Saturday, May 16, 2020

'पाताल लोक' में वह सबकुछ है जो अब से पहले इस तरह से नहीं देखा गया



कबीर M नाम का एक लड़का है। गिरफ्तारी के बाद उसके पास से दिल्ली पुलिस को एक मेडिकल सर्टिफिकेट मिलता है। सर्टिफिकेट ये बताता है‌ कि उसका खतना नहीं बल्कि आपरेशन हुआ है। पुलिस उसे पीट-पीटकर यह जानना चाहती है कि 'एम' का मतलब क्या है? वह हर बार कहता है कि एम मतलब सिर्फ एम। पुलिस को इस बात से चिढ़ और हैरत दोनों है कि वह हिंदू होने का नाटक क्यों कर रहा है। बाद में यह केस दिल्ली पुलिस से उठकर सीबीआई के पास चला जाता है। सीबीआई उसे पाकिस्तान से आया एक जेहादी साबित कर देती है। बाद के एक सीन में कबीर का बाप एक बंद पड़े सिनेमाघर की कुर्सियों में बैठकर अपने टूटे हुए स्वर में दिल्ली पुलिस से कहता है कि "मैंने उसे मुसलमान नहीं बनने दिया, आप लोगों ने जेहादी बना दिया" कुछ साल पहले कबीर के बड़े भाई की बीफ खाने के आरोप में उन्मादी जनता पीट-पीटकर हत्या कर चुकी होती है। ये सीन अमेजॉन प्राइम पर स्ट्रीम हुई वेब सीरिज 'पाताल लोक' का है।

एक ऐसे दौर में जब जमातियों के पत्‍थर फेंकने, फल चाटने के वीडियो के साथ मुसलमानों का आर्थिक बाहिष्कार करने की नसीहतों से आपका वाट्सअप भरा हुआ है ऐसे समय में किसी मुसलमान से उसका नजरिया जानना भी एक रिस्क लेने जैसा है। बहुसंख्यक आबादी को नाराज करने का रिस्क। पाताल लोक यह रिस्क लेना चाहती है। वह सिर्फ कबीर एम की कहानी नहीं कहती है। वह बुंदेलखंड के उस बाजेपई नेता की भी कहानी कहती है जो दलितों के प्रिय हैं और जिनकी गाड़ी में गंगाजल से भरे दर्जनों कैन रखे होते हैं। जिनसे बाजपेई जी दलितों से मिलने या उनके घर खाना खाने के बाद 'खुद को शुद्घ' करते हैं।

'पाताल लोक' पंजाब के उस दलित सिख तोप सिंह की भी कहानी कहती है जिसने ऊंची जाति वाले एक सिख के चेहरे पर चाकू से वार कर दिया था। जिसकी प्रतिक्रिया में उसकी मां के साथ ऊंची जाति के इन सिखों ने सामूहिक रुप से बालात्कार किया।‌ दिन दहाड़े घर के बाहर चारपाई पर बांधकर, उसके बाप और दादा के सामने। उन्होंने ऐसा इसलिए किया कि खंजर से घायल हुआ उनका बेटा तोप सिंह को एक ऐसी गाली दे चुका था जिसकी व्याख्या करने पर मां के साथ संबंध बनाने की अनुमति या श्राप मिल जाता है। हिंदी सिनेमा में मां की गाली का असंख्य बार उपयोग हुआ है, लेकिन यह पहली बार हुआ जब कोई फिल्म इस गाली के पाप के स्तर तक पहुंचने वाली संड़ाध को सूंघने का प्रयास करती है। वह आपको याद दिलाती है कि यह गाली किस स्तर पर घिन पैदा करने वाली है।

