चूहे बिल बनाते हैं और सांप उनमें रहा करते हैं। सांप आलसी होते हैं वो काटते भी तब हैं जब उन्हें खुद अपने लिए डर लगता है। चूहे पूरे दिन काटते हैं बिना किसी डर के। अनुराग कश्यप फिल्मी दुनिया के चूहे रहे हैं उनका दूसरों के बनाए बिलों में गुजारा नहीं हुआ है। डिब्बाबंद 'पांच' से लेकर 'मुक्काबाज' तक सब उन्हीं के बिल हैं। ये बिल इतने संकरे और स्टाइलिश हैं कि अगर कोई सांप उसमें घुसना चाहे तो उसकी चमड़ी छिल जाए। मनमर्जिंया अनुराग की पहली ऐसी फिल्म है जब अनुराग दूसरों के बिल में घुसे हैं। इस फिल्म में उन्होंने कुछ रचा नहीं। ना ही किरदार, ना वातावरण, ना कहानी और ना ही नई भाषा। बस बने बनाए पहले के फॉर्मूलो को जरा अपने ढंग से एडिट भी कर दिया। जैसे एक सब एडिटर डेस्क पर बैठकर रिपोर्टर की एक कॉपी को एडिट कर देता है। कुछ अपने शब्द डाल देता है और उसके हटा देता है।
फिल्म में कई सारे सीन ऐसे हैं जहां अनुराग कश्यप की झलक मिलती तो है लेकिन यह उनकी फिल्म नहीं लगती। इसकी कई वजह हो सकती हैं। सबसे बड़ी शायद ये कि अनुराग शायद अपने आइसोलेशन से उकता गए हों और उन्हें अब मेनस्ट्रीम की शोहरत आकर्षित करने लगी हो। या उनको लगने लगा हो कि फिल्में अब फिल्म फेस्टिवल के लिए नहीं बल्कि भारतीय फेस्टिवल के अनुरूप बनानी चाहिए। फैमिली ऑडियंश का एक बडा वर्ग जो उनसे चिढता है उसे वे अपने करीब बैठाना चाहते हों। चाहते हों कि उनकी फिल्में परिवार को लोग देखने आएं और फिल्म देखकर खुशी खुशी खाना ऑर्डर करें और फिल्म को भूल जाएं।
सेक्स के बाद सलवार में नाड़ा बांधती तापसी पन्नू के उस सीन को छोड दे तों फिल्म ज्यादातर जगहों पर संस्कारी ही है। बस थोडा थोडा वैसा ही साहस दिखाने की कोशिश करती है जैसे यूपी या मप्र के किसी स्कूल मास्टर, या बैंक कैशियर की लडकी जब पहली बार सिगरेट का कश खींचती है या वोदका का पहला घूंट भरती है तो उसे लगता है कि उसने बहुत बडी बगावत कर ली। इस फिल्म को देखते हुए मुझे आडवाणी का जिन्ना की मजार में जाना याद आ गया। जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष कहना याद आया। याद आया कि कैसे 2003 में अटल बिहारी बाजपेई ने हज यात्रियों के लिए बडी छूट की घोषणा की थी। फिर राहुल गांधी के वे चित्र भी दिमाग में आए जिसमें वे रामनामी ओढे मंदिरों के चक्कर लगा रहे थे। ये भी याद आया कि प्रणब दा संघ के एक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि बनकर गए थे।
मनमर्जियां लंबी फिल्म है पर बुरी नहीं। किरदार अच्छे लगते हैं। पर कुछ कुछ टाइप्ड भी। क्लाइमेक्स का तो ऐसा है कि आप पहले से दो दिन लिख लें, फिर अक्कड़ बक्कड़ खेल लें। उसी में से कोई एक निकलेगा। टाइप्छ ऐसे कि प्रेमी, प्रेम अच्छा करेगा, सेक्स जुनूनी करेगा। बिल्कुल संतुष्ट कर देगा। लडकी को सिगरेट और शराब पीने की लिबर्टी देगा, जीवन की छोटी छोटी बातों में जज नहीं करेगा। लेकिन यही प्रेमी जिम्मेदार नहीं होगा। पैसा नहीं कमाएगा। पति के रूप में जिम्मेदार नहीं दिखेगा। लडकी जो एक सुरक्षा चाहिए होती है वह नहीं देगा। इसके उलट फिल्म के पास एक पति भी होगा। और लगेगा कि वह पति के रुप में ही पैदा हुआ है। वह बहुत भयंकर किस्म का जिम्मेदार होगा। संवेदनशील होगा लेकिन ठीक से सेक्स नहीं कर पाएगा। शायद सेक्स में प्रयोग बिल्कुल ना करें। 