Friday, September 30, 2011

मदहोश कर देने संवादों की एक उम्दा पेशकश




फिल्म समीक्षा: साहब बीवी और गैंगस्टर

तिंग्माशू धूलिया अपनी फिल्मों में हर चरित्र को स्थापित करते हैं। जब दर्शक उनकी फिल्म जिसके संवाद भी वह खुद लिखते हैं को देखकर निकल रहा होता है तो उसे किसी खास चरित्र से बेइंतहा मोहब्बत या नफरत हो जाती है। फिल्म में उस चरित्र को निभा रहे अभिनेता का पात्र से इतना गहरा जुडव कि देखकर लगे कि इस पात्र को बस वही निभा सकते हैं। यह धूलिया साहब की खासियत है कि वह जीवन की उन छोटी-छोटी चीजों और मनोवृति को पकड़ते हैं जिन्हें आमतौर पर फिल्मकार सोच नहीं पाते या उसे नजरंदाज कर देते हैं। साहब बीवी और गैंग्स्टार में हर पात्र का अपना एक मनोविज्ञान है। उस मनोविज्ञान को यादगार तरीके से दिखाना फिल्म की सबसे बड़ी खूबी। व्यंग्य की चाशनी में डूबे संवाद इतने चुटीले और अर्थपूर्ण कि दर्शक देर तक उसकी मदहोशी में डूबें रहे। यह संवाद ही हर पात्र को स्थापित करने का काम करते हैं। साहब बीवी और गैंगस्टर देखते हुए तिंग्माशू की कुछ पुरानी फिल्मों के कुछ पात्र याद आते हैं। जैसे शार्गिद के नाना पाटेकर या हासिल के इरफान खान। शार्गिद और साहब बीवी. . में एक समानता यह भी है कि अंत के कुछ मिनट एक-दूसरे पर अविश्वास के पल होते हैं। इस अविश्वास के माहौल में पात्रों का करवटें और आस्था बदलता देखना, सही-गलत व्याख्या बदली हुई स्थितियों के साथ करना इस फिल्म को खूबसूरत और फिल्मी बनाती है। हर तरह के दर्शक के लिए यहां कुछ न कुछ था। फिल्म में साहब का किरदार निभाने वाले जिमी शेरगिल जानते हैं कि यह उनकी अब तक सबसे यादगार भूमिका है। वह कितने बेहतर अभिनेता हैं दर्शक और फिल्म इंडस्ट्री अब जान पाई है। उत्तर प्रदेश का तराई इलाका फिल्म की प्रष्ठभूमि है। राजनीति का अपराध के साथ दिखाया गया गठजोड नया न होते हुए भी नया सा लगता है। यह साली जिंदगी के बाद विपिन शर्मा गेंदा सिंह की भूमिका में शानदार लगे हैं। फिल्म के गीत भी फिल्म की तरह ताजे और भदेस है। एक आवश्यक रुप से देखी जाने वाली फिल्म।

Friday, September 23, 2011

दर्शकों का कोई दोष नहीं यदि वह फिल्म को नकार दें।




फिल्म समीक्षा: मौसम

अच्छे और लोकप्रिय निर्देशक के बीच फर्क कर पाना कई बार वाकई कठिन होता है। फिल्म इंडस्ट्री में ऐसे कई निर्देशक है जो एक या दो फिल्में बनाने के बाद चिर खामोश हो गए। वह खामोश इसलिए हुए क्योंकि वह लोकप्रिय नहीं हो पाए। इन अच्छे निर्देशकों को अपनी कला और सृजन से अगाध प्रेम होता है। यह निर्देशक बहुत जी-जान लगाकर फिल्में बनाते हैं और यह मानते हैं कि दर्शक भी उसी श्रृद्धा के साथ फिल्म देखेगा। पर ऐसा होता नहीं। फिल्म का पहली बार निर्देशन कर रहे पंकज कपूर भी इसी लोकप्रिय सिनेमा की चाहत की भेंट चढ़ गए। पंकज की यह फिल्म लगभग तीन घंटे की है। कई सारे फिल्मी किस्सागोई, प्रपंच और ८० के दशक के संयोग फॉमूर्ले को समेटे हुए यह फिल्म उतनी आकर्षक, भव्य और जादुई नहीं बन पाई जितनी कि इसके बारे में कल्पना की गई थी। फिल्म ठीक से न तो हंसाती है, न भावुक कराती है और न ही रुलाती है। यह एक औसत से फिल्म निकली जिससे अपेक्षाएं अधिक कर ली गईं। कई कलाकारों को देखकर लगता है कि उन्हें यदि ज्यादा लंबा और प्रभावी रोल मिले तो वह बेहतर कर सकते हैं। शाहिद और सोनम कपूर इस धारणा को तोड़ते हैं। पूरी फिल्म शाहिद के ही कंधों पर थी। शाहिद ने अच्छा अभिनय किया पर उतने से बात नहीं बनती। फिल्म का ताना-बाना १९९० से लेकर २००२ के बीच तक का है। बाबरी बिध्वंस, मुंबई ब्लास्ट, कारगिल युद्ध और गोधरा कांड जैसी घटनाएं फिल्म की कहानी का हिस्सा हैं। फिल्म में दिक्कत यह है कि इन सारी आपदाओं से एक ही परिवार लगातार जूझता हुआ दिखाया गया है। फिल्म का शुरुआती घंटा पंजाब के एक गांव का है। यह हिस्सा मनोरंजक होने की वजह से आकर्षक लगता है। नायिका का स्काटलैंड और नायक का एयरफोर्स में चले जाने के बाद फिल्म की कहानी घसटती हुई और अपने को दोहराती हुई चलती है। सात साल बाद नायक-नायिका स्काटलैंड में मिलते हैं। यह दृश्य फिल्म का सबसे अच्छा दृश्य होना चाहिए पर होता बहुत रूटीन में है। नायिका का पंजाब से स्काटलैंड, वहां से फिर पंजाब, फिर अहमदाबाद, फिर अमेरिका, फिर स्काटलैंड जाना एक तरह की पुनरावृति लगती है। मौसम वस्तुत: प्रेम कहानी है। इस प्रेमकहानी में देश की घटनाएं अवरोध बनकर आती हैं। फिल्म का क्लाइमेक्स कमजोर और सतही है। पंकज कपूर की इस फिल्म को देखा जा सकता है। यदि दर्शक इसे खराब और बोर कहें तो यह उन्हें अकेले दोष देना गलत होगा।

