विशाल भारद्वाज की पटाखा देखते हुए आपको दूरदर्शन में 'चिक शैंपू पेश करते हैं' के दौर वाली फिल्में याद आ सकती हैं। ऐसी फिल्में जो सबकी समझ में आ जाएं। मेरे घर में जब भी अनोखा बंधन, प्यार झुकता नहीं, स्वर्ग या फिर इधर बाद में विवाह या बागबान जैसी फिल्में आईं तो बुश टीवी वाला कमरा हाउसफुल चला। उसी कमरे ने वह बुरा दौर भी देखा जब टीवी पर हू तू तू, जख्म, फिजा, क्या कहना जैसी फिल्में आईं। विशाल की पटाखा 'टीवी की इन सर्वमान्य फिल्मों' से दो मामलों में अलग है। पहली उसमें कोई जाना-पहचाना चेहरा या स्टार नहीं है। दूसरा उसमें बीच-बीच में 'भारद्वाज स्कूल ऑफ फिल्म मेकिंग' के इंटलेक्चुअल छींटे और शटायर हैं। फिल्म के एक सीन में खुद को परेशान कर रहे है युवक से नायिका बोलती है कि मारुंगी एक तो गुजरात में जाकर गिरोगे। परेशान करने वाले को गुजरात में जाकर गिराना यूपी या बिहार में नहीं यही विशाल का पॉलिटिकल कमेंट है।
विशाल एक ऐसे फिल्मकार हैं जिनकी राजनीतिक समझ उनकी फिल्मों में रिफ्लेक्ट होती है। उनके सिनेमा का एक छोटा सीन या संवाद एक बहुत बडी बात या विडंबना को कहने की कोशिश करता है। देशकाल और राजनीतिक विचार उनकी फिल्मों में बार-बार आते जाते रहते हैं। पटाखा इस मामले में अलग है। इस बार केंद्र में वाकई एक मनोरंजक कहानी है जो भदेस है। देशी है। कहानी किस कालखंड की है ये नहीं मालूम। फिल्म में दिखाई गईं रेलगाडियों के डिब्बे नीले हैं तो यह मान लेते हैं कि ये इसी दौर की बात है। इस बार जोर सिनेमा की भव्यता पर ना होकर एक सामान्य कहानी को डायलॉग, सीन और अभिनय से चमत्कारिक बनाने में है। अगर इस आधार पर चीजों को परखा जाए तो वे सफल रहे हैं। यह फिल्म दर्शकों को लगातार इंगेज्ड रखती है। पर ये उन लोगों को कुछ निराश कर सकती है जिनके लिए विशाल, हैदर, मकबूल, मटरु, या रंगून जैसा सिनेमा रच चुके थे। ये कुछ वैसा ही है कि निर्मल वर्मा अपनी कोई कहानी शरदचंद या कुछ हद तक जैनेंद्र की तरह लिख दें। या फिर महेश भटट कुछ नया करने के लिए रोहित शेटटी की स्टाईल में एक कॉमेडी फिल्म बनाएं और जिसका नायक उनकी मेकिंग स्टाईल के अनरूप ही अवैध संतान हों। ये सब अच्छा रचते या बनाते हैं पर अपनी तरह से।
सिनेमा में इमेज एक ताकत भी है और कमजोरी भी। दो बहनों की लड़ाई वाली यह फिल्म विशाल के लिए कुछ वो दर्शक जोड सकती है जिन्हें रंगून बहुत हैवी लगी हो, हैदर लेफ्ट धारा के आसपास और मटरु शुद्व राजनीतिक। पर विशाल की कुछ और फिल्में जैसे ओमकारा, सात खून माफ और कमीने विशुद्व रुप से मनोरंजक फिल्में थीं जिनका कैनवास बहुत बडा था और घटनाएं एक परिवार के बीच की। इन फिल्मों से तुलना करने पर पटाखा पीछे छूट जाती है और लगता है कि हम नेशनल न्यूज चैनल में कोई लोकल खबर देखने लगे। उनके इस सिनेमा में फिलॉसफी कम है और घटनाएं ज्यादा। फिलॉसिफी का पूरा जिम्मा फिल्म में सूत्रधार बने सुनील ग्रोवर पर ही है। वह मसखरे अंदाज में लोकल से ग्लोबल और ग्लोबल से इंटलैक्चुअल बातों की तरफ बढ जाते हैं। बहनों की लडाई की निरर्थकता को भारत-पाकिस्तान से जोडना उसी कवायद का हिस्सा है। ऐसे कई सारे कमेंट हैं जो फिल्म के ह्रयूमर को डार्क बनाकर ये बताने की कोशिश करते हैं कि यह अनोखा बंधन या प्यार झुकता नहीं जैसी नहीं है।
