शहर की आंखों से गांव को देखना एक कॉमेडी पैदा करता हैं। वैसे ही जैसे गांव की आंखों से शहर देखा जाना संशय, अविश्वास, रहस्य और डर...
टीवीएफ द्वारा बनाई गई और अमेजॉन प्राइम पर स्ट्रीम हुई वेब सीरिज 'पंचायत' की अच्छी बात यह है कि यह गांवों को शहर की निगाह से देखती है लेकिन उस तरह से नहीं जैसा हिंदी फिल्में देखा करती थीं। वहां पर गांव का मतलब यह होता कि लोग धोती-कुर्ता और मूंछ पहनकर सुबह सुबह खेत चले जाते हैं। मौसम कोई भी हो सरसो के पीले फूल लहराया करते हैं। लोग शाम को चौपाल में आग तापते हुए गांव की समस्याओं की चर्चा करते हैं। महिलाएं मंगल गीत गाया करती हैं। लोग हमेशा खुश रहते हैं और जब-तब अपनी भैंस को नहलाया दिया करते हैं। ऐसा कभी किसी युग में नहीं हुआ लेकिन सिनेमा के पास गांव को दिखाने के लिए कुछ ऐसी ही फिक्स विंडो रही हैं।
टीवीएफ गांव को गांव की तरह देखती है। गांव के लोग भी जींस की पैंट पहनते हैं। शरीर से चिपकी रहने वाली टीशर्ट उनके पास भी हैं। वे वाट्सअप ग्रुप में हैं और वीडियो कॉलिंग भी करते हैं। चिल रहने के लिए नई उम्र का लड़का ना तो खुद नदी नहाता है और न ही अपने भैंस को नहलाता है। वह भी आपकी तरह खेतों में कहीं कोने में बैठकर बियर ही पीता है। हो सकता है कि उसका चखना शहरी चखना से जरा कमतर हो। इस लिहाज से पंचायत यहां पर नकली नहीं लगती। गांव, उसके गलियारे, घर और लोग, उनके बात करने के मुद्दे आज के गांव जैसे ही लगते हैं।
'पंचायत' के साथ समस्या यह है कि इसके पास अपनी कोई कहानी नहीं है। उसके पास वही संकट है कि जो 'कोई मिल गया' में राकेश रोशन के सामने था। वे कसौली में एलियन तो ले आए थे लेकिन उस एलियन का मकसद बहुत कन्वेन्सिंग नहीं था। फिर जल्दबाजी में उसे रितिक रोशन की आंखों की रोशनी वापस लाने का काम दे दिया गया। यहां-वहां के कई अच्छे दृश्यों से गुजरती हुई यह फिल्म जब क्लाइमेक्स की तरह पहुंचती है तो बिल्कुल खाली हाथ हो जाती है। क्लाइमेक्स में जो ड्रामा रचा गया है वह कमजोर और बचकाना है। गांवों में महिला प्रधान होने पर उनका काम प्रधान पति के द्वारा देखा जाना इतनी सहज और उदासीन घटना है कि यह अब ना तो खबर बची है ना ही विरोधाभास। इसे विरोधाभास मानना सिर्फ उनके लिए सिमित होगा जिन्होंने गांव को बिल्कुल देखा ही नहीं और जिन्होंने गांव को बिल्कुल देखा ही नहीं उन्हें इससे फर्क क्या पड़ता है कि प्रधानी पत्नी करे या पति।
पंचायत एक ऐसे ग्राम सेक्रेट्री की कहानी है जिसे शहरी कॉर्पोरेट कल्चर में मनचाही नौकरी नहीं मिलती। वह बड़ी नौकरी के लिए प्रयत्नशील है लेकिन इस बीच उसे 'समूह ग' की यह सरकारी नौकरी मिल जाती है। बैठे रहने से बेहतर वह यह नौकरी ज्वाइन करता है। बाइक के पीछे लिखा UP-16 बताता है कि यह युवा दिल्ली एनसीआर से ताल्लुक रखता है। यूपी के बलिया जिले के फुलेरा नाम के गांव में पहुंचने के बाद वहां के जीवन से ताममेल बिठाने के दृश्य ही फिल्म के मुख्य विषय हैं। बिजली की समस्या, गांव का भूत, प्रधानी के होने वाले चुनाव जैसी बातें मनोरंजक अंदाज में आती हैं। सेकेट्री का पंचायत भवन के बाहर रात में बैठकर बियर पीना या पंचायत घर में बारात रुकने और दूल्हे के गंवारपन को एक ही दृश्य में समेटकर फिल्म बिटविन लाइन मैसेज देने का भी प्रयास करती है।