Tuesday, September 13, 2011

यह किस नायक की वापसी की बात कर रहे हैं हम

फिल्म समीक्षा: बॉडीगार्ड

सलमान खान की चुलबुल पांडेय टाइप फिल्मों की जब एक वर्ग ने आलोचना की थी तो यह कहकर उनका बचाव किया गया कि सलमान खान कि फिल्मों से नायक की पर्दे पर वापसी हो रही है। वांटेड, दबंग, रेडी के बाद अब बॉडीगार्ड में भी यही नायक पर्दे पर है। सीधा, समर्पित, ईमानदार और भोंदू। वह हथियार से लैस २५ से ३० लोगों को निहत्थे होकर भी मौत के घाट उतार देता है। वह चलती ट्रेन से कूद कर विपरीत दिशा में जा रही ट्रेन में सवार हो लेता है। कंधे पर गोली लगने के बाद भी दौडक़र किसी लडक़ी से मिलने के लिए रेलवे प्लेटफार्म में जाता है। यह बातें बिल्कुल उसे हीरो ही बनाती है। हीरो का दूसरा पहलू देखिए। यह हीरो मारपीट के अलावा जीवन के सारे प्रसंगों में एक मोटी बुद्धि के भोंदू युवक जैसा दिखता है। उसी घर में रह रही एक लडक़ी उससे बेपनाह मोहब्बत करती है वह उससे बेखबर है। दस से बीस फिट की दूरी पर वह लडक़ी उसको फोन करती है, हंसती है, रोती है पर बेचारा यह हीरो कुछ भी जान भी नहीं पाता। वह गल्र्स हॉस्टल में उस लडक़ी की खोज में लगा रहता है। अनजाने में जिस लडक़ी से उसकी शादी हो गई होती है वह एक डायरी लिखती है। कायदे से यह डायरी उस हीरो के हाथ में लगनी चाहिए। पर वह डायरी उसके पांच साल के बच्चे के हाथ में लगती है। मारपीट के अतिरिक्त उसे समझ में नहीं आता। यह २०११ में हमारे युवाओं का नायक है। यह उस महान हीरो की पर्दे पर वापसी है जो लड़कियों को शेर से कम नहीं समझता। उन्हें झूने में उसके हाथ कांपते हैं। लड़कियों के प्रेम, उनके झूठ, फरेब और प्रपंच को पढऩे समझने की उसके पास क्षमता नहीं है। वह अपने मालिक को उसके सामने भी मालिक ही कहकर बुलाता है। इस हीरो की वापसी पर हिंदी फिल्म इंडस्ट्री जश्न मना रही है। फिल्म में सुनामी सिंह नाम का एक किरदार जो सलमान की फिल्मों में अलग-अलग नामों के साथ अक्सर रहता है बॉडीगार्ड में दर्शकों को जमकर इरीटेट करता है। साउथ फिल्मों की नकल में एक सांवली और मांसल नौकरानी भी कोई कम कहर नहीं बरपाती। महेश मांजेकर को यदि ऐक्टिंग ही करनी है तो ढंग की करें।
कुछ अच्छी बातें:
सलमान खान मासूम और भोले युवक की अच्छी ऐक्टिंग कर लेते हैं। फिल्म का संगीत अच्छा है। करीना कपूर सुंदर लगी हैं। बहुत भावुक और दुख के दृश्यों में वह करिश्मा कपूर की नकल करते दिखती हैं। पोस्टर से मारपीट से भरी लगने वाली इस फिल्म में उतनी मारपीट नहीं है।