'छपाक' पर कुछ भी पढ़ने से पहले क्या आप कुछ मिनटों के लिए यह भूल सकते हैं कि दीपिका पादुकोन जेएनयू कैंपस में गई थीं और आपने पिछले चुनाव में वोट किसे दिया था?
क्या आप कुछ मिनटों के लिए यह भूल सकते हैं कि उस शाम 'बायकॉट छपाक' ट्वीटर पर ट्रेंड कर रहा था? क्या आप यह भी भूल सकते हैं कि इस फिल्म के विलेन के नाम और उसके धर्म को लेकर किस तरह की अफवाहें आपके मोबाइल तक चलकर आईं और उस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया रही?और जब आप ये चीजें भूल ही रहे हों तो यह भी भूल जाइए कि यह फिल्म कुछ राज्यों में टैक्स फ्री की गई और उसकी प्रतिक्रिया में उसी के साथ रिलीज हुई एक दूसरी फिल्म को किसी दूसरे राज्य में दूसरी पार्टी की सरकार ने टैक्स फ्री कर दिया।
'छपाक' दुर्भाग्य से हिंदी सिनेमा की उन फिल्मों में शामिल हो गई जिसका अच्छा या बुरा कहा जाना इस बात से जुड़ गया कि चुनावों में आप वोट किसे देते हैं। ट्वीटर पर फॉलो किसे करते हैं, आपको फॉलो कौन करता है। सीएए-एनआरसी के साथ हैं या विरोध में हैं। जेएनयू को लेकर क्या सोचते हैं। वामपंथी दाढ़ी या झोले के बारे में आपके क्या विचार हैं। एक फिल्म के तौर पर 'छपाक' कैसी है उस पर शायद तब लिखा जाना ही बेहतर होता जब राजनीति की ये डस्ट सेटल हो जाती। तब इसे अच्छा या बुरा कहना आपकी राजनीति के साथ चस्पा ना किया जाता।
एक चर्चित एसिड अटैक सर्वाइवर लक्ष्मी अग्रवाल की जिंदगी पर बनी यह फिल्म एक फिल्म के रुप में उतनी मजबूत नहीं है जितनी कि इसे बनाने की इच्छाशक्ति। यकीनन फिल्म का विषय, एक मेनस्ट्रीम एक्ट्रेस का भूत जैसे डरावने चेहरे के साथ दिखने का रिस्क, भुला दिए गए शुष्क और गैर फ़िल्मी विषय का चुनाव, तारीफ के काबिल है लेकिन इस फिल्म के पास वह बहुत सारा सामान नहीं है जो इसे एक यादगार फिल्म बना सके।
मैं हमेशा इस बात का पैरोकार रहा हूं कि जब किसी विषय पर फिल्म बनाई जाए तो एक फिल्म के रुप में वह दर्शकों की जरुरतों को पूरी करे। इसके अलावा वह कुछ और भी कर सकती है तो वो उसकी दोहरी सफलता है। 'छपाक' खालिस सिनेमा के लिहाज से कमजोर फिल्म है। एक समय के बाद दर्शक सिर्फ इसलिए फिल्म से चिपका रहना चाहता है क्योंकि उसे पता है कि वह एक संवेदनशील विषय पर फिल्म देखने के लिए आया है और चुप लगाकर देखे जाना उसकी सामाजिक जवाबदेही है।
रेप पीड़ित वर्सेज एसिड अटैक पीड़ित के साथ समाज के बर्ताव और मीडिया अटेंशन की बहस के साथ शुरू हुई यह फिल्म एसिड फेंके जाने की घटना, घटना के बाद लड़की की जिंदगी में आए बदलाव, कोर्ट की ठंडी बहसों, एसिड अटैकर की गिरफ्तारी, उसकी जमानत, खुलेआम बिकता एसिड, इस मामले पर पीड़ित की पीआईएल और आखिरकार उसकी जीत की कहानी को कहने की कोशिश करती है। छपाक की कोशिश है कि वह इस विषय से जुड़े उन सभी पहलुओं को शामिल कर लें जो किसी भी तरह से उस दौरान उस लड़की की जिंदगी में आए। चाहे वह घटनाएं हों या इंसान। इन सबके बीच एसिड अटैक सर्वाइवर के लिए चलाने वाले एक एनजीओ, उस एनजीओ के कर्ता-धर्ता के साथ उस लड़की की साइलेंट प्रेम कहानी पैरलल रुप में दिखती है। प्रेम की इस कहानी को जानबूझ कर बहुत पंख नहीं लगाए गए हैं।
