Friday, September 28, 2012
हम फिल्म का मुहूर्त पंडित से पूछकर तय करेंगे लेकिन दर्शकों तुम धर्म के आडम्बरों को न मानना
सब टीवी के हंसो-हंसो टाइप धारावाहिक जैसी शुरू हुई यह फिल्म अपने बीतने जाने के साथ एक हैरत भरी गंभीरता ओढ़ती जाती है। इस देश में जहां धर्म के नाम पर वाटर फिल्म की शूटिंग नहीं हो पाती, कुछ फिल्में बनने के बाद रिलीज नहीं हो पाती और जहां तेली जैसे सामान्य जातिसूचक शब्दों पर सेंसर बोर्ड वीप चस्पा करके रिलीज करता है वहां यह फिल्म धर्म के नाम पर इतनी खुली और तटस्थ होकर बहस कैसे कर लेती है इस बात का सुखद आश्चर्य होता है। हिंदू धर्म की मूर्ति पूजा पर पूरी तरह प्रश्न खड़ा करती और इस प्रक्रिया में खुद भगवान को शामिल करती हुई यह फिल्म दर्शकों को मनोरंजक लगने के साथ आंखे खोलने वाली भी लगती है। फिल्म देखकर दर्शक उन कुरुतियों पर हंसते हैं जिन्हें वह करते हैं और करते आए हैं। मेरे पास फिल्म देखकर कुछ दर्शक ऐसे थे जिन्होंने धार्मिक व्यवस्था पर प्रश्न खड़ा करने वाले संवादों पर ठहाके लगाए लेकिन तत्काल ही वह मल्टीप्लेक्स की छत को ताड़ते हुए एक अंनत: शक्ति को नमन करते दिखे। यह धर्म को लेकर दोहरापन है। हम धर्म की कुरुतियों को खारिज तो करना चाहते हैं पर भीड़ के साथ। जैसे भीड़ में कुछ भी कर दो भगवान को पता नहीं चलेगा। अकेले होते ही हम वैसे ही तेल का अर्पण करना चाहेंगे जैसे कि करते आए हैं।
हरिशंकर परसाई कहते हैं कि जब यह कहा जाएं कि महिलाएं घरों से बाहर निकलें तो इसका मतलब होता है कि अपने घर की नहीं दूसरों के घरों की। यही इस फिल्म का भी एजेंडा है। इस फिल्म के मुहूर्त के समय भी भगवान की पूजा हुई होगी। प्रसाद में पेड़े और गरी के टुकड़े बांटे गए होंगे। पंडित से पूछकर ही मुहूर्त निकाला गया होगा और फिल्म पूरी होने के बाद फिल्म रोल पर स्वास्तिक का प्रतीक बनाया गया होगा। इतना ही नहीं गणेश पूजा से लोगों को कनेक्ट करने के लिए एक आइटम नंबर भी फिल्म में डाला गया। और यही फिल्म दर्शकों से आडम्बरों से बचने की बात करती है। जब मैं किशोर हो रहा था तो भारत के हर कस्बे में बुफे सिस्टम इंट्रोड्यूस हो रहा था। हर मोहत्ले के दुबे जी, शुक्ला जी, अग्रवाल जी और वर्मा जी बुफे सिस्टम को कुतों का भोज कहकर उसकी आलोचना करते लेकिन पोते के मुंडन में वही इस सिस्टम से दूसरों को खाना खिलाते दिखते। तर्क वही कि यह सिस्टम गलत है लेकिन बदलाव दूसरे से शुरू हो। अच्छी फिलासिफी है। फिल्म के संवाद और परेश रावल की अदाकारी उत्कृष्ट है। भगवान के हिस्से अच्छे संवाद नहीं आए हैं।
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