Saturday, May 16, 2020

'पाताल लोक' में वह सबकुछ है जो अब से पहले इस तरह से नहीं देखा गया



कबीर M नाम का एक लड़का है। गिरफ्तारी के बाद उसके पास से दिल्ली पुलिस को एक मेडिकल सर्टिफिकेट मिलता है। सर्टिफिकेट ये बताता है‌ कि उसका खतना नहीं बल्कि आपरेशन हुआ है। पुलिस उसे पीट-पीटकर यह जानना चाहती है कि 'एम' का मतलब क्या है? वह हर बार कहता है कि एम मतलब सिर्फ एम। पुलिस को इस बात से चिढ़ और हैरत दोनों है कि वह हिंदू होने का नाटक क्यों कर रहा है। बाद में यह केस दिल्ली पुलिस से उठकर सीबीआई के पास चला जाता है। सीबीआई उसे पाकिस्तान से आया एक जेहादी साबित कर देती है। बाद के एक सीन में कबीर का बाप एक बंद पड़े सिनेमाघर की कुर्सियों में बैठकर अपने टूटे हुए स्वर में दिल्ली पुलिस से कहता है कि "मैंने उसे मुसलमान नहीं बनने दिया, आप लोगों ने जेहादी बना दिया" कुछ साल पहले कबीर के बड़े भाई की बीफ खाने के आरोप में उन्मादी जनता पीट-पीटकर हत्या कर चुकी होती है। ये सीन अमेजॉन प्राइम पर स्ट्रीम हुई वेब सीरिज 'पाताल लोक' का है।

एक ऐसे दौर में जब जमातियों के पत्‍थर फेंकने, फल चाटने के वीडियो के साथ मुसलमानों का आर्थिक बाहिष्कार करने की नसीहतों से आपका वाट्सअप भरा हुआ है ऐसे समय में किसी मुसलमान से उसका नजरिया जानना भी एक रिस्क लेने जैसा है। बहुसंख्यक आबादी को नाराज करने का रिस्क। पाताल लोक यह रिस्क लेना चाहती है। वह सिर्फ कबीर एम की कहानी नहीं कहती है। वह बुंदेलखंड के उस बाजेपई नेता की भी कहानी कहती है जो दलितों के प्रिय हैं और जिनकी गाड़ी में गंगाजल से भरे दर्जनों कैन रखे होते हैं। जिनसे बाजपेई जी दलितों से मिलने या उनके घर खाना खाने के बाद 'खुद को शुद्घ' करते हैं।

'पाताल लोक' पंजाब के उस दलित सिख तोप सिंह की भी कहानी कहती है जिसने ऊंची जाति वाले एक सिख के चेहरे पर चाकू से वार कर दिया था। जिसकी प्रतिक्रिया में उसकी मां के साथ ऊंची जाति के इन सिखों ने सामूहिक रुप से बालात्कार किया।‌ दिन दहाड़े घर के बाहर चारपाई पर बांधकर, उसके बाप और दादा के सामने। उन्होंने ऐसा इसलिए किया कि खंजर से घायल हुआ उनका बेटा तोप सिंह को एक ऐसी गाली दे चुका था जिसकी व्याख्या करने पर मां के साथ संबंध बनाने की अनुमति या श्राप मिल जाता है। हिंदी सिनेमा में मां की गाली का असंख्य बार उपयोग हुआ है, लेकिन यह पहली बार हुआ जब कोई फिल्म इस गाली के पाप के स्तर तक पहुंचने वाली संड़ाध को सूंघने का प्रयास करती है। वह आपको याद दिलाती है कि यह गाली किस स्तर पर घिन पैदा करने वाली है।

पाताल लोक का दायरा सिर्फ जाति या धर्म तक सीमित नहीं है। वह पिता-पुत्र संबंध, उनके बीच फैली शारीरिक हिंसा, छोटे अनाथ बच्चों के साथ होने वाले कुकर्म, बाद में इनसे उबरकर इनके अपराधी बन जाने की बेचैनी भरी कहानी भी कहती है। वह उनकी बेबसी की कहानी कहती है जो अभी मुख्यधारा में नहीं हैं। 9 एपीसोड वाली पाताल लोक को सिर्फ एक अच्छी सस्पेंस थ्रिलर फिल्म कहना उसके साथ अन्याय करने जैसा होगा। यह एक अच्छी सस्पेंस थ्रिलर फिल्म होने के साथ इंसान और समाज की अपनी व्यक्तिगत और सामूहिक नीचताओं की भी कहानी भी सफलतापूर्वक कहती है। जाने कितने ऐसे नजरिए यह फिल्म समेटे हुए जिन्हें अब तक सिनेमा छूने का भी प्रयास नहीं करता दिखा है। पाताल लोक की एक खूबसूरती यह भी है कि ओटीटी प्लेटफॉर्म पर मिलने वाली सेंसर लिबर्टी को उसने सिर्फ गालियों और बेवजह के सेक्स सीन दिखाकर खराब नहीं किया। इस छूट की वजह से उसने कुछ ऐसे सीन रचे हैं जिसे सेंसर अपने जीते जी कभी मान्यता ना देता।

पाताल लोक का बैकग्राउंड पुलिस का है। पुलिस-अपराधी-सरकार के नेक्सेस का। सिनेमा में रची गई पुलिस की दुनिया बड़ी विविधता वाली है। यहां सिंघम और दबंग भी हैं और 90 के दशक के वह लिजलिजे पुलिस वाले भी जो किसी इलाकाई डॉन के इशारे पर काम करते हैं। पुलिस के तंत्र को पाताल लोक एक अलग ढंग से देखती है। पुलसिंग सिस्टम, उसकी सीमाएं, तोले-तोले भर के स्वार्थ और सामर्थ्य इससे पहले इस तरह से नहीं देखे गए। ना ही कहे गए। नेटफ्लीक्स पर ही स्ट्रीम हुई फिल्म सोनी की याद जरुर याद आती है जहां पुलिस को उसकी कमियों, सीमाओं और ताकतों के साथ पेश किया गया था।

ऊपरी तौर पर पाताल लोक की कहानी दिल्ली के एक प्राइम टाइम एंकर की हत्या की साजिश और उसे खोलने की कहानी है। जिसके सिरे दिल्ली, पंजाब और चित्रकूट में ‌बिखरे हुए हैं। बाद में सीबीआई इसके सिरे नेपाल और पाकिस्तान की तरफ खोल देती है। इस फिल्म को तरुण तेजपाल की किताब ‘द स्टोरी ऑफ माई असैसिन्स’पर आधारित बताया जा रहा है। लेकिन फिल्‍म की क्रेडिट लाइन में कहीं भी इसका जिक्र नहीं आता है। किताब मैंने नहीं पढ़ी तो नहीं कह सकता कि यह किताब से कितना कम या ज्यादा प्रेरित है।

