इस बात पर तो आप भी एग्री करेंगे कि एक स्पाई या जासूस का कॉमन सेंस और इंटलैक्ट लेवल एक पुलिस सब इंस्पेक्टर से बेहतर होता होगा। उसके रिफलेक्शन, मूव्स और प्लानिंग भी। तो फिर ये भी मानेंगे कि ऐसी फिल्म देखने वालों दर्शकों का स्तर भी चुलबुल पांडेय जैसा नहीं मानना चाहिए। दर्शकों को भी स्मार्ट मानना चाहिए। उन्हें स्पून फीडिंग नहीं करानी चाहिए। तमाम सारी बेहतर बातें लिए वॉर फिल्म यहां पर गलती करती है। एक तरफ वह एक्शन के नाम पर हॉलीवुड की दिग्गज फिल्मों के एक्शन डायरेक्टर्स की सेवाएं लेती है लेकिन फिल्म के प्लाट और स्क्रिप्ट में वही एक घिसी पिटी कहानी को दोहरा देती है। फिल्म के सस्पेंस और खुलासे मेरे स्कूल दिनों में देखे गए सीरियल सुराग के इंस्पेक्टर भारत जैसे लगते हैं। जो इतने प्रिडेक्टिबल हैं कि जिनके बारे में अन्ना हजारे तक बता दें कि आगे क्या होने वाला है।
वॉर फिल्म एक पॉपकॉर्न इंटरटेनर की तौर पर बुरी फिल्म नहीं है। इसके एक्शन सीन सांस रोककर देखने वाले हैं। जो किसी भी लेवल पर हॉलीवुड स्पाई फिल्मों से कमतर नहीं हैं। फिल्म के पास खूबसूरत लोकशन हैं और खूबसूरत हीरो भी। प्रॉब्लम वहां नहीं हैं। प्रॉब्लम ये है कि फिल्म के पास एक्शन के अलावा कुछ और है ही नहीं। जब फिल्म में एक्शन नहीं हो रहा होता है तो दरअसल बकवास हो रही होती है। दर्जनों फिल्मों में देखी गई बकवास फिर से एक बार नए तरीके से देखने को मिलती है। करोड़ो रुपए खर्च करके फिल्म का एक्शन बनाया गया है, कुछ लाख खर्च करके एक अच्छी स्किप्ट के बारे में नहीं सोचा गया। फिल्म की कहानी अपने एजेंट के बागी हो जाने की है। अभी अभी फिल्म देखना शुरू करने वाला ऑडियंश भी बता देगा कि यदि हमारा स्पाई बागी हो रहा है तो इसका मतलब ये बिल्कुल नहीं होगा कि वह पाकिस्तान या चीन से मिल गया होगा। यकीनन उसके पास कुछ ऐसी बातें आईं होंगी जो उसे सिस्टम में कोई जासूस होने का इशारा कर रही होंगी और इसका खुलासा वह किसी सीन में शराब पीते हुए करेगा।
प्लाट का कॉमन होना बुरा नहीं होता। पचास और साठ के दशक की हिट फिल्मों को निकाल लीजिए। आप पाएंगे कि इन बीस सालों में जो फिल्मों आई हैं इनके प्लॉट घूम फिरके वही दस-बारह ही रहे हैं। अस्सी के दशक में इनकी संख्या और भी कम हो गई थी। हर तीसरी फिल्म पहली फिल्म जैसी लगती थी। वॉर अगर इसी प्लाट के साथ आगे बढ़ना चाहती थी तो भी बुरा नहीं था। वह चूकती है अपनी चरित्रों को गढ़ने में। उनके पर्सनल लाइफ को दमदार बनाने में। उनकी डिटेलिंग में। एक सिस्टम के अंदर होने वाली बातचीत को स्मार्ट बनाने में। आप एक हीरो से हर तीसरे सीन में एक्शन कराएंगे तो एक्शन भी एक समय के दाल रोटी जैसा बोरिंग लगने लगता है।
