Saturday, September 21, 2013

हमें फॉर्मूलों से इतना प्यार क्यूं हैं, कहीं ये सीमाएं तो नहीं हैं?


'फटा पोस्टर निकला हीरो' में एक मां है। वह ईमानदारी के साथ ऑटो चलाती है। वह चाहती है कि उसका बेटा एक ईमानदार पुलिस ऑफिसर बने। लंबे और कोले ओवरकोट पहनकर भारी आवाज में गुर्रा-गुर्राकर बोलने वाला एक डॉन है। वह पता नहीं क्यूं मुंबई पर केमिकल हमला करना चाहता है। वह दुबई में है और उसके भारत में कुछ बेवकूफ गुर्गे हैं। वह डॉन अपनी सुविधा से कभी कॉमेडी कर देता है तो कभी खतरनाक बन जाता है।

जैसा कि होता है फिल्म में एक हीरो है जो हीरो बनना चाहता है। और जैसा कि हम आपको बता चुके हैं उसकी मां उसे पुलिस बनाना चाहती है। मतलब वह हर लिहाज से हीरो ही है। फिल्म है तो हीरोईन भी होगी। वह  शहर में कहीं भी घट रहे अपराध की रिपोर्ट उसी पुलिस वाले से करती है जो पुलिस में नहीं है लेकिन फिल्म का हीरो है। बाद में यही हीरो नायक बनकर उस केमिकल ब्लास्ट को रोकता है। इस बीच कुछ और बातें हैं जो इसलिए हैं क्योंकि क्लाइमेक्स ढाई घंटे के बाद होना होता है।

‌फिल्म में कुछ चीजें और भी होती हैं। जैसे कि जब नायक, नायिका से मिलता है तो एक गाना होता है। जब उनके बीच बिछड़ने का घटिया सा प्रसंग आता है तब भी नायक-नायिका गाना गाते हैं अंतर बस यह है कि इस बार इन्होंने चटख रंग के कपड़े नहीं पहने हैं और नाच नहीं रहे हैं। कुछ और गाने मौके-मौके पर होते हैं।

राजकुमार संतोषी की इस फिल्म को देखकर यह समझ में नहीं आता है‌ कि कुछ फिल्मकारों को फॉर्मूलों से इतनी मोहब्बत क्यों है। ऐसे फॉर्मूले जो एक नहीं दर्जनों बार चेहरे बदल-बदल कर आजमा लिए गए हैं। इन फॉमूलों को घिसा पिटा कहते हुए भी एक बासीपन का एहसास होता है।

एक निर्देशक से उम्मीद की जाती है जब वह अपनी एक फिल्म से एक लैंडमार्क तय कर दें तो कम से कम उसकी बाकी फिल्में घटिया और स्तरहीन तो न हों। फटा पोस्टर निकला हीरो घटिया फिल्म तो नहीं है लेकिन वह राजकुमार संतोषी की सीमाएं जरूर निर्धारित करती है।

फिल्म एक निर्देशक का माध्यम होता है। और शाहिद कपूर जैसा प्रतिभाशाली हीरो का यदि इस फिल्म से कमबैक नहीं कर पाता है तो इसमें शाहिद कपूर की उतनी गलती या कमजोरी नहीं है जितनी फिल्म निर्देशक की। इलियाना डीक्रूज की बर्फी को लेकर कुछ अच्छी इमेज अभी तक बनी थी। वह शायद इस फिल्म से टूटेगी।

फिल्म के कुछ गाने अच्छे हैं। सौरभ शुक्ला, जाकिर हुसैन और संजय मिश्रा के हिस्से जो भी दृश्य आए हैं उन्होंने अपने अभिनय के बूते उन संवादों को दर्शकों तक पहुंचा ‌दिया जो उनके डायरेक्टर ने उन्हें उपलब्‍ध कराए थे। इसमें गलती उनकी है भी नहीं।