स्क्रिप्ट के बाद फिल्म की दूसरी सबसे मजबूत कड़ी कलाकारों का अभिनय है। जयदीप अहलावत हिंदी सिनेमा की एक धरोहर हैं। गैंग्स ऑफ वासेपुर के बाद पहली बार जयदीप को उनकी स्ट्रैंन्‍थ का काम मिला है। यह पूरी फिल्म ही दिल्ली पुलिस के इंस्पेक्टर बने हाथीराम चौधरी पर टिकी होती है। इस फिल्म में उनकी अद्भुत रेंज है। उनकी आंखें उनके नियंत्रण में हैं। उनके चेहरे पर चेचक के दाग उनके अभिनय के हिस्से जैसे लगते हैं। हथौड़ा त्यागी का किरदार निभाने वाले अभिषेक बनर्जी को आप स्‍त्री में जना और मिर्जापुर में छोटे त्रिपाठी के दोस्त के रुप में देख चुके हैं। ऊंगलियों में गिन लेने भर के संवाद बोलने वाले अभिषेक ने अपनी बॉडी लैंग्वेंज से कमाल का आवरण रचा है। यह आवरण किसी डॉन से ज्यादा खौंफनाक है।

एंकर संजीव मेहरा की भूमिका में नीरज काबी अच्छे हैं। लेकिन वह वहां नहीं पहुंच पाए जहां वे सेक्रेड गेम्स, ताजमहल और मानसून शूटआउट में पहुंच चुके हैं। विपिन शर्मा और गुल पनाग जैसे सक्षम कलाकार अपने रोल के अनुसार हैं। यहां पर तारीफ अनुष्का शर्मा की होनी चाहिए कि उन्होंने फिल्‍लौरी, परी, एच एच 10 के बाद पाताल लोक जैसे रुखे विषय पर पैसा लगाया है। एक एक्ट्रेस से ज्यादा एक प्रोड्यूसर के रुप में अनुष्का याद रखने वाला काम कर रही हैं। फिल्म के निर्देशक अविनाश अरुण और इसे लिखने वाले सुदीप शर्मा, सागर हवेली, हार्दिक मेहता को भी बधाई मिलनी चाहिए। सिनेमा में यह अपेक्षाकृत ये नए लोग हैं और पाताल लोक इन्हें अब नया नहीं रहने देगी।

इधर स्ट्रीम में बाकी देशी विदेशी वेब सीरिज से उलट पाताल लोक एक और सीजन को बनाने के मोह में भी नहीं पड़ती, यह लालच न होना भी एक खूबसूरती है...

Friday, April 3, 2020

पंचायत गांव को नए तरीके से देखती है, पर सिनेमा के लिए क्या सिर्फ यही काफी है?


शहर की आंखों से गांव को देखना एक कॉमेडी पैदा करता हैं। वैसे ही जैसे गांव की आंखों से शहर देखा जाना संशय, अविश्वास, रहस्य और डर...

 टीवीएफ द्वारा बनाई गई और अमेजॉन प्राइम पर स्ट्रीम हुई वेब सीरिज 'पंचायत' की अच्छी बात यह है कि यह गांवों को शहर की निगाह से देखती है लेकिन उस तरह से नहीं जैसा हिंदी फिल्में देखा करती थीं। वहां पर गांव का मतलब यह होता कि लोग धोती-कुर्ता और मूंछ पहनकर सुबह सुबह खेत चले जाते हैं। मौसम कोई भी हो सरसो के पीले फूल लहराया करते हैं। लोग शाम को चौपाल में आग तापते हुए गांव की समस्याओं की चर्चा करते हैं। महिलाएं मंगल गीत गाया करती हैं। लोग हमेशा खुश रहते हैं और जब-तब अपनी भैंस को नहलाया दिया करते हैं। ऐसा कभी किसी युग में नहीं हुआ लेकिन सिनेमा के पास गांव को दिखाने के लिए कुछ ऐसी ही फिक्स विंडो रही हैं।

टीवीएफ गांव को गांव की तरह देखती है। गांव के लोग भी जींस की पैंट पहनते हैं। शरीर से चिपकी रहने वाली टीशर्ट उनके पास भी हैं। वे वाट्सअप ग्रुप में हैं और वीडियो कॉलिंग भी करते हैं। चिल रहने के लिए नई उम्र का लड़का ना तो खुद नदी नहाता है और न ही अपने भैंस को नहलाता है। वह भी आपकी तरह खेतों में कहीं कोने में बैठकर बियर ही पीता है। हो सकता है कि उसका चखना शहरी चखना से जरा कमतर हो। इस लिहाज से पंचायत यहां पर नकली नहीं लगती। गांव, उसके गलियारे, घर और लोग, उनके बात करने के मुद्दे आज के गांव जैसे ही लगते हैं। 

  'पंचायत' के साथ समस्या यह है कि इसके पास अपनी कोई कहानी नहीं है। उसके पास वही संकट है कि जो 'कोई मिल गया' में राकेश रोशन के सामने था। वे कसौली में एलियन तो ले आए थे लेकिन उस एलियन का मकसद बहुत कन्वेन्सिंग नहीं था। फिर जल्दबाजी में उसे रितिक रोशन की आंखों की रोशनी वापस लाने का काम दे दिया गया। यहां-वहां के कई अच्छे दृश्यों से गुजरती हुई यह फिल्म जब क्लाइमेक्स की तरह पहुंचती है तो बिल्कुल खाली हाथ हो जाती है। क्लाइमेक्स में जो ड्रामा रचा गया है वह कमजोर और बचकाना है। गांवों में महिला प्रधान होने पर उनका काम प्रधान पति के द्वारा देखा जाना इतनी सहज और उदासीन घटना है कि यह अब ना तो खबर बची है ना ही विरोधाभास। इसे विरोधाभास मानना सिर्फ उनके लिए सिमित होगा जिन्होंने गांव को बिल्कुल देखा ही नहीं और जिन्होंने गांव को बिल्कुल देखा ही नहीं उन्हें इससे फर्क क्या पड़ता है कि प्रधानी पत्नी करे या पति। 



पंचायत एक ऐसे ग्राम सेक्रेट्री की कहानी है जिसे शहरी कॉर्पोरेट कल्चर में मनचाही नौकरी नहीं मिलती। वह बड़ी नौकरी के लिए प्रयत्नशील है लेकिन इस बीच उसे 'समूह ग' की यह सरकारी नौकरी मिल जाती है। बैठे रहने से बेहतर वह यह नौकरी ज्वाइन करता है। बाइक के पीछे लिखा UP-16 बताता है कि यह युवा दिल्‍ली एनसीआर से ताल्लुक रखता है। यूपी के बलिया जिले के फुलेरा नाम के गांव में पहुंचने के बाद वहां के जीवन से ताममेल बिठाने के दृश्य ही फिल्म के मुख्य विषय हैं।  बिजली की समस्या, गांव का भूत, प्रधानी के होने वाले चुनाव जैसी बातें मनोरंजक अंदाज में आती हैं। सेकेट्री का पंचायत भवन के बाहर रात में बैठकर बियर पीना या पंचायत घर में बारात रुकने और दूल्हे के गंवारपन को एक ही दृश्य में समेटकर फिल्म बिटविन लाइन मैसेज देने का भी प्रयास करती है। 

