जावेद अख्तर कहते हैं कि क्रिएटिव काम दो तरह के होते हैं। पहले काम में इंसान काम कर-करके भरता जाता है और दूसरे काम में खाली होता जाता। फिल्म का निर्देशन दूसरे तरह का काम है और लेखन पहले तरह का। जॉली एलएलबी 2 सुभाष कपूर की फिल्म है। जिन्होंने जॉली 1 देखी है वह जावेद अख्तर की इस बात से सहमत होंगे। जॉली एलएलबी 2 खराब फिल्म नहीं है लेकिन यह फिल्म सीक्वल का वैसा जादू नहीं रच पाती है जैसा तनु वेड्स मनु करती है। तनु वेड्स मनु अपने हिट हो चुके जॉनर से निकलकर एक अलग क्राफ्ट बनाने का प्रयास करती है। उन्हीं कलाकारों की उन्हीं स्टाईलों के साथ। सुभाष कपूर वैसा नहीं करते हैं। वे फिर से उस कोर्ट रुम ड्रामा का दोहराते हैं जिसे वह जॉली 1 में बहुत शानदार तरीके से दिखा चुके होते हैं। वह वकील बदलते हैं, शहर बदलते हैं , विषय बदलते हैं पर स्टाईल और फिल्म को पकड़ने का अंदाज नहीं बदलते। एक लाइन में कहें तो वह हिट हो चुका अपना कंफर्ट जोन नहीं बदलते, उसी को फ्राई राइस की तरह फिर से तलने का प्रयास करते हैं।
इंटरवल के बाद के कोर्ट रुम दृश्यों को हटा दें तो जॉली 2 एक औसत फिल्म है। फिल्म अपने को स्थापित करने में इंटरवल तक का समय ले लेती है। इसके बाद फिल्म बेहतर होती है। कोर्ट रुम के ड्रामें हमें हंसाते हैं। दोनों वकीलों की बहसें हमें कोई एक पाला चुनने के लिए प्रेरित करती है। हर वकील के पास अपने प्रभावी तर्क होते हैं। लेकिन जैसे ही यह फिल्म तर्क-वितर्क करने के ठेठ तरीके की तरफ बढ़ती है हमें पुरानी फिल्म की याद आने लगती है। अक्षय कुमार और अन्नू कपूर इस नई फिल्म में अरशद वारसी और बोमन ईरानी को रिप्लेस करते हैं। सभी कलाकार समृद्घ हैं लेकिन पता नहीं क्यों राजपाल बने बोमन ईरानी बार-बार याद आते हैं।
इस नई फिल्म में उनका बार-बार याद आना इसलिए भी लाजिमी था क्योंकि सुभाष कपूर ने फिल्म में वकील और शहर तो बदले थे लेकिन फिल्म को पकड़ने का अंदाज हूबहू वैसा ही रखा था। जज वही होता है और कुछ अलग करने के चक्कर में ज्यादा ड्रामेटिक हो जाता है। सौरभ शुक्ला में अभिनय की बहुत बड़ी रेंज हैं लेकिन जब वह प्रमोद माथुर को चुप होकर बैठाते हैं तो वह लगभग खुद को रिपीट करते हुए दिखते हैं। चश्में को उतारने चढ़ाने, कागज पढ़ने, उस पर कुछ लिखने का अंदाज हूबहू वैसा है। "माथुर साहब मैं एलाऊ कर रहा हूं ना बस बात खत्म" वाला डायलॉग, "राजपाल साहब मैं एलाऊ कर रहा हूं ना" कि खराब फोटोकॉपी लगता है। दृश्य अच्छा है पर हम देख चुके हैं। एक अच्छे निर्देशक से उम्मीद होती है कि वह कलाकार को भी उसके कंफर्ट जोन और स्टाईल से बाहर निकाले।
जॉली 2, दर्शकों को जोड़ने के लिए हिंदू, मुस्लिम, आतंकवाद, आतंकवाद पर सही गलत-गलत जैसे फिल्मी और टची मुद्दे का सहारा भी लेती है। दर्शक जब कुछ ही देर पहले जन गण मन करके ही बैठा हो तो वह जाहिर है कि देश के सेंटी ही होगा। चुनाव चल रहे हैं तो हिंदू-मुसलामन भी उसके दिमाग में घुसा ही है। सुभाष आतंकवाद और हिंदू-मुसलमान के मुद्दे पर सेंटी हो जाने को फिल्म में भुनाने का प्रयास करते हैं। पिछली फिल्म में ये टोटके प्रयोग में नहीं आए थे। वहां बस तर्क ही आपको सही या गलत के पाले में खड़ा करने के लिए काफी थे।
फिल्म में अक्षय कुमार अच्छा अभिनय करते हैं। कॉमेडी के दृश्यों में उनका हाथ मजबूत है। कॉमेडी वाली टाइमिंग वे यहां भी प्रयोग करते हैं। अन्नू कपूर एक बेहतरीन अभिनेता है लेकिन फिल्म में वे वहां नहीं पहुंच पाते जहां जॉली 1 में बोमन पहुंच चुके होते हैं। सह कलाकारों का चयन भी अच्छा है। कुमुद मिश्रा हर तरह के रोल में खुद को कैसे फिट कर लेते हैं कभी मौका मिले तो सलमान खान को उनके पास बैठकर दो चार पैग पीते-पीते यह बात पूंछनी चाहिए।
गजब समीक्षा है। रोहित जी आप फिल्मी समाज और दर्शकों के साथ बड़ा अन्याय कर रहे हैं। समीक्षाएं लिखने का अंदाज और तन्मयता आम नहीं है। गहरे तक धंसने वाले विचारों का जखीरा है। इसे यूं गंवाते हुए खुद के प्रति अनुशासनविहीनता फिल्मी स्पेस शटल में एक सीट सुरक्षित होते हुए भी न बैठने जैसी है। अति स्वच्छ और सुलभ, सरल, सहज, सीधी और असामान्य समीक्षा। अद्भुत।
ReplyDeleteबेहतर बातें लिखी हैं सर आपने...
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