कबीर M नाम का एक लड़का है। गिरफ्तारी के बाद उसके पास से दिल्ली पुलिस को एक मेडिकल सर्टिफिकेट मिलता है। सर्टिफिकेट ये बताता है कि उसका खतना नहीं बल्कि आपरेशन हुआ है। पुलिस उसे पीट-पीटकर यह जानना चाहती है कि 'एम' का मतलब क्या है? वह हर बार कहता है कि एम मतलब सिर्फ एम। पुलिस को इस बात से चिढ़ और हैरत दोनों है कि वह हिंदू होने का नाटक क्यों कर रहा है। बाद में यह केस दिल्ली पुलिस से उठकर सीबीआई के पास चला जाता है। सीबीआई उसे पाकिस्तान से आया एक जेहादी साबित कर देती है। बाद के एक सीन में कबीर का बाप एक बंद पड़े सिनेमाघर की कुर्सियों में बैठकर अपने टूटे हुए स्वर में दिल्ली पुलिस से कहता है कि "मैंने उसे मुसलमान नहीं बनने दिया, आप लोगों ने जेहादी बना दिया" कुछ साल पहले कबीर के बड़े भाई की बीफ खाने के आरोप में उन्मादी जनता पीट-पीटकर हत्या कर चुकी होती है। ये सीन अमेजॉन प्राइम पर स्ट्रीम हुई वेब सीरिज 'पाताल लोक' का है।
एक ऐसे दौर में जब जमातियों के पत्थर फेंकने, फल चाटने के वीडियो के साथ मुसलमानों का आर्थिक बाहिष्कार करने की नसीहतों से आपका वाट्सअप भरा हुआ है ऐसे समय में किसी मुसलमान से उसका नजरिया जानना भी एक रिस्क लेने जैसा है। बहुसंख्यक आबादी को नाराज करने का रिस्क। पाताल लोक यह रिस्क लेना चाहती है। वह सिर्फ कबीर एम की कहानी नहीं कहती है। वह बुंदेलखंड के उस बाजेपई नेता की भी कहानी कहती है जो दलितों के प्रिय हैं और जिनकी गाड़ी में गंगाजल से भरे दर्जनों कैन रखे होते हैं। जिनसे बाजपेई जी दलितों से मिलने या उनके घर खाना खाने के बाद 'खुद को शुद्घ' करते हैं।
'पाताल लोक' पंजाब के उस दलित सिख तोप सिंह की भी कहानी कहती है जिसने ऊंची जाति वाले एक सिख के चेहरे पर चाकू से वार कर दिया था। जिसकी प्रतिक्रिया में उसकी मां के साथ ऊंची जाति के इन सिखों ने सामूहिक रुप से बालात्कार किया। दिन दहाड़े घर के बाहर चारपाई पर बांधकर, उसके बाप और दादा के सामने। उन्होंने ऐसा इसलिए किया कि खंजर से घायल हुआ उनका बेटा तोप सिंह को एक ऐसी गाली दे चुका था जिसकी व्याख्या करने पर मां के साथ संबंध बनाने की अनुमति या श्राप मिल जाता है। हिंदी सिनेमा में मां की गाली का असंख्य बार उपयोग हुआ है, लेकिन यह पहली बार हुआ जब कोई फिल्म इस गाली के पाप के स्तर तक पहुंचने वाली संड़ाध को सूंघने का प्रयास करती है। वह आपको याद दिलाती है कि यह गाली किस स्तर पर घिन पैदा करने वाली है।
पाताल लोक का दायरा सिर्फ जाति या धर्म तक सीमित नहीं है। वह पिता-पुत्र संबंध, उनके बीच फैली शारीरिक हिंसा, छोटे अनाथ बच्चों के साथ होने वाले कुकर्म, बाद में इनसे उबरकर इनके अपराधी बन जाने की बेचैनी भरी कहानी भी कहती है। वह उनकी बेबसी की कहानी कहती है जो अभी मुख्यधारा में नहीं हैं। 9 एपीसोड वाली पाताल लोक को सिर्फ एक अच्छी सस्पेंस थ्रिलर फिल्म कहना उसके साथ अन्याय करने जैसा होगा। यह एक अच्छी सस्पेंस थ्रिलर फिल्म होने के साथ इंसान और समाज की अपनी व्यक्तिगत और सामूहिक नीचताओं की भी कहानी भी सफलतापूर्वक कहती है। जाने कितने ऐसे नजरिए यह फिल्म समेटे हुए जिन्हें अब तक सिनेमा छूने का भी प्रयास नहीं करता दिखा है। पाताल लोक की एक खूबसूरती यह भी है कि ओटीटी प्लेटफॉर्म पर मिलने वाली सेंसर लिबर्टी को उसने सिर्फ गालियों और बेवजह के सेक्स सीन दिखाकर खराब नहीं किया। इस छूट की वजह से उसने कुछ ऐसे सीन रचे हैं जिसे सेंसर अपने जीते जी कभी मान्यता ना देता।