मनोरंजन के बीच गांव के कुछ षड़यंत्र भी हैं जो गांव वालों के लिए तो बहुत बड़ी चीज है लेकिन कार्पोरेट कल्चर के षड़यंत्र और 'पापों' की तुलना में उनका स्केल बहुत लो है। गांव की मासूमियत पर फिल्म कुछ कहते-कहते रुक जाती है। इसे विस्तार देते तो अच्छा रहता। फिल्म के साथ एक प्रॉब्लम और है। ग्राम सेकेट्री नाम की जिस चीज को इतना निरीह और कमजोर दिखाया गया है वह वैसा होता नहीं। मैं और इन लाइनों से गुजरने वाले कई लोग सेकेट्री और उनके घाघपन से वाकिफ हैं। ग्राम प्रधान और सेकेट्री के बीच के संबंधों को एक फिल्मी टोन दिया गया है। यह संबंध भी ऐसा नहीं होता। संबंध जिस तरह का होता है उसे दिखाने के लिए फिल्म को बहुत सारे प्लाट रचने होते, रिसर्च करनी होती। इससे यह फिल्म बचती है। वहां यह स्टीरियोटाइप होकर निकल जाना चाहती है। 


फिल्म का सबसे अच्छा हिस्सा इसके कलाकारों का अभिनय हैं। टीवीएफ फिल्मों के चेहरे रहे जीतेंद्र कुमार उर्फ जीतू भईया यहां सेकेट्री अभिषेक त्रिपाठी का किरदार निभाते हैं। कुछ कहते कहते रुक जाने वाला उनका यह किरदार अच्छा है। लेकिन वह अपने पुराने स्टाईल और प्रभाव से नहीं निकल पाते। वह वही जीतू भईया लगते हैं ‌जो पिचर या बाकी शहरी परिवेश में रचे गए वीडियो में दिखते हैं। फिल्म में सबसे ज्यादा उम्मीद पंचायत सहायक के रुप में विकास की भूमिका निभाने वाले चंदन रॉय में दिखती है। एक अच्छे कॉमन सेंस और गांव के सिस्टम को समझने वाले चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी की भूमिका को वह जीवंत तरीके से जीते हैं। प्रधान के रोल में नीना गुप्ता  और प्रधान पति के रोल में रघुवीर यादव बिल्कुल फ‌िट हैं। ये इतने बड़े कलाकार हैं कि इन्हें भी डाल दो कर ही लेंगे। 

 फिल्म का निर्देशन दीपक कुमार मिश्र ने किया है। वो टीवीएफ की फिल्मों का प्रमुख हिस्सा हैं। दीपक की निगाह गांव की कमियों और सिस्टम के दुरुह होने पर नहीं है। वह जानते हैं कि टीवीएफ या अमेजॉन प्राइम का दर्शक शहरों में बसता है। इसीलिए गांव की डिटेलिंग करने के बजाय वह तफरी के अंदाज में चीजों का कहने का प्रयास करते हैं। हालांकि उनकी आंखें आसपास के व्यंग्य को समेटने का प्रयास करती हैं। हिम्मत करके वह कुरुतियों पर व्यंग्य भी करते हैं लेकिन उसका अंदाज कॉमिक ही रहता है। फिल्म के आखिरी के चंद सेकेंड बताते हैं कि हो सकता है कि पंचायत का सीजन 2 भी आपको देखने को मिले। 

पंचायत को एक बार देखा जा सकता है। यह फिल्म आपको बोर नहीं करती, बस समस्या यह है कि इसके पास याद रखने लायक कुछ भी नहीं है...

Tuesday, March 24, 2020

शी स्‍त्री की देह के मनोविज्ञान को तो कह लेती है, सिनेमाई मनोरंजन में चूक जाती है...



इम्तियाज अली की डेब्यू वेब सीरिज 'शी' को ड्रग्स नेक्सस पर बनी फिल्म समझना उसके साथ ज्यातीय होगी। शी स्‍त्री देह के मनोविज्ञान को कहने की सिनेमाई कोशिश है। देह को लेकर स्‍त्री की न्यूनताएं, उसकी कुंठाएं, दूसरी देह से चलने वाली उसकी अनवरत तुलनाएं, निगाहों में तवज्जों पाने की छटपटाहट और पुरुष के नजरिए से स्‍त्री द्वारा खुद को देखे जाने जैसी बातों को यह फिल्म एक कहानी के जरिए गढ़ने की कोशिश करती है। शी की कमजोरी यह है कि जिस कहानी के जरिए इन चीजों को कहने के लिए चुना गया है वह कहानी उतनी मजबूत और कन्वेनसिंग नहीं लगती जितनी कि उसे होना चाहिए था। इसलिए ग्रांड टोटल में यह फिल्म कमजोर पड़ जाती है। 

 शी को इम्तियाज अली ने क्रिएट किया है। यानी उसे सोचने और लिखने का जिम्मा उनका है। इसे निर्देशित आरिफ अली और अविनाश दास ने मिलकर किया। आरिफ, इम्तियाज के छोटे भाई हैं और 'लेकर हम दीवाना दिल' फिल्म को निर्देशित कर चुके हैं। अविनाश से आप 'अनारकली' के मार्फत परिचित हैं। इन दोनों निर्देशकों की काम को लेकर अपनी कोई वाहिद पहचान नहीं बन पाई है। इसलिए यह क्लासीफाइड कर पाना मुश्किल होता है कि किन दृश्यों में किसका कंट्रीब्यूशन है, लेकिन फिल्म का ओवरऑल टोन यह साबित करता है कि यह दर्शन को समझने वाले इम्तियाज का सिनेमा है। 

 फिल्म मुख्यतः दो ट्रैक पर चल रही होती है। पहला ट्रैक मुंबई पुलिस के द्वारा ड्रग कारोबार की चेन को खत्म करने की कहानी है। दूसरी कहानी मुंबई पुलिस की कॉन्सटेबल भूमिका परदेसी की है। भूमिका उर्फ भूमि ही इन दोनों कहानी में ब्रिज तरह काम करती हैं। चूंकि हम इम्तियाज अली की कहानी कहने के अंदाज से जरुरत भर का परिचित हैं इसलिए यह देखकर समझ आ जाता है कि उनका फोकस दरअसल भूमि को एक कॉन्सटेबल नहीं बल्कि उसके स्‍त्री को दिखाने की प्रक्रिया में है। उसका पति उससे इसलिए अलग हो जाता है क्योंकि वह बिस्तर पर 'ठंडी' है। उसकी छोटी बहन उसी तुलना में 'गर्म' है। गर्म और ठंडे होने की यह जिक्र फिल्म में दसियों बार आते हैं। भूमि का पति अपनी साली के साथ एक बार सोना चाहता है। इसके बदले वह उसके लिए कुछ भी कर सकता है। भूमि के साथी पुलिस वाले भी उसे लड़की नहीं मानते। वह उनके सामने वैसी ही‌ द्विअर्थी बातें करते हैं जैसा मर्द मर्द के सामने ही करते हैं या कर सकते हैं। 


नारकोटिक्स डिपार्टमेंट का एक अफसर भूमि में 'कुछ' देखता है। उसी 'कुछ' की वजह से वह उसे एक ड्रग पैडलर सस्या के सामने कॉल गर्ल बनाकर पेश करता है। वह पकड़ा जाता है। इसके बाद भूमि की जिंदगी में एक स्‍त्री के रुप में बदलाव आते हैं। वह आगे भी कॉलगर्ल के रुप में मुखबिरी करती है। शी फिल्म को देखने का इम्तियाज अली का जो तरीका है उसे ही पकड़कर आप भी चलेंगे तो आपको यह फिल्म सही दिशा में लेकर जाएगी। 

