कबीर सिंह फ़िल्म के साथ कुछ स्त्री विमर्श की बातें भी समीक्षा के साथ सुनने को आ रही हैं, आपको भी मिली होंगी। आपत्ति इस बात पर है कि फ़िल्म का हीरो पूरी फिल्म में हीरोइन को 'अपनी बंदी' कहता है। इंटरवल के ठीक पहले का एक सीन भी दिक्कत पैदा कर रहा है जहां हीरो उसे थप्पड़ मारता है और कहता है कि उसकी कॉलेज में सिर्फ यही पहचान है कि वो उसकी बंदी है...आइए इस पर कुछ बातें करते हैं।
कबीर सिंह जिस अर्जुन रेड्डी फ़िल्म की कलर जिरोक्स है वो प्रेम में डूबी हुई एक फ़िल्म है। दो इंसान(लड़का या लड़की नहीं) एक दूसरे के बिना जिंदगी जीने की कल्पना नहीं कर सकते नहीं फर्क पड़ता कि वो दोनों अलग अलग तरह के इंसान हैं। एक अति डोमनेटिंग और प्रतिक्रियावादी और दूसरा हर हालात से एडजेस्ट कर लेने वाला। तो क्या दिक्कत ये है पहले वाला लड़का है?
प्रेम करने के सबके अपने अपने स्टाइल और रिजर्वेशन होते हैं। इश्क़ करने का कोई तयशुदा मैथमेटिकल या फाइनेंसियल फार्मूला नहीं है कि उसमें 44% प्यार हो, 17% फिजिकल अट्रैक्शन हो, 20% या उससे अधिक की रेस्पेक्ट हो, बाकी बचे 100 फीसदी में कुछ चीज़ें मिसलेनियस हों। जिसमें हॉबी मैच करना, एक दूसरे की फैमली को रेस्पेक्ट देना या सोशल मीडिया पर एक दूसरे को सपोर्ट करना शामिल हो सकता है। प्रेम, प्रेम है, ये कंडीशन नहीं मांगता। अर्जुन रेड्डी हो या कबीर सिंह दोनों किरदार ये बता लेते हैं कि यहां प्रेम की मात्रा उचित से भी ज्यादा है। प्रेम के शुरू के दिनों में और किसी और चीज़ की जरूरत भी नहीं लगती..
चलिए दोनों के थप्पड़ गिनते हैं
पूरी फिल्म में हीरो, हीरोइन को एक थप्पड़ और हीरोइन हीरो को तीन थप्पड़ मारती है। चर्चा सिर्फ पहले वाले थप्पड़ की है। यानी जिनको ऐतराज है वो इस बात में है कि प्रेम में जो न्यूनतम 20% की 'म्यूच्यूअल रिस्पेक्ट' होनी चाहिए वो नायिका को नहीं मिल मिली। कोई पुरुष भला ऐसे कैसे कर सकता है? डर ये दिखया गया कि लड़के अब लड़कियों को प्यार में रिस्पेक्ट करना बंद कर देंगे और स्त्री के ग्राफ में गिरावट होगी।
ऐसी दर्जनों हिंदी या रीजनल फिल्में होंगी जिसमें किसी कॉलेज की सबसे हॉट और खूबसूरत लड़की पर एक साधारण सा लड़का मर मिटता है। लड़की अपनी उन खूबियों के रिज़र्वेशन पर इतराती है, उसे अपनी स्ट्रेंथ पता होती है और लड़के के लिमिटेशन भी। वो लड़के को उसकी औकात बताते हुए चलती है लेकिन फाइनली प्यार कर लेती है। तो इस पर तो पुरुषों को आपत्ति होनी चाहिए थी क्योंकि रेस्पेक्ट का 20% वाला पैरामीटर यहां भी ब्रेक हो रहा था।
एक और सीन पर ऐतराज है। यहां लड़का अपनी प्रेमिका को टैडी बियर टाइप की लड़की से दोस्ती करने के लिए कहता है क्योंकि वो ज्यादा 'रिलायबल' होती हैं, इस सीन पर दिक्कत स्वाभाविक है, लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि कबीर सिंह मूलतः एक तेलुगू फ़िल्म है। जहां के सिनेमा में मोटापा, हकलाहट, तोतलाहट और यहां तक कि गैस पास करने पर हास्य निकालने की कोशिश की जाती है। शायद वो दर्शक इसके आदी हैं और उन्हें अब ये यूज़ड्ड टू लगता है। साउथ की तमाम सारी हिंदी रिमेक में भी शरीर पर टिप्पणी करके हंसी पैदा करने वाले सीन देखने को मिले हैं। इन फिल्मों की सफलता ये बताती है दर्शकों को शायद ये अटपटा नहीं लगता। शायद ये सोचकर हिंदी वर्जन में भी इसे हटाया नहीं गया।
कम सुंदर और ज्यादा सुंदर लड़कियों की दोस्ती ज्यादा दिखती भी है, वो शायद एक दूसरे से असुरक्षित महसूस नहीं होती हैं। सम्भव है निर्देशक ने वो सिरा पकड़ने की कोशिश की हो। पुरुषों में शायद ऐसा नहीं होता। मेरे कई खूब मोटे और खूब दुबले दोस्त हैं। मैंने उन्हें इस नजरिए से नहीं देखा। जैसा अभी मैं मोटा हो रहा हूँ तो क्या मैं कुछ दोस्त खो दूंगा?
