम सुंदर और ज्यादा सुंदर लड़कियों की दोस्ती ज्यादा दिखती भी है, वो शायद एक दूसरे से असुरक्षित महसूस नहीं होती हैं। सम्भव है निर्देशक ने वो सिरा पकड़ने की कोशिश की हो। पुरुषों में शायद ऐसा नहीं होता। मेरे कई खूब मोटे और खूब दुबले दोस्त हैं। मैंने उन्हें इस नजरिए से नहीं देखा। जैसा अभी मैं मोटा हो रहा हूँ तो क्या मैं कुछ दोस्त खो दूंगा?

क्या इतना प्रभावित करती हैं फिल्‍में?

मैं गहराई से ये बात मानता हूं कि आम दर्शक फ़िल्म के बारे में सिर्फ तब तक सोचता है जब तक कि वो हॉल के उस अंधेरे से अपने वाहन तक जाने के लिए सीढ़ियां उतर रहा होता है। इसके बाद उसकी दुनिया बदल जाती है। वो फ़िल्म और हकीकत को अलग करके चलता है। यदि ऐसा न होता तो नरेंद्र मोदी पर बनी बायोपिक हिंदी सिनेमा की सबसे सफल फ़िल्म होती। तो कबीर सिंह की आलोचना कीजिए पर स्त्रीवाद का एंगेल मत तलाशिए। यहां पर दो लोग प्रेम में हैं वो उनकी समझ है कि वो कैसे एक दूसरे के लिए डील करें। प्रीति के लिए कबीर उसका प्रेमी है, पुरुष नहीं है। ऐसे ही कबीर के लिए प्रीति सिर्फ वो इंसान है जिससे वो बेइंतहां प्रेम करता है। प्रेम में स्त्रीवाद मत डालिए नहीं तो बन्द कमरे में हर रोज प्रोटोकॉल टूटेंगे। आप कहां तक उन्हें डिफेंड करेंगे...

यह फिल्म मुझे हीन भावना के गहरे समंदर में ले जाती है

सरकारी स्कूल में पढ़े होने की वजह से स्टूडेंट ऑफ ईयर की दूसरी किश्त मुझे समझ नहीं आई। फिर जैसे-जैसे समझ में आती गई मैं कुंठित होता गया।  शारीरिक रूप से मेरा कद, काठी, ऊंचाई, लम्बाई, वजन, सीना, हाथ, पैर, गला, कंधे, पीठ अभी भी उन स्टूडेंट्स से कमजोर हैं जो फ़िल्म में दिखाए गए हैं। वो सभी स्कूल स्टूडेंट थे। मुझे स्कूल छोड़े 18 साल हो गए हैं। तब ये हालत है। उनके बारे में कुछ भी लिखते समय मेरे हाथ कांप रहे हैं।

पूरी फिल्म के दौरान मैं लगातार शर्मिंदा महसूस करता रहा। 12th स्टैंडर्ड के लड़के इतना अच्छा नाच लेते है, 8 से 12 पैक तक बना लेते हैं, दौड़ लेते हैं, एक साथ दो तीन प्रेम कर लेते हैं, इतने बार बदलकर कपड़े पहनते हैं ये सब मेरे जैसे सभी लड़कों के लिए हीन भावना पैदा करने वाला था। मैं बहुत निराश हूं।

लेकिन खुद से ज्यादा निराश हूं फ़िल्म के निर्देशक पुनीत मल्होत्रा के लिए। पुनीत ने इसके पहले आई लव हेट स्टोरी और गोरी तेरे प्यार में जैसी असफल फिल्में बनाई हैं। दोनों ही फिल्मों में इमरान खान थे जो अब इंडस्ट्री से बाहर हो चुके हैं। करन जौहर पिछले कुछ सालों से नए लोगों को मौका देते रहे हैं लेकिन पुनीत नए नहीं थे। न ही स्टूडेंट ऑफ नई फिल्म थी। इस फ़िल्म से डेब्यू करने वाले आज बॉलीवुड को लीड कर रहे हैं। वो याद रखने वाली फ़िल्म थी। एक ब्रांड फ़िल्म थी।

ये फ़िल्म बेहद कच्ची और प्रिडिक्टेबल फिल्म है। ये उनको अच्छी लग सकती है जिन्होंने इसके पहले फिल्में नहीं सिर्फ टीवी सीरियल देखे हों। टाइगर श्राफ की अपनी फैन फॉलोइंग है। पता नहीं इसमें उन्होंने खुद को क्यों खपाया? शायद बड़े बैनर के लोभ में।

फ़िल्म में ट्रेडिशनल के अनुसार ही 2 लड़कियां हैं। इसमें Ananya Pandey याद रह सकती हैं। आप फ़िल्म देख सकते हैं, पर उसमें मेरी तरह शर्मिंदा होने के खतरे भी है

'पिचर' फिल्म देखी जानी चाहिए क्योंकि ये अच्छी होने के साथ-साथ फ्री भी है...

