Wednesday, August 8, 2012
यह सही मायने में पहली सीक्वेल फिल्म है
वासेपुर:१, एक घर पर अंधाधुंध गोली चलने की घटना के साथ शुरू हुई थी, जैसे ही वह दृश्य पार्ट:२ के बीचो-बीच स्वाभाविक रुप से आता है हमें एहसास होता है कि हम एक असाधारण तरीके से बनी हुई ऐसी सीक्वेल फिल्म देख रहे है जो सही मायने में अपनी पहली फिल्म का विस्तार है। बिना किसी खास परिचय के हम उस फिल्म के विस्तार में शामिल हो चुके होते हैं जिसे हमने एक महीने से अधिक समय पहले देखा है। वासेपुर:२ हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की शायद पहली ऐसी फिल्म होगी जिसमें कलाकारो के नाम के साथ नायक के जनाजे के दृश्य है। ऐसे नायक के जनाजे का जिसे फिल्म देखने आए दर्शकों में से आधे इस उम्मीद में देखने आए थे कि शायद हिंदी फिल्म की परंपरा के अनुसार कई गोली लगने के बाद भी वह जिंदा हो। पार्ट:१ के हीरो मनोज बाजपेई थे और क्लाइमेक्स में यह साफ नहीं हुआ था कि वह जीवित हैं अथवा मर गए। २० सेकेंड में ही साफ हो जाता हैं कि वह मर गए है। अब ?। दर्शकों के लिए यह एक बड़ा प्रश्न था।
मनोज बाजपेई के जनाजे के दृश्यों से नवाजुद्दीन पर कैमरा जूम होना शुरू हो जाता है। उसकी आदतों पर, उसकी कमजोरियों पर और उसकी सोच पर। पटना से लेकर लेकर जोधपुर और मुरादाबाद से लेकर बिलासपुर तक के फिल्मी दर्शकों के लिए नवाजुद्दीन की हैसितय एक्सट्रा कलाकार से ज्यादा नहीं है। शुरूआती दृश्यों में जब उनकी चिलम पीने की आदत पर खिल्ली उड़ाई जा रही होती है तो दर्शक उस खिल्ली से सहमत होते हैं। उन्हें वाकई यह ऐतबार नहीं होता है कि नवाजुद्दीन इस फिल्म में मनोज बाजपेई जैसी भूमिका निभाने जा रहे हैं जो बदले की इस परंपरा को आगे बढ़ाएगा। फिल्म के निर्देशन की गहराई यहीं से शुरू होती है। पटकथा, घटनाएं, घटनाओं का अध्ययन, चुटीले संवाद के बीच नवाजुद्दीन को ऐसे फिट किया गया है कि वह फिल्म की सबसे महत्वपूर्ण जरूरत लगने लगते हैं। फिल्म के अंतिम दृश्य में दर्शक वाकई नहीं चाहते कि फैजल की हत्या हो।
वासेपुर:२ पात्रों की उपयोगिता की फिल्म है। फिल्म का हर किरदार यह साबित करता है कि उसकी जगह और कोई दूसरा नहीं ले सकता। नवाजुद्दीन का पात्र इसलिए मजबूत लगता है क्योंकि उसके आसपास हुमा कुरैशी, रिचा चड्ढा, पीयूष मिश्रा, तिंग्माशु धूलिया, राजकुमार यादव, जीसान कादरी जैसे कलाकारों का एक गुट है। हर कलाकार अपने किरदार को मानो घोल कर पी गया हो। फिल्म में जहां-जहां कुत्ते आए हैं निर्देशन ने उनसे भी अब तक का सबसे बेहतर काम लिया है। पहले ही फिल्म की तरह यह फिल्म भी अपने दृश्यों की डिटेलिंग से प्रभावित करती है। फिल्म किस सन की बात कर रही है इसे उस दौर में प्रदर्शित हुई फिल्में प्रदर्शित करती हैं। फिल्म देखने वाले हर पात्र पर फिल्म का गहरा प्रभाव है। उस समय फिल्में चूंकि बिगडऩे का एक सूचक मानी जाती थीं इसलिए रामधीन सिंह खुद के बचे रहने के पीछे फिल्म न देखने का कारण देते हैं। फिल्म के संवादों और गानों पर वाकई बहुत मेहनत की गई हैै। दर्शक भी अब मेच्योर हो गए हैं मादरचोद, गाण, बेटी चोर, चोदनपट्टी जैसे शब्द उन्हें फिल्म का ही हिस्सा लगते हैं। वह इन शब्दों के आने पर पहले जैसे उछलते-कूदते नहीं। फिल्म के प्रारंभिक लेखक और डिफनिट की भूमिका निभाने वाले जीशान कादरी प्रभावित करते हैं।
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समीक्षा में पूर्वाग्रह नजर आ रहा है। जब आप समकालीनता की बात करते हैं, तो पटना में रामदीन के होने से लेकर झारखंड के निर्माण का वर्ष 2002 का जिक्र किए बगैर ही फिल्मी फिइनोमेना पेश कर देते हैं। फिल्म की कहानी सी सुनाते चले गए। पाठक को हर उस दृश्य और वाकये पर समीक्षक की राय चाहिए होती है, जो उसने भी जस का तस देखा होता है। मनोज बाजपेई ने ऐसे किरदार घोंटा था कि लग रहा था एक बारगी फिल्म में उनकी कमी खलेगी। लेकिन नवाज ने इस रिक्तता को खूब खत्म करने की कोशिश की है। कुछ ऐसी कि फैजल के मरने की कल्पना तक से दर्शक अनजाने ही सिहर सा जाता है। परंतु अंत में उसे सिहरना ही पड़ता है।
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