वो सारी घटनाएं इस फिल्म में हैं जो मुख्य पात्र मालती (दीपिका पादुकोन) के स्ट्रगल को दिखाने के साथ उसकी वर्सेटाइल पर्सनाल्टी को भी दिखाएं। कई जगहों पर यह फिल्म जबरन मालती को एक हीरो के तौर पर स्टेबलिस करने की कोशिश करती है। इसमें बुरा नहीं है। इससे फिल्म कमजोर नहीं बनती बल्कि इससे यह सरकारी विज्ञापन जैसी लगती है। फिल्म कमजोर इसलिए बनती है क्योंकि उसके पास उपकथाएं नहीं हैं, उसके पास याद रह जाने वाले किरदार नहीं हैं। उसके पास एसिड फेकने वाले किरदार की जिंदगी और उसकी सोच को दिखाने वाली लेयर्स नहीं हैं। फिल्म इसलिए कमजोर बन जाती हैं क्योंकि कोर्ट के बहसें जरुरत से ज्यादा रुखी और बेजान हैं। फ़िल्म इसलिए भी कमजोर होती है क्योंकि फ़िल्म के पास किरदार या तो स्ट्रीम व्हाइट हैं या स्ट्रीम ब्लैक। फिल्म इसलिए प्रभावी नहीं लगती क्योंकि कई जगहों पर दर्शक एसिड अटैक पीड़ित उस लड़की के दुख के साथ अपने को कनेक्ट नहीं कर पाते। बावजूद वह यह मानते हैं कि उसके साथ बहुत बुरा हुआ है।
हिंदी सिनेमा समस्याओं का ही सिनेमा है। किसी की सपाट जिंदगी में फिल्मकारों की दिलचस्पी नहीं होती है। दर्शक किसी भी समस्या से खुद को कनेक्ट करता है और वह फिल्म उसे अच्छी लगने लगती है। राजकुमार संतोषी की फिल्म घातक का विलेन डैनी जब बाप का किरदार निभा रहे कैंसर पीड़ित अमरीश पुरी के गले में कुत्ता वाला पट्टा बांधकर उन्हें कुत्ते की ही तरह खींचता हैं तो बेटे के किरादार में सनी देओल की उस प्रतिक्रिया में फिल्म देख रहा हर बेटा खुद को कनेक्ट कर लेता है। भले ही उसके पिता के गले में किसी ने कुत्ते का पट्टा नहीं डाला हो। यह सिनेमा की ताकत होती है। यह सीन की ताकत होती है कि उसके दुख हमारे दुख लगते हैं।
हिंदी सिनेमा बदला लेने की कहानियों से भरा हुआ है। दर्शक बदला लेने की हीरो की इच्छा को मौन स्वीकृति तभी देता है जब उसे लगता है कि वाकई उसके साथ गलत हुआ है। छपाक के साथ दिक्कत ये है कि दर्शक पीडित के साथ खड़ा होता है, उसके साथ हुए जुल्म पर उसे गुस्सा आता है लेकिन दर्शक किरदार के कष्ट के साथ खुद को कनेक्ट नहीं कर पाता। ऐसा इसलिए है क्योंकि फ़िल्म के पास अच्छे दृश्य नहीं हैं।
'राजी' और 'तलवार' मेघना की पिछली सफल फिल्में हैं। यह दोनों ही फिल्में रिश्तों की विडंबनाओं की फिल्में हैं। ये दोनों ही फिल्में इसलिए बड़ी फिल्में बनी क्योंकि इसके पास अच्छे सीन हैं। ये फिल्में याद इसलिए रखी गईं क्योंकि इसके पास याद रखने वाले किरदार हैं, किरदारों की लेयर्स हैं। यह संभव है कि छपाक की कहानी ऐसी रही हो जहां इस तरह की सिनेमाई लिबर्टी नहीं ली जा सकती थी। लेकिन जब यह फिल्म रिक्शा वाले के साथ राइट-लेफ्ट का एक काल्पनिक सीन डाल सकती थी तो वह कई ऐसे सीन बना सकती थी जो किरदार को गढ़ने में मदद करते।