टीवीएफ की वेब सीरिज 'पिचर' का एक सीन है। रिजाइन करने वाले अपने एक एंप्लाई के साथ उसके लास्ट कनवरशेसन में उसका बॉस उसे कहता है कि इस देश का ग्रेजुएट जब भी अपनी 9 टू 5 की जॉब से बोर हो जाता है तो वह बाहर निकलने के ‌लिए तीन रास्ते खोजता है। एमबीए, आईएएस और स्टार्टअप। बाहर जाकर देखो, तीन में से दो क्यूबिक में स्टार्टर फाउंडर ही बैठे हैं। एक कुटिल मुस्कान के साथ वह उसे एक ऑफर देता है। जाहिर है सामने बैठे एंप्लाई ने रिजाइन करने के पीछे स्टार्टअप शुरू करने की बात कही होगी। पांच एपीसोड की इस सीरिज ऐसे कई सारे सीन है जिन्हें हम कार्पोरेट सेटअप में घटते देखते हैं या उनके बारे में लंच टाइम, सुट्टा टाइम या लेट नाइट की खाली होती मेट्रो या तीन पैग डाउन के बाद अपने विश्वसनीय कलीग से बतिया रहे होते हैं। 

पिचर का टारगेट ऑडिशन बहुत सीमित है और क्लीयर है। उसे 'सबकी' फिल्म नहीं बनना। टारगेट ऑडियंश सीमित होने की वजह से यह फिल्‍म उतनी माउथ पब्लिसिटी नहीं बटोर पाई थी जितनी वह डिजर्व करती है। कुछ समय पहले एक वीडियो वायरल हुआ था। जिसमें एक एंप्लाई को टाइम से घर जाने पर उसका एक कलीग उसे टोकता है। जवाब में उसका लंबा मोनोलॉग है। जिसमें फ्रस्टेशन और ईमानदारी दोनों हैं। पिचर इस शार्ट फिल्म के करीब चार पहले 2015 में रिलीज हो चुकी है, और ऐसे तमाम सारे सीन, डायलॉग एक अच्छी फिलॉसिफी के साथ उसमें मौजूद हैं।

कार्पोरेट सेक्टर राजीव चौक पर खड़ी मेट्रो की तरह है। उसमें घुसकर सीट पाने के लिए बहुत सवारियों में जल्दबाजी है, लगभग उतनी ही जल्दबाजी उन सवारियों में भी है जिन्हें उससे उतरना है। कुछेक मिनट पहले वह सीट जो उनके बहुत काम की थी अब उसके साथ उनका कोई रिश्ता नहीं है। उनके हटने पर वहां बैठ कौन रहा है इसमें उनको दिलचस्‍पी भी नहीं है। ऐसा नहीं कि यहां सिर्फ दो कैटेगरी हैं। कुछ सवारियां ऐसी भी हैं जिन्हें अभी अभी बाराखंभा, पटेल चौक या केंद्रीय सचिवालय से सीट मिली होती है। इसके पहले वे अनकफर्ट जोन में थे। सीट मिलने के बाद वह अभी अभी कंफर्ट जोन में आए हैं और आपके उठने के बाद 'शेफ' फील कर रहे हैं। उन्हें अभी लंबा इसी मेट्रो में रहना है। बशर्ते ये मेट्रो ही बंद ना हो जाए। कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें सीट नहीं चाहिए। वो खड़े खड़े नई दिल्ली स्टेशन तक चले जाएंगे। उन्हें वहां से एयरपोर्ट मेट्रो पकड़ना है। उनके सपने बड़े हैं। सभी को एयरपोर्ट मेट्रो भी नहीं जाना। कुछ को मंडी हाउस भी जाना है। राजीव चौक में उतरने वाले राजीव चौक में रहते नहीं हैं। वह वहां से कहीं और जाएंगे। ये रोटेशन हर दिन, हर महीने चलता रहता है।