पाताल लोक का दायरा सिर्फ जाति या धर्म तक सीमित नहीं है। वह पिता-पुत्र संबंध, उनके बीच फैली शारीरिक हिंसा, छोटे अनाथ बच्चों के साथ होने वाले कुकर्म, बाद में इनसे उबरकर इनके अपराधी बन जाने की बेचैनी भरी कहानी भी कहती है। वह उनकी बेबसी की कहानी कहती है जो अभी मुख्यधारा में नहीं हैं। 9 एपीसोड वाली पाताल लोक को सिर्फ एक अच्छी सस्पेंस थ्रिलर फिल्म कहना उसके साथ अन्याय करने जैसा होगा। यह एक अच्छी सस्पेंस थ्रिलर फिल्म होने के साथ इंसान और समाज की अपनी व्यक्तिगत और सामूहिक नीचताओं की भी कहानी भी सफलतापूर्वक कहती है। जाने कितने ऐसे नजरिए यह फिल्म समेटे हुए जिन्हें अब तक सिनेमा छूने का भी प्रयास नहीं करता दिखा है। पाताल लोक की एक खूबसूरती यह भी है कि ओटीटी प्लेटफॉर्म पर मिलने वाली सेंसर लिबर्टी को उसने सिर्फ गालियों और बेवजह के सेक्स सीन दिखाकर खराब नहीं किया। इस छूट की वजह से उसने कुछ ऐसे सीन रचे हैं जिसे सेंसर अपने जीते जी कभी मान्यता ना देता।

पाताल लोक का बैकग्राउंड पुलिस का है। पुलिस-अपराधी-सरकार के नेक्सेस का। सिनेमा में रची गई पुलिस की दुनिया बड़ी विविधता वाली है। यहां सिंघम और दबंग भी हैं और 90 के दशक के वह लिजलिजे पुलिस वाले भी जो किसी इलाकाई डॉन के इशारे पर काम करते हैं। पुलिस के तंत्र को पाताल लोक एक अलग ढंग से देखती है। पुलसिंग सिस्टम, उसकी सीमाएं, तोले-तोले भर के स्वार्थ और सामर्थ्य इससे पहले इस तरह से नहीं देखे गए। ना ही कहे गए। नेटफ्लीक्स पर ही स्ट्रीम हुई फिल्म सोनी की याद जरुर याद आती है जहां पुलिस को उसकी कमियों, सीमाओं और ताकतों के साथ पेश किया गया था।

ऊपरी तौर पर पाताल लोक की कहानी दिल्ली के एक प्राइम टाइम एंकर की हत्या की साजिश और उसे खोलने की कहानी है। जिसके सिरे दिल्ली, पंजाब और चित्रकूट में ‌बिखरे हुए हैं। बाद में सीबीआई इसके सिरे नेपाल और पाकिस्तान की तरफ खोल देती है। इस फिल्म को तरुण तेजपाल की किताब ‘द स्टोरी ऑफ माई असैसिन्स’पर आधारित बताया जा रहा है। लेकिन फिल्‍म की क्रेडिट लाइन में कहीं भी इसका जिक्र नहीं आता है। किताब मैंने नहीं पढ़ी तो नहीं कह सकता कि यह किताब से कितना कम या ज्यादा प्रेरित है।

स्क्रिप्ट के बाद फिल्म की दूसरी सबसे मजबूत कड़ी कलाकारों का अभिनय है। जयदीप अहलावत हिंदी सिनेमा की एक धरोहर हैं। गैंग्स ऑफ वासेपुर के बाद पहली बार जयदीप को उनकी स्ट्रैंन्‍थ का काम मिला है। यह पूरी फिल्म ही दिल्ली पुलिस के इंस्पेक्टर बने हाथीराम चौधरी पर टिकी होती है। इस फिल्म में उनकी अद्भुत रेंज है। उनकी आंखें उनके नियंत्रण में हैं। उनके चेहरे पर चेचक के दाग उनके अभिनय के हिस्से जैसे लगते हैं। हथौड़ा त्यागी का किरदार निभाने वाले अभिषेक बनर्जी को आप स्‍त्री में जना और मिर्जापुर में छोटे त्रिपाठी के दोस्त के रुप में देख चुके हैं। ऊंगलियों में गिन लेने भर के संवाद बोलने वाले अभिषेक ने अपनी बॉडी लैंग्वेंज से कमाल का आवरण रचा है। यह आवरण किसी डॉन से ज्यादा खौंफनाक है।

