यह हिंदी सिनेमा की खूबसूरती है दर्शक जब किसी फिल्म को देखने का चुनाव करता है तो उसके जेहन में यह बात नहीं आती कि फिल्म के नायक का धर्म क्या है, यदि वह हिंदू है तो उसकी जाति क्या है, दर्शक ये भी पता करने की कोशिश नहीं करता कि उसके हीरो ने पर्दे पर जो रोल निभाया है वह किस जाति का है। या वह किस जाति के खलनायक का विरोध कर रहा है। सिनेमा की यह खूबसूरती 'काला' में कई जगह बारीक तरीके से तहस नहस की गई। इसका ये तहस नहस किया जाना भविष्य के के प्रति डर पैदा करता है। वैसा ही डर जैसे हमनें वोट देने के लिए पार्टियां चुनी हैं वैसे ही हमें फिल्म देखने के लिए हीरो चुनने होंगे।
मैं तमिलनाडु की राजनीति को करीब से नहीं जानता। वहां पर दलित मुसलमान के गठजोड की क्या संभावनांए हैं या सवर्ण जातियों का विरोध करने पर किस किस्म की गोलबंदी हो सकती है ये भी नहीं पता। लेकिन ऐसा लगता है कि यह फिल्म फ्रेम दर फ्रेम फिल्म में मुख्य किरदार निभा रहे रजनीकांत के राजनीतिक एजेंडे को कलात्मक तरीके से रखती चल रही है। रजनी नई पार्टी का एलान कर चुके हैं। जिसे कुछ समय के बाद अस्थिर तमिलनाडु की राजनीति में उतरना है, जहां जयललिता मर चुकी हैं और करुणानिधि बूढे होने की हद तक बूढे हो चुके हैं।
सिनेमा एक्सप्रेसन का एक माध्यम है लेकिन काला उसका मिसयूज करती दिखती है। एक खास उदेश्य की पूर्ति के लिए। सिनेमा में जमींदार, लाला, मुनीम, पंडित जैसे किरदार कहानियों के हिस्से रहे हैं। लेकिन इन्हें इनकी गंदी मानसिकता के होने से जोडा गया ना कि इनकी जाति से। ऐसा नहीं कहा गया और ना ही दिखाया गया कि सभी क्षत्रिय, ब्राहाम्ण या श्रीवास्तव घटिया लोग हैं। जमींदार होने को एक सोच का नाम दिया गया ना कि जाति का। यदि जमींदार क्लाइमेक्स में हीरो से पिटता है तो सिनेमा ने इसे क्षत्रियों की हार के तौर पर नहीं दिखाता रहा है।
काला इसके उलट खडी होती है। इस फिल्म का नायक दलित समुदाय से आता है, वह मुंबई की उस धारावी बस्ती का नेता है जहां मुसलमान और दलित रहते हैं। इस नेता की पहली प्रेमिका मुसलमान होती है। शादी उससे नहीं हो पाती है। शादी दलित से होती है। इसे दोनों तबको का समर्थन प्राप्त है। यहां तक तो ठीक होता है। लेकिन फिल्म में इन दो जातियों के अलावा समाज की बाकी जातियों का हर आदमी विलेन है। यदि वो ब्राहाम्ण है तो उसकी एकमात्र ख्वाहिश लोगों से पैर छुलवाने की है। मेरी अपनी जानकारी में ये पहला ऐसा सिनेमा है जहां पर बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की तस्वीर का बार-बार इरादतन लाया गया। वह फिल्म के एक किरदार हैं। उनके विचार तक बताए गए। और ऐसा महसूस कराया गया कि यह फिल्म सिर्फ दलितों के लिए बनाई गई। दलित चेतना के लिए। सिनेमा से इसका कोई सरोकार नहीं है।
फिल्म के क्लाइमेक्स सीन में एक सवर्ण के घर में रामचरित मानस की कथा चल रही होती है। एक ऐसे सीन का वर्णन हो रहा होता है जहां राम, रावण को मार रहे होते हैं। मुझे थोडा भी जानने वाला व्यक्ति जानता है कि मेरा किसी धर्म से कोई लगाव नहीं है। लेकिन उस सीन में राम द्वारा रावण के मारने की पूरी प्रक्रिया को को ना सिर्फ गलत ठहराया गया बल्कि उस पर मजाक भी किया गया। वो रावण जिसे राम मार देते हैं वह कुछ देर बाद और मजबूत तरीके से उभर आता है। और इसे रावण की जीत के तौर पर दिखाया जाता है। मुझे सतयुग के राम और रावण में रुचि नहीं है। मुझे गलत और सही चुनने में रुचि है। फिल्म गलत को सिर्फ इसलिए गलत नहीं कहती कि वह सोच से गलत है बल्कि यह स्थापित करने का प्रयास करती है कि उस इसलिए गलत है क्योंकि वह उंची जातियों से है।
एक खास उदेश्यों के तहत बनाया गया यह सिनेमा, सिनेमा को तो कहीं नहीं ले जाता लेकिन एक बात जरूर बताकर चला जाता है कि एक्सप्रेशन के इस माध्यम से अपने राजनीतिक हित भी साधे जा सकते हैं। मैं रजनीकांत या साउथ पैटर्न की फिल्मों का समर्थक नहीं रहा हूं। उनके विषय और उनकी मेकिंग स्टाइल से। मुझे ये फिल्म चिढाती हुई सी लगी। कि आप यदि उंची जाति में पैदा हुए हैं तो आपने पाप किया है और आप बाई डिफाल्ट गलत हैं। सिनेमा का यह तरीका हमें गलत तरीके से आगे ले जाएगा क्योंकि उनका जवाब देने के लिए उतने ही संकीर्ण मानसिकता के उंची जातियों के लोग सिनेमा की दुनिया में बैठे हुए हैं। फिल्म देखकर मुझे कई बार लगा कि इस फिल्म के साथ डिस्कलेमर लगाया जाना चाहिए कि यह सिर्फ मुसलमान और दलितों के लिए है। जिन्हें आगे चलकर अलग अलग चुनावों में अलग अलग पार्टियों के लिए वोट करना है।
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