Saturday, December 22, 2012

दर्शक कब तक अपने आईक्यू का मजाक दबंग जैसी फिल्मों से उड़वाते रहेंगे

पिछले पखवाड़े कानपुर से दिल्ली की यात्रा में साहित्यकार सेरा यात्री मिल गए। होते-होते बातें फिल्मों तक पहुंच गईं। यात्री साहब ने पिछले कई सालों से हिंदी फिल्मों तो नहीं देखी थीं लेकिन उनकी एक बात रह-रह कर दबंग 2 देखते समय लगातार मेरे जेहन में घूमती रही। सेरा यात्री साहब का कहना था कि भारत के जो भी इंजीनियर, मैजनमेंट, मेडिकल, सीए या दूसरे जो भी लुभावने क्षेत्र हैं यह युवाओं की कार्य करने की क्षमता तो बढ़ा रहे हैं पर उसके अलावा उनकी सोचने और समझने की शक्ति को खत्म कर रहे हैं। खासकर सामाजिक और पारिवारिक मुद्दों पर। जब वह वीकेंड में फिल्म देखने जाते हैं तो फिल्म की बुनावट या उसके स्तर पर कोई दिमाग नहीं लगाना चाहते। उन्हें बस ऐसी चीज दिख जाए जिसे वह स्वयं नहीं भोगते तो वह उन्हें बेहतर और मनोरंजक लगती है। भले ही चाहे वह कितनी हल्की क्यों न हो। दबंग 2 के एक सीन में सलमान खान, अपने भाई अरबाज से एक पहेली पूछते हैं। अरबाज उसका जवाब नहीं दे पाते। यह सीन लगभग एक मिनट का है। यह देखकर आश्चर्य हुआ कि दो सौ करोड़ के क्लब में शामिल होने जा रही और 2012 में बनी इस फिल्म में इतने घटिया स्तर के सीन हो सकते हैं। इससे ज्यादा आश्चर्य इस बात का हुआ कि इस सीन पर तमाम लोग हंस-हंसकर कर सीट में दोहरे हुए जा रहे थे। उन्हें यह सीन बड़ा दिलचस्प, मौलिक और हंसाने वाला लगा था। यह 2012 का सिनेमा है और यह 2012 के दर्शक हैं। मल्टीप्लेक्स का यह सीन किसी कस्बे का नहीं बल्कि भारत की राजधानी दिल्ली का है। सलमान खान अपनी पिछली कई फिल्मों से इस बात का एहसास करा रहे हैं कि भारत के दर्शक का आईक्यू स्तर बहुत ही कम है। उनके पास इस बात के सुबूत भी हैं। बॉडीगार्ड फिल्म का नायक लवली सिंह यह भी अंदाज नहीं लगा पाता कि उसको उसी घर से फोन किया जा रहा है जहां वह रह रहा है। एक लड़की कहती है कि वह उससे प्यार करती है और लवली सिंह मान जाता है। मजे की बात यह है कि दर्शक उस चरित्र के साथ जुड़ते हैं। बार-बार हर फिल्म में। इस बात की गवाही देने के लिए यह आंकड़े काफी हैं कि यह फिल्में 100 करोड़ से ऊपर का कारोबार कर रही है। अभिनेता इरफान खान कहते हैं कि फिल्म कैसी बनेगी यह दर्शक तय करते हैं। स्वाभाविक कि दर्शकों का शिष्टमंडल ‌फिल्मकारों से शिष्टाचार भेंट करके इस बात का ज्ञापन तो देगा नहीं कि कैसी फिल्में बनाई जाएं। फिल्मों यह देखकर बनेंगी कि कैसी फिल्में दर्शक पसंद कर रहे हैं। और दर्शक दबंग 2 के जोक और उसके कम कॉमन सेंस वाले नायकों को नायक मान रहे हैं। मल्टीप्लेक्स में एक ही समय दो फिल्में चल रही हैं। तलाश और दबंग 2। इन दोनों फिल्मों में कॉमन बात यह है कि इन दोनों के ही नायक पुलिस वाले हैं। अब दोनों फिल्मों के ट्रीटमेंट के अंतर को देख लीजिए। आमिर खान ने यह इस फिल्म के लिए दो साल का समय लिया। जहां-तहां से ट्रेनिंग ली। रोल के मुताबिक घनी मूंछे रखी। पुलिस अधिकारियों का उठना बैठना, बात करना और कमजोरियां सीखी। उसी की बगल की ऑडी में चल रही दबंग 2 का पुलिसवाला नकली मूंछे लगाता है। फिल्म में एसपी का किरदार निभाने वाले शख्स की ऊंचाई पांच फिट से भी कम है। थाने में चुटकुले चला करते हैं। थाना दिवस पर कहा जाता है कि पांडेय जी अब हम सब का मनोरंजन करेंगे। दोनों के परिणाम देखिए। दबंग 2, तलाश से बड़ी फिल्म साबित होगी। समझ मे नहीं आता कि दोष फिल्मकारों का है कि दर्शकों का। पहली नजर में तो दर्शकों का ही लगता है। जब तक दर्शक चाहेंगे सलमान खान और दबंग जैसी फिल्में दर्शकों के आईक्यू लेवल का मजाक बनाती रहेंगी।

Tuesday, November 27, 2012

खामोश! यश चोपड़ा हमें प्यार करना सिखा रहे हैं, चुपचाप सी‌खिए, तभी फिल्म 100 करोड़ क्लब में शामिल होगी

यश चोपड़ा की यह महान फिल्म उन दर्शकों के लिए है जिन्होंने यह फिल्म देखने के पहले सिर्फ फिल्मों के बारे में सुन रखा था उन्हें देखा नहीं था। उन्हें यह फिल्म बहुत ही खूबसूरत लगेगी। और जैसा कि बताया जाता है कि इस मुल्क को मोहब्बत करना यश चोपड़ा ने ही सिखाया है दर्शक इस फिल्म से मोहब्बत करने के कुछ ट्रिक सीख भी सकते हैं। पर फिर से यह प्रतिबंध लगाया जाता है कि दर्शक की यह पहली हिंदी फिल्म ही हो। यदि इसके पहले उसने कोई भी हिंदी फिल्म देख रखी है तो उसे यह फिल्म अपने जमाने से 20 से 50 साल पुरानी लग सकती है। उसे फिल्म के हर कलाकार का सामान्य ज्ञान कम लग सकता है। नायिका एक मोटी बुद्घि की लड़की लग सकती है और फिल्म के नाटकीय मोड़ जिसे लोग यशराज सिनेमा ट्वीस्ट कहते हैं बहुत ही भद्दे और बचकाने लग सकते हैँ। फिल्म के नायक शाहरुख को जब-जब प्यार होता है उन्हें एक गाड़ी टक्‍कर मार देती है जबकि वह बहुत सावधानी से रुल ऑफ द रोड को फालो करते हुए सड़क पार कर रहे होते हैं। टक्कर के पहले प्यार बरसाने वाली नायिका इस‌लिए शाहरुख से नहीं मिलती है क्योंकि कि उसने क्राइस्ट से शाहरुख का जीवन बचाने के बदले उससे कभी न मिलने की कसमें खाई होती हैं। आगे फिल्म और भी दिलचस्प है। शाहरुख खान नफरत करने की मौन कसमें खाते हुए भारतीय सेना में शामिल हो जाते हैं। उन्होंने दाढ़ी रख ली होती है और वह साथियों से बहुत काम बात करते हैं। इन सबके बीच वह बस डिफ्यूज करने का काम करते रहते हैं। शाहरुख यहां दीवार फिल्म के अमिताभ बच्चन की तर्ज पर भगवान से मोर्चा भी खोले हुए होते हैं। कि वह उन्हें मारकर दिखाए। इस बीच एक जर्नलिस्ट शाहरुख को कवर करने के लिए आती है। शाहरुख उससे दिन में रुखा व्यवहार करते हैं और रात में अकेले बैठकर फिल्मी गाने गाते हैं। ऐसी हालत में लड़की बिना प्यार किए रह नहीं पाती है। देश को प्रेम करना सिखाने वाला यश चोपड़ा ऐसा होने देते हैं। इसे उनका मास्टर स्ट्रोक कह सकते हैं। इस दूसरी लड़की (जिसे अभी अभी उन्हें प्यार हुआ होता है) के बुलाने पर वह लंदन जाते हैं। कुछ होने वाला होता ही है कि दुनिया को प्रेम करने के तरीके सिखाने वाले यश चोपड़ा शाहरुख को फिर से एक दुर्घटना का शिकार बनवा देते हैं। यानी पिछली दुर्घटना से शाहरुख ने कुछ नहीं सीखा होता है।
अब मजा देखिए। शाहरुख की याददास्त उस समय के दौर में चली जाती है जब वह पहली वाली लड़की से प्रेम फरमाने के समय चोट खा गए थे। देखिए कितना भयंकर किस्म का ट्वीस्ट। दर्शक तो बिल्कुल दांतों तले उँगलियां दबा लेगा। अब फिल्म की दोनों नायिकाएं एक चुलबुली और दूसरी ऐसी जैसे किसी की मयंत में आई हो मिलकर शाहरुख का जीवन सफल कर रही होती हैं। एक और महान घटना के साथ शाहरुख की याददाश्त वापस आ जाती है। वह दोनों लड़कियों को छोड़कर फिर से अपने फुल टाइम जॉब (बस डिफ़यूज करने वाला) में लग जाते हैं।अब फिल्म का क्लाइमेक्स आता है। जब वह बहुत महत्वपूर्ण बम डिफ्यूज कर रहे होते हैं उसी समय पहली वाली नायिका(वही जिसने क्राइस्ट को कुछ वजन दिया था) अपना वचन तोड़कर शाहरुख के साथ रहने आ जाती है। फिल्म की हैपी इंडिंग हो जाती है। कसम खाने वाली नायिका कैटरीना कैफ हैं और शाहरुख पर डाक्यूमेंट्री बनाने वाली अनुष्का शर्मा। इस फिल्म को देखने के बाद सबकुछ समझ में आता है पर यह समझ में नहीं आता कि 20 साल से अधिक फिल्मी दुनिया में रहने वाले शाहरुख खान की हिम्मत यश चोपड़ा से यह पूछने की नहीं हुई कि हम कर क्या रहे हैं। फिल्म का हर पात्र इतना बचकाना, उसके संवाद इतने हल्के और कहानी के ट्वीस्ट इतने जाने पहचाने कि लगता है कि यशराज कि किसी पुरानी फिल्म की फोटोकॉपी देख रहे हों। याददाश्त खो जाने का प्लाट इतना बचकाना और हल्का है कि हमें यश की कल्पना शक्ति पर संशय प्रकट करने का मन होता है। फिल्म में कैटरीना कैफ की भूमिका निहायत बचकानी है। वह जब-जब फिल्म में आती हैं फिल्म बैठती से लगी है। इस दम तोड़ती फिल्म की एकमात्र उम्मीद है अनुष्का शर्मा हैं। फिल्‍म में गुलजार और रहमान जैसे हस्तियां होने के बाद भी फिल्‍म का संगीत औसत है। यदि 2012 में दर्शकों को ऐसी ही कम बुद्घि वाली फिल्में दिखानी हैँ तो बेहतर है कि नई फिल्म बनाने के बजाय पुरानी फिल्मों को ही रीशूट करके रिलीज कर दें।