सिनेमा में सही तरीके से गांव को ना दिखाना खटकता है। गांव की लडकियां सुंदर भी हो सकती हैं और गोरी भी। ऐसी बहुत सी लडकियां मैंने देखी हैं जिनके दांत बहुत सुंदर और चमकदार होते हैं। फिल्म उन्हें टाइप्ड दिखाती है। जब वीडियो कॉलिंग है तो जींस भी हो सकती है और छोटे बालों वाली हेडर स्टाईल भी। महिलाएं ही घर को तोडती हैं पुरूषों की इसी बनी बनाई मानसिकता को भी विशाल हवा देते हैं। जाहिर है आज से बीस साल के बाद जब विशाल सिनेमा नहीं बना रहे होंगे तब उनको हैदर के लिए ही याद रखा जाएगा ना कि पटाखा के लिए। आप देखना चाहें तो देख सकते हैं क्योंकिफिल्म बुरी नहीं है। बस ये बदले हुए विशाल की है। जो शायद बटर चिकन और नॉन खा-खाकर थक गए थे और उन्होंने बटर खिचडी का ऑर्डर दिया हो।
विशाल एक ऐसे फिल्मकार हैं जिनकी राजनीतिक समझ उनकी फिल्मों में रिफ्लेक्ट होती है। उनके सिनेमा का एक छोटा सीन या संवाद एक बहुत बडी बात या विडंबना को कहने की कोशिश करता है। देशकाल और राजनीतिक विचार उनकी फिल्मों में बार-बार आते जाते रहते हैं। पटाखा इस मामले में अलग है। इस बार केंद्र में वाकई एक मनोरंजक कहानी है जो भदेस है। देशी है। कहानी किस कालखंड की है ये नहीं मालूम। फिल्म में दिखाई गईं रेलगाडियों के डिब्बे नीले हैं तो यह मान लेते हैं कि ये इसी दौर की बात है। इस बार जोर सिनेमा की भव्यता पर ना होकर एक सामान्य कहानी को डायलॉग, सीन और अभिनय से चमत्कारिक बनाने में है। अगर इस आधार पर चीजों को परखा जाए तो वे सफल रहे हैं। यह फिल्म दर्शकों को लगातार इंगेज्ड रखती है। पर ये उन लोगों को कुछ निराश कर सकती है जिनके लिए विशाल, हैदर, मकबूल, मटरु, या रंगून जैसा सिनेमा रच चुके थे। ये कुछ वैसा ही है कि निर्मल वर्मा अपनी कोई कहानी शरदचंद या कुछ हद तक जैनेंद्र की तरह लिख दें। या फिर महेश भटट कुछ नया करने के लिए रोहित शेटटी की स्टाईल में एक कॉमेडी फिल्म बनाएं और जिसका नायक उनकी मेकिंग स्टाईल के अनरूप ही अवैध संतान हों। ये सब अच्छा रचते या बनाते हैं पर अपनी तरह से।
सिनेमा में इमेज एक ताकत भी है और कमजोरी भी। दो बहनों की लड़ाई वाली यह फिल्म विशाल के लिए कुछ वो दर्शक जोड सकती है जिन्हें रंगून बहुत हैवी लगी हो, हैदर लेफ्ट धारा के आसपास और मटरु शुद्व राजनीतिक। पर विशाल की कुछ और फिल्में जैसे ओमकारा, सात खून माफ और कमीने विशुद्व रुप से मनोरंजक फिल्में थीं जिनका कैनवास बहुत बडा था और घटनाएं एक परिवार के बीच की। इन फिल्मों से तुलना करने पर पटाखा पीछे छूट जाती है और लगता है कि हम नेशनल न्यूज चैनल में कोई लोकल खबर देखने लगे। उनके इस सिनेमा में फिलॉसफी कम है और घटनाएं ज्यादा। फिलॉसिफी का पूरा जिम्मा फिल्म में सूत्रधार बने सुनील ग्रोवर पर ही है। वह मसखरे अंदाज में लोकल से ग्लोबल और ग्लोबल से इंटलैक्चुअल बातों की तरफ बढ जाते हैं। बहनों की लडाई की निरर्थकता को भारत-पाकिस्तान से जोडना उसी कवायद का हिस्सा है। ऐसे कई सारे कमेंट हैं जो फिल्म के ह्रयूमर को डार्क बनाकर ये बताने की कोशिश करते हैं कि यह अनोखा बंधन या प्यार झुकता नहीं जैसी नहीं है।
सिनेमा में सही तरीके से गांव को ना दिखाना खटकता है। गांव की लडकियां सुंदर भी हो सकती हैं और गोरी भी। ऐसी बहुत सी लडकियां मैंने देखी हैं जिनके दांत बहुत सुंदर और चमकदार होते हैं। फिल्म उन्हें टाइप्ड दिखाती है। जब वीडियो कॉलिंग है तो जींस भी हो सकती है और छोटे बालों वाली हेडर स्टाईल भी। महिलाएं ही घर को तोडती हैं पुरूषों की इसी बनी बनाई मानसिकता को भी विशाल हवा देते हैं। जाहिर है आज से बीस साल के बाद जब विशाल सिनेमा नहीं बना रहे होंगे तब उनको हैदर के लिए ही याद रखा जाएगा ना कि पटाखा के लिए। आप देखना चाहें तो देख सकते हैं क्योंकिफिल्म बुरी नहीं है। बस ये बदले हुए विशाल की है। जो शायद बटर चिकन और नॉन खा-खाकर थक गए थे और उन्होंने बटर खिचडी का ऑर्डर दिया हो।
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