कार्पोरेट सेक्टर से उकताकर बाहर आने वाले बहुत सारे लोग सफल हुए हैं। पर उससे बड़ी संख्या उन लोगों की भी है जो उस फैसले को गलती मानकर साल-डेढ़ साल के बाद उसी सेटअप में जाने के लिए सीवी अपग्रेड कर रहे होते हैं। वह उन लोगों से बचना चाहते हैं जो लोग उन्हें कुछ समय पहले कही गई बातें याद दिलाएं। बातें और गालियां दोनों। वह भी गलत नहीं होते हैं। फैसले व्यक्ति नहीं हालात लेता है। उनके निकलने और रीज्वाइन करने के फैसले हालात ने लिए।

पिचर की कहानी ऐसे ही चार दोस्तों के बारे में है। सभी उस कार्पोरेट सेक्टर से निकलना चाहते हैं। उन चारों की वजह अलग-अलग हैं। लेकिन कॉमन वजह 'अपनी कैपेबिलटी का पूरा यूज' ना हो पाने की है। ऑफिस की छटाक भर की पॉलिटिक्स से भी वह उबे हैं। पर ये बड़ा इशू नहीं है। उससे वो यूज्ड टू हैं। कार्पोरेट सेक्टर में आपको बहुत सारे लोग ऐसे मिलेंगे जो पॉलिटिक्स को सूंघ लेते हैं, उसको समझते भी हैं लेकिन उससे डील या क्रैक नहीं कर पाते।

फिल्म में ऑफिस छोड़ने की अलग-अलग वजहें और उनके हरडेल्स  बहुत इंटरटेनिंग तरीके से दिखाए गए हैं। टीम बन जाने के बाद की समस्याएं, फंडिंग मिलने के तरीके उसके पैरलल चल रही लोगों की निजी जिंदगी, शराब, सेक्स और तमाम सारे नेचुरल एैब ‌आपको खूब अच्छे लगते हैं और अच्छी बात ये है कि आपको बहुत कुछ सिखाते भी हैं। फिल्म के डायलॉग इसे सुपरकूल बनाते हैं। फिल्म में हिंदी और अंग्रेजी इतनी आसानी से आती और जाती रहती है कि कहीं पर लगता ही नहीं कि ये एक बाइलैंग्वेल फिल्म है। लगता है कि यह एक हिंदी फिल्म है और इस सेटअप में जितना अंग्रेजी बोलते हैं उतनी अंग्रेजी फिल्म में भी है।

टीवीएफ सीरिज की फिल्मों का सबसे खूबसूरत पक्ष उनकी ऐक्टिंग है। यदि आप लंबे समय से टीवीएफ की फिल्में देख रहे हैं तो आपको पता चल गया होगा कि उनके पास कलाकारों का एक सेट है वो उसे हर तरह के रोल में रोटेट किया करते हैं। रिपीट चेहरे होने के बाद भी यह कलाकार अपने उस रोल में खूबसूरत ऐक्टिंग करते हैं। फिल्म के लीड किरदार नवीन कस्तूरिया, अरुणाम कुमार, जीतेंद्र कुमार और अभय महाजन ने अद्भुत काम किया है।

वेब सीरिज के साथ हिंदी सिनेमा में अच्छी बात ये हुई है कि ये अब हमारी आपकी कहानी कहता है। यहां पर सलमान खान और कैटरीना कैफ की एक काल्पनिक कहानी नहीं है। मुझे उम्मीद है कि कम से कम कुछ साल सलमान खान जैसे सिनेमा की वापसी नहीं होगी।  हिंदी साहित्य की तरह हिंदी का सिनेमा भी बदल रहा है। याद कीजिए हिंदी का वह समय जब सिर्फ हल्कू, जमींदार और मुनीम जैसे किरदार ही सिनेमा में भी थे और साहित्य में भी।  यह फिल्म देखी जानी चाहिए क्योंकि अच्छी होने के साथ यह यूट्यूब पर फ्री भी है... हां, एक बात और। एक स्टार्टअप शुरू करने के प्रोसस में बियर बहुत पीनी पड़ती है।



