अपने नाम और ट्रेलर से ही कमजोर और सुस्त सी लगनी वाली 'रोमियो अकबर वाल्टर' जिसे शॉर्ट में रॉ कहा गया है आखिरकार एक सुस्त फिल्म निकली। एक बड़े और भव्य लैंडस्कैप का स्कोप रखने के बाद भी यह फिल्म अपनी लिखावट और बुनावट की वजह से दम तोड़ देती है।आखिरी के 15-20 मिनट जरूर अच्छे और सधे हुए हैं लेकिन वहां तक पहुंचते-पहुंचते फिल्म अपना चार्म और दर्शक अपना सब्र खो चुके होते हैं। फिल्म एक स्वेटर की तरह होती हैं। बांह और कंधा बहुत अच्छा बुना हुआ हो लेकिन गले या छाती की फिटिंग खराब हो तो पूरा स्वेटर ही खराब कहा जाता है। फिर ऊन चाहे जितना अच्छा लगा हो। इस फिल्म का तो ऊन भी औसत था।
हॉलीवुड की तरह एक डिफाइन जॉनर ना होते हुए भी बॉलीवुड में समय-समय पर जासूसी बेस्ड फिल्में आती रही हैं। कोई ना मिलने पर जीतेंद्र और धर्मेंद्र तक जासूस बने हैं। कल्पना कीजिए कि जीतेंद्र कहीं के जासूस हों। लेकिन ये भी हुआ है क्या कर सकते हैं। इधर एक था टाइगर जैसी मसाला और बकवास फिल्म भी आपके पास है और राजी जैसी सधी हुई 'घरेलू किस्म की' जासूसी फिल्म भी। श्रीराम राघवन की एक असफल पर स्टाईलिश फिल्म एजेंट विनोद भी याद आती है और निखिल आडवाणी की डीडे भी। अक्षय कुमार इस उपापोह में रहे कि वह जासूस बनें या खुल्ल्मखुल्ला देशभक्त्, कई बार जासूस बनते बनते रह गए हैं।
रोमियो अकबर वॉल्टर के साथ समस्या ये है कि फिल्म को अपना शुरू और अंत तो मालूम है लेकिन बीच के दो घंटे में घटनाएं किस तरह से पिरोकर उन्हें स्टेबलिस की जाएं ये हुनर निर्देशक के पास नहीं था। याद करेंगे तो आपको बॉलीवुड की कई ऐसी फिल्में याद आएंगी जिनकी कहानी तो अच्छी है लेकिन पटकथा कमजोर होने की वजह से फिल्म खराब बनकर निकली। इस फिल्म का जासूस भारत की एक बैंक से उठकर पाकिस्तान पहुंच तो जाता है लेकिन उससे कराया क्या जाए ये स्क्रिप्ट, घटनाओं और उनकी डिटेलिंग से स्टेबलिस नहीं कर पाती। किस तरह की सूचनाएं लीक करानी हैं, उनका उपयोग देश में किस तरह से हो सकता है, सूचना लीक कराने के प्रॉसेस में रिस्क कैसा है, हीरो अपने प्रजेंस ऑफ माइंड से रिस्क को कैसे कवर करता है, उसकी आइडेंटी कैसे लीक होती है ये सब जरूरी चीजें फिल्म के डायरेक्टर रॉबी ग्रेवाल मिस करते हैं। यही छोटी छोटी बारीकियां मेघना गुलजार राजी पर करीने से पकड़ती हैं। रॉबी ग्रेवाल ने इसके पहले समय और आलू चाट जैसी फिल्में बनाई हैं। मैंने आलू चाट फिल्म देखी है लेकिन गूगल पर आलू चाट टाइप करने पर वह चाट और दही भल्ले की तस्वीरें खोल देता है। यानी फिल्म में याद रखने जैसा कुछ नहीं है। किसी हॉलीवुड फिल्म से चुराई गई सुष्मिता सेन की समय वैसी भी एक बकवास और भुला दी गई फिल्म है। इसके अलावा ग्रेवाल का और कोई काम मुझे याद नहीं आता। उनका वीकिपीडिया पेज भी अब तक नहीं है। फिल्में अपनी जगह हैं पर उन्हें कम से कम पेज तो बनाना चाहिए।
