'कलंक' दरअसल पूरी ठसक के साथ यह बताने का प्रयास करती है कि यदि पैसा पानी की तरह बहाया जाए तो चुनाव भी जीते जा सकते हैं और इंडस्ट्री के टॉप चेहरों को लेकर एक बेहद उबाऊ फिल्म भी बनाई जा सकती है और डंके की चोट पर उसका अथाह प्रमोशन भी किया जा सकता है। ऐसी फिल्म जिसके एक-एक सीन पर लाखों खर्च किए गए हों। टू स्टेटस जैसी सफल फिल्म बना चुके और कई सारी सफल फिल्मों के असिस्टेंट रहे अभिषेक वर्मन की इस फिल्म में आपको हिंदी सिनेमा की बीती हुई कई झलकियां या किरदार दिख सकते हैं। फिल्म के सेट और कलर डिजाइन में भंसाली का अक्स साफ दिखता है। कई जगह यह फिल्म सांवरियां और राम-लीला जैसी लगती है, रंगों के चटक और धूसर होने के मामले में। फिल्म की अच्छी बात ये है कि सभी किरदारों ने अभिनय अच्छा किया है, बुरी बात ये है कि वह सभी एक खराब फिल्म के लिए अभिनय कर रहे थे। बंटवारे जैसी सेंसटिव बैकग्राउंड पर बनी यह फिल्म उस हिस्से को बेहद सतही तरीके से छूती है जिस पर इसका क्लाइमेक्ट टिका होता है। फिल्म इतनी लंबी और उबाऊ है कि कुछ अच्छे दृश्य, सिनेमेटोग्राफी और गाने भी उसे बचा नहीं पाते हैं।
फिल्म की स्टोरीलाइन बचकाना है। इसकी कहानी टीवी सीरियलों जैसी है और इसके संवाद किसी थके हुए पत्रकार के चोरी किए हुए आर्टिकल की लंबी-लंबी लाइनों जैसे हैं, जिस पर वह खुद आत्ममुग्ध है। यह एक ऐसी फिल्म है जिसका मजाक उड़ाया जाना चाहिए। फिल्म के हर बचकानेपन और उनकी हरकतों का मजाक। फिल्म में सोनाक्षी सिन्हा कैंसर से मर रही होती हैं। मरने के दो साल पहले वो बला की खूबसूरत दिखती हैं। मैचिंग की साड़ियां, मेकअप, खूब सारी चूड़ियां पहनकर वो लाहौर से राजस्थान किसी के घर जाती हैं। उस घर में आलिया भट्ट पतंगे लूट रही होती हैं। शोले में शादी से पहले वाली जया भादुड़ी जैसी चुलबुली लड़की वाले अंदाज में। पता नहीं उनके बीच में क्या रिश्ता है लेकिन सोनाक्षी चाहती हैं कि वह उनके घर जाएं और मरने तक उनके साथ रहें और मरने के बाद उनके पति से उनकी शादी हो जाए। सोनाक्षी सिन्हा की इस तरह की ख्वाहिशें पहले भी पालती रही हैं। लुटेरा में उन्होंने कुछ ख्वाहिशें रणवीर सिंह से पाली थीं, सेकेंड हॉफ में उनकी ख्वाहिशें रणवीर से शिफ्ट होकर उनके दरवाजे पतझड़ में झड़ रहे एक पेड़ से हो जाती हैं। फिर बाद में रणवीर उनके लिए एक पत्ती बनाते हैं। हिंदी सिनेमा ऐसी उल जलूल ख्वाहिशें लड़कियों के मन में पालता रहा है और प्रेमी उसे पूरा कर-करके फना होते रहे हैं।
तो फिर आलिया शादी करके उनके घर आ जाती हैं और उनके पति रात में पर्दे की आड़ में ही कह जाते हैं कि सोनाक्षी सिन्हा ही उनकी पत्नी हैं। इस रिश्ते में इज्जत तो होगी लेकिन प्यार नहीं। क्योंकि प्यार वो अपनी पत्नी से करते हैं। वो ये बात नहीं बताते हैं कि सेक्स होगा या नहीं? पहले का समाज इस मामले में शालीन था। वह प्यार को ही सेक्स मानता था। महेश भट्ट इस फिल्म को बनाते तो वह कहलवा देते कि प्यार तो नहीं होगा लेकिन सेक्स तो होगा। तो उस रात के बाद आलिया कुछ दिन घर में वैसे ही घुट-घुटकर जीती हैं जैसे जोधा अकबर में ऐश्वर्य जी रही होती हैं। वह समय काटने के लिए कबूतरों को सहलाती थीं और आलिया समय काटने के लिए छज्जे में बैठकर दूर बज रहे गाने को सुनती हैं और शाम को सुसाइड करने की प्रैक्टिस करती हैं। बाद में वह पत्रकार बन जाती हैं।
अदभुत खूबसूरत लाहौर के उस मुहल्ले में एक जीबी रोड जैसा रेड लाइट इलाका है। लेकिन है बहुत बढ़िया। वहां कोई भला आदमी भी जाए तो उसे गिल्ट ना हो। उस सुंदर मोहल्ले में शहर के लोहार रहते हैं। उसी मोहल्ले में माधुरी दीक्षित लड़कियों को गाना सिखाती हैं और वहीं पर वरुण धवन अपने कसरती बदन से तलवारें बनाया करते हैं। उनकी आंखों में सुरमा लगा रहता है और वह ज्यादातर ऊपरी भाग में नंगे रहते हैं। एक्सट्रा कैरिकुलम ऐक्टिविटी के तहत वह समय काटने के लिए वह बैलों से लड़ते हैं। आलिया भट्ट उन्हें लड़ता हुआ देखती हैं और प्रभावित होती हैं। एक मुस्लिम लीग का नेता है, जो वहां के अखबार के संपादक से बहुत नाराज रहता है। वह समय काटने के लिए लोहार का दोस्त रहता है और उसे तरह-तरह की समझाइश दिया करता है। अखबार के संपादक का परिचय अभी आगे आएगा।