हनीट्रैप के एक सीन में जब भूमि, सस्या के जिस्म से चिपकी होती है उस समय उसके शरीर में एक हलचल होती है। पता नहीं क्या होता है कि कुछ मिनटों पहले सस्या की बाहों से निकलने के लिए छटपटा रही भूमि उसके शरीर के खास हिस्से से अपने जिस्म को रगड़ने लगती है। एक अनचाहा संबंध, कुछ सेंकेड के लिए सही सेक्स प्राप्ति का एक जरिया बनकर आता है। चंद सेकेंड का यह सीन दरअसल पूरी फिल्म की आत्मा है। एक स्‍त्री की सेंसुअल फैटेंसी को सिनेमा में इसके पहले इस तरह से नहीं कहा गया। कम से कम मेरे देखे गए हिंदी सिनेमा में नहीं। 

 राजेंद्र यादव के एक लघु उपन्यास मंत्रवुद्वि की नायिका निम्मी को जब रात के अंधेरे में किसी दूसरे के धोखे में चूम लिया जाता है, तो उस चूमे जाने की प्रतिक्रिया में एकसाथ उतपन्न हुए सुख और ग्लानि को राजेंद्र बहुत खूबसूरती से बयां करते हैं। औसत से नीचे चेहरे मोहरे और कद काठी वाली निम्मी को चूमा जाना उसके लिए कभी ना पूरी होने वाली सेक्स फैटेंसी था। वह नहीं चाहती है कि चूमने वाले यह बात जान पाए कि स्याह रात में चूमे गए वह खुरदरे ओंठ निम्‍मी के थे। अपने शरीर की न्यूनताओं को लेकर यही अपराध बोध बहुत देर तक भूमि का पीछा करते रहते हैं।  

सस्या द्वारा लगातार भूमि को ‌लगातार दिए जाने वाले कॉम्लीमेंट उसके अंदर एक अजीब से पर्सनाल्टी पैदा करते हैं। शी के वह सीन गौर से देखने वाले हैं जब भूमि रेस्टोरेंट के वेटर, होटल के रिसेप्‍शन में बैठे लड़के से यह पूछने का प्रयास करती है कि वह उसे सेक्सुअली कितनी अच्छी लग रही है। ढीली नाईटी को आईने के सामने खड़े होकर वक्षों के सामने कस लेना और उस कसावट की खुशी को महसूस करने की प्रक्रिया को दिखाना शी की कई सफलताओं में से एक है। इस सीरिज के आखिरी ऐपीसोड के आखिरी लम्हों में जब बिस्तर पर ठंडी साबित की गई भूमि ड्रग माफिया नायक को उलटकर खुद उसके ऊपर आकर सेक्स का कंट्रोल अपने हाथों में लेती है तो कमरे का आदमकद आईना उसे बड़े दिलचस्प नजरिये से दिखाता है। 

सेक्स फैटैंसी के इन मनोवैज्ञानिक बदलावों के अलावा शी के पास कहने के लिए कुछ नहीं है। मुंबई के ड्रग वर्ल्ड को इतनी बार इतने अलग-अलग तरीके से दिखाया जा चुका है कि अब उसमें कुछ बचा ही नहीं। यदि कुछ बचा भी हो तो भी दर्शकों की दिलचस्पी नहीं बची है। शी देखने वालों की दिलचस्पी इस बात में बन ही नहीं पाती कि वह इस बात का इंतजार करें कि ड्रग माफिया नायक पकड़ा जाता है या नहीं? ना ही इस बात में उन्हें कोई रस आता है कि नायक और सस्या के बीच दरअसल संबंध कैसे थें। फिल्म सिर्फ भूमि के जिस्म को लेकर बदलावों में दिलचस्पी जगा पाती है। 

इसमें दिक्कत यह भी है कि यदि आप भूमि के जिस्म के मनोविज्ञान को ठहरकर नहीं सोचेंगे तो यह आपको अश्लील भी लग सकता है। रिश्तों का ताना-बाना बचकाना। यदि यह फिल्म यदि असफल होती है तो बहुत संभावना है कि इसे अनैतिक और अश्लील भी साबित कर दिया जाए। फिल्म में अभिनय का पहलू मजबूत है। सबसे बेहतरीन अभियन भूमि का किरदार निभाने वाली अदित‌ि पोहनकर ने किया है। एक थकी हुई बोरिंग लड़की से लेकर ड्रम माफिया को एक खुली और नंगी डील ऑफर करने की इस पूरी यात्रा को अदिति ने खूबसूरती से निर्वाह किया है। सस्या के रोल में विजय वर्मा कमाल लगते हैं। साथ ही कमाल लगता है कि उनका हैदराबादी जुबान का लहजा। अभिनय में सबसे कमजोर कड़ी नारकोटिक्स डिपार्टमेंट के अफसर की भूमिका निभाने वाले विश्वास किनी है। विश्वास को हम शार्ट फिल्‍म जूती के अलावा वीरे द वीडिंग में सोनम कपूर से फ्लर्ट करते एक गंवार आशिक के रुप में याद कर सकते हैं। 

शी फिल्म को देखा जाना चाहिए। लेकिन इसे यदि एक थ्रिलर वेब सीरिज की तरह देखेंगे तो निराश हाथ लगेगी। यदि स्‍त्री के शारीरिक मनोविज्ञान के नजरिए से आंकेंगे तो यकीनन यह फिल्म बुरी नहीं लगेगी। मैं इसे इम्तियाज का अच्छा काम मानूंगा। भले ही इस बार उनका जॉनर बदल गया हो लेकिन दर्शन के मामले में वह वैसे ही मजबूत हैं...

Sunday, March 15, 2020

अंग्रेजी मीडियम 'कुंए के मेढक' जैसे पिता से भी आपको प्यार करना सिखाती है...




किसी पिता का अपनी संतान से उसके 'एलीट क्लास' में चले जाने के बाद उससे छिटककर धीमे-धीमे दूर होते जाते देखा है? या देखा है ऐसी संतानों को जो गांव-कूंचे से आए अपने मां-बाप को 'अपनी दुनिया' में इंट्रोड्यूस कराने में झिझकते हैं। झिझकते हैं उनके आउटडेटेड सस्ते पहनावे, खांसने, छींकने, डकार लेने की उनकी आवाजों से। यदि देखा है आपने उस डर को जब पिता के गंदे, फटी ऐड़ियों वाले पैर के तलवे से बेटे को हर वक्त अपने मुलायम सोफा के कुशन के खराब हो जाने का डर बना रहता है। डर यह भी बना रहता है कि पिता कब‌ किसके सामने ऐसी बात बोल दें जो उन्हें नहीं बोलनी चाहिए थी। यदि आपने ये जीवन देखे हैं तो अंग्रेजी मीडियम देखते वक्त आपके दिमाग में ऐसी कई फिल्में इस फिल्म के पैरलल चलनी शुरू हो जाती हैं। हो सकता है कि आपके दिमाग में चल रही फिल्मों के किरदार इस फिल्म से ज्यादा सजीव हों। 

