Friday, July 26, 2019

'पिचर' फिल्म देखी जानी चाहिए क्योंकि ये अच्छी होने के साथ-साथ फ्री भी है...

टीवीएफ की वेब सीरिज 'पिचर' का एक सीन है। रिजाइन करने वाले अपने एक एंप्लाई के साथ उसके लास्ट कनवरशेसन में उसका बॉस उसे कहता है कि इस देश का ग्रेजुएट जब भी अपनी 9 टू 5 की जॉब से बोर हो जाता है तो वह बाहर निकलने के ‌लिए तीन रास्ते खोजता है। एमबीए, आईएएस और स्टार्टअप। बाहर जाकर देखो, तीन में से दो क्यूबिक में स्टार्टर फाउंडर ही बैठे हैं। एक कुटिल मुस्कान के साथ वह उसे एक ऑफर देता है। जाहिर है सामने बैठे एंप्लाई ने रिजाइन करने के पीछे स्टार्टअप शुरू करने की बात कही होगी। पांच एपीसोड की इस सीरिज ऐसे कई सारे सीन है जिन्हें हम कार्पोरेट सेटअप में घटते देखते हैं या उनके बारे में लंच टाइम, सुट्टा टाइम या लेट नाइट की खाली होती मेट्रो या तीन पैग डाउन के बाद अपने विश्वसनीय कलीग से बतिया रहे होते हैं। 

पिचर का टारगेट ऑडिशन बहुत सीमित है और क्लीयर है। उसे 'सबकी' फिल्म नहीं बनना। टारगेट ऑडियंश सीमित होने की वजह से यह फिल्‍म उतनी माउथ पब्लिसिटी नहीं बटोर पाई थी जितनी वह डिजर्व करती है। कुछ समय पहले एक वीडियो वायरल हुआ था। जिसमें एक एंप्लाई को टाइम से घर जाने पर उसका एक कलीग उसे टोकता है। जवाब में उसका लंबा मोनोलॉग है। जिसमें फ्रस्टेशन और ईमानदारी दोनों हैं। पिचर इस शार्ट फिल्म के करीब चार पहले 2015 में रिलीज हो चुकी है, और ऐसे तमाम सारे सीन, डायलॉग एक अच्छी फिलॉसिफी के साथ उसमें मौजूद हैं।

कार्पोरेट सेक्टर राजीव चौक पर खड़ी मेट्रो की तरह है। उसमें घुसकर सीट पाने के लिए बहुत सवारियों में जल्दबाजी है, लगभग उतनी ही जल्दबाजी उन सवारियों में भी है जिन्हें उससे उतरना है। कुछेक मिनट पहले वह सीट जो उनके बहुत काम की थी अब उसके साथ उनका कोई रिश्ता नहीं है। उनके हटने पर वहां बैठ कौन रहा है इसमें उनको दिलचस्‍पी भी नहीं है। ऐसा नहीं कि यहां सिर्फ दो कैटेगरी हैं। कुछ सवारियां ऐसी भी हैं जिन्हें अभी अभी बाराखंभा, पटेल चौक या केंद्रीय सचिवालय से सीट मिली होती है। इसके पहले वे अनकफर्ट जोन में थे। सीट मिलने के बाद वह अभी अभी कंफर्ट जोन में आए हैं और आपके उठने के बाद 'शेफ' फील कर रहे हैं। उन्हें अभी लंबा इसी मेट्रो में रहना है। बशर्ते ये मेट्रो ही बंद ना हो जाए। कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें सीट नहीं चाहिए। वो खड़े खड़े नई दिल्ली स्टेशन तक चले जाएंगे। उन्हें वहां से एयरपोर्ट मेट्रो पकड़ना है। उनके सपने बड़े हैं। सभी को एयरपोर्ट मेट्रो भी नहीं जाना। कुछ को मंडी हाउस भी जाना है। राजीव चौक में उतरने वाले राजीव चौक में रहते नहीं हैं। वह वहां से कहीं और जाएंगे। ये रोटेशन हर दिन, हर महीने चलता रहता है।