Friday, October 26, 2012

प्रकाश झा कहते हैं कि नक्सली जो कर रहे हैं वह दरअसल उनकी मजबूरी है

यदि हम नक्‍सल आंदोलन के खिलाफ नहीं हैं तो फिर उसके साथ हैं। इस विचारधारा से देखने पर प्रकाश झा की फिल्म चक्रव्यूह नक्सलियों की हर उस सोच या वारदात को जायज और जरूरत बताने का प्रयास करती है जिसे समाज बुरा मानता है। पूरी फिल्म में नक्‍सलियों के तौर-तरीकों को बुरा मानकर उसके खिलाफ लड़ने वाला फिल्म का नायक फिल्म के अंतिम सीन में नक्सलियों की सोच के साथ खड़ा दिखता है। फिल्म किसी अंजाम या निष्कर्ष पर नहीं पहुंचती है। ऐसा जानबूझ कर ‌किया जाता है। फिल्मकार इस बात को लेकर बेहद सतर्क रहे हैं कि वह किसी पक्ष या विपक्ष में खड़े न दिखें। फिल्‍म के अंत में आया एक वाइसओवर बताता है कि नक्‍सल समस्या कैसे अपना आकार बड़ा कर रही है। समस्या हल होने के बजाय उसका चक्रव्यूह गहरा होता जा रहा है। फिल्म चक्रव्यूह नक्‍सल समस्‍या और सरकार के साथ उसके ट्रीटमेंट को भले ही बहुत बेहतर तरीके से न दिखा पाई हो लेकिन यह दो दोस्तों की मानसिक उलझन को बेहतर तरीके से दर्शाती है। यह प्रकाश झा की सफलता है उन्होंने नक्‍सल आंदोलन जैसे जटिल विषय को मनोरंजक और रोचक बनाकर पेश किया। इस विषय को फिल्मी बनाने की कोशिश कहीं-कहीं बचकानी भी लगती है। कभी-कभार फिल्‍म के नक्‍सली वैसे ही बनावटी दिखते हैं जैसे करण जौहर की फिल्मों के स्कूल गोइंग स्टूडेंट। कहानीः चूंकि फिल्म का विषय बड़ा और जटिल था इसलिए इसे दो दोस्तों की कहानी बताकर दिखाने का प्रयास किया गया। इन दो दोस्तों के माध्यम से सरकार और नक्‍सलियों का पक्ष रखने की कोशिश की गई है। आईपीएस पुलिस अधिकारी आदिल(अर्जुन रामपाल) की पोस्टिंग नक्सल समस्या से पीड़ित क्षेत्र नंदीगांव में होती है। यहां पुलिस का नेटवर्क पूरी तरह से तबाह हो चुका है। एक उद्योगपति उस क्षेत्र में अपना उद्योग लगाना चाहते हैं। सरकार की कोशिश के बाद नक्सलियों की वजह से उन्हें सफलता नहीं मिल पा रही है। आदिल को इस काम का जिम्‍मा सौंपा जाता है। आदिल का दोस्त कबीर(अभय देओल) जिसने कभी आदिल के साथ पुलिस की ट्रेनिंग भी की थी नक्‍सलियों के बीच आदिल का मुखबिर बनकर शामिल हो जाता है। वह मुखबिर इसलिए बनता है ताकि वह नक्सलियों की मूवमेंट की हर खबर आदिल को दे सके। फिल्म वहां से रोचक होनी शुरू होती है जब कबीर का मन नक्सलियों के पक्ष में बनना शुरू हो जाता है। एक साथी महिला नक्सली जूही(अंजलि पाटिल) के प्रति उसके मन में एक प्रेम भी पैदा होता है। नक्‍सल के पक्ष या विपक्ष की यह वैचारिक लड़ाई इंटरवल के बाद दो दोस्तों की लड़ाई में तब्दील हो जाती है। स्थितियां बदलती जाती हैं। नक्सलियों के बड़े नेता रहे राजन(मनोज बाजपेई) के गिरफ्तार होने के बाद कबीर नक्सलियों का एक बड़ा नेता बनकर उभरता है। फिल्म का क्लाइमेक्स इसी बात में है कि यह दोनों दोस्त अपनी दोस्ती को आगे बढ़ाते हैं या अपनी वैचारिक सोच को। अभिनयः अभिनय के लिहाज से अर्जुन रामपाल और अभय देओल दोनों ने ही बेहतरीन काम किया है। राजनीति फिल्म में नाना पाटेकर की भूमिका जिस तरह से अंडरप्ले हो गई थी कुछ वैसा ही हाल मनोज बाजपेई का इस फिल्म में रहा है। उनके हिस्से न तो ज्यादा फुटेज आए हैं और न ही संवाद। अपनी संक्षिप्त भूमिका में ही सही वह रोल के खांचे में फिट बैठते हैं। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा की गोल्ड मेडलिस्ट रहीं अं‌जलि पाटिल ने इस फिल्म से अपना डेब्यू किया है। उनके पास फिल्म की नायिका ईशा गुप्ता से ज्यादा मौके रहे हैं। वह प्रभावित भी करती हैं। ईशा गुप्ता औसत रहीं हैं। मधुर भंडारकर और प्रियदर्शन की तरह प्रकाश झा के पास जूनियर कलाकारों की अपनी टीम है। गंगाजल से लेकर चक्रव्यूह तक वही सारे किरदार अलग-अलग रूप में दिखते हैं। कोई किसी फिल्‍म में पुलिसवाला बन जाता है तो कोई नेता। इन कलाकारों ने अभिनय तो अच्छा किया है पर एक बासीपन इनके साथ जुड़ता जा रहा है। छोटी सी भू‌मिका में ओमपुरी भी अपनी इमेज के अनुरूप ही रहे हैं। निर्देशनः एवरेस्ट की चोटी पर चढ़ने का मतलब वहां पर तंबू लगाकर बैठ जाना नहीं होता है। उस चोटी से उतरना ही होता है। मृत्युदंड, अपरहण और राजनीति जैसी फिल्में प्रकाश झा का शिखर रही हैं। यह फिल्म उस शिखर पर उन्हें दोबारा नहीं लौटा पाती। पर हां दर्शकों को निराश भी नहीं करती। पूरी फिल्म खामोशी से नक्‍सल समस्या के लिए सरकार को दोषी और नक्सलियों को जायज ठहराने का प्रयास करती है। यह प्रकाश की खूबी है ‌कि वह संवाद और घटनाओं से चुपचाप दर्शकों को अपनी इस सोच के साथ कर लेते हैं। नक्सल समस्या को बहुत कम या न जानने वाले दर्शक जब फिल्म देखकर निकलते हैं तो वह नक्सलियों के खिलाफ नहीं बल्कि उनके जैसा सोच रहे होते हैं। फिल्म के अच्छे संवादों के लिए अंजुम राजाबली और सागर पांड्या को भी बधाई मिलनी चाहिए। संगीतः यह प्रकाश झा की पहचान बनती जा रही है कि इंटरवल के बाद जब फिल्म थोड़ी गंभीर होती है तो वह उसे एक आइटम नंबर डालकर थोड़ा फिल्‍मी करते हैं। यह फिल्मी कोशिश चक्रव्यूह में निराश करती है। समीरा रेड्डी पर फिल्माया गाना पूरी तरह से बेझिल है। टाटा, बिरला, अंबानी और बाटा बोल वाला चर्चित गीत प्रभावित तो जरूर करता है पर गीत में वैसी कशिश और विट देखने को नहीं मिली जैसी गुलाल में ‌पीयूष मिश्रा ने अपने लिखने और गाने में पैदा की थी। क्यों देखे फिल्म चर्चित और गंभीर विषय पर बनी है इसके लिए इसे देखा जाना चाहिए। इसके अलावा य‌दि आपकी दिलचस्पी नक्सल की समस्या या उसके समाधानों पर जाने की नहीं है तो भी इसे दो दोस्तों की बनती-बिगड़ती कहानी के लिए देख सकते हैं। क्यों न देखें यह एक सार्थक सिनेमा है। कई जगह फिल्मी होने के बाद भी संभव है कि इसका विषय आपको अपने साथ कनेक्‍ट न करे। हल्के विषयों पर कुछ दूसरी फिल्में भी आपके लिए ही हैं।

Saturday, October 6, 2012

इंगलिश स्पोकन कक्षाओं से भारत में बनता रहेगा आत्मविश्वास, फिल्म भी प्रमाणित करती है

कस्बों और गांवों के लडक़े जब लल्लू लाल, करमा देवी, अहिल्या देवी या रघुराज प्रताप सिंह जैसे नामों वाले महाविद्यालयों से पढ़ाई करके निकलते हैं तो उनकी प्राथमिकता सबसे पहले आत्मविश्वास प्राप्त करने की होती है। जो कि वह मानकर चल रहे होते हैं कि वह उनके पास नहीं है। उनका अनकॉसेस माइंड मानता है कि आत्मविश्वास नाम की चीज शहर के लोगों में पाई जाती है। उनकी निगाह में कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो आत्मविश्वासी होते हैं। यह सभी आत्मविश्वासी लोग अंग्रेजी में बात करते हैं। आत्मविश्वास पाने की यह फैक्ट्रियां इंगलिश स्पोकन क्लास के नाम से जानी जाती हैं। हर साल इन फैक्ट्रियां से फुटकर और थोक में आत्मविश्वास निकल कर यहां वहां पहुंचता है। यह कहां पहुंचता है इससे हमारा कोई लेना देना नहीं है। हमारी मान्यताओं में अंग्रेजी को कभी भी सिर्फ भाषा के रूप में नहीं देखा गया है। इसे ज्ञान के रूप में माना जाता है। यह माना जाता है कि यदि आप अंग्रेजी में बोल रहे तो यह संभव ही नहीं कि आप गलत बोल रहे हो। अंग्रेजी के प्रति हमारे अतिरिक्त सम्मान की धारणा को फिल्म अंत में जाकर तोड़ती है। इसके पहले फिल्म की नायिका तब-तब खुश होती है जब वह अपनी अंग्रेजी से बात कहने में सफल हो जाती है। यह फिल्म की फिलॉसफिकल असफलता है। एक फिल्म के रूप में इंगलिश-विंगलिश एक प्रभावी फिल्म है। फिल्म सिर्फ अंग्रेजी के ज्ञान की नहीं हमारी मनोविज्ञान की भी परीक्षा लेती चलती है। हमारी एक मनोवृति होती है कि अपने करीबी की जो जिस कमी की वजह से उस पर दया करते हैं जब वह व्यक्ति उस कमी को ठीक करने के लिए गंभीर होता है तो हम उसके प्रति ईष्या का भाव रखना शुरू कर देते हैं। फिल्म उन रिश्तों की भी समीक्षा करती चलती है कि जो एक समय के बाद सिर्फ प्रेम बरसाते हैं सम्मान नहीं। चीनी कम की तरह आर बल्कि कई फिलॉसिफी देने में सफल रहे हैं।

Friday, September 28, 2012

हम फिल्म का मुहूर्त पंडित से पूछकर तय करेंगे लेकिन दर्शकों तुम धर्म के आडम्बरों को न मानना

सब टीवी के हंसो-हंसो टाइप धारावाहिक जैसी शुरू हुई यह फिल्म अपने बीतने जाने के साथ एक हैरत भरी गंभीरता ओढ़ती जाती है। इस देश में जहां धर्म के नाम पर वाटर फिल्म की शूटिंग नहीं हो पाती, कुछ फिल्में बनने के बाद रिलीज नहीं हो पाती और जहां तेली जैसे सामान्य जातिसूचक शब्दों पर सेंसर बोर्ड वीप चस्पा करके रिलीज करता है वहां यह फिल्म धर्म के नाम पर इतनी खुली और तटस्थ होकर बहस कैसे कर लेती है इस बात का सुखद आश्चर्य होता है। हिंदू धर्म की मूर्ति पूजा पर पूरी तरह प्रश्न खड़ा करती और इस प्रक्रिया में खुद भगवान को शामिल करती हुई यह फिल्म दर्शकों को मनोरंजक लगने के साथ आंखे खोलने वाली भी लगती है। फिल्म देखकर दर्शक उन कुरुतियों पर हंसते हैं जिन्हें वह करते हैं और करते आए हैं। मेरे पास फिल्म देखकर कुछ दर्शक ऐसे थे जिन्होंने धार्मिक व्यवस्था पर प्रश्न खड़ा करने वाले संवादों पर ठहाके लगाए लेकिन तत्काल ही वह मल्टीप्लेक्स की छत को ताड़ते हुए एक अंनत: शक्ति को नमन करते दिखे। यह धर्म को लेकर दोहरापन है। हम धर्म की कुरुतियों को खारिज तो करना चाहते हैं पर भीड़ के साथ। जैसे भीड़ में कुछ भी कर दो भगवान को पता नहीं चलेगा। अकेले होते ही हम वैसे ही तेल का अर्पण करना चाहेंगे जैसे कि करते आए हैं। हरिशंकर परसाई कहते हैं कि जब यह कहा जाएं कि महिलाएं घरों से बाहर निकलें तो इसका मतलब होता है कि अपने घर की नहीं दूसरों के घरों की। यही इस फिल्म का भी एजेंडा है। इस फिल्म के मुहूर्त के समय भी भगवान की पूजा हुई होगी। प्रसाद में पेड़े और गरी के टुकड़े बांटे गए होंगे। पंडित से पूछकर ही मुहूर्त निकाला गया होगा और फिल्म पूरी होने के बाद फिल्म रोल पर स्वास्तिक का प्रतीक बनाया गया होगा। इतना ही नहीं गणेश पूजा से लोगों को कनेक्ट करने के लिए एक आइटम नंबर भी फिल्म में डाला गया। और यही फिल्म दर्शकों से आडम्बरों से बचने की बात करती है। जब मैं किशोर हो रहा था तो भारत के हर कस्बे में बुफे सिस्टम इंट्रोड्यूस हो रहा था। हर मोहत्ले के दुबे जी, शुक्ला जी, अग्रवाल जी और वर्मा जी बुफे सिस्टम को कुतों का भोज कहकर उसकी आलोचना करते लेकिन पोते के मुंडन में वही इस सिस्टम से दूसरों को खाना खिलाते दिखते। तर्क वही कि यह सिस्टम गलत है लेकिन बदलाव दूसरे से शुरू हो। अच्छी फिलासिफी है। फिल्म के संवाद और परेश रावल की अदाकारी उत्कृष्ट है। भगवान के हिस्से अच्छे संवाद नहीं आए हैं।

