एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर एक बुरी नहीं दरअसल बहुत बुरी और लिजलिजी फिल्म है। ये बुरी फिल्म बन सकती थी पर तब जब ये पूरी मेहनत के साथ एक एजेंडा फिल्म बनाई जाती। एक अच्छी और इफेक्टिव एजेंडा फिल्म बनाने की कोशिशों में तब कम से कम ये एक फिल्म तो बन ही जाती। नहीं फर्क पड़ता था कि तब वह गांधी परिवार को रेडीक्यूल करती या मनमोहन को मजबूर बताती। वह कुछ नयी बातें बताती। झूठ ही सही उन्हें अच्छी तरीके से एस्टेबलिस कर देती। कुछ लोगों का मनोरंजन होता कुछ गाली देते। ये कोई जानकारी नहीं हुई कि 2004 से लेकर 2014 तक सत्ता का केंद्र सोनिया गांधी रहीं। सबको मालूम है। क्या नया है। फिल्म घटनाओं को इतने सरसरी तौर पर लेती है कि लगता है कि हम साल के अंत में छपने वाली इयर बुक के पन्ने पलट रहे हों और घटनाओं को तारीख वाइज देख भर रहे हों।
ये एक फीचर फिल्म और डाक्यूमेंट्री का मिलाजुला रुप लगती है। कभी ये फिल्म बन जाती हो कभी डाक्यूमेंट्री। एक सीन में आपको अनपुम खेर वाले मनमोहन सिंह दिखते हैं और अगले सीन में ही असली वाले। कभी आडवाणी ये वाले हैं तो कभी फिल्मी वाले। फिल्म में बचकाने सीन्स की भरमार है जो ये सिर्फ ये साबित करने के लिए रखे गए हैं ताकि आपको पता चले कि गांधी परिवार कितना कनिंग और घटिया है। गांधी परिवार का विरोध करने वालों के लिए ये भी कोई नई सूचना नहीं है। वो इतने जानकार हैं कि सबके पास गांधी परिवार की अपनी अपनी फिल्में हैं। वाटसअप विवि के जरिए वो फिल्म से ज्यादा अपडेट हैं। वो सोनिया गांधी के बारे में ये भी जानते हैं कि वो होटलों में खाना परोसती थीं और इधर ये भी जान गए हैं कि उनके पास दुनिया भर में दस हजार होटल हैं। वो नेहरु के बारे में खुद नेहरु से भी ज्यादा जानते हैं।
फिल्म में शक्तियों का एक अजीब सा बंटवारा दिखाया गया है। फिल्मी मनमोहन सिंह ऐसे हैं कि नीली पगड़ी खुद से बांधने के अलावा उनके सारे काम उनके मीडिया सलाहकार संजय बारु करते हैं। वही फिल्म के सूत्रधार हैं और हीरो भी। वह मनमोहन सिंह से कम बात करते हैं दर्शकों से ज्यादा। फिल्म बताती है कि 2004 से लेकर 2009 तक केंद्र सरकार में सबसे ताकतवर आदमी मनमोहन या सोनिया ना होकर संजय बारु होते हैं। वो जो चाहे कर सकते हैं। देश का पीएम जो वित्तमंत्री और आरबीआई का गर्वनर रह चुका था बारु उसे नर्सरी क्लास के बच्चे की तरह बोलना सिखाते हैं। पब्लिक और मीडिया में हाउ हाउ टू बिहेव, हाउ टू सरवाइव जैसे लेसन बारु लगातार उन्हें दे रहे होते हैं। ताकतवर वो इतने हैं कि उनके सामने कैबिनेट मंत्री, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव कोई हैसयित नहीं रखते। मनमोहन सिंह उनसे कहकर आपने भाषण लिखवाते हैं और छप्पी देने के लिए कहते हैं। वो बारु से ओ तेरी... कहकर बात करते हैं।
