TVF या AIB जैसी प्लेटफॉर्म्स से फूटने वाली हंसी ज्यादातर मौकों पर गैरसंस्कारी, गैरसामाजिक और 'बालिग' साबित की जाती रही है। इससे कभी फर्क ही नहीं पड़ा कि उसके सेंस ऑफ हॅयूमर की IMDb रेटिंग धवन, प्रियदर्शन, वोरा या शेट्टी पैटर्न से निकली बनावटी और रिपेटेटिव फिल्मों से ऊपर होती है।
पांच एपीसोड वाली वेब सीरिज 'कोटा फैक्ट्री' से टीवीएफ ने शायद अपनी इमेज को बड़ा और 'जिम्मेदार' बनाने की कोशिश की है। यह फिल्म इंजीनियर बनाने की मंडी कोटा की कहानी को बगैर फिल्मी या हीरोइक बनाए उसे शानदार तरीके से दिखाने में सफल होती है।
अपनी मूल किस्से में कोटा फैक्ट्री किसी गुदड़ी के लाल के हीरो बन जाने की या कोचिंग मंडी की पोल खोलने जैसी बचकाने कहानी कहने की कोशिश नहीं करती। ना ही कोचिंग मंडी के किसी संचालक को विलेन बनाने की चाह रखती है। वो सिर्फ मीडिल क्लास, अपर मीडिल क्लास से आए कुछ बच्चों के जरिए सपनों और यथार्थ का एक फिलासिफिकल सिनेमा गढ़ने की कोशिश करती है। जिस फिलॉसिफी में मनोरंजन भी भरपूर है। छात्रों की इस दुनिया में सुपर 30 जैसे अमीर-गरीब, दलित-सवर्ण वाले इक्वेशन नहीं हैं।
दसवीं या ग्यारहवीं पास करके दूसरे शहर से पहली बार इस शहर में आया एक अजनबी बच्चा कैसा अपना परिवेश खुद तैयार करता है। सिगरेट-शराब जैसी आदतों से खुद को बचाता या अपने को इनवॉल्व करता है। कैसे उस नए परिवेश में वह सहज होता है। कैसा वह सरवाइव करने वाले कुछ नुस्खे और चालाकियां सीखता है। कैसे साथ पढ़ रही लड़कियों के संग मोहब्बत की शुरुआत करता है। कैसे छोटे-छोटे फेल्योर और एचीवमेंट पर टूटता या संवारता है। बस इन्हीं बातों के इर्द गिर्द या पूरी सीरिज चला करती है। कहीं कोई बड़ी घटना या ड्रामा का अतिरेक नहीं। कोई विलेन नहीं तो कोई हीरो भी नहीं।
फिल्म में कोटा शहर, उसकी कोचिंग मंडियां, टीचर्स, हॉस्टल, मकान मालिक, चाय की दुकानें, इश्क सब बराबर भी हैं और संतुलित भी। कैमरा या स्क्रिप्ट किसी एक खास चीज को टटोलने की कोशिश नहीं करता। हॉस्टल के कमरे को बस उतने ही सरसरी निगाह से देखने की कोशिश की गई है जैसी निगाह से कोई सोहल-सत्रह बरस का बच्चा उसे देख सकता है। 'ऑब्जरवेशन के निर्मल वर्मा स्टाइल' से ना तो हॉस्टल के उस कमरे को देखा गया है और ना ही किरदार। फिल्म का पूरा फोकस किरदारों की बदल रही जिंदगियों के साथ आगे बढ़ रही कहानी पर होता है। कुछ कमाल या धमाल घटनाएं फिल्म में नहीं है लेकिन एक भी लम्हा ऐसा नहीं है जिसे आप फिल्म में गैरजरुरी मानें।
मेनस्ट्रीम सिनेमा की सबसे बड़ी विडंबना ये है कि ये कभी मीडियॉकर या एवरेज आदमी की कहानी ही नहीं कहता। या कहता भी है तो कहानी कहते-कहते उसे बड़ा बना देता है। ज्यादातर मौको में उसके लिए फिल्म का हीरो या तो बहुत गरीब होता है या फिर एक्सट्रा टैलेंटेड अमीर या कोई नई कैटेगरी। कोटा फैक्ट्री अपने बच्चों के साथ ऐसा नहीं करती। हाल ही में लगभग इसी विषय पर आई सुपर 30 से उलट यह फिल्म हर स्टूडेंड को सिर्फ एक खांचे में रखने की कोशिश करती है। जहां स्टूडेंट की जाति इतना निरर्थक सवाल है कि आपस में बच्चों को पता ही नहीं होता कि वह जिसे जिस नाम से बुला रहे होते हैं वह उनका इनीशियल है या सरनेम।