एंकर संजीव मेहरा की भूमिका में नीरज काबी अच्छे हैं। लेकिन वह वहां नहीं पहुंच पाए जहां वे सेक्रेड गेम्स, ताजमहल और मानसून शूटआउट में पहुंच चुके हैं। विपिन शर्मा और गुल पनाग जैसे सक्षम कलाकार अपने रोल के अनुसार हैं। यहां पर तारीफ अनुष्का शर्मा की होनी चाहिए कि उन्होंने फिल्‍लौरी, परी, एच एच 10 के बाद पाताल लोक जैसे रुखे विषय पर पैसा लगाया है। एक एक्ट्रेस से ज्यादा एक प्रोड्यूसर के रुप में अनुष्का याद रखने वाला काम कर रही हैं। फिल्म के निर्देशक अविनाश अरुण और इसे लिखने वाले सुदीप शर्मा, सागर हवेली, हार्दिक मेहता को भी बधाई मिलनी चाहिए। सिनेमा में यह अपेक्षाकृत ये नए लोग हैं और पाताल लोक इन्हें अब नया नहीं रहने देगी।

इधर स्ट्रीम में बाकी देशी विदेशी वेब सीरिज से उलट पाताल लोक एक और सीजन को बनाने के मोह में भी नहीं पड़ती, यह लालच न होना भी एक खूबसूरती है...

Friday, April 3, 2020

पंचायत गांव को नए तरीके से देखती है, पर सिनेमा के लिए क्या सिर्फ यही काफी है?


शहर की आंखों से गांव को देखना एक कॉमेडी पैदा करता हैं। वैसे ही जैसे गांव की आंखों से शहर देखा जाना संशय, अविश्वास, रहस्य और डर...

 टीवीएफ द्वारा बनाई गई और अमेजॉन प्राइम पर स्ट्रीम हुई वेब सीरिज 'पंचायत' की अच्छी बात यह है कि यह गांवों को शहर की निगाह से देखती है लेकिन उस तरह से नहीं जैसा हिंदी फिल्में देखा करती थीं। वहां पर गांव का मतलब यह होता कि लोग धोती-कुर्ता और मूंछ पहनकर सुबह सुबह खेत चले जाते हैं। मौसम कोई भी हो सरसो के पीले फूल लहराया करते हैं। लोग शाम को चौपाल में आग तापते हुए गांव की समस्याओं की चर्चा करते हैं। महिलाएं मंगल गीत गाया करती हैं। लोग हमेशा खुश रहते हैं और जब-तब अपनी भैंस को नहलाया दिया करते हैं। ऐसा कभी किसी युग में नहीं हुआ लेकिन सिनेमा के पास गांव को दिखाने के लिए कुछ ऐसी ही फिक्स विंडो रही हैं।

टीवीएफ गांव को गांव की तरह देखती है। गांव के लोग भी जींस की पैंट पहनते हैं। शरीर से चिपकी रहने वाली टीशर्ट उनके पास भी हैं। वे वाट्सअप ग्रुप में हैं और वीडियो कॉलिंग भी करते हैं। चिल रहने के लिए नई उम्र का लड़का ना तो खुद नदी नहाता है और न ही अपने भैंस को नहलाता है। वह भी आपकी तरह खेतों में कहीं कोने में बैठकर बियर ही पीता है। हो सकता है कि उसका चखना शहरी चखना से जरा कमतर हो। इस लिहाज से पंचायत यहां पर नकली नहीं लगती। गांव, उसके गलियारे, घर और लोग, उनके बात करने के मुद्दे आज के गांव जैसे ही लगते हैं। 

  'पंचायत' के साथ समस्या यह है कि इसके पास अपनी कोई कहानी नहीं है। उसके पास वही संकट है कि जो 'कोई मिल गया' में राकेश रोशन के सामने था। वे कसौली में एलियन तो ले आए थे लेकिन उस एलियन का मकसद बहुत कन्वेन्सिंग नहीं था। फिर जल्दबाजी में उसे रितिक रोशन की आंखों की रोशनी वापस लाने का काम दे दिया गया। यहां-वहां के कई अच्छे दृश्यों से गुजरती हुई यह फिल्म जब क्लाइमेक्स की तरह पहुंचती है तो बिल्कुल खाली हाथ हो जाती है। क्लाइमेक्स में जो ड्रामा रचा गया है वह कमजोर और बचकाना है। गांवों में महिला प्रधान होने पर उनका काम प्रधान पति के द्वारा देखा जाना इतनी सहज और उदासीन घटना है कि यह अब ना तो खबर बची है ना ही विरोधाभास। इसे विरोधाभास मानना सिर्फ उनके लिए सिमित होगा जिन्होंने गांव को बिल्कुल देखा ही नहीं और जिन्होंने गांव को बिल्कुल देखा ही नहीं उन्हें इससे फर्क क्या पड़ता है कि प्रधानी पत्नी करे या पति। 



