मेरी जिंदगी में 'कली हूं फूल बना दो' का पोस्टर एक नई सुबह लेकर आया था। इस पोस्टर को मैंने अपने साथ करीब सौ लोगों के साथ खड़े होकर दीवार पर लगते हुए देखा था। इसके पहले होता ये था कि रात में पोस्टर चिपक जाते और हम अगली सुबह बदली हुई फिल्म का पोस्टर देखते। पोस्टर चिपकते कैसे हैं ये हमने कभी नहीं देखा था। ये एक बड़े साइज का पोस्टर था जिसे लगाने के लिए एक रिक्शा से दो आदमी, एक सीढ़ी, पोस्टर का एक बंडल, आटे की लेई की एक बाल्टी और पुताई करने वाली एक कूंची को लेकरआए थे। चार हिस्सों में बटे हुए पोस्टर को करीब पांच मिनट में सिरे से सिरे जोड़कर लगाया गया। जब ये रिक्शा आगे चला गया तो हमारे सामने 'कली हूं फूल बना दो' का जीवन बदल देने वाला विहंगम दृश्य था। ये बारहवीं क्लास में सर्दियों के दिनों की बात थी। एक ऐसा कस्बा जहां फिल्में हर शुक्रवार के हिसाब से नहीं कभी भी बदल जाया करती थीं।
दसवीं में मैंने बॉटिनी के ज्यादातर हिस्से बेमन से पढ़े थे। 'कली के फूल' बनने का प्रोसस वहां मुझे ठीक से क्लीयर नहीं हो पाया था, लेकिन ऐसा भी नहीं था कि मुझे उसके फंडामेंटल ही न पता थे। इस पोस्टर में कोई फूल नहीं था और कोई कली भी नहीं। साइंस से जुड़ी संस्थाएं इस पोस्टर को खारिज कर सकती थीं। यहां कली और फूल के बजाय एक अधेड़ आदमी एक औरत में समाने की कोशिश कर रहा था। महिला के चेहरे से लग रहा था कि इसमें उसकी स्वीकृति है और वह ऊपर की ओर देख रही थी। दोनों खुश थे। पुरूष की शकल तो नहीं दिख रही थी लेकिन उसकी पीठ देखकर अंदाजा लगाना आसान था कि वह महिला से ज्यादा खुश था।
पोस्टर में कई छोटे-छोटे चित्र और थे। एक में एक मोटी सी लड़की नहाने का उपक्रम कर रही थी, एक ओर एक मोटा सा आदमी कोने में बंदूक लिए खड़ा था, एक आदमी एक खूब वजन वाली एक महिला का एक पैर अपने हाथों से थामें हुए था, दूसरे पैर के पंजे नहीं दिख रहे थे, लेकिन उसका दूसरा पैर भी था। एक महिला ब्लाउज में थी और किसी से डरने की ऐक्टिंग कर रही थी, डराने वाले को पोस्टर में जगह नहीं मिल पाई थी। पोस्टर देखने की एक सीमा थी। ये एक चौराहा जैसा था जहां से हमे एक वक्त के बाद हटना ही था। हम हट तो गए लेकिन उस पूरा दिन मैं बॉयोलोजी को ठीक से न पढ़ने और 11वीं में गणित लेने के रिग्रेट में रहा।
शोले, दीवार, अनोखा बंधन, प्यार झुकता नहीं, बॉर्डर, कुली नंबर 1, फूल और कांटे, मैंने प्यार किया से इतर भी कोई सिनेमा बन रहा है ये मेरी जानकारी में पहली बार इसी फिल्म के जरिए आया था। ये 21वीं शताब्दी का पहला साल था। देश में अटल बिहारी बाजपेई की सरकार थी, कश्मीर के लोग धारा 370 के साथ घुट रहे थे। इंटरनेट नाम की कोई चीज जिंदगी और सरकार तक तय करेगी ये तब मालूम नहीं था। साथियों के मुंह से अब तक गंदी फिल्में, ब्लू फिल्में जैसी शब्द सुने जरुर थे लेकिन असल में वह किस तरह से हो सकते हैं दिमाग इसको विजुलाइज नहीं कर पाया था। किसी से पूछा नहीं जा सकता था कि ये कैसी फिल्म है। इसमें दरअसल होता क्या है। चुप रहकर उस पोस्टर के बारे में सोचते रहने के अलावा और कोई जरिया नहीं था।
कोई कामना यदि सच्चे मन से की जाए तो वह पूरी होती है। ये सूक्ति सुनी बाद में, इसके लाभ जीवन में पहले ही मिल गए थे। इस पोस्टर के लगे कोई दो से तीन सप्ताह हुए होंगे। घोर सर्दियों के दिन थे। स्कूल के कोई ट्रस्टी मर गए थे। कांडोलेंस हुआ था। जिस जगह कली हूं फूल बना दो पोस्टर था उस जगह उस दिन 'कच्ची जवानी' फिल्म का पोस्टर था। इसका साइज जरुर छोटा था। लेकिन उसका कंटेट कहीं ज्यादा असर करने वाला। मारक और तीखा। फिल्म का नाम भी खुद से कनेक्ट करने वाला। पहले पीरियड के बाद छुट्टी हो जानी थी। ये बात बारहवीं में कई सालों से फेल हो रहे बच्चों को (उनको बच्चे लिखना राहुल गांधी को युवा लिखना जैसा ही झूठ है) पहले से पता था। पहले पीरियड से ही उनका फिल्म का प्रोग्राम बन गया था। मैंने उस प्लान में शामिल होने की इच्छा जताई। वो मेरी जिंदगी का पहला रिस्क था। यहां इमेज बिगड़ने का नहीं खत्म हो जाने का संकट था। लेकिन उन पोस्टरों में कुछ ऐसा था जो जिसके सामने रिस्क एक मामूली शब्द था।