कोटा फैक्ट्री का एक और सबसे मजबूत पक्ष किरदारों की शानदार ऐक्टिंग है। लीड किरदार कर रहे मयूर मोरे ने एक इंजीनियरिंग छात्र की उलझनों को खूबसूरती से जिया है। नए-नए बने प्रेम को वह बहुत ही सहज तरीके से पर्दे पर उतारते हैं। टीचर का किरदार करने वाले जीतेंद्र कुमार से आप वाकिफ हैं। टीवीएफ के बहुत पुराने वीडिया में उन्होंने अरविंद केजरीवाल से प्रेरित अर्जुन केजरीवाल का किरदार निभाया था। टीवीएफ के बहुत सारे वीडियो में वह नजर आए हैं। फ़िल्म में उनके वन लाइनर भी अच्छे हैं और मोनोलॉग भी। एहसास छन्ना, रंजन राज और उर्वी सिंह के रोल देखकर लगता है कि ये कोटा के स्टूडेंट हैं, आप जाएंगे तो आपको वो वही टकरा जाएंगे।
इस फिल्म के कुछ खूबसूरत डायलॉग पढ़िए, आपका फिल्म देखने का मन बनाने के लिए ये काफी होंगे। वैसे ये फिल्म आपको देखनी चाहिए। पूरी फिल्म कलर्ड न होकर ब्लैक एंड व्हाइट है। क्यों है इसके लिए शायद गूगल करना पड़े।
"कोई पूछेगा तो बताएंगे कि बेटा आईआईटी की तैयारी कोटा से कर रहा है, कहने में कूल लगता है"
"बच्चे तो दो साल में कोटा से निकल जाते हैं, लेकिन कोटा सालों तक उनसे नहीं निकलता"
"दोस्ती कोई रिवीजन नहीं है जिसे किया ही जाए"
"मां-बाप के फैसले गलत हो सकते हैं, उनकी नियत कभी गलत नहीं होती"
"तुम अमीर लोग किसी भी दिन केक खा लेते हो क्या "
"महिला मित्र तो उनकी है पर स्नेह ज्यादा मुझसे करती है"
"इफ यू आर स्मार्टेस्ट इन द क्लास, इन मीन्स यू आर इन रॉन्ग क्लास "
पांच एपीसोड वाली वेब सीरिज 'कोटा फैक्ट्री' से टीवीएफ ने शायद अपनी इमेज को बड़ा और 'जिम्मेदार' बनाने की कोशिश की है। यह फिल्म इंजीनियर बनाने की मंडी कोटा की कहानी को बगैर फिल्मी या हीरोइक बनाए उसे शानदार तरीके से दिखाने में सफल होती है।
अपनी मूल किस्से में कोटा फैक्ट्री किसी गुदड़ी के लाल के हीरो बन जाने की या कोचिंग मंडी की पोल खोलने जैसी बचकाने कहानी कहने की कोशिश नहीं करती। ना ही कोचिंग मंडी के किसी संचालक को विलेन बनाने की चाह रखती है। वो सिर्फ मीडिल क्लास, अपर मीडिल क्लास से आए कुछ बच्चों के जरिए सपनों और यथार्थ का एक फिलासिफिकल सिनेमा गढ़ने की कोशिश करती है। जिस फिलॉसिफी में मनोरंजन भी भरपूर है। छात्रों की इस दुनिया में सुपर 30 जैसे अमीर-गरीब, दलित-सवर्ण वाले इक्वेशन नहीं हैं।
दसवीं या ग्यारहवीं पास करके दूसरे शहर से पहली बार इस शहर में आया एक अजनबी बच्चा कैसा अपना परिवेश खुद तैयार करता है। सिगरेट-शराब जैसी आदतों से खुद को बचाता या अपने को इनवॉल्व करता है। कैसे उस नए परिवेश में वह सहज होता है। कैसा वह सरवाइव करने वाले कुछ नुस्खे और चालाकियां सीखता है। कैसे साथ पढ़ रही लड़कियों के संग मोहब्बत की शुरुआत करता है। कैसे छोटे-छोटे फेल्योर और एचीवमेंट पर टूटता या संवारता है। बस इन्हीं बातों के इर्द गिर्द या पूरी सीरिज चला करती है। कहीं कोई बड़ी घटना या ड्रामा का अतिरेक नहीं। कोई विलेन नहीं तो कोई हीरो भी नहीं।