पंचायत एक ऐसे ग्राम सेक्रेट्री की कहानी है जिसे शहरी कॉर्पोरेट कल्चर में मनचाही नौकरी नहीं मिलती। वह बड़ी नौकरी के लिए प्रयत्नशील है लेकिन इस बीच उसे 'समूह ग' की यह सरकारी नौकरी मिल जाती है। बैठे रहने से बेहतर वह यह नौकरी ज्वाइन करता है। बाइक के पीछे लिखा UP-16 बताता है कि यह युवा दिल्‍ली एनसीआर से ताल्लुक रखता है। यूपी के बलिया जिले के फुलेरा नाम के गांव में पहुंचने के बाद वहां के जीवन से ताममेल बिठाने के दृश्य ही फिल्म के मुख्य विषय हैं।  बिजली की समस्या, गांव का भूत, प्रधानी के होने वाले चुनाव जैसी बातें मनोरंजक अंदाज में आती हैं। सेकेट्री का पंचायत भवन के बाहर रात में बैठकर बियर पीना या पंचायत घर में बारात रुकने और दूल्हे के गंवारपन को एक ही दृश्य में समेटकर फिल्म बिटविन लाइन मैसेज देने का भी प्रयास करती है। 

मनोरंजन के बीच गांव के कुछ षड़यंत्र भी हैं जो गांव वालों के लिए तो बहुत बड़ी चीज है लेकिन कार्पोरेट कल्चर के षड़यंत्र और 'पापों' की तुलना में उनका स्केल बहुत लो है। गांव की मासूमियत पर फिल्म कुछ कहते-कहते रुक जाती है। इसे विस्तार देते तो अच्छा रहता। फिल्म के साथ एक प्रॉब्लम और है। ग्राम सेकेट्री नाम की जिस चीज को इतना निरीह और कमजोर दिखाया गया है वह वैसा होता नहीं। मैं और इन लाइनों से गुजरने वाले कई लोग सेकेट्री और उनके घाघपन से वाकिफ हैं। ग्राम प्रधान और सेकेट्री के बीच के संबंधों को एक फिल्मी टोन दिया गया है। यह संबंध भी ऐसा नहीं होता। संबंध जिस तरह का होता है उसे दिखाने के लिए फिल्म को बहुत सारे प्लाट रचने होते, रिसर्च करनी होती। इससे यह फिल्म बचती है। वहां यह स्टीरियोटाइप होकर निकल जाना चाहती है। 


फिल्म का सबसे अच्छा हिस्सा इसके कलाकारों का अभिनय हैं। टीवीएफ फिल्मों के चेहरे रहे जीतेंद्र कुमार उर्फ जीतू भईया यहां सेकेट्री अभिषेक त्रिपाठी का किरदार निभाते हैं। कुछ कहते कहते रुक जाने वाला उनका यह किरदार अच्छा है। लेकिन वह अपने पुराने स्टाईल और प्रभाव से नहीं निकल पाते। वह वही जीतू भईया लगते हैं ‌जो पिचर या बाकी शहरी परिवेश में रचे गए वीडियो में दिखते हैं। फिल्म में सबसे ज्यादा उम्मीद पंचायत सहायक के रुप में विकास की भूमिका निभाने वाले चंदन रॉय में दिखती है। एक अच्छे कॉमन सेंस और गांव के सिस्टम को समझने वाले चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी की भूमिका को वह जीवंत तरीके से जीते हैं। प्रधान के रोल में नीना गुप्ता  और प्रधान पति के रोल में रघुवीर यादव बिल्कुल फ‌िट हैं। ये इतने बड़े कलाकार हैं कि इन्हें भी डाल दो कर ही लेंगे। 