Friday, July 12, 2019

सुपर 30: एक ऐसी फिल्म जिसे आप से ज्यादा आपके बच्चे का देखना जरूरी

एक मैथमैटिशियन के तौर पर मैं आनंद कुमार को नहीं जानता। आप शायद पहले से जानते रहे होंगे। मैं इसलिए नहीं जानता था क्योंकि मैंने इंजीनियरिंग का कभी कोई टेस्ट नहीं दिया। कहां की कोचिंग अच्छी और कहां की बुरी, किसकी फीस ज्यादा है और किसकी कम इन बातों तक पहुंचने का मौका ही नहीं मिला। मेरी जानकारी की हद में आनंद कुमार तब आए जब उन पर बनी फिल्म एनाउंस हुई।

फिल्म की चर्चाओं के साथ आनंद की कई सारी कहानियां भी बाहर आईं। ऐसा नहीं था कि निकली हुई इन तमाम कहानियों में सभी में वे हीरो थे। कुछ में वो ग्रे शेड में थे, कुछ में एक विशुद्व कोचिंग संचालक और कुछ में एक अहसान फरामोश झूठे आदमी।

  सुपर 30 फिल्म पर लिखते समय मेरी इस बात में बिल्कुल दिलचस्पी नहीं है कि फिल्म में दिखाई गई आनंद कुमार की जिंदगी, उनकी असल जिंदगी से कितनी करीब या दूर है। मेरा वास्ता ना तो आनंद को एक हीरो के रूप में देखने में है और ना ही उनकी एचीवमेंट पर खोजी पत्रकारिता कर उसमें नुस्‍ख निकालने में। मैं सुपर 30 को ऐसी फिल्म के रुप में याद करना चाहूंगा जिसके खत्म होते होते आपकी आंखों के कोर गीले हो चुके होते हैं। आप आनंद जैसा बनना चाहते हैं और पाते हैं कि उनके जैसा बनना उतना भी कठिन नहीं है।

अगर यह फिल्म पूरी तरह से काल्पनिक होती और आनंद कुमार जैसा आदमी इस दुनिया में अस्तित्व भी ना रखता तब भी यह फिल्म उतनी ही अच्छी लग सकती थी। इस अच्छे लगने के पीछे किरदार की नियत और उसका परिश्रम ही है। मैं सुपर 30 को  एक ऐसी फिल्म के रुप में भी याद रखना चाहूंगा जो जिंदगी में एजुकेशन के महत्व को बहुत करीने से एस्टेबलिस करती हैं।

बॉलीवुड में ऐसी बहुत कम फिल्‍में बनी हैं जो एजुकेशन की ताकत को इतने दमदार और प्रभावकारी तरीके से रख सकें। फिल्म जाति व्यवस्‍था पर एक बने-बनाए ढांचे पर भी चोट करना चाहती है लेकिन अपनी असल ताकत वहां आनंद के प्रयासों पर लगाने में दिलचस्‍पी रखती है।

 हम और आप आज जहां पर हैं उसके पीछे की एकमात्र वजह हमारी शिक्षा ही है। मैं गहराई से मानता रहा हूं और अपने आस-पास महसूस भी करता रहा हूं कि अपनी मौजूदा जिंदगी के ब्रेकेट से निकलकर दूसरे ब्रेकेट में जाने के लिए एजुकेशन के अलावा और कोई रास्ता होता नहीं है।

दलित चिंतक बहुतेरे हो सकते हैं, लेकिन अंबेडकर इसलिए दलितों के सच्चे हितैषी कहे जाएंगे क्योंकि उन्होंने झंडा उठाने के बजाय किताब उठाने के लिए प्रेरित किया। सवर्ण हो या दलित एक पढ़ी लिखी जनरेशन ही अपने परिवार को गरीबी के दलदल से उबार सकती है।

 इसमें कोई शंका नहीं कि ये फिल्म अपने कई द्श्यों में सिर्फ एक फिल्म बन जाती है। वह अपने किरदार को कैसे भी हीरो जैसा एस्टेब‌लिस करने के लिए कई सारे ड्रामे रचती दिखती है। आनंद कुमार या कोई भी कोच‌िंग चलाने वाला टीचर इस तरह के चरित्र का नहीं हो सकता जैसा रितिक रोशन को फिल्म में दिखाया गया है। लेकिन फिल्म का सेंट्रल आइडिया ऐसा है जो ना तो हीरोइक और ना ही असंभव। सुपर 30 के कई सारे दृश्य शरीर के अंदर कुछ करने की ऊर्जा पैदा करते हैं यही फिल्म की एकलौती पर बड़ी कामयाबी है।