छपाक का वह सीन मुझे कमजोर लगा जब दीपिका पहली बार अपना झुलसा हुआ मुंह आईने में देखती हैं। वो सीन फ़िल्म की रीढ है, लेकिन कमज़ोर बन पड़ा है। आपको राजेन्द्र कुमार की फ़िल्म आरज़ू देखनी चाहिए। राजेन्द्र की शादी होनी होती है। एक दुर्घटना में उनके पैर कट जाते हैं। जब डॉक्टर पहली बार अस्पताल के उस बेड पर राजेन्द्र कुमार के पैरों पर पड़ा कंबल हटाते हैं, तब उस किरदार का चेहरा देखिए। राजेन्द्र के चेहरे की उस प्रतिक्रिया को दीपिका को बार बार देखना चाहिए। हमें उस सीन को बार बार देखना चाहिए।
आप यह भी कह सकते हैं कि छपाक जैसी फिल्में सिर्फ मनोरंजन के लिए नहीं देखी जानी चाहिए लेकिन एक फिल्मकार का धर्म है कि वह सिनेमाई जरुरत को कभी नजरअंदाज ना करे। दर्शक जिस टिकट को लेकर सिनेमाघर में दाखिल होता है वह टैक्स के रुप में इंटरटेनमेन्ट टैक्स चुका रहा होता है, और मनोरंजन से ये मतलब बिल्कुल नहीं है कि यहां नाच गाना, फाइटिंग, एक्शन सीन या कॉमेडी की बात की जा रही है।
सिनेमा के लिए यह बेहतर है कि छपाक जैसे विषयों पर ज्यादा फिल्में बनें और साथ ही यह भी जरुरी है कि सोशल मीडिया पर अफवाहें बांटने वाले फिल्म भी देखना शुरू करें। वो सिर्फ वट्सअप फारवर्ड को ही अपनी दुनिया न बनाएं। साथ ही हर शहर में ऐसे नेता हों जो लोगों को दिखाने के लिए सिनेमाघर फ्री करा दे।
क्या आप कुछ मिनटों के लिए यह भूल सकते हैं कि उस शाम 'बायकॉट छपाक' ट्वीटर पर ट्रेंड कर रहा था? क्या आप यह भी भूल सकते हैं कि इस फिल्म के विलेन के नाम और उसके धर्म को लेकर किस तरह की अफवाहें आपके मोबाइल तक चलकर आईं और उस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया रही?और जब आप ये चीजें भूल ही रहे हों तो यह भी भूल जाइए कि यह फिल्म कुछ राज्यों में टैक्स फ्री की गई और उसकी प्रतिक्रिया में उसी के साथ रिलीज हुई एक दूसरी फिल्म को किसी दूसरे राज्य में दूसरी पार्टी की सरकार ने टैक्स फ्री कर दिया।
'छपाक' दुर्भाग्य से हिंदी सिनेमा की उन फिल्मों में शामिल हो गई जिसका अच्छा या बुरा कहा जाना इस बात से जुड़ गया कि चुनावों में आप वोट किसे देते हैं। ट्वीटर पर फॉलो किसे करते हैं, आपको फॉलो कौन करता है। सीएए-एनआरसी के साथ हैं या विरोध में हैं। जेएनयू को लेकर क्या सोचते हैं। वामपंथी दाढ़ी या झोले के बारे में आपके क्या विचार हैं। एक फिल्म के तौर पर 'छपाक' कैसी है उस पर शायद तब लिखा जाना ही बेहतर होता जब राजनीति की ये डस्ट सेटल हो जाती। तब इसे अच्छा या बुरा कहना आपकी राजनीति के साथ चस्पा ना किया जाता।