पाताल लोक का बैकग्राउंड पुलिस का है। पुलिस-अपराधी-सरकार के नेक्सेस का। सिनेमा में रची गई पुलिस की दुनिया बड़ी विविधता वाली है। यहां सिंघम और दबंग भी हैं और 90 के दशक के वह लिजलिजे पुलिस वाले भी जो किसी इलाकाई डॉन के इशारे पर काम करते हैं। पुलिस के तंत्र को पाताल लोक एक अलग ढंग से देखती है। पुलसिंग सिस्टम, उसकी सीमाएं, तोले-तोले भर के स्वार्थ और सामर्थ्य इससे पहले इस तरह से नहीं देखे गए। ना ही कहे गए। नेटफ्लीक्स पर ही स्ट्रीम हुई फिल्म सोनी की याद जरुर याद आती है जहां पुलिस को उसकी कमियों, सीमाओं और ताकतों के साथ पेश किया गया था।
ऊपरी तौर पर पाताल लोक की कहानी दिल्ली के एक प्राइम टाइम एंकर की हत्या की साजिश और उसे खोलने की कहानी है। जिसके सिरे दिल्ली, पंजाब और चित्रकूट में बिखरे हुए हैं। बाद में सीबीआई इसके सिरे नेपाल और पाकिस्तान की तरफ खोल देती है। इस फिल्म को तरुण तेजपाल की किताब ‘द स्टोरी ऑफ माई असैसिन्स’पर आधारित बताया जा रहा है। लेकिन फिल्म की क्रेडिट लाइन में कहीं भी इसका जिक्र नहीं आता है। किताब मैंने नहीं पढ़ी तो नहीं कह सकता कि यह किताब से कितना कम या ज्यादा प्रेरित है।
स्क्रिप्ट के बाद फिल्म की दूसरी सबसे मजबूत कड़ी कलाकारों का अभिनय है। जयदीप अहलावत हिंदी सिनेमा की एक धरोहर हैं। गैंग्स ऑफ वासेपुर के बाद पहली बार जयदीप को उनकी स्ट्रैंन्थ का काम मिला है। यह पूरी फिल्म ही दिल्ली पुलिस के इंस्पेक्टर बने हाथीराम चौधरी पर टिकी होती है। इस फिल्म में उनकी अद्भुत रेंज है। उनकी आंखें उनके नियंत्रण में हैं। उनके चेहरे पर चेचक के दाग उनके अभिनय के हिस्से जैसे लगते हैं। हथौड़ा त्यागी का किरदार निभाने वाले अभिषेक बनर्जी को आप स्त्री में जना और मिर्जापुर में छोटे त्रिपाठी के दोस्त के रुप में देख चुके हैं। ऊंगलियों में गिन लेने भर के संवाद बोलने वाले अभिषेक ने अपनी बॉडी लैंग्वेंज से कमाल का आवरण रचा है। यह आवरण किसी डॉन से ज्यादा खौंफनाक है।
एंकर संजीव मेहरा की भूमिका में नीरज काबी अच्छे हैं। लेकिन वह वहां नहीं पहुंच पाए जहां वे सेक्रेड गेम्स, ताजमहल और मानसून शूटआउट में पहुंच चुके हैं। विपिन शर्मा और गुल पनाग जैसे सक्षम कलाकार अपने रोल के अनुसार हैं। यहां पर तारीफ अनुष्का शर्मा की होनी चाहिए कि उन्होंने फिल्लौरी, परी, एच एच 10 के बाद पाताल लोक जैसे रुखे विषय पर पैसा लगाया है। एक एक्ट्रेस से ज्यादा एक प्रोड्यूसर के रुप में अनुष्का याद रखने वाला काम कर रही हैं। फिल्म के निर्देशक अविनाश अरुण और इसे लिखने वाले सुदीप शर्मा, सागर हवेली, हार्दिक मेहता को भी बधाई मिलनी चाहिए। सिनेमा में यह अपेक्षाकृत ये नए लोग हैं और पाताल लोक इन्हें अब नया नहीं रहने देगी।
इधर स्ट्रीम में बाकी देशी विदेशी वेब सीरिज से उलट पाताल लोक एक और सीजन को बनाने के मोह में भी नहीं पड़ती, यह लालच न होना भी एक खूबसूरती है...