तमाम कोशिशों के बाद भी यह फिल्म बहुत बुरी इसलिए बनी क्योंकि इस फिल्म केअनाम से निर्देशक को ना तो राजनीति की लेयर्स समझ में आती हैं और ना ही उसके ग्रे शेड। ऐसा लगता है कि किताब के कुछ पन्ने रैंडमली उठा लिए गए हैं और जो पन्ना जहां से मिला उसे शूट कर लिया गया। फिल्म सिलसिलेवार एक कहानी की तरह आगे नहीं बढ़ती। ना ही उन घटनाओं को राजनीति में पीछे घटी घटनाओं से जोड़ने की कोशिश करती है। हो सकता है कि इसकी वजह ये हो कि फिल्म के निर्देशक का फिल्मी दुनिया के साथ-साथ राजनीति से भी कोई वास्ता ना रहा हो। फिल्म बनाने के समय ही उन्होंने जाना हो कि उड़ीसा के उस समय के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक रहे हों। या पी चिदंबरम नाम का कोई आदमी माइनेंस मिनिस्ट्री में दखल रखता है।
गूगल सर्च में फिल्म के निर्देशक विजय रत्नाकर गुटटे का कोई फिल्म रिकॉर्ड नहीं मिलता है। इसके पहले उन्होंने क्या काम किया है ये पता नहीं चल पाता। उनको लेकर ऑनलाइन मीडिया में जो खबरें हैं वो उनकी जीएसटी टैक्स चोरी और उनकी कंपनियों पर पड़े छापे को लेकर हैं। ये खबरें भी हाल ही की हैं। फिल्म के एनाउंसमेंट के बाद की। एक ऐसा नॉन पोलटिकल, नॉन फिल्मी बैकग्राउंड का आदमी यदि ऐसी फिल्म बनाता है तो इससे बेहतर फिल्म की उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए। फिल्म देखकर लगता है कि फिल्म के निर्देशक और दोनों मुख्य कलाकार किसी भी तरीके से सिर्फ मोदी को खुश करना चाह रहे थे।
मनमोहन सिंह को बेचारा और मजबूर बताते बताते यह फिल्म उनको हास्यास्पद भी बना देती हैं। उनके चलने, बोलने, और उठने बैठने की स्टाइल को भी। उनकी आवाज को इस तरह से निकाला गया है मानों नीली आंखों वाले खिलौने से निकलने वाले पी की आवाज को स्वर दे दिए गए हों। एक ग्लास पानी मांगने के डायलॉग को भी एक अजीब से मिमिक्री वाली आवाज में बोला गया है। आवाज की यह बनावट एक समय बाद कानों को चुभने लगती है। ये वैसी ही मिमिक्री है जैसे तमाम टीवी शो नए कलाकार राजकुमार, सुनील शेटटी या नाना पाटेकर की आवाजें निकाला करते हैं। मनमोहन सिंह मर नहीं गए हैं। अभी भी टीवी पर बोलते हैं। संसद में भी। फिल्म देखने वाले दर्शक भी उनको सुनते हैं।
फिल्म का सबसे खराब पक्ष ये है कि ये कोई तनाव क्रिएट नहीं करती। घटनाओं से दस सालों में ये किसी भी एक घटना को इस तरह से नहीं दिखा पाती कि वह दर्शकों के जेहन में जिंदा रह जाए। ये एक बॉयोपिक की तरह भी नहीं है कि वह मनमोहन सिंह के पक्ष को दिखा रही हो। उनकी सोच, उनकी मजबूरी या उनके मजबूत पक्षों को। हां ये संजय बारु को हीरो जरूर बनाती है। जो एरोगेंट, ताकतवर होने के साथ कूल भी है। वह महंगी शराब पीते हुए दोपहर में अपने आलीशान बंगले में लंच बनाता है और जब मनमोहन से मिलने के लिए जाता है तो उनके साथ बैठे कैबिनेट मंत्रियों को कमरे से बाहर निकाल देता है।
फिल्म बारु की किताब लिखने की प्रक्रिया और उसके हिट हो जाने को भी अपने दृश्यों में शामिल करती है। अप्रैल 14 में रिलीज हुई इस किताब को मैंने नवंबर 14 में अपने एक साथी के साथ दरियागंज को फुटपाथ मार्केट में 50 रुपए में खरीदी थी। पढ़ नहीं पाया था। लेकिन अब पढ़ना चाहूंगा ये जानने के लिए कि क्या किताब भी इतनी ही घटिया है। हां, एक बार और। फिल्म बताती है कि राहुल गांधी को बढ़िया इटालियन बोलना भी आता है। ये इसलिए बता रहा हूं कि कल ममता बनर्जी ने कहा है कि मोदी एक लाइन अंग्रेजी की नहीं बोल पाते।
No comments:
Post a Comment