क्या इतना प्रभावित करती हैं फिल्में?
मैं गहराई से ये बात मानता हूं कि आम दर्शक फ़िल्म के बारे में सिर्फ तब तक सोचता है जब तक कि वो हॉल के उस अंधेरे से अपने वाहन तक जाने के लिए सीढ़ियां उतर रहा होता है। इसके बाद उसकी दुनिया बदल जाती है। वो फ़िल्म और हकीकत को अलग करके चलता है। यदि ऐसा न होता तो नरेंद्र मोदी पर बनी बायोपिक हिंदी सिनेमा की सबसे सफल फ़िल्म होती। तो कबीर सिंह की आलोचना कीजिए पर स्त्रीवाद का एंगेल मत तलाशिए। यहां पर दो लोग प्रेम में हैं वो उनकी समझ है कि वो कैसे एक दूसरे के लिए डील करें। प्रीति के लिए कबीर उसका प्रेमी है, पुरुष नहीं है। ऐसे ही कबीर के लिए प्रीति सिर्फ वो इंसान है जिससे वो बेइंतहां प्रेम करता है। प्रेम में स्त्रीवाद मत डालिए नहीं तो बन्द कमरे में हर रोज प्रोटोकॉल टूटेंगे। आप कहां तक उन्हें डिफेंड करेंगे...
कबीर सिंह जिस अर्जुन रेड्डी फ़िल्म की कलर जिरोक्स है वो प्रेम में डूबी हुई एक फ़िल्म है। दो इंसान(लड़का या लड़की नहीं) एक दूसरे के बिना जिंदगी जीने की कल्पना नहीं कर सकते नहीं फर्क पड़ता कि वो दोनों अलग अलग तरह के इंसान हैं। एक अति डोमनेटिंग और प्रतिक्रियावादी और दूसरा हर हालात से एडजेस्ट कर लेने वाला। तो क्या दिक्कत ये है पहले वाला लड़का है?
प्रेम करने के सबके अपने अपने स्टाइल और रिजर्वेशन होते हैं। इश्क़ करने का कोई तयशुदा मैथमेटिकल या फाइनेंसियल फार्मूला नहीं है कि उसमें 44% प्यार हो, 17% फिजिकल अट्रैक्शन हो, 20% या उससे अधिक की रेस्पेक्ट हो, बाकी बचे 100 फीसदी में कुछ चीज़ें मिसलेनियस हों। जिसमें हॉबी मैच करना, एक दूसरे की फैमली को रेस्पेक्ट देना या सोशल मीडिया पर एक दूसरे को सपोर्ट करना शामिल हो सकता है। प्रेम, प्रेम है, ये कंडीशन नहीं मांगता। अर्जुन रेड्डी हो या कबीर सिंह दोनों किरदार ये बता लेते हैं कि यहां प्रेम की मात्रा उचित से भी ज्यादा है। प्रेम के शुरू के दिनों में और किसी और चीज़ की जरूरत भी नहीं लगती..