हिंदी मीडियम से उलट अंग्रेजी मीडियम फिल्म पढ़ाई के तौर-तरीकों, उसके माध्यम या उसके पूंजीवादी हो जाने पर बात नहीं करना चाहती। हिंदी-अंग्रेजी को बोलने या ना बोल पाने वाला विषय भी यहां बस छूकर ही निकला है। यह फिल्म एक संतान और पिता की कहानी है। परिवेश और उदाहरण बदल जाने के बाद संतान के द्वारा पिता की सीमाओं को देखने की कहानी है। एक पिता की विवशताओं की कहानी है। उसकी विवशता यह है कि वह लंदन आकर भी उदयपुर जैसे छोटे शहर का बना रहता है। पिता का ना बदलना एक संतान के लिए शर्मदिंगी का विषय हो सकता है अंग्रेजी मीडियम इसे जज्बाती होकर नहीं कॉमिक तरीके से कहने की कोशिश का नाम है। 

 हम सभी उम्र के एक पड़ाव से जरुर गुजरते हैं जब अब तक सबसे स्मार्ट और समझदार लगने वाले इंसान के रुप में हमारे पिता बौने और संकीर्ण लगने लगते हैं। फिल्म एक सीन में तारिका बंसल का किरदार निभा रही राधिका मदान चंपक उर्फ इरफान से कहती हैं "ना पापा आपने दुनिया नहीं देखी है। आपने सिर्फ उदयपुर देखा है। मैं दुनिया को देखना चाहती हूं" इस वाक्य के बोले जाने के ठीक पहले इरफान उन्हें दुनिया देखने और पिता होने का हवाला दे रहे होते हैं। इस  सीन के साथ आपको दंगल फिल्म का वह सीन याद आ सकता है जब अपने नेशनल कोच से ट्रेनिंग लेकर लौटी बेटी अपने पिता को दंगल में सबके सामने अपने आधुनिक तरकीबों से चित कर देती है। शरीर पर पुती मिट्टी से गहरी मिट्टी उस पिता के सीने में जा समाई होती है जिसने अपनी बच्ची को उनके होश संभालने से लेकर अब तक कुश्ती सिखाई होती है। अंग्रेजी मीडियम में यह सीन उतने पैने तरीके से नहीं कहा गया लेकिन समस्या वही थी। 


अंग्रेजी मीडियम की बेटी, बाप को चैलेंज नहीं कर रही है। वह सिर्फ अभी अभी देखी दुनिया को अपने ढंग से ‌बिना पिता की दखल के देखना चाहती हैं। वह उस रिति रिवाज को निभाना चाहती है जो उसे अभी बहुत प्रभावित कर रहे हैं।अंग्रेजी मीडियम की यह ताकत और खूबसूरती है कि अपने पिता को कुएं का मेढक कह देने के बाद भी फिल्म उस लड़की को खलनायिका के तौर पर पेश नहीं करती। फिल्म उस लड़की के सहज बदलावों के साथ खड़ी दिखती है और यह मानती है कि यह 'टेम्परेरी' है।  साथ ही पिता के किरदार को और मेच्योर बनाते हुए उससे कुछ दार्शनिक बातें भी कहलवाती है। 

फिल्म के अंतिम सीन में इरफान खुद से मोनोलॉग करते हुए कहते हैं कि "एक उम्र आती हैं जब अभी तक ऊंगली पकड़कर चल रहे बच्चे हाथ छुड़ाने लगते हैं। हमें बुरा तो लगता है लेकिन यदि वह हाथ नहीं छुड़ाएंगे तो गले कैसे मिलेंगे"। यह एक वाक्य निर्देशक के दृष्टिकोण को जस्टीफाई करने की कोशिश करता है। जहां यह फिल्म बहक रहे बच्चे को वापसी की राह भी दिखाती है और पिता की सोचने की क्षमता को भी स्माल से एक्सट्रा लॉर्ज की तरफ ले जाती है। 

एक मैसेज देने से इतर यदि आप फिल्म को सिर्फ फिल्म के नजरिए से देखते हैं तो यह एक टाइम पास कॉमेडी फिल्म है। इस फिल्म के पास पंचेज अपनी पिछली फिल्म जैसी नहीं हैं। ना ही उस तरह के सीन हैं जो आपको बाद तक हंसाएं। फिल्म का फर्स्ट हॉफ अपेक्षाकृत धीमा है लेकिन इसकी भरपाई सेकेंड हॉफ बेहतर तरीके से करता है। अपने समकालीन अभिनेताओं में इरफान का कद शायद सबसे ऊंचे मुकाम पर है। इरफान कैंसर से पीड़ित हैं। फिल्म में इरफान के पेस और रिफलेक्‍शन को देखकर महसूस किया जा सकता है कि वह वाकई बीमार हैं। निर्देशक होमी अदजानिया की यह खूबी है कि बीमार होने की वजह से उनके स्लो हो जाने को वह अपने किरदार को गढ़ने में लगा लेते हैं। 

इरफान की जोड़ी दीपक डोबरियाल के साथ कमाल की है। वैसे जोड़ीदार के रुप में दीपक, माधवन के साथ और इरफान नवाज के साथ बहुत बेहतर भूमिकाएं कर चुके हैं। बावजूद इसके यह फिल्म इस बात के लिए भी याद की जाएगी कि इन दोनों की जोड़ी परदे पर किस उच्च स्तर वाली कॉमिक जुगलबंदी करती है। राधिका ने बहुत सारे टीवी सीरियल किए हैं लेकिन मैंने उन्हें सिर्फ इसके पहले विशाल भारद्वाज की फिल्‍म पटाखा में देखा था। इस फिल्म के जरिए राधिका अपनी रेंज दिखाती हैं। बाप-बेटी के दृश्य उन्होंने अच्छे किए हैं। करीना कपूर, डिंपल कपाड़िया, रणवीर शौरी के लिए अलग से कहने लायक कुछ भी नहीं हैं पर यह सबको ही लगता है कि काश पंकज त्रिपाठी को थोड़ा रोल और मिलता....

Monday, March 2, 2020

थप्पड़ मारने से ज्यादा बुरा है उसके लिए अपराधबोध ना होना है


किसी चीज का अपराधबोध होने के लिए उस चीज का पहले अपराध बनना जरुरी है। पुरुष बिरादरी के बहुत सारे अपराध इसलिए अपराध नहीं कहलाते क्योंकि समाज उन कामों को अपराध नहीं बल्कि पुरुषों की पहचान के तौर पर आइडेंटीफाई कर देता है। जब अपराध ही नहीं तो अपराधबोध कैसा। 'थप्पड़' की कहानी अपराध होने से ज्यादा अपराधबोध ना होने की कहानी है।

फिल्म में जिस शाम अम्‍मू(तापसी पन्नू) को भरी महफिल में पति विक्रम (पैवल गुलाटी) द्वारा थप्पड़ मारा जाता है उसी शाम की खत्म होती रात में वह पार्टी के लिए अस्त व्यस्त हुए फर्नीचर को ठीक करती है। फर्श पर फर्नीचर घिसटने की आवाजों से उसकी सास बाहर आती है। बहू से बिना किसी संबोधन के कहती है कि "सुनीता के आने का इंतजार कर लेती, उसकी मदद से करती"। सुनीता उस घर की नौकरानी का नाम है। कुछ घंटे के बाद पति सोकर उठता है। शराब के हैंगओवर से उसे सरदर्द है। वह नौकरानी से सरदर्द की दवा मांगता है। अम्मू से थप्पड़ की बात वह भी नहीं करता। यहां एक मर्द और एक औरत। एक पति की पेशे में है दूसरी सास के पेशे में। थप्पड़ मारे जाने की उस घटना में दोनों की प्रतिक्रियाएं एक जैसी हैं। इस घटना का अलग ना लगना, इसे यूं ही भुला देना बताता है कि हमें 'थप्पड़' फिल्म की जरुरत क्यों हैं। बाकी यह फिल्म समाज के जिस तबके तक पहुंच पाएगी वहां के बारे में ऐसा कह सकते हैं कि घरेलू हिंसा कम से कम उन हिस्सों से विदा हो चुकी है।