Saturday, September 15, 2012

लगता है कि सारे किरदार दार्जलिंग में ही रहे हैं, फिल्म से इन्हें कोई लेना-देना नहीं है

बर्फी फिल्म एक नशे की तरह दिमाग में चढ़ती जाती है। यह धीमा नशा इतना तेज है कि फिल्म देखते वक्त यह हमारे उन तर्कों को खारिज करता चलता है जिनके सहारे हम किसी फिल्म के औचित्य पर प्रश्न खड़ा करते हैं । ऐसा इसलिए क्योंकि हम फॉर्मूला फिल्म देखने के आदी हो चुके हैं । यह इस फिल्म की खूबसूरती है कि जहां यह फिल्म गैर फिल्मी या गैर पारंपरिक होती है वह अपने भव्यतम रूप में पहुंच जाती है। फिल्म में कहीं कोई तरतीब या क्लाइमेक्स जैसा कुछ नहीं। जो घटनाएं फिल्मों में सबसे बाद के लिए बचाकर रखी जाती हैं वह इस फिल्म में कहीं भी प्रयोग कर दी गईं। गूंगे-बहरे का किरदार न तो उसके लिए आपसे दया मांगता है और न ही अतिरिक्त ध्यान देने की अपील करता है। इस फिल्म को देखते-देखते हमें अचानक ही लगता है कि हमको इस छल-कपट की दुनिया हो हमेशा के लिए बाय बोल देना चाहिए। आशीष विद्यार्थी जहां-जहां फिल्म में आते हैं उनसे दर्शकों को ढेर सारे कोफ्त होती है। फिल्म में वही एक ऐसा चेहरा हैं जो बर्फी को फिल्म होने का एहसास कराते हैं। बाकी के किरदार ऐसे हैं जिन्हें देखकर लगता है कि वह दार्जलिंग में अभी भी रह रहे होंगे। फिल्म का मुख्य किरदार आपको अपने साथ पहले मिनट से कर लेता है। उसकी शरारतें, उसकी खुशी और उसकी दुखों में हम उसके साथ रहते हैं। बर्फी मोहब्बत की दिलचस्प कथा है।
रणवीर इस फिल्म अपना नाम बोलने के अलावा कुछ भी न बोलते दिखते हैं और न ही बोलने का प्रयास करते हैं। फिर भी दर्शकों को एक बार भी उनका गूंगापन अखरता नहीं है। फिल्म की एक बहुत बड़ी खूबसूरती उसका संगीत है। हर गाने जितना अच्छे से लिखा गया है उससे बढक़र उसे फिल्माया गया है। कुछ फिल्में इंडस्ट्री को १०० करोड़ भले ही न दे पाएं पर कुछ ऐसी चीजें देती हैं जिन पर हम १०० साल तक गर्व करते रहें। बर्फी ऐसी ही फिल्मों में से एक है। अनुराग शायद अब काइट की असफलता को अच्छे से भुला सकेंगे।

Friday, August 31, 2012

६ साल बाद सिर्फ एक कदम बढ़ पाए हैं शिरीष

जोकर फिल्म इस बात का गहराई से एहसास कराती है कि कई अच्छी फिल्मों से जुड़े फिल्मकार मिलकर एक घटिया फिल्म भी बना सकते हैं। फिल्म के निर्देशक शिरीष कुंदर ने अपने अकेले के बूते सिर्फ एक ही फिल्म जानेमन बनाई है। उस उलझी हुई फिल्म के ६ साल बाद उन्होंने जोकर का निर्देशन किया है। शिरीष का निर्देशन इस फिल्म में एक पायदान ऊपर चढ़ता है पर फिल्म विषय के स्तर पर इतनी कमजोर है कि बेहतर निर्देशन, ठीक-ठाक ऐक्टिंग और आयटम सॉन्ग भी फिल्म को बचा नहीं पाते। कहीं यह फिल्म पीपली लाइव हो जाना चाहती है तो कहीं कोई मिल गया। अब कोई न कह पाए कि यह फिल्म पूरी तरह से किसी फिल्म की नकल है तो कुछ अपनी मौलिकता डालने की भी घटिया कोशिश की गई है। अक्षय कुमार एक जैसी ही ऐक्टिंग करते हैं। सोनाक्षी सिन्हां पूरी फिल्म में अक्षय कुमार की चापलूसी करती रही हैं। पिताबश त्रिपाठी जैसे कलाकार का घटिया उपयोग किया गया है।

Friday, August 24, 2012

लगा कि पारसी बचाओ एसोसिएशन की फिल्म चल रही है और सारे पारसी जमकर ओवरएक्टिंग कर रहे हैं।

इसे कुछ इस तरह से समझिए। टेलीफोन बनाने वाले ग्राहम बेल और बिजली बल्ब बनाने वाले थामस एडीसन कहें कि मैं एक प्रयोग करूंगा। बरसात की बूंदे जब धरती पर टकराएंगी तो उनके घर्षण से जो ऊर्जा निकलेगी उससे मैं बिजली बनाऊंगा। लोग उनकी बात माने या न माने पर हवा में उड़ाकर खारिज नहीं करेंगे। चूंकि यह दोनों वैज्ञानिक हैं और बिजली बनाने के इस प्रयोग के पहले वह दुनिया को कुछ दे चुके हैं। बिजली तो खैर नहीं बनेगी पर ऐसी प्रयोगों से एतबार उठेगा। बिजली बनाने की कुछ ऐसी ही कोशिश संजय लीला भंसाली, फराह खान और बोमेन ईरानी ने की है। शीरी फरहाद फिल्म न तो संजय के जीवन का माइल स्टोन थी, न फराह के और न ही बोमेने के। इस कोशिश का निष्कर्श कैसा भी होता उनके करियर पर इसका कोई फर्क नहीं पडऩे वाला था। फराह नियमित ऐक्टिंग नहीं करने लगतीं, उनकी जोड़ी बोमेन के साथ रिपीट नहीं होने लगती, मेच्योर कलाकरों को लेकर प्रेम कहानियां बननी नहीं शुरू हो जातीं, संजय के नाम की स्तुती नहीं गायी जाने लगती। जब इसके हिट होने से कुछ बदलने वाला नहीं था तो ऑफबीट के नाम पर किसी भी व्यक्ति ने फिल्म में अपना बहुत दिमाग नहीं लगाया। सबने उतना ही किया जितना की वह प्रोफेशनली अभ्यस्त हो गए हैं।
एक बहुत ही स्तरीय कहानी को घटिया पटकथा में तब्दील कर दिया गया। बोमेन जैसे दिग्गज कलाकार ने एक औसत से परफार्सेंस दे दी। सालों कैमरे के पीछे रहने वाली फराह के लिए ऐक्टिंग थोड़ा फन हो गया। बेला सहगल के नाम पर एक फिल्म का निर्देशन दर्ज हो गया और संजय लीला भंसाली भंसाली ने कुछ पैसे कमाने के साथ अपने निर्माण में बनने वाली फिल्मों की संख्य बढ़ा ली। नुकसान सिर्फ उन दर्शकों का हुआ जो इस ऑफबीट फिल्म देखने के लिए पूरी संजीदगी से आए थे। है। फिल्म बनाने की ऐसी घटिया कोशिशें समांतर सिनेमा के उस ढंाचे पर चोट पहुंचाती हैं जिस पर धीमे-धीमे आम दर्शकों का विश्वास जमने लगा है। संजय लीला भंसाली की फिल्मों में पारसी परिवेश के दृश्यों की झलक मिलती रहती है। इस बार उन्होंने हद की है। अन्य फिल्मों के सारे जाने-पहचाने पारसी चेहरे इस फिल्म में एक जगह आ गए हैं। पारसी शायद लाऊड तरीके से बोलते ही हैं या कोई और वजह, हर किरदार ने जमकर ओवरऐक्टिंग की है। एक्टिंग के साथ बोलने की टोन में भी, कपड़ों में, शौक और रहन सहन में भी कहीं-कहीं तो यह फिल्म अखिल भारतीय पारसी बचाओ एसोसिएशन की फिल्म लगने लगती है। उसको श्रृद्धांजलि देती हुई।

Friday, August 17, 2012

मेरे पापा की उम्र के सलमान खान फिल्म में लव इन फस्र्ट साइट वाला प्रेम कर रहे हैं और फिल्म को ३३ करोड़ की ऐतिहासिक ओपनिंग मिल रही है

हिंदी फिल्म उद्योग शादी को अभी कठिन ही बनाए रखना चाहता है। समय के साथ कठिनाई के तरीके बदलते रहे हैं। अमीर किंतु बेरोजगार लडक़े के सिगार पीते पिता, घर पर सिलाई करके बेटी को स्वाभिमानी बनाए रखने वाली मां, कभी जाति तो कभी एक छोटी सी घटना विवाह में अड़ंगा बनती रही है। एक था टाइगर शादी के इसी पारंपरिक अवरोध की कहानी है। चूंकि फिल्मों में मां-बाप तो अब रहे नहीं इसलिए इस फिल्म में नायक-नायिका की शादी में दो राष्ट्रों की गोपनियता और उनकी सामरिक नीतियां आड़े आ रही हैं। १५ अगस्त पर सुबह से बजते देशभक्ति के गीतों और टीवी पर आ रहीं देशभक्ति की फिल्मों की वजह से हम थोड़ा बहुत देशप्रेमी हो जाते हैं। एक था टाइगर अपने प्रोमो और डायलॉग से यही साबित करती थी कि यह एक खांटी देशभक्ति की फिल्म है जिसमें कैटरीना-सलमान की प्रेम कहानी बीच-बीच में दर्शकों के मनोरंजन के लिए आएगी। फिल्म में होता इसका उल्टा है। सलमान की पूरी जाबांजी नायिका से विवाह रचाने के अवरोधों को निपटाने में व्यर्थ होती है। इस फिल्म को रिलीज करने में मल्टीप्लेक्सों के साथ छोटे और मछोले शहरों के सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों ने भरपूर उत्साह दिखाया है। इन सिनेमाघरों को बदले पर आधारित फिल्में हमेशा रास आई हैं। वह बदला मिथुन चक्रवर्ती का हो, सन्नी देओल का हो या फिर सलमान खान का। इस बदले को देखने आए दर्शकों को फिल्म से कुछ नहीं मिला। वह एक प्रेमी के रूप में ही नजर आए। चूंकि फिल्म ३३ करोड़ की ओपनिंग कर चुकी है तो यह फिल्म को खराब कहना वैसा ही होगा कि जैसे कहा जाए कि भारत की सडक़ों पर दाएं चलिए, केले के छिलके सडक़ पर छितराइए।
सलमान खान और मेरे पापा की उम्र में बस इतना अंतर है कि जब मेरे पापा दसवीं कर रहे होंगे तो सलमान दूसरी या तीसरी क्लस में रहे होंगे। सलमान की फिल्मों को जिस उम्र के युवा देखने आते हैं उनके पापाओं और डैडियों की उम्र सलमान खान के लगभग बराबर होगी। १६ साल की लड़कियों के पिता तो सलमान से छोटे भी हो सकते हैं। दो-तीन सालों में ५० की सरहद छूने वाले सलमान खान यदि ऐसी प्रेम भरी सफल फिल्में कर सकते हैं तो यह २५ से ३० साल के नए कलाकारों के लिए अफसोस और चिंतन का विषय होना चाहिए। एक फिल्म जो अपनी डायलॉग, स्क्रीनप्ले, अभिनय और कहानी से इतनी औसत है वह अब तक सबसे बड़ी फिल्म कैसे बन जाती है यह हम सबके सोचने का विषय है। दबंग और बॉडीगार्ड के विपरीत इस फिल्म की अच्छाई यह है कि यहां फूहड़ सहकलाकारों की जगह गिरीश कर्नाड और रणीवर शौरी जैसे कलाकार हैं। कर्नाड को तो और भी फिल्में लगातार करनी चाहिए।