69 पोजीशन उसे पता ना हो। फ्लेवर्ड कंडोम का यूज ना करता हो। क्योंकि उसका जन्म जिम्मेदारी उठाने के लिए हुआ था ना कि सेक्स करने के लिए। मनमर्जियां ये सब बहुत पुरानी मानसिकतााओं की हवा देती हैं, बस जरा नए तरीके से।
फिल्म के किरदार खासकर अभिषेक बच्चन का किरदार ना चाहते हुए भी 'हम दिल दे चुके सनम' के अजय देवगन और 'तनु वेडस मनु' के माधवन जैसा ही लगता है। तापसी पन्नू के किरदार का कन्फयूजन इम्तियाज अली से चुराया हुआ लगता है। कहीं कहीं ये करण जौहर की फिल्म भी लगने लगती है। कहीं शाद अली की तो कहीं दिबाकर बनर्जी की। बस अनुराग की नहीं लगती। जिंदगी में हमें किसी के जैसा नहीं बनना चाहिए। रन वीवीएस लक्ष्मण भी बनाते हैं और वीरेंद्र सहवाग भी। दोनों के अपने चाहने वाले हैं। लेकिन दोनों के रन बनाने के तरीके अलग अलग हैं। अनुराग की फैन फालोइंग खानों जैसी नहीं है लेकिन उनके सिनेमा को पसंद करने वाले हैं और बढ रहे हैं। इसकी उनको कद्र होनी चाहिए।
कुछ फिल्मों से तापसी पन्नू वैसी ही लग रही हैं जैसे एक समय परिणिती चोपडा लगती थीं। अपने कोस्टार पर चढी हुई। बिस्तर पर भी और सीन में भी। ये अच्छा लगता है लेकिन कई बार जबरिया भी। हमारे आसपास ऐसी लडकियां नहीं हैं जो अपनी स्कूटी से प्रेमी के घर चली जाएं या अपनी बुलेट से अरेंज्ड मैरिज वाले दूल्हे के घर जाएं और उसे मना कर आएं। ये फेमेनिज्म का एक नया तरीका है। अच्छा लगता है कई लडकियों को। लेकिन बहुत सारी लडकियां इसे ओवरडोज मानती हैं और मानती हैं कि ये फेमेनिज्म नहीं है।
अभिषेक इस फिल्म में एक सरप्राइज पैकेज हैं। अभिषेक के खराब दिनों में भी मैंने उन्हें एक अच्छा कलाकार माना। ऐसा कलाकार जिसे अच्छे निर्देशक कम मिले। जो मिले उन्होंने रिपीट नहीं किया। मनमर्जियां में अभिषेक का मॉडेस्ट होना बनावटी नहीं लगता। लगता है कि ये बंदा इतना बर्दाश्त तो कर ही लेता है। 'एक दूसरे को खा जाओ, घुसे रहो एक दूसरे में' वाला सीन 'कभी अलविदा ना कहना' का बी पार्ट लगता है। इस सीन को और लंबा होना चाहिए था। इतना था कुछ था उस आदमी के पास उस हालात में कहने के लिए पर जाने क्यों उस सीन को एक मिनट में ही समेट दिया गया।
इधर दो चार साल में जो कलाकार प्रकट हुए हैं उनमें विक्की कौशल की रेंज सबसे बडी है। मनमर्जिया देखते हुए मुझे लस्ट स्टोरी और राजी वाले विक्की याद आ रहे थे। एक बहुत लंबी रेंज वाला ये अभिनेता वाकई बहुत दूर तक जाने वाला है। सबकुछ ठीक है फिल्म में। बस ये कुछ लंबी कम होती और आखिरी में डायरेक्टेड बाई में अनुराग की जगह कोई और नाम चमक गया होता।
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