आलिया, माधुरी से गाना सीखने जाती हैं और उन्हें उस लोहार से प्यार हो जाता है। लोहार वरुण धवन उन्हें पिक ड्रॉप की सेवाएं देते हैं। नाव से। नाव कोई और चलाता है वह सिर्फ मॉरल सपोर्ट देते हैं। बाद में लोहार महेश भट्ट स्टाइल में नाजायज संतान निकलता है। इस नाजायज संतान की मां माधुरी होती हैं और पिता आलिया भट्ट के ससुर संजय दत्त। पूरा मोहल्ला जानता है वरुण के अवैध पिता संजय दत्त हैं। बस संजय दत्त के बेटे और दो बीवियों सोनाक्षी सिन्हा और आलिया भट्ट के पति आदित्य राय कपूर को यह बात मालूम नहीं होती है। जो बातें पूरा मोहल्ला जानता है वह बाद उनका बेटा क्लाइमेक्स में जानता है। संजय दत्त का बेटा पेशे से एक अखबार का संपादक कम मालिक है। शायद वर्ककोहल्कि होने की वजह से उन्हें यह बात पता ना चल पाई हो। एक छोटा सा अखबार जो विज्ञापन के संकट से जूझ रहा है लेकिन परिवार इतनी बड़ी और आधुनिक कोठी में रहता है कि लगता है गोदी मीडिया आज से नहीं आजादी से पहले से ही देश में था। आलिया भट्ट लोहारों के उस मोहल्ले में रिपोर्टिंग करती हैं। गाने सीखती हैं, कुल मिलाकर पूरा दिन वहीं रहती हैं। वह मोहल्ले में जो रपट लिखती हैं उन्हें डेस्क गिरा देती है। संपादक डेस्क से प्रमोट होकर संपादक बना होता है उसे फील्ड का ज्ञान कम होता है। वह रिपोर्टर की कद्र नहीं करता। उनके पिता उसे कई बार फील्ड में जाकर काम करने के लिए कहते हैं, लेकिन वह गुर्राकर उन्हें चुप करा देता है। संजय दत्त को इतना निरीह दर्शकों ने पहले कभी नहीं देखा होगा। फिल्म के एक सीन में लोहार वरुण धवन उनका गला तक पकड़ लेते हैं। संजय दत्त उस समय कुर्ता पैजाम पहने होते हैं और उनकी जेब में कोई तंमचा-पिस्तौल भी नहीं होती है।
ये सब करते-करते फिल्म क्लाइमेक्स में पहुंच जाती है। फिल्म के क्लाइमेक्स में ट्रेन में लाहौर छोड़कर जाते हुए लोगों का सीन है। लोग शायद अमृतसर जा रहे हैं। इस सीन को बेहद बचकाने तरीके से फिल्माया गया है। दस हजार से ज्यादा भीड़ को 15 से 20 लोग भगा रहे हैं। आश्चर्य है कि वो हजारों लोग एक दर्जन लोगों की वजह से भाग भी रहे हैं। संपादक भी भाग रहे होते हैं। लोहार वरूण और आलिया भी भाग रही होती हैं। संजय दत्त पहले ही जा चुके होते हैं। माधुरी वहीं रहने का फैसला लेती हैं। सोनाक्षी सिन्हा पहले ही शांति से मर चुकी होती हैं। मुस्लिम लीग का नेता सबको मार रहा होता है। उस दौरान कांग्रेस का जिक्र नहीं आता है। शायद अभिषेक वर्मन को पता होता तो दो सीन यहां नेहरु के भी रख देते। लेकिन दिक्कत ये थी कि नेहरु का सीन आता तो एक दो सीन नरेंद्र मोदी के डालने पड़ते। बिना मोदी के नेहरु अधूरे हैं।
मजाक उड़ाने से इतर अगर इस फिल्म पर बात करें तो इस फिल्म की स्टोरीलाइन इतनी बुरी नहीं है। यदि किरदारों को सही तरीके से सहेजा जाता। किरदार असली लगते, उनके हिस्से आए संवाद बनावटी न लगते। फिल्म में माधुरी और संजय दत्त की जगह कोई और होता। बंटवारे को कायदे से फिल्मा लिया गया होता तो यह फिल्म डूबने बच जाती। बहुत अरसे बात मैंने कोई फिल्म देखी जिसमें मेरी दो बार आंख लगी। लेकिन तभी गाने आ गए और आंख खुल गई। फिल्म में संवाद की तरह गाने में जरुरत से ज्यादा हैं। आलिया और वरुण ने हमेशा की तरह अच्छी ऐक्टिंग की है। माधुरी दीक्षित को अब अपने बड़े होते बच्चों पर ध्यान देना चाहिए। चुनाव लड़ना भी एक सही विकल्प है। संजय दत्त को अपने ऊपर एक और फिल्म बनवानी चाहिए...
कमाल का रिव्यू... सही तरीका यही है किसी की आलोचना या समीक्षा का !! व्यंग्य बाण हमेशा से सुंदर तरीका रहे हैं अपनी राय रखने के लिए ! बहुत बहुत बधाई आपको इस समीक्षा के लिये।
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