Wednesday, August 8, 2012

यह सही मायने में पहली सीक्वेल फिल्म है

वासेपुर:१, एक घर पर अंधाधुंध गोली चलने की घटना के साथ शुरू हुई थी, जैसे ही वह दृश्य पार्ट:२ के बीचो-बीच स्वाभाविक रुप से आता है हमें एहसास होता है कि हम एक असाधारण तरीके से बनी हुई ऐसी सीक्वेल फिल्म देख रहे है जो सही मायने में अपनी पहली फिल्म का विस्तार है। बिना किसी खास परिचय के हम उस फिल्म के विस्तार में शामिल हो चुके होते हैं जिसे हमने एक महीने से अधिक समय पहले देखा है। वासेपुर:२ हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की शायद पहली ऐसी फिल्म होगी जिसमें कलाकारो के नाम के साथ नायक के जनाजे के दृश्य है। ऐसे नायक के जनाजे का जिसे फिल्म देखने आए दर्शकों में से आधे इस उम्मीद में देखने आए थे कि शायद हिंदी फिल्म की परंपरा के अनुसार कई गोली लगने के बाद भी वह जिंदा हो। पार्ट:१ के हीरो मनोज बाजपेई थे और क्लाइमेक्स में यह साफ नहीं हुआ था कि वह जीवित हैं अथवा मर गए। २० सेकेंड में ही साफ हो जाता हैं कि वह मर गए है। अब ?। दर्शकों के लिए यह एक बड़ा प्रश्न था।
मनोज बाजपेई के जनाजे के दृश्यों से नवाजुद्दीन पर कैमरा जूम होना शुरू हो जाता है। उसकी आदतों पर, उसकी कमजोरियों पर और उसकी सोच पर। पटना से लेकर लेकर जोधपुर और मुरादाबाद से लेकर बिलासपुर तक के फिल्मी दर्शकों के लिए नवाजुद्दीन की हैसितय एक्सट्रा कलाकार से ज्यादा नहीं है। शुरूआती दृश्यों में जब उनकी चिलम पीने की आदत पर खिल्ली उड़ाई जा रही होती है तो दर्शक उस खिल्ली से सहमत होते हैं। उन्हें वाकई यह ऐतबार नहीं होता है कि नवाजुद्दीन इस फिल्म में मनोज बाजपेई जैसी भूमिका निभाने जा रहे हैं जो बदले की इस परंपरा को आगे बढ़ाएगा। फिल्म के निर्देशन की गहराई यहीं से शुरू होती है। पटकथा, घटनाएं, घटनाओं का अध्ययन, चुटीले संवाद के बीच नवाजुद्दीन को ऐसे फिट किया गया है कि वह फिल्म की सबसे महत्वपूर्ण जरूरत लगने लगते हैं। फिल्म के अंतिम दृश्य में दर्शक वाकई नहीं चाहते कि फैजल की हत्या हो।
वासेपुर:२ पात्रों की उपयोगिता की फिल्म है। फिल्म का हर किरदार यह साबित करता है कि उसकी जगह और कोई दूसरा नहीं ले सकता। नवाजुद्दीन का पात्र इसलिए मजबूत लगता है क्योंकि उसके आसपास हुमा कुरैशी, रिचा चड्ढा, पीयूष मिश्रा, तिंग्माशु धूलिया, राजकुमार यादव, जीसान कादरी जैसे कलाकारों का एक गुट है। हर कलाकार अपने किरदार को मानो घोल कर पी गया हो। फिल्म में जहां-जहां कुत्ते आए हैं निर्देशन ने उनसे भी अब तक का सबसे बेहतर काम लिया है। पहले ही फिल्म की तरह यह फिल्म भी अपने दृश्यों की डिटेलिंग से प्रभावित करती है। फिल्म किस सन की बात कर रही है इसे उस दौर में प्रदर्शित हुई फिल्में प्रदर्शित करती हैं। फिल्म देखने वाले हर पात्र पर फिल्म का गहरा प्रभाव है। उस समय फिल्में चूंकि बिगडऩे का एक सूचक मानी जाती थीं इसलिए रामधीन सिंह खुद के बचे रहने के पीछे फिल्म न देखने का कारण देते हैं। फिल्म के संवादों और गानों पर वाकई बहुत मेहनत की गई हैै। दर्शक भी अब मेच्योर हो गए हैं मादरचोद, गाण, बेटी चोर, चोदनपट्टी जैसे शब्द उन्हें फिल्म का ही हिस्सा लगते हैं। वह इन शब्दों के आने पर पहले जैसे उछलते-कूदते नहीं। फिल्म के प्रारंभिक लेखक और डिफनिट की भूमिका निभाने वाले जीशान कादरी प्रभावित करते हैं।

Friday, August 3, 2012

सन्नी लियोन एक चारा थीं, जिससे दर्शकरूपी मछली पकड़ी गई।

भीगकर मल्टीप्लेक्स पहुंचे दर्शक टिकट लेते वक्त से ही सन्नी लियोन का अखंड जाप कर रहे थे। उनकी जुबान में न फिल्म का नाम था, न महेश या पूजा भट्ट थे और न ही फिल्म के नायकद्वय। कुछ दर्शक ऑडी गेट के ठीक बाहर ऐसे उत्तेजित थे कि मानो गेट खुलते ही सन्नी लियोन अपनी ख्याति के अनुरूप उन्हें बिल्कुल निवस्त्र साक्षात मिल जाएंगी। उत्साह इतना चरम पर था कि फिल्म के पहले आने वाले फिल्मों के ट्रेलर पर भी वह सन्नी लियोन को नंगे देखे जाने वाली फ्रीवेंक्सी से ही सीटियां और तालियां बजाए जा रहे थे। फिल्म के कुछ शुरुआती संवाद इसलिए नहीं सुने जा सके क्योंकि दर्शकों को सन्नी लियोन दिखनी शुरू हो गई थीं और दर्शक उत्सहित थे।
यह भट्ट कैंप की कामयाबी थी जो इन दर्शकों को बारिश होने के बावजूद मल्टीप्लेक्स तक खींच लाई थी। यह कामयाबी उस प्रचार की थी जिसमें इस फिल्म को भारत की सबसे अश्लील फिल्म कहकर प्रचारित किया गया था। दर्शक इसे सही इसलिए भी मान रहे थे क्योंकि फिल्म की नायिका पोर्न फिल्मों की नायिका रही हैं। लगभग सवा दो घंटे की इस फिल्म को दर्शकों ने सिर्फ इस उत्साह में एक घंंटे पूरे मनोयोग से देखी कि सन्नी अब कपड़े उतारने वाली हैं। फिल्म का ट्रैक एकबार गंभीर हो जाने के बाद दर्शकों को अचानक लगा कि वह बुरी तरह से ठगे गए। उन्हें अब तक फिल्म में ऐसा कोई सीन नहीं मिला था जिसे वह दर्जनों फिल्मों में पहले न देख चुके हों। उन्हें लगा कि सन्नी लियोन एक चारा थी जिससे दर्शक रूपी मछली पकड़ी गई।
जिस लियोन को वह न्यूड होने की कल्पना मन में लेकर आए थे वह उस समय हिंदी के पारंपरिक घिसे-पिटे संवादों का पाठ कर रहीं थीं या फिर सांसों को उपर-नीचे। यदि इस बीच यदि कुछ अच्छा भी बीत रहा था तो वह उसके खिल्ली उड़ा रहे थे। पूरी फिल्म जितनी खटिया तरीके से लिखी गई उसका निर्देशन भी उतने ही घटिया तरीके से हुआ। एक निर्देशक के रूप में पूजा की और कलाकार के रूप में अरुणोदय की सबसे खराब फिल्म।

Friday, July 13, 2012

बच गए त्याग की लखनवी परंपरा पहले आप- पहले आप से

कॉकटेल हैं तो एक प्रेम त्रिकोण ही। पैटर्न एक लडक़ा और दो लडक़ी वाला। पूरी फिल्म में फिल्मकार की कोशिश इस बात पर है कि यह पारंपरिक प्रेम त्रिकोण न लगे। फिल्म निर्माण के समय यह संकट रहा होगा कि कहानी सुनने के स्तर पर यह फिल्म भी अब तक बन चुकीं सैकड़ों फिल्मों जैसी एक प्रेम त्रिकोण ही लगती है, फिर अलग क्या। निर्माता सैफ अली खान को इस संकट से इम्तियाज अली ने अपनी पटकथा और संवादों से उबारा होगा। यह फिल्म के संवाद ही हैं जिनकी वजह से फिल्म पारंपरिक होते हुए भी पारंपरिक होने से बच गई। फिल्म के लेखक इम्तियाज अली, निर्देशक होमी अदजानिया पर इसलिए भी भारी पड़े हैं यह फिल्म अपने दृश्यों से नहीं बल्कि अपने संवादों से २०१२ की प्रेम ट्रेैंगल होने का एहसास जगाती है।
संवाद का एक नमूना देखिए, नायक अपने प्रेम में डूबी हुई दो नायिकाओं से कहता है, कि चलो बैठते हैं बात करते हैं, जब बड़े-बड़े नाभकीय मुद्दे, विश्व आतंकवाद छोटी सी टेबल पर हल हो जाते हैं तो यह क्यों नहीं। नहीं बाद में वही सब कुछ होगा एक-दूसरे से छिपना-छिपाना। फिर दूर हट जाओ मैं तुम्हारी शकल भी नहीं देखना चाहती। अलग दिखने की कोशिश इतनी संजीदा है कि उसे स्पष्ट रूप से कहकर साफ कर दिया गया है कि हमारा इरादा क्या है। एक समय जब नायिकाओं पर स्वार्थ के बाद त्याग का भूत सवार होता है तो लगा कि यह फिल्म २००२ में रिलीज हुई कुंदन शाह की फिल्म दिल है तुम्हारा के रास्ते चल देगी या सुनील दर्शन किसी फिल्म से प्रेरित हो जाएगी। जहां त्याग की भावनाएं लखनऊ की परंपरा के अनुसार पहले आप पहले आप की तरह एक-दूसरे पर थोपी जाती हैं।
कॉकटेल सैफ अली खान के अभिनय के लिए भी जानी जाएगी। सैफअली खान एक्टिंग अपने बुढ़ापे के समय में सीख पाए हैं। फ्लर्ट के रोल तो वैसे भी उन पर जंचते हैं फिर बार भ्रमित प्रेमी और प्रेम के तनाव में दबे किरदार को उन्होंने बखूबी जिया है। इम्तियाज अली के फिल्मों के पात्र वैसे भी फिल्म के अंतिम रील में अपना जीवन साथी चुनते आए हैं। डायना
पैंटी अपने स्वाभाविक अभिनय से उम्मीद जगाती हैं। जिसमें उनका चेहरा उनकी मदद करता है। दीपिका पादुकोन की भूमिका उनकी हैसियत के हिसाब से है। फिल्म के गाने और उनका पिक्चराइजेशन लजवाब है।

Saturday, July 7, 2012

पैटर्न डेविड धवन वाला और स्मार्टनेस ठग्गू के लड्डू वाली

(ऐसा कोई सगा नहीं जिसको हमने ठगा नहीं)कानपुर के मशहूर ठग्गू के लड्डू अपनी दुकान के सामने यह स्लोगन लिखकर ठगे जाने की आशंका को हास्य में उड़ा देते हैं। लोग उनके लड्डुओं की क्वॉलिटी पर तो चर्चा करते हैं उसके महंगे होने पर नहीं। ठग्गू के लड्डू वाला फॉमूर्ला रोहित शेट्टी ने बोल बच्चन में अपनाया है। बाद में लोग कहें कि यह फिल्म में अमोल पालेकर वाली गोलमाल की कॉपी है इसलिए उन्होंने गोलमाल फिल्म के कुछ किस्से को ही फिल्म की महत्वपूर्ण घटना बना लिया। बात जस्टीफाई हो गई। यह फिल्मकार की फिल्म के लिए की गई एकमात्र स्मार्ट कोशिश है।
बाकी की कोशिशें उन दर्शकों के लिए हैं जो रॉस्कल्स, रेडी, डबल धमाल और राउडी राठौर जैसी फिल्में देखकर यह कहते हुए निकलते हैं कि मजा आ गया। उन दर्शकों को इस फिल्म में मजा की घात पांच जितना मजा आया होगा। फिल्म बुरी है भी नहीं है। एक बार प्लाट जमने के बाद दर्शक इस फिल्म के साथ जुड़ते हैं। सबकुद पता होने पर भी उसके घटने का इंतजार किया जाता है। शुरू के कुछ मिनट थोड़ा उबाउ बहुत ज्यादा फिल्मी लगते हैं। रोहित शेट्टी, डेविड धवन के उस फॉर्मूले को बढ़ाने वाले फिल्मकार हैं जहां फिल्म का कैनवास बड़ा होता है, स्टार बड़े होते हैं, लोकेशन भव्य होता है, अभिनय का दायरा छोटा और संवाद घटिया स्तर के होते हैं।
मानवता की भावना फिल्म के आखिरी तीन मिनट में आती है। सब किरदार चोरी-चकारी छोड़ अच्छे इंसान बन जाते हैं। खराब अंग्रेजी को पर्दे पर दिखाने की अच्छी एक्सरसाइज की गई होगी। आर बाल्की की आने वाली फिल्म इंगलिश-विंगलिश में दर्शक इसे और सिस्मैटिक और क्लासिकल ढंग से देख सकेंगे। आसिन की अब तक की सबसे कमजोर फिल्म।

