ये बहुत खूबसूरत सा और चतुराई से छिपा लिया जाने वाला तथ्य है कि हममें से 80 फीसदी से भी ज्यादा लोगों का बचपन और टीन-ऐज छोटे गांव, कस्बों या कस्बेनुमा शहरों में बीता है। ये कूल, ब्रो वाले लहजे से कुछ साल पहले की ही बातें है। हम अभी-अभी उस समाज से इधर शिफ्ट हुए हैं। समाज का ऐसा कुछ भी कच्चा-पक्का नहीं है जिससे हम वाकिफ ना हों। हमारे पास आर्टिकल 15 फिल्म के नायक अयान की तरह ये सहूलियत नहीं है कि हम कायस्थ और पासी का अंतर ना समझ सकें। हमें ये सबकुछ मालूम है और प्रकारांतर से हम इसके हिस्से भी रहे हैं।
ये अच्छा है कि आर्टिकल 15 का नायक ऐसे घर से है जहां पढ़ने के लिए बच्चे गाजियाबाद या ग्रेटर नोएडा के इंजीनियरिंग कॉलेजों में नहीं बल्कि विदेशों में भेजे जाते हैं। यदि अयान रंजन यूपी के किसी गांव से गाजियाबाद या दिल्ली में पढ़ने आया होता तो इस बात की संभावना ज्यादा थी वह लौटकर लालगंज थाने के प्रभारी ब्रहमदत्त सिंह का एक पढ़ा लिखा अपग्रेड वर्जन भर बनके रह जाता। वहां के परसेफशन भी उसे स्वाभाविक लगते और ऊंची जाति के रेपिस्ट ठेकेदार के घर का बना मटन स्वादिष्ट भी। तब अयान को भी पता होता कि 'ये लोग' तो वैसे ही हैं।
ये अयान की गलती नहीं होती। हमारी परवरिश ही ऐसी है कि कई सारी गलतियां (अपनी और समाज की ) एक समय के बाद हमें अपनी लाइफ स्टाईल का पार्ट लगने लगती हैं और हम उसके आदी हो जाते हैं। जातियों को लेकर समाज के इस गहरे पूर्वाग्रह कि गिरह कुछ खुली जरूर हैं लेकिन इतनी नहीं जितनी की ये फिल्म खुला हुआ दिखाकर हमें राहत देती है।
मुझे उस दिन का इंतजार है जब अयान रंजन दिल्ली का नहीं उसी गांव का एक लड़का होगा। जहां उसे ब्रहमदत्त सिंह के साथ-साथ अपने पिता से भी इस व्यवस्था को बदलने के लिए संघर्ष करना होता। अभी तो ये एक मीठी से खुशी देने वाली फिल्म भर लगी। फिल्म के इंटरवल या खत्म होने पर मेरे जैसे तमाम लोग ट्वायलेट गए होंगे और देखा होगा एक खास ड्रेस में टोपी लगाकर और हाथ में वाइपर जैसा कुछ लिए उस आदमी को जो इस बात के इंतजार में है कि आप हटें तो वह वहां सफाई कर सकें। ट्वायलेट हैं तो सफाई होगी ही लेकिन मैं एक इंसान के नाते वह मुल्क देखना चाहता हूं कि जब आपकी पेशाब को धुलने वाले ये हाथ एक ही जाति के ना हों। तब शायद आर्टिकल 15 का बनना एक फिल्म से बड़ा माना जाएगा।
ये कोई हजार-दो हजार साल पहले की बात नहीं है। ये 25 से 30 साल पहले की बातें है। गांवों में ऊंचे कुल और बिसवा में बड़े (जिस तरह तेल या दूध नापने के लिए लीटर होता है, ब्राहम्णों में भी ऊंच नीच नापने के लिए बिसवा नाम का पैमाना उपयोग किया जाता है,अभी भी इस समाज में ऐसे लोग हैं जो बिसवा नाम के पैमाने से आए परिणामों से इतराते हैं) ब्राहाम्ण, अपेक्षाकृत नीचे वाले ब्राहाम्णों के यहां कच्चा भोजन नहीं करते थे। वो उनके यहां की बनी पूड़ी और हलवा खा लेते थे लेकिन उनके चूल्हे में पके दाल चावल या कढ़ी से उनकी वैसी ही दूरी थी जैसी दूरी फिल्म में चमार जाति वाला पासी किरदारों के प्रति रखता है। या पासी, खटिक, मेहतर या भंगी से जातियों के साथ रखता हो।
दलित जातियों की आपस में सामाजिक ऊंचाई-निचाई के इक्वेशन क्या रहे हैं ये मुझे नहीं मालूम है, लेकिन यूपी में बसपा के उदय होने के बाद मैंने ये जरूर पाया है कि बाकी दलित जातियों की तुलना में चमार जातियों में खुद को लेकर एक श्रेष्ठता है। वह बाकी दलित जातियों की तुलना में अपने को ज्यादा साफ और सोफिस्टीकेडेट तो मानते ही हैं साथ में वह इस बात के लिए भी इतराते हैं कि सवर्णों के घर होने वाली शादियों में अब उन्हें आमंत्रित किया जाने लगा है।