पितृसत्ता की ओट में पुरुष द्वारा किए गए अपराध कई बार इसलिए अपराध नहीं लगते क्योंकि इनकी मान्यता उस वर्ग द्वारा दी जाती है जिन पर ये अपराध हो रहे होते हैं। थप्पड़ मारना अपराध नहीं है, थप्पड़ मारने को अधिकार मानना और उसके लिए अपराधबोध ना होना अपराध है। थप्पड़ तब अपराध नहीं है जब सामने वाला भी पलटकर उसी अधिकार से आपको मार सके। थप्पड़ का मारा जाना यदि म्यूचुअल नहीं है तो फिर ये अपराध है। थप्पड़ मारने की ताकत को जेंडर के नजरिए से देखा जाना अपराध है। यदि यह ताकत दोनों के पास समान है तो फिर ‌‌थप्पड़ में कोई बुराई नहीं है। थप्पड़ का अधिकार शायद जैविक अधिकार भी है। मां और बाप अपने बच्चों को थप्पड़ मार सकते हैं ले‌किन एक पति और पत्नी जो कि विधिक रुप से एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं वह ऐसा नहीं कर सकते।

अनुभव सिन्हा की यह फिल्म किसी एक घटना की वजह से बड़ी नहीं होती। बल्कि यह इसलिए बड़ी होती है क्योंकि वह छोटी-छोटी तमाम उन बातों को अंडरलाइन करती है जिन्हें समाज सोचने को तो दूर उन पर नजर रखने के लायक नहीं समझता। वह छोटे-छोटे समझौते जो एक स्‍त्री हर दिन, हर घंटे, हर मिनट करती रहती है अनुभव उसकी डिटेलिंट पुरुष और स्‍त्री दोनों के नजरिए से अलग-अलग करते हैं। वह चीजों को सही गलत बताए बिना तटस्‍थ होकर देखते हैं, ताकि दोनों के पक्ष खुलकर सामने आ सकें। निर्देशक कई जगहों पर एक आम इंसान बनकर चीजों को देखने का प्रयास करते हैं। ताकि एक बड़े वर्ग का नजरिया उसमें शामिल हो सके।

फिल्म में ‌थप्पड़ की उस घटना को यदि कोर्ट कचहरी की लीगल चीजों से दूर हटाकर सिर्फ उस घटना की प्रतिक्रियाओं को समाज के नजरिए से देखें तो पाएंगे कि हर किसी को अम्मू का रिएक्‍शन थप्पड़ की मुख्य घटना से ज्यादा आपत्तिजनक और ओवर स्टीमेटेड लगता है। इन हर किसी में पुरुष भी हैं और महिलाएं भी। अम्मू का भाई और मां है और विक्रम का भाई और मां भी।

अम्मू के अपने मायके लौट आने के पूरे एपीसोड को देखने से पता चलता है कि महिलाओं की ताकत और उनकी बात का वजन इसलिए कई बार कम हो जाता है क्योंकि उनके इर्द-गिर्द महिलाओं की प्रतिक्रियाएं पुरुषों से ज्यादा डिफेंसिव, परंपरावादी और पितृसत्‍ता को हवा देने वाली प्रवृति के साथ खड़ी दिखती हैं। महिलाएं ऐसा डर की वजह से नहीं करती हैं। फिल्म बताती है कि वह ऐसा अपनी परवरिश की वजह से करती हैं।

लगभग अस्सी फीसदी फिल्म किसी को विलेन नहीं बनाती। यहां तक कि थप्पड़ मारने वाले पति को भी नहीं। एक सीन में जब पति अपनी पत्नी को लेने के लिए उसके घर जाता है तो उसका व्यवहार एक अच्छे इंसान जैसा ही होता है। वह पत्नी से लड़कर अपनी महंगी कार में बैठता है। लेकिन बैक मिरर से अपने ससुर को गेट पर खड़ा हुआ देख लौटकर आकर उनके पैर छूता है। निर्देशक यहां पर यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि विक्रम बुरा व्यक्ति नहीं है। दरअसल उसने कभी इस नजरिए से देखा ही नहीं कि पत्नी को सरेआम थप्पड़ मारना उसके अधिकार के बाहर की चीज है।

आखिरी की बीस फीसदी हिस्से में फिल्म अपने लिए खुलकर खलनायक खोजती है। कोर्ट में लगाए गए आरोप। बच्चे की कस्टडी जैसे सीन फिल्म के हीरो को एक सहज पुरुषवादी व्यक्ति से निकालकर एक बुरे व्यक्ति की तरफ ठकेलते हैं। आखिरी के हिस्से में अपनी बात कहने का यह पैटर्न अनुभव की पिछली फिल्मों मुल्क और आर्टिकल 15 में भी दिखता है। एक छोटे से मोनोलॉग में तापसी उस घटना पर सबकी चुप्‍पी पर वाजिब प्रश्न उठाती हैं जो प्रश्न उस रात से उस घर में तैर रहे होते हैं।

फिल्म को पति-पत्नी के नजरिए के साथ-साथ दोनों मांओं के नजरिए से भी देखने की जरुरत है। ये किरदार रत्ना पाठक शाह और तन्वी आजमी ने शानदार तरीके से किए हैं। अनुभव की पिछली फिल्मों की तहर कुमुद मिश्रा लजवाब हैं। एक पिता-पुत्री के दिलचस्प रिश्ते को वह बहुत सहज तरीके से जीते हैं।

अपने सिनेमाई पुर्नजन्म के बाद अनुभव की यह तीसरी फिल्म है। मुल्क और आार्टिकल 15 की तुलना में थप्पड़ सिनेमाई रुप से 19 फिल्म है। 19 इसलिए कि यह थोड़ी लंबी है और फिल्म के पास उतनी घटनाएं और उपकथाएं नहीं हैं। बावजूद इसके थप्पड़ एक जरुरी तौर पर देखी जानी वाली फिल्म है। यह एक ऐसी फिल्म है जिसे पत्नी अपने पति और सास के साथ देखने जाएं।




Saturday, February 22, 2020

फिल्म चाहती है कि आप हंसते हुए घर जाएं, इसमें वह सफल होती है...


गे और लेस्बियन हमारे समाज में अब तक हंसी, उपेक्षा या फुसफुसाहट भर का ही फुटेज बटोर पाए हैं...