ये अच्छी बात है कि फिल्म प्रेम कहानी के नाम पर बहुत समय नष्ट नहीं करती है। पर मुझे वाणी कपूर के लिए सॉरी हमेशा फील होता है। 31 साल की इस एक्ट्रेस के पास ले-देकर अब तक तीन फिल्में हैं। वाणी को फिल्में कब मिलेंगी? जब कोई कपूर सरनेम वाला देश का प्राइम मिनिस्टर बन जाएगा? फिल्में न मिलने से बोर होने वाली वाणी कपूर अपना समय प्लास्टिक सर्जरी करवाकर काटती हैं। वाणी के चेहरे को देखिए। शुद्घ देशी रोमांस में अलग चेहरा, बेफिकरे में अलग और वॉर में अलग। वाणी कपूर के चेहरे पर इतनी प्लास्टिक है कि सरकार को प्लास्टिक बैन की मुहिम वहां से शुरू करनी चाहिए थी। वाणी कपूर के ओंठ दिखाकर यूपीएससी में प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि ये ओंठ किस फिल्म में था। तब तक उनके पास चार फिल्में भी हो जाएंगी।
फिल्म में प्लास्टिक सर्जरी सिर्फ वाणी कपूर के चेहरे पर नहीं दिखती। फिल्म का मुख्य विलेन प्लास्टिक करवाकर घूम रहा है। इसे इतना आसान करके दिखाया गया है कि यदि आडवाणी चाहें तो कुछ दिन के लिए नरेंद्र मोदी के चेहरे वाली प्लास्टिक सर्जरी करवाकर पीएम बन सकते हैं। क्योंकि फिल्म ये मानती है कि प्लास्टिक सर्जरी के बाद चेहरा ही नहीं आदमी भी पूरी तरह से बदल जाता है। प्लास्टिक सर्जरी वाले प्लॉट 30 साल पहले आई 'खून भरी मांग' में चौंकाते थे अब बकवास लगते हैं। फिल्म में एक मुस्लिम गद्दार के देशभक्त बेटे का भी बचकाना प्लॉट है। यह एरीटेट करता है। इस हद तक कि इस पर जोक बनाने का मन भी नहीं करता है।
रितिक रोशन का डील डौल, उनका लंबा मुंह, भूरी आंखे, आंखों में लगे काले चश्में, शरीर पर चिपकी गोल गले की टीशर्ट, हवा में उड़ते उनके डाई किए हुए हल्के लाल बाल, ये सब मिलाकर माहौल बनाने में कोई कमी नहीं रखते। एक्शन के सीन में वह अच्छे भी लगते हैं लेकिन एक्शन के अलावा आप उनसे क्या काम करवा रहे हैं? टाइगर श्राफ कुछ दिनों बाद फिल्मों में आइटम सॉन्ग की तरह एक्शन सीन करते दिख सकते हैं। वह एक्शन सीन इतनी खूबसूरती से करते हैं कि लगता है कि इनसे बेहतर कोई नहीं कर सकता। वह मदारी के कंधे पर बैठे बंदर की तरह हैं। जो उतरता है कुछ खेल दिखाता है और फिर से उसके कंधे पर बैठ जाता है। बाकी पूरे खेल से जैसे उसे मतलब ही नहीं। एक इंसान के तौर पर टाइगर कहानी के साथ घुलते-मिलते नहीं हैं। किसी भी फिल्म में नहीं। यहां तक कि उनकी सोलो हीरो वाली बागी तक में नहीं।
दो अक्टूबर को रिलीज हुई इस फिल्म लंबा वीकेंड दशहरा तक चलेगा। फिल्म की पहली दिन की आक्यूपेंसी बताती है कि यह तीन सौ करोड़ कमाएगी। ये अच्छा है। आदित्य चोपड़ा इस फिल्म से इतना पैसा कमा लेंगे कि वह अपनी बीवी के लिए हर साल मर्दानी का सीक्वल बनाते रहें। एक मिडिल क्लास आदमी करवा चौथ पर बीवी को साड़ी देता है, आदित्य चोपड़ा अपनी बीवी को फिल्म देते हैं। भगवान हर बीवी को आदित्य जैसा पति दे। वॉर के साथ अच्छी बात ये है कि यह ठग्स ऑफ हिंदुस्तान, कलंक या साहो जैसा दिल नहीं तोड़ती, वह सिर्फ अपनी लिमिटेशन दिखाती है।
बढ़िया समीक्षा।
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