मैं या इन लाइनों को पढ़ने वाले शायद उस वर्ग के लोग नहीं है जो पढ़ना तो चाहते थे लेकिन जिनके घरों में पढ़ाने के लिए पैसे नहीं थे। हमसे से ज्यादातर लोग वो लोग नहीं थे जो बिना खाना खाए कई कई रात जगे हों। बावजूद इसके हम उन किरदारों के करीब पहुंच जाते हैं जो ऐसी जिंदगी जीने के लिए बाध्य हैं और उसे जी रहे हैं। निश्चित ही इन किरदारों का अभिनय इसके पीछे की बड़ी वजह रही होगी।

 फिल्म की लिखावट बहुत शानदार नहीं है, दो किरदारों के आपस के डायलॉग बहुत प्रभावित नहीं करते। विकास बहल का निर्देशन का स्तर क्वीन जैसा नहीं है लेकिन ये अच्छा लगा कि वह शानदार जैसी फिल्म से उबर आए। 

फिल्म के ट्रेलर में रितिक रोशन की बिहारी टोन बहुत खटकती है। फिल्म में भी उनकी भाषा और उनका लंबा-चौड़ा कसरती बदन हमें कई बार परेशान करता है। कई बार लगता है कि पोस्टमैन का यह लड़का अगर ठीक से अपना मुंह धो ले, जींस-टीशर्ट पहन लें तो वह ना तो उनके घर का लगता है ना ही उनके परिवेश का। इसमें कोई शक नहीं कि र‌ितिक ने इस फिल्म में कमाल का अभिनय किया है लेकिन उनकी अति गोरी त्वचा(जिसे फिल्म में अजीब तरह से काला किया गया है), हल्की भूरी दाढ़ी, जिम में तराशा गया बदन और नीली आंखे उनको एक शिक्षक बनने से कई बार मना कर देती हैं।

वह पुरानी, धुंधली सी चेक वाली गंदी कमीज पहनते हैं जिसे देखकर लगता है कि ये कपड़े इनके नहीं हैं, इन्होंने किसी से मांगकर पहने हैं। रितिक को शायद अपनी ये कमियां पता थीं। उन्होंने यहां पर गरीब होने के स्वांग को अपनी आंखों और बॉडी लैंग्वेज से पूरा करने की कोशिश की है। उनकी मेहनत इतनी अच्छी है कि हमें नकली बिहारी में नुस्‍ख निकालने का मन नहीं करता। पंकज त्रिपाठी अच्छी एक्टिंग के बाद भी एकदम गैरजरूरी लगे। ये रोल उन्हें नहीं करना चाहिए था।


Thursday, July 4, 2019

मेरठ या मिर्जापुर वाला अयान रंजन कब तक दिल्ली वाले अयान रंजन जैसा बन जाएगा?



ये बहुत खूबसूरत सा और चतुराई से छिपा लिया जाने वाला तथ्य है कि हममें से 80 फीसदी से भी ज्यादा लोगों का बचपन और टीन-ऐज छोटे गांव, कस्बों या कस्बेनुमा शहरों में बीता है। ये कूल, ब्रो वाले लहजे से कुछ साल पहले की ही बातें है। हम अभी-अभी उस समाज से इधर शिफ्ट हुए हैं। समाज का ऐसा कुछ भी कच्चा-पक्का नहीं है जिससे हम वाकिफ ना हों। हमारे पास आर्टिकल 15 फिल्म के नायक अयान की तरह ये सहूलियत नहीं है कि हम कायस्‍थ और पासी का अंतर ना समझ सकें। हमें ये सबकुछ मालूम है और प्रकारांतर से हम इसके हिस्से भी रहे हैं।

ये अच्छा है कि आर्टिकल 15 का नायक ऐसे घर से है जहां पढ़ने के लिए बच्‍चे गाजियाबाद या ग्रेटर नोएडा के इंजीनियरिंग कॉलेजों में नहीं बल्कि विदेशों में भेजे जाते हैं। यदि अयान रंजन यूपी के किसी गांव से गाजियाबाद या दिल्ली में पढ़ने आया होता तो इस बात की संभावना ज्यादा थी वह लौटकर लालगंज थाने के प्रभारी ब्रहमदत्त स‌िंह का एक पढ़ा लिखा अपग्रेड वर्जन भर बनके रह जाता। वहां के परसेफशन भी उसे स्वाभाविक लगते और ऊंची जाति के रेपिस्ट ठेकेदार के घर का बना मटन स्वादिष्ट भी। तब अयान को भी पता होता कि 'ये लोग' तो वैसे ही हैं।