 फिल्म का निर्देशन दीपक कुमार मिश्र ने किया है। वो टीवीएफ की फिल्मों का प्रमुख हिस्सा हैं। दीपक की निगाह गांव की कमियों और सिस्टम के दुरुह होने पर नहीं है। वह जानते हैं कि टीवीएफ या अमेजॉन प्राइम का दर्शक शहरों में बसता है। इसीलिए गांव की डिटेलिंग करने के बजाय वह तफरी के अंदाज में चीजों का कहने का प्रयास करते हैं। हालांकि उनकी आंखें आसपास के व्यंग्य को समेटने का प्रयास करती हैं। हिम्मत करके वह कुरुतियों पर व्यंग्य भी करते हैं लेकिन उसका अंदाज कॉमिक ही रहता है। फिल्म के आखिरी के चंद सेकेंड बताते हैं कि हो सकता है कि पंचायत का सीजन 2 भी आपको देखने को मिले। 

पंचायत को एक बार देखा जा सकता है। यह फिल्म आपको बोर नहीं करती, बस समस्या यह है कि इसके पास याद रखने लायक कुछ भी नहीं है...

Tuesday, March 24, 2020

शी स्‍त्री की देह के मनोविज्ञान को तो कह लेती है, सिनेमाई मनोरंजन में चूक जाती है...



इम्तियाज अली की डेब्यू वेब सीरिज 'शी' को ड्रग्स नेक्सस पर बनी फिल्म समझना उसके साथ ज्यातीय होगी। शी स्‍त्री देह के मनोविज्ञान को कहने की सिनेमाई कोशिश है। देह को लेकर स्‍त्री की न्यूनताएं, उसकी कुंठाएं, दूसरी देह से चलने वाली उसकी अनवरत तुलनाएं, निगाहों में तवज्जों पाने की छटपटाहट और पुरुष के नजरिए से स्‍त्री द्वारा खुद को देखे जाने जैसी बातों को यह फिल्म एक कहानी के जरिए गढ़ने की कोशिश करती है। शी की कमजोरी यह है कि जिस कहानी के जरिए इन चीजों को कहने के लिए चुना गया है वह कहानी उतनी मजबूत और कन्वेनसिंग नहीं लगती जितनी कि उसे होना चाहिए था। इसलिए ग्रांड टोटल में यह फिल्म कमजोर पड़ जाती है। 

 शी को इम्तियाज अली ने क्रिएट किया है। यानी उसे सोचने और लिखने का जिम्मा उनका है। इसे निर्देशित आरिफ अली और अविनाश दास ने मिलकर किया। आरिफ, इम्तियाज के छोटे भाई हैं और 'लेकर हम दीवाना दिल' फिल्म को निर्देशित कर चुके हैं। अविनाश से आप 'अनारकली' के मार्फत परिचित हैं। इन दोनों निर्देशकों की काम को लेकर अपनी कोई वाहिद पहचान नहीं बन पाई है। इसलिए यह क्लासीफाइड कर पाना मुश्किल होता है कि किन दृश्यों में किसका कंट्रीब्यूशन है, लेकिन फिल्म का ओवरऑल टोन यह साबित करता है कि यह दर्शन को समझने वाले इम्तियाज का सिनेमा है। 

 फिल्म मुख्यतः दो ट्रैक पर चल रही होती है। पहला ट्रैक मुंबई पुलिस के द्वारा ड्रग कारोबार की चेन को खत्म करने की कहानी है। दूसरी कहानी मुंबई पुलिस की कॉन्सटेबल भूमिका परदेसी की है। भूमिका उर्फ भूमि ही इन दोनों कहानी में ब्रिज तरह काम करती हैं। चूंकि हम इम्तियाज अली की कहानी कहने के अंदाज से जरुरत भर का परिचित हैं इसलिए यह देखकर समझ आ जाता है कि उनका फोकस दरअसल भूमि को एक कॉन्सटेबल नहीं बल्कि उसके स्‍त्री को दिखाने की प्रक्रिया में है। उसका पति उससे इसलिए अलग हो जाता है क्योंकि वह बिस्तर पर 'ठंडी' है। उसकी छोटी बहन उसी तुलना में 'गर्म' है। गर्म और ठंडे होने की यह जिक्र फिल्म में दसियों बार आते हैं। भूमि का पति अपनी साली के साथ एक बार सोना चाहता है। इसके बदले वह उसके लिए कुछ भी कर सकता है। भूमि के साथी पुलिस वाले भी उसे लड़की नहीं मानते। वह उनके सामने वैसी ही‌ द्विअर्थी बातें करते हैं जैसा मर्द मर्द के सामने ही करते हैं या कर सकते हैं। 