Friday, June 29, 2012

कुछ अच्छे दृश्य चुराकर, कुछ अच्छे दृश्य डालकर एक अच्छी फिल्म नहीं बना करती

मैक्सिमम बनाने वाले कबीर कौशिक ने इस फिल्म के पहले तीन फिल्में डायरेक्टर की हैं। शहर, चमकू व हम तुम और घोस्ट। तीनों ही फिल्मों को दर्शक नहीं मिले थे। चमकू और शहर के लिए अंग्रेजी अखबारों ने जरूर कुछ उदारता दिखाकर स्टार लुटाए थे। कबीर कौशिक की हर फिल्म हिंदी में इस विषय पर बन चुकीं कई सारी फिल्मों की प्रेरणा होती हैं। मतलब ऐसा विषय जिसे हम कहीं और थोड़ा या बहुत अच्छे या खराब ढंग से देख चुके होते हैं। कई फिल्मों की अच्छी-अच्छी बातें उठाकर यदि एक मुक्कमल अच्छी फिल्म बनाई जा सकती होती तो अनु मलिक फिल्म बनाने के धंधे में होते और सबसे सफल भी। मैक्सिमम फिल्म की रचना के समय कबीर के मस्तिष्क में पुलिसिया जिंदगी पर बनीं कई सारी फिल्में रही होंगी।
हर कोई अपनी तरफ से सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करता ही है। कबीर ने भी किया। उन्होंने पुलिसिया जिंदगी की फिल्मों में थोड़ा परिवार, थोड़ा आदर्श, कुछ नए दृश्य और कुछ कल्पानएं जोड़ी। जो उनके मुताबिक पहले वाली फिल्मों से बेहतर हो गईं। इन सब चीजों के जोडऩे की वजह से यह फिल्म किसी एक फिल्म की रीमेक तो नहीं लगती। लेकिन इन सब बातों की वजह से फिल्म की स्पीड कहीं तेज तो कहीं एकदम सुस्त हो जाती है। नायक के बाप का समुद्र के किनारे खड़े होकर शेक्सपियर को पढऩा, पत्नी के साथ खाना-बनाने जैसे दृश्य इसी दायरे में रखे जा सकते हैं।
कबीर की सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि वह दर्शक को यह नहीं बता सके कि आखिर वह दिखाना क्या चाह रहे हैं। यदि वह नसीर और सोनू सूद के बीच का टकराव दिखाना चाह रहे थे तो कम से कम फिल्म में ऐसे दस दृश्य होते जहां दर्शक साफ-साफ श्रेष्ठता की जंग देख सकते। जहां संवादों से कोई हारता तो कोई जीतता। यह फिल्म थी न कि विवि या किसी दफ्तर की राजनीति जहां शत्रु आमने-सामने खड़े होकर संवाद नहीं करते। नसीरुद्दीन शाह इस फिल्म को खींच सकते थे यदि वह सोनू सूद वाला रोल कर रहे होते।

Tuesday, June 26, 2012

हम गैंगवार की फिल्म देख रहे हैं ऐसा सिर्फ कुछ देर लगता है, बाकी समय एक ऐसी दुनिया है जो बुरी होते हुए भी बहुत लुभावनी है

अनुराग कश्यप इस फिल्म को ढाई घंटे की एक फिल्म में खत्म कर सकते थे। किसी भी माफिया गैंगवार में इतनी तेज, फ्रीक्वेंट और महत्वपूर्ण घटनाएं नहीं होती हैं कि उन पर दो फिल्में बनानी पड़ें। वासेपुर पूरी तरह से गैंगवार की फिल्म नहीं है। शुरुआती चंद मिनट छोडक़र कहीं भी बिना वजह मारपीट नहीं है। वासेपुर दरअसल अनुराग की ऑब्जर्वेेशन का डीटेल है। उस ऑब्जर्वेशन में उस समय का समाज है, राजनीति है, जीवन है, लाइफ स्टाईल के साथ उसी दौर की नफरत और मोहब्बत भी है। फिल्म में दर्जनों ऐसे दृश्य हैं जिन्हें देखकर लगता है उस दौर को दिखाने के लिए जमकर होमवर्क और रिसर्च किया है। फिल्म शुरू होने के आधे घंटे तक तो कोयला, बदला, माफिया जैसी बातें करती है लेकिन आधे घंटे के बाद एक अलग ही दुनिया है। वह दुनिया बुरी होते हुए भी बड़ी जादुई और सम्मोहक लगती है। फिल्म की सबसे बड़ी खूबी पात्रों की रचना और उनकी स्थापना है। हर पात्र अपनी जगह पर ऐसा फिट है कि लगता हैं कि इससे बेहतर कोई और हो ही नहीं सकता। दबंग और बॉडीगार्ड फिल्मों से उलट इस फिल्म का कोई भी किरदार मंद या अल्पबुद्धि नहीं है। लगभग तीन घंटे की यह फिल्म अपने अंदर दर्जनों भव्य और ऐतिहासिक दृश्य समेटे हुए है। फिल्म वहां भव्य हो जाती है जहां मनोज बाजपेई अपनी पत्नी से सुहागरात पर पानी के लिए पूछने के बाद अपने जीवन के एकमात्र लक्ष्य को साक्षा करते हैं, यह फिल्म वहां भव्य होती है जहां वह रंडीखाने की एक रंडी को नगमा समझ लेने का तर्क देते हैं और कहते हैं कि शराब के नशे में उन्होंने रंडीखाने को घर समझ लिया है। फिल्म वहां बहुत बड़ी बन जाती है जब मनोज बाजपेई नीली हवाई चप्पल, लुंगी पहन कर दातून चबाते हुए दुर्गा से रोमांस करते हैं। धीमे से चप्पल निकालना और साथी का इसे समझ कर दौड़ लगा देना। नगमा का फ्रिज और वैक्यूम क्लीनर से सफाई करने जैसे दृश्यों की खूबसूरती यह है कि वह बहुत मामूली हैं। वासेपुर अपने अभिनय के लिए जानी जाएगी। मनोज बाजपेई के अलावा दूसरे कलाकारो ने भी कमाल का अभिनय किया है। तिंगमाशु धूलिया की फिल्म शर्गिद में अनुराग कश्यप ने एक रोल किया था, तिंग्माशु ने खूबसूरती के साथ हिसाब बराबर कर दिया है। पीयूष को कोई और भूमिका मिलनी चाहिए थी। फिल्म का संगीत भी फिल्म की तरह भव्य है। हर गीत एक अलग मिजाज का। गानों की रेंज देखिए, एक बगल में चांद होगा, वुमनिया, हंटर, बिहार के लाला सब अलग धरातल पर खड़े हैं जो फिल्म का हिस्सा लगते हैं।

Saturday, June 16, 2012

इतनी आदर्श दुनिया देखने के आदी नहीं हैं हम फिल्म की सबसे अच्छी बात आखिर में जाकर उसके खिलाफ खड़ी हो जाती है। वह है सभी किरदारों का अपने जीवन के उच्चतम काल्पनिक आदर्शों में जीना। ऐसे आदर्श जो कहीं-कहीं दर्शक के लिए इतनी खीझ पैदा करें कि उसे लगे यह बेवकूफ कर क्या रहा है। फिल्म का नायक चौराहे पर हवलदार न होने पर जब रेड सिग्नल तोड़ता है तो वह दूसरे चौराहे पर उसकी रसीद कटवाता है। ट्रैफिक पुलिस के सभी अधिकारी काम के प्रति इतने समर्पित हैं कि वह गाड़ी उठाने में इस बात की परवाह बिल्कुल नहीं करते कि वह किसकी गाड़ी है। १२ साल का बच्चा जीत हार की भावुकता पर पार पाते हुए अंपायर को सच-सच बता देता है कि कैच पकड़ते वक्त उसका पैर बाउंड्री लाइन पर था। चंूकि असल जिंदगी में हम ऐसा नहीं करते हैंं इसलिए ्रइसे देखकर हमें कई जगह खुशी तो हो सकती है पर उससे जुड़ाव बिल्कुल नहीं होता। फिल्म के एकमात्र पात्र बोमने ईरानी दर्शकों को अपने बीच के आदमी लगते हैं। अपने बीच के इसलिए क्योंकि उनके पास सही-गलत को जज करने का अनुपात वैसा है जैसा कि दुनिया में जीने के लिए जरूरी है। बाकी पात्रों के पास यह अनुपात न होना ही फिल्म की एक बड़ी कमी है। यह फिल्म बिना मतलब की मध्यमवर्गीय भावुकता पैदा करने की कोशिशें दर्जनों पर करती है। फिल्म में निर्देशक ने दर्शकों से कम से कम पचास जगह नायक और उसके बेटे के लिए दया की भीख मांगी है। दया और धैर्य का एक सीमित कोटा होता है। फिल्म के निर्देशक उस कोटे का दोहन हर पांच मिनट में कर रहे होते हैं। यह बात उन्हें भी शायद इंटरवल के आसपास महसूस हुई। तो इंटरवल के बाद जहां दर्शकों के इमोशन को चूसना था वह यह फिल्म लगभग कॉमेडी बन जाती है। इस कॉमेडी को जैसे-तैसे अस्पताल पहुंचाकर सत्यानाश किया जाता है। फिल्म का अंत तो बहुत ही खराब तरीके से लिखा गया है। फिल्म का सबसे कमजोर पक्ष फिल्म की एडटिंग है। कुछ दृश्य बेवजह इतने लंबे खींंचे गए हैं कि उनका न होना ज्यादा बेहतर होता। शरमन जोशी हिंदी फिल्मों के ऐसे दर्जनों अभिनेताओं की तरह है जो छोटी भूमिका में ही जंचते हैं। बड़ी भूमिका में उनकी पोल खुल जाती है। यह फिल्म उन्हें किसी नए मापदंड पर स्थापित नहीं करती।