फिल्म में कोटा शहर, उसकी कोचिंग मंडियां, टीचर्स, हॉस्टल, मकान मालिक, चाय की दुकानें, इश्क सब बराबर भी हैं और संतुलित भी। कैमरा या स्क्रिप्ट किसी एक खास चीज को टटोलने की कोशिश नहीं करता। हॉस्टल के कमरे को बस उतने ही सरसरी निगाह से देखने की कोशिश की गई है जैसी निगाह से कोई सोहल-सत्रह बरस का बच्चा उसे देख सकता है। 'ऑब्जरवेशन के निर्मल वर्मा स्टाइल' से ना तो हॉस्टल के उस कमरे को देखा गया है और ना ही किरदार। फिल्म का पूरा फोकस किरदारों की बदल रही जिंदगियों के साथ आगे बढ़ रही कहानी पर होता है। कुछ कमाल या धमाल घटनाएं फिल्म में नहीं है लेकिन एक भी लम्हा ऐसा नहीं है जिसे आप फिल्म में गैरजरुरी मानें।
मेनस्ट्रीम सिनेमा की सबसे बड़ी विडंबना ये है कि ये कभी मीडियॉकर या एवरेज आदमी की कहानी ही नहीं कहता। या कहता भी है तो कहानी कहते-कहते उसे बड़ा बना देता है। ज्यादातर मौको में उसके लिए फिल्म का हीरो या तो बहुत गरीब होता है या फिर एक्सट्रा टैलेंटेड अमीर या कोई नई कैटेगरी। कोटा फैक्ट्री अपने बच्चों के साथ ऐसा नहीं करती। हाल ही में लगभग इसी विषय पर आई सुपर 30 से उलट यह फिल्म हर स्टूडेंड को सिर्फ एक खांचे में रखने की कोशिश करती है। जहां स्टूडेंट की जाति इतना निरर्थक सवाल है कि आपस में बच्चों को पता ही नहीं होता कि वह जिसे जिस नाम से बुला रहे होते हैं वह उनका इनीशियल है या सरनेम।
कोटा फैक्ट्री का एक और सबसे मजबूत पक्ष किरदारों की शानदार ऐक्टिंग है। लीड किरदार कर रहे मयूर मोरे ने एक इंजीनियरिंग छात्र की उलझनों को खूबसूरती से जिया है। नए-नए बने प्रेम को वह बहुत ही सहज तरीके से पर्दे पर उतारते हैं। टीचर का किरदार करने वाले जीतेंद्र कुमार से आप वाकिफ हैं। टीवीएफ के बहुत पुराने वीडिया में उन्होंने अरविंद केजरीवाल से प्रेरित अर्जुन केजरीवाल का किरदार निभाया था। टीवीएफ के बहुत सारे वीडियो में वह नजर आए हैं। फ़िल्म में उनके वन लाइनर भी अच्छे हैं और मोनोलॉग भी। एहसास छन्ना, रंजन राज और उर्वी सिंह के रोल देखकर लगता है कि ये कोटा के स्टूडेंट हैं, आप जाएंगे तो आपको वो वही टकरा जाएंगे।
इस फिल्म के कुछ खूबसूरत डायलॉग पढ़िए, आपका फिल्म देखने का मन बनाने के लिए ये काफी होंगे। वैसे ये फिल्म आपको देखनी चाहिए। पूरी फिल्म कलर्ड न होकर ब्लैक एंड व्हाइट है। क्यों है इसके लिए शायद गूगल करना पड़े।
"कोई पूछेगा तो बताएंगे कि बेटा आईआईटी की तैयारी कोटा से कर रहा है, कहने में कूल लगता है"
"बच्चे तो दो साल में कोटा से निकल जाते हैं, लेकिन कोटा सालों तक उनसे नहीं निकलता"
"दोस्ती कोई रिवीजन नहीं है जिसे किया ही जाए"
"मां-बाप के फैसले गलत हो सकते हैं, उनकी नियत कभी गलत नहीं होती"
"तुम अमीर लोग किसी भी दिन केक खा लेते हो क्या "
"महिला मित्र तो उनकी है पर स्नेह ज्यादा मुझसे करती है"
"इफ यू आर स्मार्टेस्ट इन द क्लास, इन मीन्स यू आर इन रॉन्ग क्लास "
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