गूगल करने पर पता चलता है कि फिल्म 70 के दशक के एक रॉ एजेंट रवींद्र कौशिक की कहानी पर आधारित है। यह सुनना थोड़ा गर्व भी पैदा कर सकता है और इस पर हंसी भी आ सकती है कि पाकिस्तान का आर्मी चीफ भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ का एजेंट था। आर्मी चीफ होकर वह सालों तक भारत को खुफिया सूचनाएं पास करता रहा और पाकिस्तान को इसकी भनक भी न लगी। यह इंदिरा गांधी के समय की बात थी। ऐसा एजेंट अगर हमारे पास अभी होता तो नरेंद्र मोदी इसी आधार पर कम से कम पांच लोकसभा और 25 विधानसभा चुनाव जीत लेते। अच्छी बात ये रही कि रवींद्र कौशिक सही समय पर यहां से चले गए और अभिनंदन को मोदी जी के पास छोड़ गए।
फिल्म का कैनवास बांग्लादेश के निर्माण के समय का है। फिल्म रियल लगे इसलिए इंदिरा गांधी की ओरजिनल तस्वीरें फिल्म में प्रयोग की गईं। कई जगह पर उनका जिक्र आया है। कई फिल्मों के बाद ऐसी कोई फिल्म दिखी जिसमें गाधी परिवार को दिखाया गया हो और उन पर कोई ऐलीगेशन ना हो। रॉ फिल्म इंदिरा को लेकर तटस्थ दिखती है। मुक्तवाहिनी सेना से जुड़े तथ्य भी सच के आसपास रखे गए। प्रयास ये किया गया कि इस फिल्म को काल्पनिक के बजाय एक सत्य मानकर देखा जाए। लेकिन जिस फिल्म में रॉ चीफ जैकी श्राफ बने हों उसमें इस तरह की फिलिंग आ ही नहीं सकती। श्रॉफ ने अपनी कुव्वत भर अच्छा काम किया है लेकिन उनकी पिछली फिल्मों के निभाए गए किरदार उनको लेकर सीरियस होने ही नहीं देते। जैकी का रोल काफी बड़ा और मजबूत है। वहां कोऔर कोई और होता तो बेहतर होता।
सबसे ज्यादा खटक जॉन अब्राहम को सही तरीके से यूज ना करने को लेकर होती है। सुजीत सरकार की मद्रास कैफे देखने के बाद लाखों दर्शकों ने जॉन को लेकर अपना परसेफ्शन बदला था। पहले एक लवर, फिर कॉमेडी-एक्शन वाली इमेज में बंध चुके जॉन को सुजीत सरकार ने एक झटके से निकालकर बहुत बड़े अभिनेता बना दिया था। जॉन बाद में परमाणु, सत्यमेव जयते जैसी फिल्मों में बार-बार वहीं पहुंचने की कोशिश करते हैं। इस फिल्म में उनके पास शेड तो बहुत हैं लेकिन निर्देशक उनसे एक याद रखने वाला किरदार नहीं निकलवा पाए हैं। फिल्म में मौनी रॉय के साथ डाला गया एक रोमांटिक किस्म का ट्रैक जॉन को और कमजोर करता है। टीवी देखने वाले दर्शक उन्हें नागिन के नाम से जानते हैं। वे फिल्म में जब भी आई हैं जॉन अपने उदेश्य से भटक गए हैं। चूंकि पिछले शुक्रवार भी खराब फिल्में थीं आने वाले शुक्रवार में भी कुछ खास नहीं है इसलिए फिल्म पैसा कमा सकती है और ये बहुत बुरी भी नहीं है। देश रेस 3, ठग ऑफ हिंदुस्तान और नोटबंदी का दौर देख चुका है...
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