Friday, June 8, 2012

इस फिल्म को इंटलैक्चुअल सराहेंगे, फिल्म समारोह में जाएगी, लेकिन ऐसी फिल्मों की वजह से ही राउठी राठौर और दबंग बनती रहेंगी जब मैं दसवीं क्लास में था तो राम मोहन तिवारी नाम के एक सज्जन मुझे गणित पढ़ाते थे। उनका नाम राम मोहन तिवारी था यह मुझे उनकी पहली क्लास ज्वाइन करने के लगभग ६ महीने बाद पता चला। हम उन्हें फैक्टर सर कहकर बुलाते। साइंस बैकग्राउंड वाले जानते हैं कि फैक्टर गणित:१ में कितना महत्वपूर्ण चैप्टर है। शंघाई फिल्म देखते हुए मुझे मेरे फैक्टर सर याद आए। फैक्टर सर के साथ एक समस्या थी कि उन्हें गणित का बहुत विशाल ज्ञान था। दूसरी समस्या यह थी कि गणित पढ़ाते वक्त वह हमसे गणित की उस फ्रीवेंक्सी में बात करते जिस फ्रीक्वेंस में उनको गणित आती। छात्र यह तो समझते कि बात गणित की ही हो रही है लेकिन वह उनकी गणित में अपने को इनवाल्व न कर पाते। उन दिनों क्लास बंक करना संज्ञेय अपराध के दायरे में था इसलिए हम सब उनकी क्लास के चालीस मिनट काटते। शंघाई देखते समय फैक्टर सर इसलिए याद आए क्योंकि वह गणित तो बहुत ऊंचे स्तर की पढ़ा रहे थे पर यह गणित दर्शकों के पल्ले बहुत नहीं पड़ती। नई पीढ़ी के प्रतिभाशाली युवा निर्देशक जब फिल्में बनाते हैं तो उनके कई टारगेट होते हैं। जाहिर है कि दर्शक सबसे बड़ा टारगेट। दर्शकों के साथ ही साथ वह अपने समकालिक निर्देशकों के लिए फिल्म रचते हैं, फिल्म समारोह के लिए फिल्म रचते हैं और यह बात सुनने के लिए भी फिल्म रचते हैं कि इन दिनों भारत में अलग हटकर फिल्में बन रही हैं। संघाई बाद की इन तीनों ही बातों के साथ न्याय करती है। शंघाई के माध्यम से दिबाकर एक गंभीर विषय पर फिल्म रचने का प्रयास करते हैं। उनकी कोशिश उम्दा है। यह कोशिश तब और भी सम्मानित हो जाती है जब वह इमरान हाशमी और अभय देओल से उनकी बनी छवि से बिल्कुल विपरीप का काम लेते हैं। एक लाइन में शंघाई किसी कम्यूनिस्ट रचनाकार की रचना लगती है। जहां एक बस्ती को हटाकर मॉल बनाने की तैयारी है। इससे आ रही रुकावटें घटनाएं हैं और बाद में सरकार का एक्सपोज हो जाना फिल्म का क्लाइमेक्स। दिवाकर बनर्जी इस फिल्म के पहले खोसला का घोसला, ओक लक्की लक्की ओए और लव सेक्स धोखा जैसी फिल्में बना चुके हैं। रचना के आधार पर शंघाई इन फिल्मों से बड़ी फिल्म है। बस खटका यह है कि यह फिल्म दर्शकों को अपने साथ लेकर नहीं चल पाती। फिल्म के शुरुआत से ही ठहरी हुई लगती है। इंटरवल के बाद फिल्म अपनी कमजोरी को ठीक करने का प्रयास करती है। अंत के दस मिनट प्रभावी लगते हैं। फिल्म में कुछ अद्भुत दृश्य और संवाद हैं। यह फिल्म इमराश हाशमी के लिए उपलब्धि है। उन्होंने इंडस्ट्री को दिखाया है कि वह कुछ और भी कर सकते हैं। अभय देओल, फारुख शेख भी अद्भुत रहे। कलकी और पिताबश हर फिल्म में एक जैसी ही ऐक्टिंग करते हैं।

Sunday, June 3, 2012

इस बार संजय लीला भंसाली ने दर्शकों के आईक्यू पर भरोसा किया
इन दिनों फिल्मकारों को दर्शकों की बढ़ती गैरतार्किक बुद्धि के चलन पर बड़ा भरोसा हो चला है। दबंग, वांटेड, सिंघम, बॉडीगार्ड फिल्मों को हिट कराने वाले इन दर्शकों के आईक्यू लेवल पर विश्वास करते हुए संजय लीला भंसाली ने इस बार अपने आईक्यू पर विश्वास नहीं किया। वह प्रभुदेवा की शरण में गए हैं। संजय लीला भंसाली की पिछली तीन फिल्में माई फ्रेंड पिंटो, गुजारिश और सांवरिया असफल रही हैं। शायद इसी बीच उनका आईक्यू लेवल गिरा होगा। संजय इंटलैक्चुल सिनेमा के पैरोकार माने जाते हैं। ऐसी फिल्म बनाने के पहले उनके मन में कुछ अगर-मगर जरूर रहे होंगे। इसी अपराधबोध में उन्होंने कुछ ऐसे इंटरव्यू दिए हैं जिनमें ऐसी फिल्म को आज के सिनेमा की जरूरत बताया गया है। राउठी राठौर दरअसल ऐसे वर्ग की फिल्म है जिसके लिए सिनेमा देखना सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन है। इसके आगे की बात वह करना नहीं, सोचना भी नहीं चाहते। तो ऐसे दर्शक वर्ग को रिझाने के लिए नायक बहुत दरियादिल, कमदिमाग और शारीरिक रूप से बहुत हष्ट-पुष्ट होना चाहिए। चूंकि नायिका को इसी नायक पर मर मिटना है इसलिए वह होशियार तो होगी नहीं। इसलिए फिल्म की नायिका पूरी तरह से बौड़म है। नायक नेकदिल है तो खलनायक बहुत ही कमबख्त और क्रूर होना चाहिए। इन सबके बीच देशकाल भी अंधा कानून जैसा दिखे तो अच्छा है। सबकुछ उसी आईक्यू लेवल का है तो गीत भी वैसे हों। गौर करें, पैजामा है तंग लगोट ढीला है। दर्शक चूंकि रिस्क नहीं लेते इसलिए उनके लिए राउठी के ऐसे पोस्टर डिजाइन किए गए हैं जो पूरी तरह से पैसा वसूल थे। मतलब जी भरकर पोस्टर भी देख लिया तो आधा काम बन गया। डायलॉग भी बिल्कुल सीधे-सपाट समझ में आ जाने वाले। जिसने समझा कि मैं डर गया वो अर्थी पर अपने घर गया। फिल्म की नायिका का मामला बड़ा दिलचस्प है। निर्देशक को उनसे अच्छी उनकी कमर लगी। इंटरवल के पहले तक कमर का जिक्र ज्यादा है। नायक की नायिका से मोहब्बत करने की बड़ी वजह भी। जब तक भारत में राउठी जैसी फिल्में बनती रहेंगी सोनाक्षी सिन्हां जैसी लड़कियों को काम मिलता रहेगा। अक्षय के लिए शब्दों की बहुत सारी कमी हो गई है।

Friday, April 27, 2012

बॉलीवुड नकल करता है लेकिन जरा अपनी तरह से

फिल्म समीक्षा: तेज भारतीय निर्देशक (जिनके बारे में यह माना जाता है कि उनके पास मौलिक कहानियां नहीं है) जब किसी हॉलीवुड फिल्म का रीमेक बनाते हैं तो उसमें बॉलीवुड के कुछ लोकप्रिय फॉर्मूले डालना नहीं भूलते। यह भी एक तरह मौलिकता है। फिल्म तेज हॉलीवुड की दो फिल्मों अनस्टापेबल और स्पीड का हिंदी वर्जन है। बस इस हिंदी वर्जन में थोड़ी प्रताडऩा, थोड़ा प्रतिशोध, थोड़ा बदला, थोड़ा रोमांस और एक आईटम नंबर डाल दिया गया है। चलती हुई ट्रेन से जुड़े हुए प्रसंग अनस्टापेबल से कॉपी किए हुए हैं और बम से जुड़े हुए किस्से स्पीड से। अजय देवगन, कंगना रणावत, समीरा रेडी, जायद खान की व्यक्तिगत जिंदगियों के किस्सें किसी भी हिंदी फिल्म से। फिल्म की अच्छी बात यह है कि बिना इधर-उधर की बातें किए हुए पांच मिनट के अंदर मुद्दे पर आ जाती है। दूसरी अच्छी बात यह है कि यह इतनी तेज चलती है कि दर्शक कमजोर दृश्य की समीक्षा नहीं कर पाता कि फिल्म आगे बढ़ जाती है। आमतौर पर जब फिल्मों में नायक कोई बुरा काम कर रहा होता है या आत्मा किसी से बदला ले रही होती है तो फ्लैशबैक में इसकी वजह को जस्टीफाई किया जाता है। इस फिल्म में जो वजह दिखाई गई है बहुत कमजोर लगती हैं। राजनीति की तरह इस फिल्म में भी अजय देवगन ग्रे शेड में होते हुए भी फिल्म के नायक लगते हैं। चूंकि कलाकार सब मंझे हुए थे इसलिए ऐक्टिंग तो अच्छी होनी ही थी। छोटे से रोल में जायद खान प्रभावित करते हैं।

Friday, April 20, 2012

सामाजिक जिम्मेदारी दिखाते तो डाक्यूमेंट्री बन जाती फिल्म

फिल्म समीक्षा: विक्की डोनर
फिल्म विक्की डोनर का विषय ऐसा था कि यदि इसे निर्देशक थोड़ा सा सामाजिक चोला ओढ़ाते तो यह डाक्यूमेंट्री बन जाती। २०१० में ओनियर निर्देशत फिल्म आईएम का एक हिस्सा देख लीजिए। नंदिता दास वहां एक ऐसी लडक़ी की भूमिका में हैं जो डोनेट किए हुए स्पर्म से मां बनती हैं। लगभग २५ मिनट की उस कहानी में कहीें भी फिल्म नहीं है। है तो सिर्फ एक फिल्मकार की कुछ अलग हटकर सिनेमा बनाने की अघोषित जिम्मेदारी। आईएम से उलट विक्की डोनर बिल्कुल दूसरे धरातल की फिल्म है। यहां पर सामाजिक जवाबदेही के साथ दर्शकों के मनोरंजन के प्रति भी जिम्मेदारी है। फिल्म की रचना भारत के महानगरों के दर्शकों को ध्यान में रखकर की गई है। ताज्जुब नहीं कि देश के छोटे सेंटरों में यह फिल्म लगने के दो दिन बाद उतर भी जाए। पर यह फिल्म जिनके लिए बनाई गई है, पूरे मन से बनाई गई। इंटरवल के पहले तो खासतौर पर। थोड़ा बहुत फिल्म को समझने वाले दर्शक यह बात समझता थे कि फिल्म इंटरवल के बाद पटरी से उतरेगी। हास्य को जस्टीफाई करने के लिए जो सामाजिक जिम्मेदारियां दिखाई जाएंगी वह फिल्म की गति को रोक देंगी। ऐसा हुआ भी। फिल्म अपने शबाब पर वहां तक होती है जहां एक डॉक्टर नायक को स्पर्म डोनेट करने के लिए तैयार करता है। स्पर्म डोनेट करने की बात को समाज द्वारा खराब मानना और उसे फिल्मकार द्वारा सही ठहराना फिल्म का बाकी हिस्सा है। तो दूसरा हिस्सा ठहरा हुआ और फिल्मी है। निर्देशक सुजित सरकार को दोष इसलिए भी नहीं दिया जा सकता कि इस फिल्म को अंत करने के बहुत से विकल्प नहीं दिखते। अन्नू कपूर अपने पूरे कॅरियर की सबसे अच्छी भूमिका में हैं। कही से भी नहीं लगता कि यह आयुष्मान सिंह की पहली फिल्म है। चलताऊ अंग्रेजी मिश्रित पंंजाबी बोलना-सुनना अच्छा लगा है। खुशी इस बात की भी होती है कि ज्यादातर मसाला फिल्मों में काम करने वाले जॉन अब्राहम जब निर्माता बने तो उन्होंने ऐसी फिल्म चुनी तो मसाला तो बिल्कुल नहीं थी।