 ये अयान की गलती नहीं होती। हमारी परवरिश ही ऐसी है कि कई सारी गलतियां (अपनी और समाज की ) एक समय के बाद हमें अपनी लाइफ स्टाईल का पार्ट लगने लगती हैं और हम उसके आदी हो जाते हैं। जातियों को लेकर समाज के इस गहरे पूर्वाग्रह कि गिरह कुछ खुली जरूर हैं लेकिन इतनी नहीं जितनी की ये फिल्म खुला हुआ दिखाकर हमें राहत देती है।

मुझे उस दिन का इंतजार है जब अयान रंजन दिल्ली का नहीं उसी गांव का एक लड़का होगा। जहां उसे ब्रहमदत्त सिंह के साथ-साथ अपने पिता से भी इस व्यवस्‍था को बदलने के लिए संघर्ष करना होता। अभी तो ये एक मीठी से खुशी देने वाली फिल्म भर लगी। फिल्म के इंटरवल या खत्म होने पर मेरे जैसे तमाम लोग ट्वायलेट गए होंगे और देखा होगा एक खास ड्रेस में टोपी लगाकर और हाथ में वाइपर जैसा कुछ लिए उस आदमी को जो इस बात के इंतजार में है कि आप हटें तो वह वहां सफाई कर सकें। ट्वायलेट हैं तो सफाई होगी ही लेकिन मैं एक इंसान के नाते वह मुल्क देखना चाहता हूं कि जब आपकी पेशाब को धुलने वाले ये हाथ एक ही जाति के ना हों। तब शायद आर्टिकल 15 का बनना एक फिल्म से बड़ा माना जाएगा।

 ये कोई हजार-दो हजार साल पहले की बात नहीं है। ये 25 से 30 साल पहले की बातें है। गांवों में ऊंचे कुल और बिसवा में बड़े (जिस तरह तेल या दूध नापने के लिए लीटर होता है, ब्राहम्‍णों में भी ऊंच नीच नापने के लिए बिसवा नाम का पैमाना उपयोग किया जाता है,अभी भी इस समाज में ऐसे लोग हैं जो बिसवा नाम के पैमाने से आए परिणामों से इतराते हैं) ब्राहाम्‍ण, अपेक्षाकृत नीचे वाले ब्राहाम्‍णों के यहां कच्चा भोजन नहीं करते थे। वो उनके यहां की बनी पूड़ी और हलवा खा लेते ‌थे लेकिन उनके चूल्हे में पके दाल चावल या कढ़ी से उनकी वैसी ही दूरी थी जैसी दूरी फिल्म में चमार जाति वाला पासी किरदारों के प्रति रखता है। या पासी, खटिक, मेहतर या भंगी से जातियों के साथ रखता हो।

 दलित जातियों की आपस में सामाजिक ऊंचाई-निचाई के इक्वेशन क्या रहे हैं ये मुझे नहीं मालूम है, लेकिन यूपी में बसपा के उदय होने के बाद मैंने ये जरूर पाया है कि बाकी दलित जातियों की तुलना में चमार जातियों में खुद को लेकर एक श्रेष्ठता है। वह बाकी दलित जातियों की तुलना में अपने को ज्यादा साफ और सोफिस्टीकेडेट तो मानते ही हैं साथ में वह इस बात के लिए भी इतराते हैं कि सवर्णों के घर होने वाली शादियों में अब उन्हें आमंत्रित किया जाने लगा है।

आर्टिकल 15 की सबसे बड़ी खूबसूरती ये है कि ये सिर्फ दलित और सवर्ण के बीच की खांई को नहीं दिखाती, बल्कि फिल्म ये भी दिखाती है कि समाज में दलित और दलित में ही ऊपर और नीचे होने का कैसा एक सिस्टमैटिक बंटवारा है। और ये बंटवारा स्वीकार्य कर लिया गया है। यदि आप इस बंटवारे को स्वीकार नहीं करते हैं तो आपके ऊपर आउटसाइडर का एक ठप्पा लगाकर छोड़ दिया जाता है। आपको ठीक करने का लोड नहीं लिया जाता है और ये माना जाता है कि जरुरत से ज्यादा शिक्षा ने आपकी सभ्यता को भ्रष्ट कर दिया है।

