Saturday, February 22, 2020

फिल्म बताती है क‌ि राम गोपाल वर्मा कोई भी बन सकता है, इम्तियाज अली भी

लव आजकलः 2 देखकर लगता है कि यह फिल्म इम्तियाज अली की है ही नहीं। यह उनके किसी फिल्मी फैन की है। उसने बीती कुछ रातों में इम्तियाज की सारी फिल्में देखीं। उनके नोट्स बनाए। किरदारों की फिलॉसिफी नोटिस की, जिंदगी जीने का उनका पैटर्न नोटिस किया। और फिर उन्हीं की एक कहानी और टाइटिल उठाकर फिल्‍म बना दी। मानो वह इम्तियाज को खुश करना चाह रहा हो। जैसे पीएचडी करने वाला कोई स्टूडेंट अपने गाइड को उसकी पुरानी बातें बताकर खुश करे...

अली की यह फिल्म बचकानी तो बनी ही है, उधारी की भी है। 'सोचा ना था से लेकर हैरी मेट सेजल' तक की तमाम सारी फिलॉसफी और सीन फिल्म में सीधे और घुमा फिराकर अप्लाई कर दिए गए हैं। पात्रों में 'रॉकस्टार, तमाशा, लव आजकल' की झलक मिलती है। लगता है कि इस फिल्म के किरदार भी उसी स्कूल ऑफ थॉट से निकलकर आए हैं। किरदारों का कन्फयूजन इम्तियाज के सिनेमा की ताकत होती है, वह ताकत इस बार बड़ी प्रीडिक्टेबल भी हो गई है और थोड़ी मासूम भी। 'सिनेमा में इश्क, जीवन में इश्क और करियर में इश्क' के जिस अजीब संतुलन को साधकर इम्तियाज सालों चले हैं वह इस फिल्म से फिसलकर उनके हाथ से जाता दिखता है।


लव आजकल 2 का प्लाट इसकी मूल फिल्म वाला ही है। दो कहानियां पैरलल चला करती हैं। एक का समय 1990 का है और दूसरे का 2020 का। पिछली फिल्म की तरह ही दोनों के मेल किरदार एक ही हीरो निभाता है। इस बार वो काम कार्तिक आर्यन ने किया है। पुरानी कहानी उस कैफे के मालिक की ही है जिसके यहां ये किरदार मिल रहे होते हैं। रिषी कपूर को रणदीप हुडडा रिप्लेस करते हैं तो दीपिका पादुकोण को सारा अली। मूल ताने-बाने के अलावा जो अलग है वो हैं 'इश्क की रुकावटें'। इश्क के मुकम्मल हो जाने से पहले जो हर्डेल फिल्म में दिखाए गए हैं वह दरअसल निर्देशक का यूटोपिया जान पड़ते हैं।


इश्क और करियर के बीच में किसी को चुनने जैसा दोराहा आमतौर पर जिंदगी में होता ही नहीं है। पहले कभी रहता रहा होगा। अब नहीं होता। किसी से इश्क कर लेने के बाद करियर खत्म नहीं होता और करियर बनने के प्रोसस में इश्क कर लेना करियर के साथ में बेवफाई नहीं मानी जाती। ऐसा नहीं होता कि आदमी जिंदगी में कुछ साल सिर्फ करियर बनाए और कुछ साल सुबह से उठकर शाम तक सिर्फ इश्क करे। ये वैसा ही है जैसा शिंकजी में पहले चीनी चबा ली जाए, फिर पानी पी लिया जाए और आखिरी में नीबू चाट लिया जाए। सबकुछ एकसाथ एक समय में मिलकर ही शिंकजी बनती है। इश्क आपकी लाइफस्टाइल है, आपकी लाइबेल्टी नहीं कि दिन रात उसके बारे में सोचा जाए और उसे हर दिन सही तरीके से न कर पाने पर गिल्ट हो।

शादी के लिए करियर से कंप्रोइज करने जैसी बातें दस-बीस साल पहले की सोसाइटी में होती थीं। अभी भी होती हैं। पर अब लोअर मिडिल क्‍लास में भी लड़की की नौकरी तब तक नहीं छूटती जब तक लड़की खुद ऐसा ना चाहे। जिस अर्बन अपरक्लास की कहानी इम्तियाज कहते हैं वहां का समाज तो बहुत पहले ही इन चीजों को तिलांजलि दे चुका है।