हम या तो उन पर रहम करते हैं/ रिस्पेक्ट देते हैं या फिर उन्हें अजीब निगाहों से घूरकर खुद को उनसे दूर कर लेते हैं। हम उनके साथ सहज नहीं होतें। ये बर्ताव देश के मेट्रो सिटीज का है। टू टायर या थ्री टायर सिटी में ऐसे लोगों की अभी शिनाख्त ही नहीं हो पाई है। यदि वहां पर ये (गे पढ़ें) किसी प्रदर्शनी में रख दिए जाएं तो लोग उनको देखने के लिए आएंगे। उनके साथ सेल्फियां लेंगे और रिश्तेदारों को फारवार्ड करेंगे।

गे रिलेशनशिप पर बनी फिल्म 'शुभ मंगल ज्यादा सावधान' समाज के इस नजरिए से खुद को बहुत दूर नहीं करती। वह इस रिलेशनशिप को मान्यता देती है लेकिन उनके साथ एक दूरी बनाकर। फिल्म जानती है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस रिश्ते को भले ही गैरकानूनी ना करार दिया हो लेकिन यह रिश्ता अभी भी समाज में गैर सामाजिक ही है।


हम कितना भी लिबरल क्यों ना बन लें लेकिन यह दृश्य स्वीकार्य नहीं कर पाएंगे कि कोई भाई अपनी बहन की शादी में घर आया हो और जयमाल स्टेज के ठीक सामने वह उसके जैसे दिखने वाले किसी पुरुष के साथ मिनटों तक लिपलॉक करता रहे। फिल्म में यह सीन एक कॉमिक सीन की तरह ट्रीट किया गया है। इस सीन का असर आप पर गहरा या गंभीर ना हो इसलिए इसके इर्द-गिर्द बहुत सारे फनी डायलॉग क्रिएट किए गए हैं। ताकि आप हंसते रहें और आपको यह लगे ही न कि ऐसा सच में हो सकता है। यह सीन वैसा ही है कि मानों कोई कड़वी दवा पिलाने के लिए उसे बहुत मीठे शर्बत में घोल दिया जाए। फिर उसकी फीलिंग शर्बत जैसी ही हो, दवा जैसी नहीं।

शुभ मंगल ज्यादा सावधान फिल्म की नियत अच्छी है। नियत अच्छी इसलिए कि क्योंकि यह खुद को एक मनोरंजक फिल्म बनाकर आपका मनोरंजन करना चाहती है। सा‌थ में वह चाहती है कि गे या लेस्बियन रिलेशनशिप के साथ आप सहज हो जाएं। फिलहाल वह आपको सिर्फ सहज करना चाहती है, इस विषय पर लेक्चर या ज्ञान बिल्कुल नहीं देना चाहती। फिल्म का 95 फीसदी हिस्सा कॉमिक सीन और कॉमिक डायलॉग से भरा हुआ है। कई सारी उपकथाएं और पात्र फिल्म में इसलिए डाले गए हैं ताकि आप हर समय इन गे किरदार और उनकी मोहब्बत में ही न उलझे रहे। वह आपको ना तो 'अलीगढ़' जैसा टेंशन देना चाहती है और ना ही उनकी जिंदगी में आपको वैसे ही खुलकर घुसने देना चाहती है।


आयुष्मान खुराना की लीड रोल वाली इस फिल्म में लीड रोल दरअसल गजराज राव करते हैं और सेकेंड लीड नीना गुप्ता और मनुरिषी मिलकर। फिल्म उन्हीं की दुनिया को उन्हीं के नजर‌िए से देखने का प्रयास करती है। एक मां-बाप, चाचा-चाची का नजरिया। एक सामाजिक इंसान का समाज में रहने का नजरिया। फिल्म के पास ऐसे सीन गिनती के हैं जहां प्रेम में उलझे दोनों गे किरदार सहज रुप से आपस में अपनी बात कह रहे हों। वे या तो दर्शकों के लिए लंबे मोनोलॉग करते हैं या फिर समाज के दकियानूस होने की दुहाईयां देते हैं। बचे हुए समय में वह कुछ ऐसे स्टंट करते हैं ताकि आपका हंसी-ठट्टा होता रहे। फिल्म कई जगहों पर डिप्लोमैटिक तरीके से इस चीज को हैंडल करने का प्रयास करती है। वैसे ही जैसे अश्वस्‍थामा मर गया लेकिन हाथी..


फिल्म में सबने अच्छा अभिनय किया है। आयुष्मान खुराना बहुत अच्छे अभिनेता हैं। उनके पास मिडिल क्लास के लड़के की समस्याओं को दिखाने की एक लंबी फिल्मी रेंज है। वह सभी में खरे हैं। लेकिन इस फिल्म में वह और उनके मोनोलॉग कैरिकेचर पात्र जैसे लगने लगते हैं। सीन बुरे नहीं हैं लेकिन लगता है कि आयुष्मान ड्रीम गर्ल, बधाई हो या बाला के सेट से उठकर आए हैं और इस विषय पर आपको जागरुक करना चाहते हैं।

टीवीएफ फेम जीतेंद्र कुमार उर्फ जीतू भईया का फिल्मी डेब्यू अच्छा है। (गॉन केश जैसी विलुप्त फ़िल्म को माईनस करके चले तो) लेकिन जो लोग उन्हें टीवीएफ से जानते हैं वह पाएंगे कि जीतू भईया पिचर, कोटा फैक्ट्री में जो कर चुके हैं यह फिल्म उसके नीचे की चीज है। वो सालों पहले अर्जुन केजरीवाल का माइल स्टोन किरदार कर चुके हैं।

फिल्म की सबसे बड़ी खूबी उसकी लिखावट है। फिल्म में बहुत सारे वन लाइनर हैं। ज्यादातर मनु के हिस्से आए हैं। वह कमाल के हैंन। मनु सच में बेहद उम्दा अभिनेता हैं। 'ओए लकी लकी ओए' के बाद उन्हें इस फिल्म में जी भरकर काम मिला है। उनकी बीवी का किरदार कर रहीं Sunita Rajwar भी कमाल करती हैं। फिल्म के निर्देशक हितेश कैवल्य की पीठ इस बात के लिए भी बार-बार थपथपाई जानी चाहिए कि उन्होंने डबल मीनिंग की संभावना वाले इस विषय पर फिल्म को कहीं हल्की या छिछली नहीं किया।

ताजमहल के कुछ हिस्से अच्छे हैं और बाकी किसी पुरानी इमारत की नकल जैसे...


'यह गलतफहमी है कि लड़के सेक्स में इंन्ट्रेसटेड होते हैं और लड़कियां प्यार में, We like men with good bodies and good looks'...