 ये गनीमत रही कि अयान दिल्ली के इलीट क्लास से था जहां जातियां शायद अपनी उस तरह की पहचान नहीं रखती हैं। यदि अयान उसी जिले के किसी ब्राहाम्‍ण या ठाकुर परिवार का लड़का होता तो क्या उसके पिता उसे उस सुअरताल में नंगे पैर, साफ स्वेटर-कोट में घुसने देते? क्या उसका परिवार उसे जातियों के इस कथित घिनौने प्रपंच में अपना कैरियर तबाह करने की छूट देता? क्या उसकी संभावित बीवी उसे ऐसा करने के लिए कहती? खुद से सोचिएगा, मेरे पास इस बा‌त का उत्तर नहीं है। इसे शायद जर्नलाइज नहीं कर सकते।

शहरीकरण ने कुछ बदला है क्या?

हो सकता है कि शहरीकरण कई सारी बुराईयां लेकर आया हो लेकिन जाति व्यवस्‍था को खत्म करने में शहरीकरण का बहुत बड़ा योगदान रहा है। गांव और कस्बे में रहा व्यक्ति मानता है कि शहर, लोगों की सभ्यता को नष्ट और भ्रष्ट करने के लिए ही बने हैं। वहां दिन के उजालों में बैठकर लोग शराब पीते हैं। कोई किसी के साथ उठ-बैठ, खा-पी लेता है। शहर की यह कथित उदारता, सदियों से बने उनके सिस्टम को नष्ट कर रही है, उसे खोखला कर रही है।

पिछले दिनों अखबार की एक कटिंग सोशल मीडिया में वायरल थी जिसमें एक युवती के द्वारा शराब की दुकान पर जाकर शराब खरीदने को चार कॉलम की एक खबर बनाया गया था। मामला छत्तीसगढ़ का था। वहां लोगों के लिए ये शायद खबर थी। लेकिन दिल्ली या मुंबई में लड़कियों का दुकान में खुद से शराब लेना क्या खबर है?  समाज की बुराईयां और उसके दकियानूसपन भी शायद परिवेश बदलते ही बदल जाते हैं। एक पुरुषवादी अधेड़ किसी काम से जब दिल्ली आता है तो मेट्रो में उतर-चढ़ रही लड़कियों की पोशाकें, उनकी बालों के कलर, लड़कों के साथ उनकी घुलमिलकर बातचीत उन्हें कुछ मिनटों तक रोमांचित करती है लेकिन कुछ देर के बाद ही ये दृश्य उन्हें अपनी संस्कृति पर खतरा लगने लगते हैं, लेकिन वहां साल भर रह लेने वाले उसी ऐजग्रुप के आदमी को यह नार्मल लगने लगता है।

शहर का जिक्र इसलिए भी क्योंकि पुरुषवाद और जातिवाद जैसे दो सबसे खतरनाक कीड़े शहर से दम तोड़ रहे हैं। जैसे गांवों में सीजन की पहली बारिश होने के बाद एक खास तरह के कीड़े शाम को निकलते हैं, शहर में भी ये निकलते होंगे लेकिन मालूम नहीं पड़ते। ऐसे ही कई सारी बुराईयां वहां के माहौल में डाइल्यूट हो जाती हैं।  यूपी  या बिहार के किसी एक गांव के दो लड़के जिसमें एक ठाकुर हो और दूसरा दलित वो दिल्ली में साथ फिल्म देख सकते हैं,एक-दूसरे के घर आ जाते हैं। खाना ना सही पर वो शराब सिगरेट शेयर कर लेते हैं। पर अपने गांव पहुंचने पर यही दोनों किरदार ऐसा नहीं कर सकते। उनका ऐसा करने का मन ही नहीं करता। वही इंसान जाति की व्यवस्‍था को दो अलग-अलग परिवेश में दो अलग-अलग ढंग से जीता है।


क्या नफरत एक जैसी?