Saturday, April 14, 2012

लगा कि अन्ना, रामदेव को देखकर कुछ अन्य ईमानदार आंदोलन में कूद पड़े

फिल्म समीक्षा: बिट्ट बॉस


बिट्ट बॉस देखने वाले थोड़ी देर तो इस भ्रम में रहेंगे कि फिल्म की नायिका आखिर है कौन। एक जो बिट्ट का इंतजार कर रही है या दूसरी वह जो बिट्टू के आने को खारिज कर रही है। दर्शकों को लगता है शायद यह दोनों ही लड़कियां नायिका की सहेली और इंडस्ट्री की भाषा में एक्सट्रा हैं। बाद में होता यह है कि उन्हीं में से एक लडक़ी को नायिका बना दिया जाता है। नायिका ऐसी है जो आपको दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, बंगलौर नहीं बल्कि मुरादाबाद, कटनी, अमरावती, भदोही, अनूपपुर, बिलासपुर जैसे शहरों के कॉलेजों में बीए पार्ट:२ करती मिल जाएंगी। जिसके विषय होंगे समाजशास्त्र, शिक्षाशास्त्र और हिंदी। शक्ल से ही दिखता है कि इस लडक़ी को इन तीनों विषयों से भी मतलब नहीं है। चूंकि तीन विषय लेने थे वह यह विषय जानकारों द्वारा सबसे आसान बताए जाते हैं इसलिए ले लिए गए। लडक़ी का सपना है शादी। और सारे सपने उस शादी के बाद ही प्रस्फुटित होने होते हैं। तो इस बिलो एवरेज लडक़ी के साथ फिल्म की शुरूआत होती है। लडक़ी का नाम अमिता पाठक है। जिसके बारे में गूगल इतनी जानकारी दे पाया कि वह किसी अनाम से निर्माता की लडक़ी है जिसकी पहली फिल्म को बनने के बाद वितरक नहीं मिले।
खैर, बाद में यह लगा कि लडक़ी अभिनय या डायलॉग से यह साबित करेगी कि उसे क्यों लिया गया। पर ऐसा हुआ नहीं। अब फिल्म की बात। पिछले साल दो फिल्में आईं थीं। प्यार का पंचनामा और बैंड बाजा बारात। बहुत ही औसत विषय को इन फिल्मों में शानदार तरीके से ट्रीट किया गया था। कलाकार इन फिल्मों में भी बड़े नहीं थे। तो जैसे अन्ना को देखकर बाबा रामदेव आंदोलन में कूद पड़े थे वैसे ही इन दोनों फिल्मों को देखकर सड्डा अड्डा और बिट्टू बॉस फिल्में बनाई गई हैं। देखी होंगी आपने।
फिल्म की कुछ अच्छी बाते भी हैं। कुछ जगह फिल्म की मौलिकता आपको प्रभावित करती है। खासकर बाप-बेटे के संवाद में। जहां बाप रंगमंच की तरह पर्दे की पीछे से डायलॉग बोलता है। इंडस्ट्री को एक पुलकित सम्राट के रूप में एक चाकलेटी नायक मिला। भले ही वह रणवीर कपूर जैसा दिखने का प्रयास कर हों पर उन्होंने एक्टिंग अच्छी की है। फिल्म के १५ मिनट तो निर्देशक घबरा सी गईं हैं कि फिल्म पूरी कैसे करें। चूंकि पिछले आधे घंटे से नायिका भी पर्दे पर नहीं दिखी थी इसलिए उसे भी दिखाना था। सो उसे शिमला भेज दिया गया। दर्शक जानते थे कि वह शिमला में क्या देखकर रोते हुए घर लौट आएगी। क्लाइमेक्स तो और भी महान किस्म का है। फिल्म की यूएसपी विक्की का किरदार निभाने वाला एक अनाम सा बदसूरत कलाकार है।

Friday, April 6, 2012

निर्देशक आपको बेवकूफ बनाता है, हिम्मत तो देखिए उस पर भी उसे कांप्लीमेंट चाहिए।

फिल्म समीक्षा: हाऊसफुल:२


प्रियदर्शन, नीरज वोरा, रोहित शेट्टी, अनीस बज्मी, साजिद खान और फरहान अख्तर जैसे निर्देशकों की कॉमेडी फिल्मों में एक बड़ी समानता होती है। इनकी फिल्मों में हास्य कन्फ्यूजन और भ्रम से निकलता है। कन्फ्यूजन का उत्सव के साथ पटाक्षेप फिल्म का क्लाइमेक्स। इस बीच कुछ नैतिकता और ईमानदारी की बातें। सुबह का भूला शाम को घर लौट आए जैसा प्राशचित। कुल मिलाकर हैपी इंडिंग। खबरदार जो कुछ याद रखा या अपना दिमाग लगाया। कन्फ्यूजन और भ्रम की इधर आई फिल्मों में हाउसफुल:२ भारी पड़ती है। वजह, इस फिल्म में भ्रम का हास्य ज्यादा है। यह इसलिए है क्योंकि फिल्म में पात्र ज्यादा हैं। एक पात्र के भ्रम एक नहीं दो-दो तीन-तीन भ्रमों से टकराकर हास्य निकालते हैं। पात्रों के ज्यादा होने से यदि यह फिल्म इंटरवल के बाद आपको हंसाती है तो पात्रों की यही अधिकता शुरूआत के एक घंटे में बुरी तरह से उबाती भी है। फिल्म छोड़ देने की हद तक उबाहट। हाउसफुल:२ में दरअसल दो फिल्में हैं। पहली इंटरवल के पहले और दूसरी इंटरवल के बाद ।आधी फिल्म पात्रों और कहानी को स्थापित करने में बीत जाती है। फिल्म का यह हिस्सा निहायत ही घटिया है। चालू चुटकुलों से काम चलाया गया है। एक रूपक से समझता हूं। एक दृश्य में नायकद्वय पत्थर टकराकर आग जलातें हैं और अपनी बेवकूफ प्रेमिकाओं से वाहवाही पाते हैं। कुछ ऐसी ही वाहवाही की उम्मीद साजिद खान दर्शकों से करते हैं। मतलब बेवकूफ भी आप बनें और कॉप्लीमेंट भी आप दें। इंटरवल के बाद कहानी संभलती है और फिर अंत तक संभली रहती है। ऐक्टिंग में सिर्फ अक्षय कुमार प्रभावित करते हैं। अक्षय कुमार के सीन पार्टनर बने रितेश देशमुख उनके बाद दूसरे स्थान पर। सबसे ज्यादा निराश श्रेयस तलपड़े और जॉन अब्राहम करते हैं। चार की चारों लड़कियां देखने में अच्छी लगी हैं। जब वह डायलॉग बोलती हैं तो पर दया आती है। मिथुन चक्रवर्ती अपनी उम्र के बोमेन ईरानी, रणधीर कपूर, ऋषि कपूर से बेहतर लगे हैं। जॉनी लीवर को लेकर शायद निर्देशक पूर्व जन्म के अपने पापों का भुगतान कर रहे हैं। मलाइका अरोड़ा से सिर्फ आइटम नंबर कराए जाएं। प्लीज . . .

Friday, March 23, 2012

यह मशीन खोद क्या रही है, बाद में मालूम होगा।

फिल्म समीक्षा: एजेंट विनोद



सडक़ों पर जब जेसीबी की मशीनें खुदाई करना शुरू करती हैं तो खुदाई के शुरुआती दिनों में लोग सिर्फ यह कयास लगाते रहते हैं कि खुदाई हो क्यों रही है। खुदने का सटीक कारण बहुत बाद में आम हो पाता है। सडक़ों की की खुदाई और फिल्म एजेंट विनोद में बड़ी समानता है। फिल्म में दर्शक बहुत बाद में यह जान पाते हैं कि फिल्म में एजेंट विनोद कर क्या रहे हैं। बताया उनको शुरू से जाता है पर यह इतना भ्रमित है कि दर्शक उसमें घुसने का प्रयास नहीं करते। जेम्स बांड सरीखी जासूसी फिल्म देखने के आदी हो चुके दर्शकों को यह फिल्म बहुत ही बांसी और ठहरी हुई लग सकती है। ऐसा है भी। फिल्म की सबसे बड़ी कमी दो दृश्यों के बीच लिंक न होना है। इसके अलावा चरित्रों की अधिकता और उनको स्थापित न करना भी फिल्म में लगातार अखरता है।। फिल्म वहां अच्छी लगी है जहां घटनाएं हैं। जैसी ही घटनाओं के घटने का क्रम धीमा होता है फिल्म अझेल लगने लगती है। फिल्म की एडटिंग भी कमजोर है। फिल्म की लंबाई को आराम से २० से २५ मिनट कम किया जा सकता था। फिल्म की खूबसूरती सैफ अली खान का अभिनय और खासतौर पर उनके लिए लिखे गए चुटीले संवाद हैं। करीना कपूर पता नहीं क्यों सैफअली खान के साथ अच्छी नहीं लगतीं। प्यार की पुंगी बजा के गाने का प्रयोग फिल्म में नहीं हुआ। दर्शक उसका इंतजार अंत तक करते रहे। सैफ अली खान फिल्म के प्रोड्यूसर भी हैं इसलिए निर्देशक श्रीराम राघवन पर वह कई जगह हावी होते दिखे हैं।

Friday, March 9, 2012

फिल्म तो दरअसल सुजॉय घोष की है।

फिल्म समीक्षा: कहानी


कुछ फिल्मों की नायक उनकी पटकथा होती है। पटकथा, नायक इसलिए होती है क्यों कि यह पटकथा किसी भी चरित्र के साथ भेदभाव नहीं करती। कहानी में यदि दर्शकों को विद्या बागची प्रभावित करती हैं तो उन्हें अडिय़ल खान और शर्मीले राना भी याद रहते हैं। ऐसे फिल्मी पात्रों को शिद्दत के साथ लिखा और फिल्माया जाता है। फिल्म कहानी का सबसे सशक्कत हिस्सा कसी हुई पटकथा ही है। कहानी कहने के सही अंदाज में। फिल्म के निर्देशक को इस बात का श्रेय देना चाहिए कि फिल्म के प्रमोशन के दौरान उत्साह में उनसे फिल्म की कहानी लीक नहीं हुई। फिल्म के अंतिम चंद लम्हों में फिल्म अचानक यू टर्न लेती है। यह यू-टर्न वाकई शॉकिंग है। कहानी तो वैसे है अलग अंदाज की फिल्म पर कहीं-कहीं यह भारत की सस्पेंस फिल्मों जैसी लगती है। फिल्म की सबसे बड़ी यूएसपी उसकी सिनेमेटोग्राफी है। कोलाकाता की लाइफ स्टाईल, तौर-तरीके, जीवन जीने का अंदाज सभी कुछ फिल्म की कहानी का हिस्सा है। कहानी दरअसल विद्या बालन की नहीं निर्देशक सुजॉय घोष की फिल्म है। विद्या तो अच्छा अभिनय करती ही हैं। पीपली लाइव में पत्रकार और पान सिंह तोमर में डकैत बने नवाजुद्दीन शिद्दकी दीपक डोबरियाल और प्रशांत नारायण जैसी संभावनाएं जगाते हैं।

Friday, March 2, 2012

नायक, नायक तभी बनता है जब खलनायक हो

फिल्म समीक्षा: पान सिंह तोमर



आमिर खान के मरहूम पिता ताहिर हुसैन साहब एक बड़े फिल्म निर्माता थे। हुसैन साहब के पास जब कोई निर्देशक फिल्म की स्क्रिप्ट के साथ आता तो वह उससे बड़े इत्मिनान से पूंछते कि मियां बताओ की आप की कहानी उठती कहां से है, तनाव कहंा हैं और तनाव स्खलित कैसे होगा। तिंग्माशु धुलिया यदि पान सिंह तोमर की स्क्रिप्ट लेकर ताहिर साहब के पास जाते तो ताहिर साहब शायद यह कहते दिखते कि और तो ठीक है मियां पर आपकी फिल्म में तनाव फिल्म खत्म होने के ३५ मिनट पहले ही स्खलित हो गया है। आगे की फिल्म दर्शक क्यों देखेगा। तिंग्माशु धूलिया की इस महात्वाकांक्षी और भव्य फिल्म की एकमात्र खराबी यह है कि इंटरवल के १५ मिनट बाद फिल्म अपना चार्म खो देती है। आमतौर पर फिल्मों में नायक का इंतकाम फिल्म के आखिरी रील में पूरा होता है। आखिरी रील से पहले उस इंतकाम तक पहुंचने की पटकथा बुनी होती है। पान सिंह तोमर में नायक के पास इतना बड़ा अवरोध नहीं है कि वह उसे एक हीरो के रूप में खड़ा कर दे। जिस अवरोध को दर्शक अवरोध मानते हैं वह फिल्म खत्म होने के करीब ३५ मिनट पहले बहुत ही साधारण तरीके से खत्म हो गया होता है। एक धावक के डाकू बनने की कहानी असाधारण है पर डाकू बन जाने के बाद उसके मरने तक की कहानी भटकी हुई। यह इरफान का अभिनय और संजय चौहान के संवाद ही थे कि खत्म होने से पहले खत्म हो चुकी इस फिल्म को पूरा करने के लिए दर्शक सीट पर बैठे रहते हैं। थोड़ी ईमानदारी से कहें तो इस बार संजय चौहान भी अपने संवादों में वैसा जाूद नहीं घोल पाए जैसा उन्होंने साहब बीवी और गैंगस्टर में किया था। तिंग्माशु की पिछली दो फिल्मों शार्गिद और साहब बीवी के उलट इस फिल्म में उतराद्र्ध के बाद नाटकीय घटनाक्रम भी नहीं रहे। पान सिंह तोमर एक भव्य फिल्म है पर यह फिल्म, फिल्म होने की कई सारी शर्ते नहीं पूरी करती। अपने पिता की कथित असफलता को परिभाषित करते हुए आमिर खान ने एक बार कहा था कि निर्देशक को बाजार के प्रति उतना ही जवाबदेह होना चाहिए जितना कि वह अपनी कला के प्रति होता है।