मनोरंजन के बीच गांव के कुछ षड़यंत्र भी हैं जो गांव वालों के लिए तो बहुत बड़ी चीज है लेकिन कार्पोरेट कल्चर के षड़यंत्र और 'पापों' की तुलना में उनका स्केल बहुत लो है। गांव की मासूमियत पर फिल्म कुछ कहते-कहते रुक जाती है। इसे विस्तार देते तो अच्छा रहता। फिल्म के साथ एक प्रॉब्लम और है। ग्राम सेकेट्री नाम की जिस चीज को इतना निरीह और कमजोर दिखाया गया है वह वैसा होता नहीं। मैं और इन लाइनों से गुजरने वाले कई लोग सेकेट्री और उनके घाघपन से वाकिफ हैं। ग्राम प्रधान और सेकेट्री के बीच के संबंधों को एक फिल्मी टोन दिया गया है। यह संबंध भी ऐसा नहीं होता। संबंध जिस तरह का होता है उसे दिखाने के लिए फिल्म को बहुत सारे प्लाट रचने होते, रिसर्च करनी होती। इससे यह फिल्म बचती है। वहां यह स्टीरियोटाइप होकर निकल जाना चाहती है।
फिल्म का सबसे अच्छा हिस्सा इसके कलाकारों का अभिनय हैं। टीवीएफ फिल्मों के चेहरे रहे जीतेंद्र कुमार उर्फ जीतू भईया यहां सेकेट्री अभिषेक त्रिपाठी का किरदार निभाते हैं। कुछ कहते कहते रुक जाने वाला उनका यह किरदार अच्छा है। लेकिन वह अपने पुराने स्टाईल और प्रभाव से नहीं निकल पाते। वह वही जीतू भईया लगते हैं जो पिचर या बाकी शहरी परिवेश में रचे गए वीडियो में दिखते हैं। फिल्म में सबसे ज्यादा उम्मीद पंचायत सहायक के रुप में विकास की भूमिका निभाने वाले चंदन रॉय में दिखती है। एक अच्छे कॉमन सेंस और गांव के सिस्टम को समझने वाले चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी की भूमिका को वह जीवंत तरीके से जीते हैं। प्रधान के रोल में नीना गुप्ता और प्रधान पति के रोल में रघुवीर यादव बिल्कुल फिट हैं। ये इतने बड़े कलाकार हैं कि इन्हें भी डाल दो कर ही लेंगे।
फिल्म का निर्देशन दीपक कुमार मिश्र ने किया है। वो टीवीएफ की फिल्मों का प्रमुख हिस्सा हैं। दीपक की निगाह गांव की कमियों और सिस्टम के दुरुह होने पर नहीं है। वह जानते हैं कि टीवीएफ या अमेजॉन प्राइम का दर्शक शहरों में बसता है। इसीलिए गांव की डिटेलिंग करने के बजाय वह तफरी के अंदाज में चीजों का कहने का प्रयास करते हैं। हालांकि उनकी आंखें आसपास के व्यंग्य को समेटने का प्रयास करती हैं। हिम्मत करके वह कुरुतियों पर व्यंग्य भी करते हैं लेकिन उसका अंदाज कॉमिक ही रहता है। फिल्म के आखिरी के चंद सेकेंड बताते हैं कि हो सकता है कि पंचायत का सीजन 2 भी आपको देखने को मिले।
पंचायत को एक बार देखा जा सकता है। यह फिल्म आपको बोर नहीं करती, बस समस्या यह है कि इसके पास याद रखने लायक कुछ भी नहीं है...