आर्टिकल 15 की सबसे बड़ी खूबसूरती ये है कि ये सिर्फ दलित और सवर्ण के बीच की खांई को नहीं दिखाती, बल्कि फिल्म ये भी दिखाती है कि समाज में दलित और दलित में ही ऊपर और नीचे होने का कैसा एक सिस्टमैटिक बंटवारा है। और ये बंटवारा स्वीकार्य कर लिया गया है। यदि आप इस बंटवारे को स्वीकार नहीं करते हैं तो आपके ऊपर आउटसाइडर का एक ठप्पा लगाकर छोड़ दिया जाता है। आपको ठीक करने का लोड नहीं लिया जाता है और ये माना जाता है कि जरुरत से ज्यादा शिक्षा ने आपकी सभ्यता को भ्रष्ट कर दिया है।
ये गनीमत रही कि अयान दिल्ली के इलीट क्लास से था जहां जातियां शायद अपनी उस तरह की पहचान नहीं रखती हैं। यदि अयान उसी जिले के किसी ब्राहाम्ण या ठाकुर परिवार का लड़का होता तो क्या उसके पिता उसे उस सुअरताल में नंगे पैर, साफ स्वेटर-कोट में घुसने देते? क्या उसका परिवार उसे जातियों के इस कथित घिनौने प्रपंच में अपना कैरियर तबाह करने की छूट देता? क्या उसकी संभावित बीवी उसे ऐसा करने के लिए कहती? खुद से सोचिएगा, मेरे पास इस बात का उत्तर नहीं है। इसे शायद जर्नलाइज नहीं कर सकते।
शहरीकरण ने कुछ बदला है क्या?
हो सकता है कि शहरीकरण कई सारी बुराईयां लेकर आया हो लेकिन जाति व्यवस्था को खत्म करने में शहरीकरण का बहुत बड़ा योगदान रहा है। गांव और कस्बे में रहा व्यक्ति मानता है कि शहर, लोगों की सभ्यता को नष्ट और भ्रष्ट करने के लिए ही बने हैं। वहां दिन के उजालों में बैठकर लोग शराब पीते हैं। कोई किसी के साथ उठ-बैठ, खा-पी लेता है। शहर की यह कथित उदारता, सदियों से बने उनके सिस्टम को नष्ट कर रही है, उसे खोखला कर रही है।
पिछले दिनों अखबार की एक कटिंग सोशल मीडिया में वायरल थी जिसमें एक युवती के द्वारा शराब की दुकान पर जाकर शराब खरीदने को चार कॉलम की एक खबर बनाया गया था। मामला छत्तीसगढ़ का था। वहां लोगों के लिए ये शायद खबर थी। लेकिन दिल्ली या मुंबई में लड़कियों का दुकान में खुद से शराब लेना क्या खबर है? समाज की बुराईयां और उसके दकियानूसपन भी शायद परिवेश बदलते ही बदल जाते हैं। एक पुरुषवादी अधेड़ किसी काम से जब दिल्ली आता है तो मेट्रो में उतर-चढ़ रही लड़कियों की पोशाकें, उनकी बालों के कलर, लड़कों के साथ उनकी घुलमिलकर बातचीत उन्हें कुछ मिनटों तक रोमांचित करती है लेकिन कुछ देर के बाद ही ये दृश्य उन्हें अपनी संस्कृति पर खतरा लगने लगते हैं, लेकिन वहां साल भर रह लेने वाले उसी ऐजग्रुप के आदमी को यह नार्मल लगने लगता है।
शहर का जिक्र इसलिए भी क्योंकि पुरुषवाद और जातिवाद जैसे दो सबसे खतरनाक कीड़े शहर से दम तोड़ रहे हैं। जैसे गांवों में सीजन की पहली बारिश होने के बाद एक खास तरह के कीड़े शाम को निकलते हैं, शहर में भी ये निकलते होंगे लेकिन मालूम नहीं पड़ते। ऐसे ही कई सारी बुराईयां वहां के माहौल में डाइल्यूट हो जाती हैं। यूपी या बिहार के किसी एक गांव के दो लड़के जिसमें एक ठाकुर हो और दूसरा दलित वो दिल्ली में साथ फिल्म देख सकते हैं,एक-दूसरे के घर आ जाते हैं। खाना ना सही पर वो शराब सिगरेट शेयर कर लेते हैं। पर अपने गांव पहुंचने पर यही दोनों किरदार ऐसा नहीं कर सकते। उनका ऐसा करने का मन ही नहीं करता। वही इंसान जाति की व्यवस्था को दो अलग-अलग परिवेश में दो अलग-अलग ढंग से जीता है।
क्या नफरत एक जैसी?