Friday, February 24, 2012

इस बार साउथ के औसत हीरो लगे हैं माधवन

फिल्म समीक्षा: जोड़ी ब्रेकर्स



साउथ के सुपरस्टार रजनीकांत और कमल हसन को भी हिंदी दर्शकों ने उतना प्यार नहीं दिया जितना कि आर माधवन को। माधवन की बॉडी लैंग्वेज और उनकी फिल्मों का चुनाव कहीं से भी साउथ के पैटर्न लार्जर दैन लाइफ जैसा नहीं लगता। वह हिंदी पट्टी के हीरो लगते हैं। तनु वेड्स मनु, १३बी, थ्री इडियट्स, गुरू और रंग दे बसंती फिल्में देखिए। ऐसे समय में जब निर्देशक-निर्माता एक हीरो को लेकर फिल्म बनाने के जोखिम से बचने लगे हैं अश्वनी धीर ने वाकई साहस का काम किया है। यह साहस ही फिल्म को फ्लाप की ओर मोड़ देता है। जोड़ी ब्रेकर्स देखते वक्त हर समय यह लगता है कि इस फिल्म में दो नायक और दो नायकिओं की कहानी होती तो बेहतर होता। भले ही वह दूसरी जोड़ी श्रेयस तलपड़े, तुषार कपूर, आशीष चौधरी, कुणाल केमू या अशरद वारसी जैसे फिलर कलाकारों की होती। बोमन इरानी या अनुपम खेर भी होते तो अच्छा था। जोड़ी ब्रेकर्स में माधवन इस बार वह मुंबईया हीरो नहीं लगे हैं जो अकेले दम फिल्म को पार लगा दे। कई बार अच्छी अदाकारी, औसत संवाद और पटकथा को छिपा ले जाती है। इस फिल्म में ऐसा नहीं हुआ है। बिपाशा बसु के पास एक जैसी अदाएं हैं तो माधवन इस बार साउथ के हीरो जैसे लगे हैं। देखने में भी और बोलने में भी। इस सपाट कहानी को रोचक बनाने के लिए जो मोड़ दिए गए हैं वह दर्शकों को उलझाते भर हैं उनका मनोरंजन नहीं करते। फिल्म का संगीत भी औसत दर्जे का है। माधवन और विपाशा को शायद ही दर्शक सोलो हीरो या हीरोईन के रूप में फिर कभी देखें। प्रतिभाशाली कलाकारों की लंबी लाइन लगी है दोस्तों।

Friday, February 10, 2012

देखिए कितना रास आता है यह फिलासफिकल सिनेमा

फिल्म समीक्षा: एक मैं और एक तू



यह फिल्म उन दर्शकों को थोड़ी निराश करती है जिन्हें अग्निथ या अग्निथ जैसी लार्जर दैन लाइफ फिल्में पसंद आती हैं। यकीन भी नहीं आता कि अग्निथ और एक मैं और एक तू एक ही समय और एक ही निर्माता की बनाई हुई फिल्में हैं। यह फिल्म दरअसल फिलासफिकल सिनेमा देखने वाले दर्शकों को रास आ सकती है। यह उन्हीं मुट्ठी भर अरबन दर्शकों के लिए बनाई गई फिल्म है जिनके लिए वेक अप सिड, गुलाल, शोर इन द सिटी, प्यार का पंचनामा और जिंदगी न मिलेगी दोबारा जैसी फिल्में बनाई गई हैं। ऐसा सिनेमा जो हल्के-फुल्के मूड में कई जटिल विषयों के उत्तर छोडऩे के साथ कई प्रश्न भी खड़ा कर जाता है। दर्शक यदि सीखना चाहें तो ऐसी फिल्मों से सीख कर निकलते हैं। बॉलीवुड को यह बात अच्छी तरह से समझ आने लगी है कि किसी भी प्रेम का सबसे बेहतरीन अंत सिर्फ शादी नहीं होता। हर संबंध को शादी में लाकर खत्म कर देना वाला सिनेमा अब शादी से अलग भी संपूर्णता खोजना शुरू कर चुका है। शुभ संकेत। यह फिल्म इमरान खान और करीना कपूर के लिए इसलिए भी याद रखी जाएगी क्यों कि इन दोनों कलाकारों ने अपनी इमेज किरदार पर हावी नहीं होने दी। करीना कपूर हर कहीं से कहानी वाली रैयना ब्रेंगजा लगती हैं और इमरान राहुल कपूर। इस फिल्म की यूएसपी इसकी सिचुवेशनल कॉमेडी है। फिल्म में ऐसे कई दृश्य हैं जो बगैर किसी संवाद के आपको हंसाते हैं। हंसने के साथ-साथ बगैर किसी हो-हल्ले और चीख चिल्लाहट के हम पात्रों के दुखों को समझने लगते हैं। न तो बिना मतलब के आंसू और न ही बिना मतलब की ओवरऐक्टिंग। परंपरागत सिनेमा देखने और उसके आदी हो चुके दर्शक संभव है कि इस पूरी फिल्म को ही नकार दें।

Saturday, January 28, 2012

लो लौट आया अंधा कानून का युग

फिल्म समीक्षा: अग्निपथ



कुछ फिल्में ऐसी होती हैं जिन्हेंं देखते वक्त आप सिर्फ फिल्म के बारे में सोचते हैं और फिल्म खत्म होने के बाद एक सेकेंड नहीं। अग्निपथ वैसी ही फिल्म है। लगभग सवा तीन घंटे की यह फिल्म आपको एक अलग दुनिया में ले जाकर खड़ा कर देती हैं। जहां पर आपके तर्क चुप होकर फिल्म का मजा ले रहे होते हैं। आप तार्किक मस्तिष्क यह जानता है कि किसी भी देशकाल में मुंबई में सरेआम लड़कियां बेचने का बाजार नहीं सजा, आप जानते हैं कि कोई कांचा नाम का व्यक्ति किसी को यूंही फांसी नहीं चढ़ा सकता। आप यह भी जानते हैं कि कि तीन बार चाकू पेट से निकलने के बाद फाइट नहीं की जा सकती, फिर भी हम ऐसे दृश्यों पर विश्वास करते हैं। यह निर्देशक और अभिनेताओं की जीत है, कि हम उनके दुख और सुख को लेकर जज्बाती होते हैं। नायक को पडऩे वाला तमाचा हमे लगता है। अग्निथ ९० के दशक की अंधा कानून टाइप फिल्मों की याद दिलाती हैं जिन्हें देखकर जब दर्शक सिनेमाघरों से बाहर निकलता था तो उसका लगता था कि दुनिया उतनी बुरी नहीं जितनी कि दिखाई गई है। शोषण और बदले का स्वांग अरसे बाद किसी मुख्य धारा की फिल्म में इतनी भव्यता के साथ प्रस्तुत किया गया है। कुछ नया सिनेमा रचने और देखने की ख्वाहिश रखने वाले मुट्ठी पर लोग ऐसी फिल्मों की अपार सफलता से दुखी हो सकते हैं। डर इस बात का होगा कि कहीं ऐसी फिल्मों की कतार न लग जाए। इस अग्निथ में यह कहीं नहीं दर्शाया गया कि फिल्म का देशकाल क्या है। ब्लैक एंड व्हाइट अखबार, और दूरदर्शन देखकर यह अंदाजा भर लगता है कि फिल्म आज से करीब ३० बरस पहले की है। १९९० में जब यश जौहर ने अमिताभ बच्चन को लेकर यह फिल्म बनाई थी तब फिल्म का ढांचा उतना नकली और फिल्मी नहीं लगा होगा जितना की अब लगता है। फिल्म का सबसे प्रभावकारी पक्ष अभिनय है। अभिनय के मामले में संजय दत्त और रितिक रोशन से ऊपर का दर्जा ऋषि कपूर को दिया जाएगा। जितनी देर वह पर्दे पर रहते हैं वही छाए रहते। चिकनी चमेली अच्छी लगी हैं। फिल्म का सबसे खराब पक्ष संपादन है। तीस मिनट आराम से काटे जा सकते थे। अब चंूकि फिल्म चल रही इसलिए इस बात की चर्चा नहीं होगी। यदि आप टाइमपास के लिए फिल्म देखते हैं तो फिल्म आपके लिए है।

Friday, January 13, 2012

सिर्फ अभिनय के बूते फिल्म ढोने की असफल कोशिश

फिल्म समीक्षा: चालीस चौरासी


यह फिल्म इंटरवल के बाद आपको अच्छी लगनी शुरू हो सकती है पर तब तक देर हो चुकी होती है। ह्रदय शेट्टी निर्देशित यह फिल्म पहली निगाह में आपको अनुराग कश्यप, तिग्मांशु धूलिया या सुधीर मिश्रा टाइप की फिल्म लग सकती है। अच्छी बात यह है कि दबंग, बॉडीगार्ड और रॉ-वन जैसी फिल्मों के साथ चालीस चौरासी, यह साली जिंदगी, साहब बीवी और गैंगस्टर जैसी फिल्में भी बन रही हैं। पर ऐसी फिल्में बना भर लेने से ऐसी फिल्म बनाने का जोखिम लेने वालों की जिम्मेदारी कम नहीं हो जाती। इस फिल्म के साथ ऐसा ही हुआ है। चालीस चौरासी के निर्देशक ने चार ऐसे कलाकार तो चुने जो वाकई ऐक्टिंग कर लेते हैं। समस्या कहानी और पटकथा स्तर की है। दरअसल निर्देशक के पास जो कहानी थी वह ३० मिनट की थी। यह तीस मिनट क्लाइमेक्स के हैं और बेहतर हैं। फिल्म के बाकी बचे १ घंटे तीस मिनट इन अच्छे ३० मिनटों पर भी पानी फेर देते हैं। बिना अच्छी पटकथा के सिर्फ अभिनय के बूते कोई फिल्म नहीं चलाई जा सकती है यह बात तो निर्देशक को समझनी चाहिए थी। पर कर्मिश्यल फिल्मों से निकल कुछ अलग बनाने बनाने की खुशफहमी निर्देशक पर इतनी ज्यादा थी कि वह और कुछ सोच नहीं पाए।

Friday, January 6, 2012

बहुत दिन बाद दिखे शोले वाले रमेश सिप्पी

फिल्म समीक्षा प्लेयर्स



प्लेयर्स के बारे में यह चर्चा थी कि यह हॉलीवुड फिल्म द इटालियन जॉब का रीमेक है। इस चर्चा से अब्बास-मस्तान वाकई दुखी हुए होंगे। क्यों कि सच्चाई यह है कि प्लेयर्स हॉलीवुड फिल्म का हिंदी रीमेक होने के साथ-साथ कई हिंदी फिल्म निर्देशकों के प्रिय दृश्यों का कॉकटेल भी है। फिल्म में इन दृश्यों का छिडक़ाव किया गया है। इस फिल्म में जहां-जहां कॉमेडी हुई है डेविड धवन याद आए हैं, जहां इमोशन हैं वहां करन जौहर और क्लाइमेक्स में शोले वाले रमेश शिप्पी। शोले की तर्ज पर यहां खलनायक को हीरो नहीं मारता उसे फिल्म की नायिका मारती है क्यों कि उसे अपने बाप की मौत का बदला लेना होता है। फिल्म में सोना लूटो अभियान समिति के सदस्य मास्को की चलती ट्रेन से सोना लूटते हैं। सोना लूट लिया जाता है। यह इंटरवल तक की कहानी है। इंटरवल के बाद की कहानी बेहद घटिया और फिल्मी फॉर्मूलों के साथ आगे बढ़ती है। एक-दूसरे के साथ धोखा, डबल क्रास जैसे दृश्य और कहानी हम ढेर सी फिल्मों में देख चुके हैं। प्लेयर्स में ऐसा कुछ भी नया नहीं है। अभिनय पक्ष इस फिल्म का सबसे गंदा पक्ष है। अभिषेक बच्चन धूम में किए गए अभिनय की जेरॉक्स कॉपी जैसे दिखते हैं और विपाशा बसु अजनबी फिल्म जैसी। सोनम कपूर आयशा या आयत बनकर ही अच्छी लगती हैं। इस फिल्म वह कायदे से संवाद भी नहीं बोल पाईं हैं। नील नितिन मुकेश को इतनी बड़ी और प्रभावी भूमिका मिलना चौंकाता है। ओमी वैद्य अभी थ्री इडियट्स के खुमार से नहीं निकल पाए हैं। बिचारे कम बोलने वाले बॉबी देओल को सोना लूटते ही सुला दिया गया। चुप रहकर बढिय़ा ऐक्टिंग कर रहे थे वह।