कार्पोरेट सेक्टर से उकताकर बाहर आने वाले बहुत सारे लोग सफल हुए हैं। पर उससे बड़ी संख्या उन लोगों की भी है जो उस फैसले को गलती मानकर साल-डेढ़ साल के बाद उसी सेटअप में जाने के लिए सीवी अपग्रेड कर रहे होते हैं। वह उन लोगों से बचना चाहते हैं जो लोग उन्हें कुछ समय पहले कही गई बातें याद दिलाएं। बातें और गालियां दोनों। वह भी गलत नहीं होते हैं। फैसले व्यक्ति नहीं हालात लेता है। उनके निकलने और रीज्वाइन करने के फैसले हालात ने लिए।

पिचर की कहानी ऐसे ही चार दोस्तों के बारे में है। सभी उस कार्पोरेट सेक्टर से निकलना चाहते हैं। उन चारों की वजह अलग-अलग हैं। लेकिन कॉमन वजह 'अपनी कैपेबिलटी का पूरा यूज' ना हो पाने की है। ऑफिस की छटाक भर की पॉलिटिक्स से भी वह उबे हैं। पर ये बड़ा इशू नहीं है। उससे वो यूज्ड टू हैं। कार्पोरेट सेक्टर में आपको बहुत सारे लोग ऐसे मिलेंगे जो पॉलिटिक्स को सूंघ लेते हैं, उसको समझते भी हैं लेकिन उससे डील या क्रैक नहीं कर पाते।

फिल्म में ऑफिस छोड़ने की अलग-अलग वजहें और उनके हरडेल्स  बहुत इंटरटेनिंग तरीके से दिखाए गए हैं। टीम बन जाने के बाद की समस्याएं, फंडिंग मिलने के तरीके उसके पैरलल चल रही लोगों की निजी जिंदगी, शराब, सेक्स और तमाम सारे नेचुरल एैब ‌आपको खूब अच्छे लगते हैं और अच्छी बात ये है कि आपको बहुत कुछ सिखाते भी हैं। फिल्म के डायलॉग इसे सुपरकूल बनाते हैं। फिल्म में हिंदी और अंग्रेजी इतनी आसानी से आती और जाती रहती है कि कहीं पर लगता ही नहीं कि ये एक बाइलैंग्वेल फिल्म है। लगता है कि यह एक हिंदी फिल्म है और इस सेटअप में जितना अंग्रेजी बोलते हैं उतनी अंग्रेजी फिल्म में भी है।

टीवीएफ सीरिज की फिल्मों का सबसे खूबसूरत पक्ष उनकी ऐक्टिंग है। यदि आप लंबे समय से टीवीएफ की फिल्में देख रहे हैं तो आपको पता चल गया होगा कि उनके पास कलाकारों का एक सेट है वो उसे हर तरह के रोल में रोटेट किया करते हैं। रिपीट चेहरे होने के बाद भी यह कलाकार अपने उस रोल में खूबसूरत ऐक्टिंग करते हैं। फिल्म के लीड किरदार नवीन कस्तूरिया, अरुणाम कुमार, जीतेंद्र कुमार और अभय महाजन ने अद्भुत काम किया है।

वेब सीरिज के साथ हिंदी सिनेमा में अच्छी बात ये हुई है कि ये अब हमारी आपकी कहानी कहता है। यहां पर सलमान खान और कैटरीना कैफ की एक काल्पनिक कहानी नहीं है। मुझे उम्मीद है कि कम से कम कुछ साल सलमान खान जैसे सिनेमा की वापसी नहीं होगी।  हिंदी साहित्य की तरह हिंदी का सिनेमा भी बदल रहा है। याद कीजिए हिंदी का वह समय जब सिर्फ हल्कू, जमींदार और मुनीम जैसे किरदार ही सिनेमा में भी थे और साहित्य में भी।  यह फिल्म देखी जानी चाहिए क्योंकि अच्छी होने के साथ यह यूट्यूब पर फ्री भी है... हां, एक बात और। एक स्टार्टअप शुरू करने के प्रोसस में बियर बहुत पीनी पड़ती है।



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