अपने ट्रेलर के पहले सीन में लड़की से यह डायलॉग बुलवाकर 'ताजमहल 1989' नाम की वेब सीरिज एक खास तरह के ऑडियन्स को दाना डालने का काम करती है। पर यह सिर्फ एक रैपर है। रैपर खोलने पर फिल्म ऐसी नहीं निकलती।फिल्म का मिजाज ना तो सेक्स संबंधों को लेकर लिबरल हो रहे समाज को अंडर लाइन करता है और ना ही नाम के अनुरूप यह कोई पीरियड प्रेम कहानी है।

'घोस्ट स्टोरी', जमताड़ा: सबका नंबर आएगा' के बाद 'ताजमहल 1989' नेटफ्लीक्स ओरिजनल की इस साल की तीसरी इंडियन वेब सीरिज है। 'ताजमहल' साल 1989 के भारत को लखनऊ विवि कैंपस में कैमरा रखकर उसके इर्द-गिर्द बन रही सोसाइटी को देखने को कोशिश करती है। फिल्म अपने साथ कई उपकथाएं बुनती है जिसके सिरे आपस में यूनीविर्सटी कैंपस में आकर जुड़ते हैं। ताजमहल एक तरह का फ्लैशबैक का सिनेमा भी है, खासकर उनके लिए जो 90 के दशक को खुद से बहुत कनेक्ट करते हैं। 2020 में बैठकर 1989 को देखना सुखद लगता है, लेकिन इस पर बनावटी होने का इल्जाम भी लग सकता है।

1989 और उसके बाद का वह भारत जब बीजेपी देशभर में राम मंदिर बनाने के लिए रथयात्रा निकाल रही थी, विहिप घर-घर जाकर लोगों से मंदिर के लिए एक ईंट देने की मुहिम पर थी, आरक्षण पर समाज खेमे में बंट चुका था, कश्मीर से कश्मीरी पंडित भगा दिए गए थे, बाबरी ढह गई थी, मुंबई सहित देश भर में दंगे भड़क चुके थे, उस दौर की यह फिल्म दो ऐसे अधेड़ शादीशुदा जोड़ों की रोमांटिक जिंदगी दिखाती है जहां एक की बीवी मुसलमान है तो दूसरे का शौहर। फिल्म का वह सीन फिल्‍म की टोन सेट करताा है जब मुसलमान शौहर अपने हिन्दू फादर इन लॉ को फोन पर सलाम बोलता है, उसके अगले ही पल खुद को करेक्ट करके प्रणाम कह देता है। दोनों ही जोड़ों को ना तो मंदिर जाते दिखाया जाता है और ना ही मस्जिद। जो सेक्युलर शब्द इन दिनों लगभग देशद्रोही के पैरलल आकर खड़ा हो गया है, फिल्म के तमाम सारे दृश्य हिंदुस्तान के उसी सेक्युलर जामे की पहचान कराते हैं। फिल्म में मिया-बीवी अनबन तलाक तक आ जाती है लेकिन उनके बीच धर्म या उसके निर्वाह करने का तरीका कभी नहीं आता।

मुसलमान शौहर(अख्तर बेग) और हिंदू पत्नी(सरिता) के ये रोल नीरज काबी और गीतांजलि कुलकर्णी बहुत ही सुंदर ढंग से निभाते हैं। नीरज से आप 'तलवार', 'सेक्रेड गेम्स', 'शिप ऑफ थीसिस' के मार्फत परिचित हैं और गीतांजलि को आप मराठी की चर्चित फिल्म 'कोर्ट' और ‌हिंदी फिल्‍म 'फोटोग्राफ' से याद कर लेंगे। अख्तर लखनऊ विवि में फिलॉसफी पढ़ाते हैं और बीवी फिजिक्स। टेस्ट और इंटलैक्ट लेवल पर दोनों अलग-अलग खड़े हैं। दोनों के शौक और प्रियॉरिटी भी मैच नहीं करते। बात करने के लिए उनके पास कॉमन टॉपिक नहीं होते हैं। पर एक जमाने में शौहर ने बीवी के लिए एक कॉपी भर के शायरियां लिखी थीं। और होने वाले ससुर के कहने पर फिलॉसफी में मास्टर भी किया था..

इस कहानी का एक और सिरा अख्तर के हिंदू दोस्त(सुधाकर मिश्रा) और उनकी मुसलमान बीवी(मुमताज) की तरफ खुलता है। ये रोल दानिश हुसैन और शीबा चड्ढा करते हैं। इन दोनों से आप वाकिफ हैं। मिश्रा, विवि में फिलॉसफी के गोल्ड मेडलिस्टि रहे हैं लेकिन अब पिता जी की सिलाई की पुस्तैनी दुकान चलाते हैं। फिल्म के सबसे अच्छे सीन इन दोनों दोस्तों की मुलाकातों और उनके दरम्यान होने वाली बातचीत में निकलकर आते हैं। ओल्ड मॉक की कभी क्वार्टर तो कभी अध्‍धा रम दोनों स्टील के गिलासों में प्लास्टिक के जग से पानी भर-भर के खत्म करते हैं। चारपाई के बीचो-बीच रखी नमकीन की प्लेट एक किरदार की तरह होती है। इन्हीं निजी पलों में मिश्रा, अख्तर को बताते हैं कि उनकी बीवी अब तक उनकी बीवी नहीं हुई हैं और वह उन्हें लखनऊ के एक कोठे में मिली हैं। शादी करने की हिम्मत फिर भी अब तक नहीं आई है।

फिल्म की बाकी कथाएं विवि की राजनीति, उनमें पनपने वाले अफेयर, उनके धोखे और छल की कहानियां हैं। ये फिल्म के कमजोर हिस्से हैं। कमजोर इसलिए कि इससे मिलती जुलती ढेरों कहानियां आप सिनेमा में देख चुके हैं। कॉलेज कैंपस के बहुत सारे सीन, एक अफेयर का दूसरे में शिफ्ट हो जाना आपको प्रकाश झा के बैनर की फिल्म 'दिल दोस्ती ईटीसी' और अनुराग की फिल्म 'गुलाल' की याद दिला सकते हैं। नेटफ्लिक्स ओरिजनल सीरिज की किसी फिल्म की कहानी या स्किप्ट किसी हिंदी फिल्म से प्रेरित लगे तो यह नेटफ्लीक्स ओरिजनल के पूरे कॉनसेप्ट पर ही प्रश्न खड़ा करता है।


वेब सीरिज की कुछ बातें इसके पक्ष में जाती हैं। पहला कलाकारों का अभिनय। पुराने कलाकारों के अलावा जिन नए चेहरों को मौका‌ मिला है उनके चेहरे पर नए होने की जल्दबाजी नहीं दिखती है। कई टीवी ऐड में दिखने वाली अंशुल चौहान प्रभावित करती हैं। फिल्म की सिनेमेटोग्राफी अच्छी है। कैमरा कई अच्छी चीजों को कैप्‍चर करता है। छोटे-छोटे दृश्य तब बड़े हो जाते हैं, जब कैमरा ठहरकर उनमें दिलचस्पी दिखाता है।, लेकिन वह तब गलतियां भी कर देता है जब 1989 में मेट्रों लाइन का एक पुल एक दृश्य में दिख जाता है। फिल्म की मजबूती उसके डायलॉग भी हैं। पति और पत्नी के बीच होने वाली बातचीत को बहुत सलीके से लिखा गया है जहां ह्यूमर अपने शबाब पर है। कुछ अवधी बोली के संवाद भी हैं, वह कच्चे हैं।

सात एपीसोड की यह सीरिज कहीं से यह संकेत नहीं देती कि इसका सीक्वल आने की कोई संभावना है। फिल्म का सबसे सपाट एपिसोड आखिरी है। एक लड़की को अगवा करने और उसे आगरा से छुड़वा लेने की एक बचकानी कहानी ये बताती है कि निर्देशक पुष्पेंद्र नाथ मिश्रा के पास दिखाने के लिए उस समय का परिवेश था, पात्र भी थे लेकिन उसके समांनतर एक उम्दा कहानी नहीं थी। आप सिनेमा कैसा भी बनाए, आपके पास उसे खत्म करने की एक कहानी जरुर होनी चाहिए..