समाज में नीची जातियों को लेकर ऊंची जातियों का रीएक्शन अलग-अलग तरह का होता है। कुछ लोग उनसे नफरत करते हैं, नौकरियों में उनके रिजर्वेशन लेने से नाराज रहते हैं, उन्हें जाति के नाम पर कट्टर मानते हैं और इस बात से भी नाराज रहते हैं कि वो गोलबंद होकर हाथी को वोट देते हैं। जबकि देश के विकास के लिए उन्हें कमल को वोट देना चाहिए।
एक दूसरे तरह का रिएक्शन भी है। ये वाले बस उन्हें अपने जैसा नहीं मानते। वो सिर्फ उन्हें दूसरे मानते हैं। उनका छुआ खाने से परहेज करते हैं, उनके घरों की शादियों में जाते हैं लेकिन ज्यादा से ज्यादा डिस्पोजल गिलास में पानी लेते हैं, उनके प्रति कुंठा नहीं रखते। उनके अपमानित करतें, लेकिन गहराई से मानते हैं कि वह हम जैसे नहीं हैं। आर्टिकल 15 की खूबसूरती ये है कि वह दलित को लेकर हर तरह के विरोध या तटस्थ होने को दलित विरोध साबित करने में सफल होती है और आपको अपनी राय बदलने के लिए प्रेरित करती है।
फिल्म के एक डायलॉग "आग लगी हो तो न्यूटल होने का मतलब यह होता है कि हम उनके साथ खड़े हैं जिन्होंने आग लगाई है। यहां इस बारे में एक नजरिया दिखाने की कोशिश करता है। दलित और स्त्री विरोध दोनों ही मामलों में पिछला कुछ सालों का हासिल ये हुआ है कि बहुत सारे लोग विरोधी से न्यूटल हो गए हैं। इस न्यूटल होने को वो प्रोग्रेसिव मानते हैं।
हर किरदार की एक अलग फिल्म
फिल्म का एक-एक किरदार एक कहानी लिए हुए हैं। अगर आप इस फिल्म को ब्रहमदत्त सिंह की निगाह से देखेंगे तो आपको ये दूसरी फिल्म लगेगी, निषाद की निगाह से देखेंगे तो दूसरी और ब्रहमदत्त के कुलीग पुलिस इंस्पेक्टर जाटव की निगाह से देखेंगे तो तीसरी। हर कोई अपनी तरह से चीजों को देखना चाहता है। रेपिस्ट का किरदार ये बात गहराई से मानता है कि हर आदमी की एक औकात होती है। वह खुद की भी एक औकात मानता है और जिनके साथ रेप करता है उनकी भी। उसके नजरिए से ये अलग फिल्म है। उसको इस समाज से कोई सफोकेशन नहीं महसूस होता। हां, वो अयान के व्यवहार भी जरुर एक अजीबपन महसूस करके बार-बार चौंकता है।
शानदार लिखावट-बुनावट
गौरव सोलंकी को पढ़ने वाले जान जाएंगे कि फिल्म का ज्यादातर हिस्सा उन्हीं का है। निषाद जैसे किरदार के एकालाप उन्हीं के हैं। फक वाला ह्यूमर भी उन्हीं का है। उन्होंने एक खूबसूरत फिल्म लिखी है। जिसमें कहीं कहीं कुशलता से एक डार्क हयूमर पिरोया गया है। एक निर्देशक के रुप में अनुभव सिन्हां जैसा रुपांतरण मैंने इसके पहले कभी नहीं देखा। मुल्क के पहले भी उन्होंने फिल्में बनाई हैं। उन्हें देखकर लगता है कि ये फिल्में किसी और ने बनाई हैं। आर्टिकल 15 में वे मुल्क से भी आगे निकल जाते हैं।
एक किरदार को गढ़ने की प्रक्रिया में वह अनुराग कश्यप की बराबरी पर खड़े दिखते हैं। इस फिल्म से पहले आप चाहकर भी ये कल्पना नहीं कर सकते थे कि मनोज पहवा एक ऐसे किरदार को निभा सकते हैं या कुमुद मिश्रा भी। फिल्म दलित के घर ब्राहाम्णों के भोजन के टॉपिक को हल्के से छूती है, इसी तरह निषाद के किरादर को भी। इन्हें थोड़ा और कुरेदना चाहिए था। आर्टिकल 15 एक ऐसी फिल्म है जिसे 15 अगस्त और 26 जनवरी को चौराहों चौराहों पर लगाकर दिखानी चाहिए, लेकिन ऐसा होगा नहीं क्योंकि ये एक फिल्म है किसी सरकार के विज्ञापन वाली एलईडी गाड़ियां नहीं।
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