चलिए दोनों के थप्पड़ गिनते हैं
पूरी फिल्म में हीरो, हीरोइन को एक थप्पड़ और हीरोइन हीरो को तीन थप्पड़ मारती है। चर्चा सिर्फ पहले वाले थप्पड़ की है। यानी जिनको ऐतराज है वो इस बात में है कि प्रेम में जो न्यूनतम 20% की 'म्यूच्यूअल रिस्पेक्ट' होनी चाहिए वो नायिका को नहीं मिल मिली। कोई पुरुष भला ऐसे कैसे कर सकता है? डर ये दिखया गया कि लड़के अब लड़कियों को प्यार में रिस्पेक्ट करना बंद कर देंगे और स्त्री के ग्राफ में गिरावट होगी।
ऐसी दर्जनों हिंदी या रीजनल फिल्में होंगी जिसमें किसी कॉलेज की सबसे हॉट और खूबसूरत लड़की पर एक साधारण सा लड़का मर मिटता है। लड़की अपनी उन खूबियों के रिज़र्वेशन पर इतराती है, उसे अपनी स्ट्रेंथ पता होती है और लड़के के लिमिटेशन भी। वो लड़के को उसकी औकात बताते हुए चलती है लेकिन फाइनली प्यार कर लेती है। तो इस पर तो पुरुषों को आपत्ति होनी चाहिए थी क्योंकि रेस्पेक्ट का 20% वाला पैरामीटर यहां भी ब्रेक हो रहा था।
एक और सीन पर ऐतराज है। यहां लड़का अपनी प्रेमिका को टैडी बियर टाइप की लड़की से दोस्ती करने के लिए कहता है क्योंकि वो ज्यादा 'रिलायबल' होती हैं, इस सीन पर दिक्कत स्वाभाविक है, लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि कबीर सिंह मूलतः एक तेलुगू फ़िल्म है। जहां के सिनेमा में मोटापा, हकलाहट, तोतलाहट और यहां तक कि गैस पास करने पर हास्य निकालने की कोशिश की जाती है। शायद वो दर्शक इसके आदी हैं और उन्हें अब ये यूज़ड्ड टू लगता है। साउथ की तमाम सारी हिंदी रिमेक में भी शरीर पर टिप्पणी करके हंसी पैदा करने वाले सीन देखने को मिले हैं। इन फिल्मों की सफलता ये बताती है दर्शकों को शायद ये अटपटा नहीं लगता। शायद ये सोचकर हिंदी वर्जन में भी इसे हटाया नहीं गया।
कम सुंदर और ज्यादा सुंदर लड़कियों की दोस्ती ज्यादा दिखती भी है, वो शायद एक दूसरे से असुरक्षित महसूस नहीं होती हैं। सम्भव है निर्देशक ने वो सिरा पकड़ने की कोशिश की हो। पुरुषों में शायद ऐसा नहीं होता। मेरे कई खूब मोटे और खूब दुबले दोस्त हैं। मैंने उन्हें इस नजरिए से नहीं देखा। जैसा अभी मैं मोटा हो रहा हूँ तो क्या मैं कुछ दोस्त खो दूंगा?
क्या इतना प्रभावित करती हैं फिल्में?
मैं गहराई से ये बात मानता हूं कि आम दर्शक फ़िल्म के बारे में सिर्फ तब तक सोचता है जब तक कि वो हॉल के उस अंधेरे से अपने वाहन तक जाने के लिए सीढ़ियां उतर रहा होता है। इसके बाद उसकी दुनिया बदल जाती है। वो फ़िल्म और हकीकत को अलग करके चलता है। यदि ऐसा न होता तो नरेंद्र मोदी पर बनी बायोपिक हिंदी सिनेमा की सबसे सफल फ़िल्म होती। तो कबीर सिंह की आलोचना कीजिए पर स्त्रीवाद का एंगेल मत तलाशिए। यहां पर दो लोग प्रेम में हैं वो उनकी समझ है कि वो कैसे एक दूसरे के लिए डील करें। प्रीति के लिए कबीर उसका प्रेमी है, पुरुष नहीं है। ऐसे ही कबीर के लिए प्रीति सिर्फ वो इंसान है जिससे वो बेइंतहां प्रेम करता है। प्रेम में स्त्रीवाद मत डालिए नहीं तो बन्द कमरे में हर रोज प्रोटोकॉल टूटेंगे। आप कहां तक उन्हें डिफेंड करेंगे...
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