एक सीन में जोई बनी सारा अली खान अपने प्रेमी के मां-बाप से ‌मिलने से पहले इसलिए अपसेट हो जाती हैं क्योंकि उन्होंने पिछले कुछ दिनों से अपने करियर के साथ कंप्रोमाइज किया होता है। इश्क की वजह से। उन्होंने उस कंपनी के ऑफर लेटर का मेल डिलीट किया होता है जिस कंपनी में काम करना उनके लिए सपने जैसा होता है। उनके दिमाग में उनकी मां की बातें गूंज रही होती हैं। मां, अफेयर में अपने करियर को छोड़ चुकी होती हैं और बाद में वह पाती हैं कि उन्होंने गलती की थी। फिल्म की प्रॉब्लम ये है कि फिल्म के किरदार के इस तरह के बचकानेपन की फिलॉसिफी पर खड़े हैं और फिल्‍म उन्हें जस्टीफाई करती है। जैसे फ़िल्म मानती है कि इश्क में आदमी पहले दिन से ही पूरा का पूरा आए। इश्क करने और वाशिंग मशीन की गारण्टी में कुछ तो फर्क होना ही चाहिए।


इम्तियाज यहां पर 'इंसान की पर्सनाल्टी के अनुसार उसके काम के चुनाव' वाला फंडा भी आजमाना चाहते थे। वो तमाशा में इसे खुलकर पहले खेल चुके हैं। लेकिन वह इस फ़िल्म में भी अपने किरदार में इस फिलॉसफी की एक हल्की लेयर लगाना चाह रहे थे। वह अपनी पुरानी वाली लव आजकल में 'करियर फर्स्ट या अफेयर' वाला टेम्पलेट रखते हुए किरदारों में तमाशा का वेद और रॉकस्टार का जॉर्डन भी इत्र की तरह छिड़कना चाहते हैं। पिछली फिल्मों में आज़माएँ गए नुस्खों को वे यहां फाइनल टच में मेकअप किट की तरह यूज़ करते हैं। किरदारों की यह खिचपिच उनकी नई पर्सनाल्टी बनने से उन्हें रोक देती है। जोई, वीर और उनकी बातें, इम्तियाज की पिछली फिल्मों की पायरेटेड कॉपी की फिलिंग कराते रहते हैं।


फिल्म के बहुत सारे संवाद दर्शन से भरे हुए हैं, वो बुरे नहीं है लेकिन उन्हें ढोने के लिए सारा अली का मेकअप से पुता चेहरा कई बार जवाब दे देता है। वह बात कहती तो हैं लेकिन उस बात के वजन को जीती नहीं है। वह, शायद रणवीर सिंह से बहुत कॉपी करती हैं और मानती हैं कि हर सीन सिर्फ एनर्जी और अग्रेसिव तरीके से करने से ही अच्छा बन सकता है। वो रोने वाले दृश्यों में भी बहुत एनर्जी से रोती हैं। रोहित शेट्टी और साजिद खान को उन पर निगाह रखनी चाहिए। वो डांस भी बहुत बढ़िया करती हैं। वो एबीसीडी के सीक्वल में भी प्रभु देवा के काम आ सकती हैं। कार्तिक, उनकी तुलना में बेहतर करते हैं और हुड्डा उनसे बेहतर..


इम्तियाज अपनी हर फिल्म में एक किस्म का हयूमर साथ लेकर चलते हैं। वह कोई कॉमेडी नहीं होती है। किरदारों की बातचीत और डायलॉग में इतना बारीक और क्लासी हास्य छिपा होता है वह उस सीन को लाज़वाब कर देता है। इस फिल्म में वैसी चीजें सिरे से नदारद है। फिलॉसिफी के साथ-साथ इम्तियाज की फिल्में छोटे-छोटे किरदारों को स्टेबलिस करती हैं। जब वी मेट का होटल सीन, पानी की बोतल वाला सीन, रॉकस्टार में कुमुद और पीयूष मिश्रा का किरदार, तमाशा में फिर से पीयूष का किरदार, हाइवे में रणदीप के साथ रहने वाले छोटे-छोटे किरदार आपके जेहन में सालों तक बने रहते हैं। इस फिल्म से वह सबकुछ गायब है।

सिनेमा में ऐसे ढेरों किस्से पड़े हैं जब एक तमाम सक्षम निर्देशक एक समय के बाद चुक गए हैं या खाली हो गए हैं। अपने तमाम प्रयासों के बाद उन्होंने या तो खुद को रिपीट किया है या फिर ऐसे जोन में घुसने का प्रयास करता है जो उनका होता ही नहीं।

राजकुमार संतोषी, सुभाष घई या राम गोपाल वर्मा इसके अच्छे उदाहरण है। इम्तियाज अली की एक अच्छी फैन फालोइंग हैं। दर्शक उन्हें अभी से राम गोपाल की कैटेगेरी में नहीं देखना चाहते, पर हैरी मेट सेजल के बाद ये फ़िल्म एक फिल्मकार के तौर पर उनके खाली होने की कहानी कहना शुरू कर चुकी है....

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