जब मैंने उनसे कच्ची जवानी देखने की इच्छा जताई तो उन्होंने अपनी बॉडी लैंग्वेज से बिल्कुल भी ये नहीं लगने दिया कि मैं कोई गलत काम करने जा रहा हूं। उन्होंने ऐसा जताया कि बार्डर सरीखी कोई फिल्म देखने जा रहा हूं, जो राष्ट्रहित में भी है। बजाय मुझे अपराध बोध में डालने के उन्होंने मुझसे मेरे हिस्से के 12 रुपए मांगे। मैं अब तक गिल्ट फ्री हो चुका था। मुझे संक्षेप में वहां पहुंचने का प्लान बताया गया। मेरी हर बात में सहमति थी। वो अगर कुछ और मुझसे लिखवा लेते तो कच्ची जवानी के लिए एक छोटी कीमत थी। हम साइकिलों से शार्टकर्ट रास्तों से इस नई तरह की जवानी को देखने के लिए सिनेमाघर पहुंचे। इस सिनेमाघर का अभी कुछ साल पहले से ही गोविंदा, सन्नी देओल जैसे कलाकारों से मोहभंग हुआ था। अब यहां रियल दुनिया की बातें रियल तरीके से होतीं। जैसे छोटे बच्चों को गुमराह किया जाता है कि कोई परी उन्हें लेकर आई थी जैसी नॉन प्रैक्टिकल बातों से इस सिनेमाघर की असहमति थी। वह सच्चाई के साथ था और जीवन की सच्चाई को सबके सामने रखना चाहता था।
अब वहां पहुंचे तो हमने पाया कि 11वीं के गौरव, शुभम और राकेश भी यहीं हैं और दसवीं के आर्ट साइड का आधा बैच ही। जैसे दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल मफलर बांधते हैं वैसे कई केजरीवाल चेहरे को मफलर से कसे हुए सिनेमाहॉल की लॉबी में टहल रहे थे। कोहरा छटने के बाद धूप खिली हुई थी। लोगों के स्वेटर उतर गए थे लेकिन मफलर नहीं। स्कूली लड़कों, कुछ युवाओं और अधेड़ के साथ एक बड़ी संख्या रिक्शा वाले यहां थे। रिक्शे वालों को छोड़कर कोई भी आत्मविश्वास से लॉबी में नहीं टहल रहा था। सभी एक-दूसरे को भरपूर सम्मान दे रहे थे और कोई किसी की आंखों में झांक नहीं रहा था। सब सिनेमाहॉल के शटर खुलने का इंतजार कर रहे थे। फिल्म शुरु होने में उनको जल्दबाजी नहीं थी उन्हें डर था कि कहीं कोई परिचित न मिल जाए। तब तक इतने तर्क नहीं विकसित हुए थे कि हम भी पलटकर पूछ लेते कि मैं तो देखने आया हूं लेकिन आप यहां क्या कर रहे हैं? हर उम्र की अपनी अल्पज्ञता और संकोच होते हैं।
गेट खुलते ही पेट में एक तरंग सी दौड़ गई। मुझे लगा कि रोमांच के नए सागर में गोता लगाने जा रहा हूं। नए लोग तुरंत ही सिनेमाहॉल के अंदर घुसकर सीट लेने में उत्साहित दिखे पर कुछ अनुभवी हॉल के अंदर लगे छोटे-छोटे पोस्टरों में कच्ची जवानी को लूट लेना चाहते थे। सीनियर की प्लानिंग के अनुसार हम फैमिली में ही बैठे और कोने की सीट ली। पहलवान छाप साबुन के विज्ञापन के बाद फिल्म शुरु हुई। पूरे पर्दे पर नहीं बल्कि पर्दे के बीचो-बीच के हिस्से में। कुछ क्लीयर नहीं था। फिल्म से ज्यादा उसमें जलेबियां गिर रही थीं। कुछ साउथ का बैकग्राउंड दिख रहा था। हम नए लोग जल्दबाजी में थे लेकिन अनुभवी लोग जानते हैं कि असली फिल्म कब शुरू होनी है...वो तब तक पिछले फिल्म के किस्से दबी आवाज में आपस में शेयर कर रहे थे। हम डर के काम कर रहे थे और यकीनन इस डर के आगे जीत भी नहीं थी।
(नाम ना छापने की शर्त पर एक अनाम पाठक का अनुभव, आप भी अपनी राय और अनुभव हम तक भेज सकते हैं )
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