एक चर्चित एसिड अटैक सर्वाइवर लक्ष्मी अग्रवाल की जिंदगी पर बनी यह फिल्म एक फिल्म के रुप में उतनी मजबूत नहीं है जितनी कि इसे बनाने की इच्छाशक्ति। यकीनन फिल्म का विषय, एक मेनस्ट्रीम एक्ट्रेस का भूत जैसे डरावने चेहरे के साथ दिखने का रिस्क, भुला दिए गए शुष्क और गैर फ़िल्मी विषय का चुनाव, तारीफ के काबिल है लेकिन इस फिल्म के पास वह बहुत सारा सामान नहीं है जो इसे एक यादगार फिल्म बना सके।
मैं हमेशा इस बात का पैरोकार रहा हूं कि जब किसी विषय पर फिल्म बनाई जाए तो एक फिल्म के रुप में वह दर्शकों की जरुरतों को पूरी करे। इसके अलावा वह कुछ और भी कर सकती है तो वो उसकी दोहरी सफलता है। 'छपाक' खालिस सिनेमा के लिहाज से कमजोर फिल्म है। एक समय के बाद दर्शक सिर्फ इसलिए फिल्म से चिपका रहना चाहता है क्योंकि उसे पता है कि वह एक संवेदनशील विषय पर फिल्म देखने के लिए आया है और चुप लगाकर देखे जाना उसकी सामाजिक जवाबदेही है।
रेप पीड़ित वर्सेज एसिड अटैक पीड़ित के साथ समाज के बर्ताव और मीडिया अटेंशन की बहस के साथ शुरू हुई यह फिल्म एसिड फेंके जाने की घटना, घटना के बाद लड़की की जिंदगी में आए बदलाव, कोर्ट की ठंडी बहसों, एसिड अटैकर की गिरफ्तारी, उसकी जमानत, खुलेआम बिकता एसिड, इस मामले पर पीड़ित की पीआईएल और आखिरकार उसकी जीत की कहानी को कहने की कोशिश करती है। छपाक की कोशिश है कि वह इस विषय से जुड़े उन सभी पहलुओं को शामिल कर लें जो किसी भी तरह से उस दौरान उस लड़की की जिंदगी में आए। चाहे वह घटनाएं हों या इंसान। इन सबके बीच एसिड अटैक सर्वाइवर के लिए चलाने वाले एक एनजीओ, उस एनजीओ के कर्ता-धर्ता के साथ उस लड़की की साइलेंट प्रेम कहानी पैरलल रुप में दिखती है। प्रेम की इस कहानी को जानबूझ कर बहुत पंख नहीं लगाए गए हैं।
वो सारी घटनाएं इस फिल्म में हैं जो मुख्य पात्र मालती (दीपिका पादुकोन) के स्ट्रगल को दिखाने के साथ उसकी वर्सेटाइल पर्सनाल्टी को भी दिखाएं। कई जगहों पर यह फिल्म जबरन मालती को एक हीरो के तौर पर स्टेबलिस करने की कोशिश करती है। इसमें बुरा नहीं है। इससे फिल्म कमजोर नहीं बनती बल्कि इससे यह सरकारी विज्ञापन जैसी लगती है। फिल्म कमजोर इसलिए बनती है क्योंकि उसके पास उपकथाएं नहीं हैं, उसके पास याद रह जाने वाले किरदार नहीं हैं। उसके पास एसिड फेकने वाले किरदार की जिंदगी और उसकी सोच को दिखाने वाली लेयर्स नहीं हैं। फिल्म इसलिए कमजोर बन जाती हैं क्योंकि कोर्ट के बहसें जरुरत से ज्यादा रुखी और बेजान हैं। फ़िल्म इसलिए भी कमजोर होती है क्योंकि फ़िल्म के पास किरदार या तो स्ट्रीम व्हाइट हैं या स्ट्रीम ब्लैक। फिल्म इसलिए प्रभावी नहीं लगती क्योंकि कई जगहों पर दर्शक एसिड अटैक पीड़ित उस लड़की के दुख के साथ अपने को कनेक्ट नहीं कर पाते। बावजूद वह यह मानते हैं कि उसके साथ बहुत बुरा हुआ है।