समाज में नीची जातियों को लेकर ऊंची जातियों का रीएक्‍शन अलग-अलग तरह का होता है। कुछ लोग उनसे नफरत करते हैं, नौकरियों में उनके रिजर्वेशन लेने से नाराज रहते हैं, उन्हें जाति के नाम पर कट्टर मानते हैं और इस बात से भी नाराज रहते हैं कि वो गोलबंद होकर हाथी को वोट देते हैं। जबकि देश के विकास के लिए उन्हें कमल को वोट देना चाह‌िए।

 एक दूसरे तरह का रिएक्‍शन भी है। ये वाले बस उन्हें अपने जैसा नहीं मानते। वो सिर्फ उन्हें दूसरे मानते हैं। उनका छुआ खाने से परहेज करते हैं, उनके घरों की शादियों में जाते हैं लेकिन ज्यादा से ज्यादा डिस्पोजल गिलास में पानी लेते हैं, उनके प्रति कुंठा नहीं रखते।  उनके अपमानित करतें, लेकिन गहराई से मानते हैं कि वह हम जैसे नहीं हैं। आर्टिकल 15 की खूबसूरती ये है कि वह दलित को लेकर हर तरह के विरोध या तटस्‍थ होने को दलित विरोध साबित करने में सफल होती है और आपको अपनी राय बदलने के लिए प्रेरित करती है।

फिल्म के एक डायलॉग "आग लगी हो तो न्यूटल होने का मतलब यह होता है कि हम उनके साथ खड़े हैं जिन्होंने आग लगाई है। यहां इस बारे में एक नजरिया दिखाने की कोशिश करता है। दलित और स्‍त्री विरोध दोनों ही मामलों में पिछला कुछ सालों का हासिल ये हुआ है कि बहुत सारे लोग विरोधी से न्यूटल हो गए हैं। इस न्यूटल होने को वो प्रोग्रेसिव मानते हैं।

हर किरदार की एक अलग फिल्म

फिल्म का एक-एक किरदार एक कहानी लिए हुए हैं। अगर आप इस फिल्म को ब्रहमदत्त सिंह की निगाह से देखेंगे तो आपको ये दूसरी फिल्म लगेगी, निषाद की निगाह से देखेंगे तो दूसरी और ब्रहमदत्त के कुलीग पुलिस इंस्पेक्टर जाटव की निगाह से देखेंगे तो तीसरी। हर कोई अपनी तरह से चीजों को देखना चाहता है। रेपिस्ट का किरदार ये बात गहराई से मानता है कि हर आदमी की एक औकात होती है। वह खुद की भी एक औकात मानता है और जिनके साथ रेप करता है उनकी भी। उसके नजरिए से ये अलग फिल्म है। उसको इस समाज से कोई सफोकेशन नहीं महसूस होता। हां, वो अयान के व्यवहार भी जरुर एक अजीबपन महसूस करके बार-बार चौंकता है।

शानदार लिखावट-बुनावट

गौरव सोलंकी को पढ़ने वाले जान जाएंगे कि फिल्म का ज्यादातर हिस्सा उन्हीं का है। निषाद जैसे किरदार के एकालाप उन्हीं के हैं। फक वाला ह्यूमर भी उन्हीं का है। उन्होंने एक खूबसूरत फिल्म लिखी है। जिसमें कहीं कहीं कुशलता से एक डार्क हयूमर पिरोया गया है। एक निर्देशक के रुप में अनुभव सिन्हां जैसा रुपांतरण मैंने इसके पहले कभी नहीं देखा। मुल्क के पहले भी उन्होंने फिल्में बनाई हैं। उन्हें देखकर लगता है कि ये फिल्में किसी और ने बनाई हैं। आर्टिकल 15 में वे मुल्क से भी आगे निकल जाते हैं।

एक किरदार को गढ़ने की प्रक्रिया में वह अनुराग कश्यप की बराबरी पर खड़े दिखते हैं। इस फिल्म से पहले आप चाहकर भी ये कल्पना नहीं कर सकते थे कि  मनोज पहवा एक ऐसे किरदार को निभा सकते हैं या कुमुद मिश्रा भी। फिल्म दलित के घर ब्राहाम्‍णों के भोजन के टॉपिक को हल्के से छूती है, इसी तरह निषाद के किरादर को भी। इन्हें थोड़ा और कुरेदना चाहिए था। आर्टिकल 15 एक ऐसी फिल्म है जिसे 15 अगस्त और 26 जनवरी को चौराहों चौराहों पर लगाकर दिखानी चाहिए, लेकिन ऐसा होगा नहीं क्योंकि ये एक फिल्म है किसी सरकार के विज्ञापन वाली एलईडी गाड़ियां नहीं।