हिंदी सिनेमा समस्याओं का ही सिनेमा है। किसी की सपाट जिंदगी में फिल्मकारों की दिलचस्पी नहीं होती है। दर्शक किसी भी समस्या से खुद को कनेक्ट करता है और वह फिल्म उसे अच्छी लगने लगती है। राजकुमार संतोषी की फिल्म घातक का विलेन डैनी जब बाप का किरदार निभा रहे कैंसर पीड़ित अमरीश पुरी के गले में कुत्ता वाला पट्टा बांधकर उन्हें कुत्ते की ही तरह खींचता हैं तो बेटे के किरादार में सनी देओल की उस प्रतिक्रिया में फिल्म देख रहा हर बेटा खुद को कनेक्ट कर लेता है। भले ही उसके पिता के गले में किसी ने कुत्ते का पट्टा नहीं डाला हो। यह सिनेमा की ताकत होती है। यह सीन की ताकत होती है कि उसके दुख हमारे दुख लगते हैं।
हिंदी सिनेमा बदला लेने की कहानियों से भरा हुआ है। दर्शक बदला लेने की हीरो की इच्छा को मौन स्वीकृति तभी देता है जब उसे लगता है कि वाकई उसके साथ गलत हुआ है। छपाक के साथ दिक्कत ये है कि दर्शक पीडित के साथ खड़ा होता है, उसके साथ हुए जुल्म पर उसे गुस्सा आता है लेकिन दर्शक किरदार के कष्ट के साथ खुद को कनेक्ट नहीं कर पाता। ऐसा इसलिए है क्योंकि फ़िल्म के पास अच्छे दृश्य नहीं हैं।
'राजी' और 'तलवार' मेघना की पिछली सफल फिल्में हैं। यह दोनों ही फिल्में रिश्तों की विडंबनाओं की फिल्में हैं। ये दोनों ही फिल्में इसलिए बड़ी फिल्में बनी क्योंकि इसके पास अच्छे सीन हैं। ये फिल्में याद इसलिए रखी गईं क्योंकि इसके पास याद रखने वाले किरदार हैं, किरदारों की लेयर्स हैं। यह संभव है कि छपाक की कहानी ऐसी रही हो जहां इस तरह की सिनेमाई लिबर्टी नहीं ली जा सकती थी। लेकिन जब यह फिल्म रिक्शा वाले के साथ राइट-लेफ्ट का एक काल्पनिक सीन डाल सकती थी तो वह कई ऐसे सीन बना सकती थी जो किरदार को गढ़ने में मदद करते।
छपाक का वह सीन मुझे कमजोर लगा जब दीपिका पहली बार अपना झुलसा हुआ मुंह आईने में देखती हैं। वो सीन फ़िल्म की रीढ है, लेकिन कमज़ोर बन पड़ा है। आपको राजेन्द्र कुमार की फ़िल्म आरज़ू देखनी चाहिए। राजेन्द्र की शादी होनी होती है। एक दुर्घटना में उनके पैर कट जाते हैं। जब डॉक्टर पहली बार अस्पताल के उस बेड पर राजेन्द्र कुमार के पैरों पर पड़ा कंबल हटाते हैं, तब उस किरदार का चेहरा देखिए। राजेन्द्र के चेहरे की उस प्रतिक्रिया को दीपिका को बार बार देखना चाहिए। हमें उस सीन को बार बार देखना चाहिए।
आप यह भी कह सकते हैं कि छपाक जैसी फिल्में सिर्फ मनोरंजन के लिए नहीं देखी जानी चाहिए लेकिन एक फिल्मकार का धर्म है कि वह सिनेमाई जरुरत को कभी नजरअंदाज ना करे। दर्शक जिस टिकट को लेकर सिनेमाघर में दाखिल होता है वह टैक्स के रुप में इंटरटेनमेन्ट टैक्स चुका रहा होता है, और मनोरंजन से ये मतलब बिल्कुल नहीं है कि यहां नाच गाना, फाइटिंग, एक्शन सीन या कॉमेडी की बात की जा रही है।
सिनेमा के लिए यह बेहतर है कि छपाक जैसे विषयों पर ज्यादा फिल्में बनें और साथ ही यह भी जरुरी है कि सोशल मीडिया पर अफवाहें बांटने वाले फिल्म भी देखना शुरू करें। वो सिर्फ वट्सअप फारवर्ड को ही अपनी दुनिया न बनाएं। साथ ही हर शहर में ऐसे नेता हों जो लोगों को दिखाने के लिए सिनेमाघर फ्री करा दे।
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