नारकोटिक्स डिपार्टमेंट का एक अफसर भूमि में 'कुछ' देखता है। उसी 'कुछ' की वजह से वह उसे एक ड्रग पैडलर सस्या के सामने कॉल गर्ल बनाकर पेश करता है। वह पकड़ा जाता है। इसके बाद भूमि की जिंदगी में एक स्‍त्री के रुप में बदलाव आते हैं। वह आगे भी कॉलगर्ल के रुप में मुखबिरी करती है। शी फिल्म को देखने का इम्तियाज अली का जो तरीका है उसे ही पकड़कर आप भी चलेंगे तो आपको यह फिल्म सही दिशा में लेकर जाएगी। 

हनीट्रैप के एक सीन में जब भूमि, सस्या के जिस्म से चिपकी होती है उस समय उसके शरीर में एक हलचल होती है। पता नहीं क्या होता है कि कुछ मिनटों पहले सस्या की बाहों से निकलने के लिए छटपटा रही भूमि उसके शरीर के खास हिस्से से अपने जिस्म को रगड़ने लगती है। एक अनचाहा संबंध, कुछ सेंकेड के लिए सही सेक्स प्राप्ति का एक जरिया बनकर आता है। चंद सेकेंड का यह सीन दरअसल पूरी फिल्म की आत्मा है। एक स्‍त्री की सेंसुअल फैटेंसी को सिनेमा में इसके पहले इस तरह से नहीं कहा गया। कम से कम मेरे देखे गए हिंदी सिनेमा में नहीं। 

 राजेंद्र यादव के एक लघु उपन्यास मंत्रवुद्वि की नायिका निम्मी को जब रात के अंधेरे में किसी दूसरे के धोखे में चूम लिया जाता है, तो उस चूमे जाने की प्रतिक्रिया में एकसाथ उतपन्न हुए सुख और ग्लानि को राजेंद्र बहुत खूबसूरती से बयां करते हैं। औसत से नीचे चेहरे मोहरे और कद काठी वाली निम्मी को चूमा जाना उसके लिए कभी ना पूरी होने वाली सेक्स फैटेंसी था। वह नहीं चाहती है कि चूमने वाले यह बात जान पाए कि स्याह रात में चूमे गए वह खुरदरे ओंठ निम्‍मी के थे। अपने शरीर की न्यूनताओं को लेकर यही अपराध बोध बहुत देर तक भूमि का पीछा करते रहते हैं।  

सस्या द्वारा लगातार भूमि को ‌लगातार दिए जाने वाले कॉम्लीमेंट उसके अंदर एक अजीब से पर्सनाल्टी पैदा करते हैं। शी के वह सीन गौर से देखने वाले हैं जब भूमि रेस्टोरेंट के वेटर, होटल के रिसेप्‍शन में बैठे लड़के से यह पूछने का प्रयास करती है कि वह उसे सेक्सुअली कितनी अच्छी लग रही है। ढीली नाईटी को आईने के सामने खड़े होकर वक्षों के सामने कस लेना और उस कसावट की खुशी को महसूस करने की प्रक्रिया को दिखाना शी की कई सफलताओं में से एक है। इस सीरिज के आखिरी ऐपीसोड के आखिरी लम्हों में जब बिस्तर पर ठंडी साबित की गई भूमि ड्रग माफिया नायक को उलटकर खुद उसके ऊपर आकर सेक्स का कंट्रोल अपने हाथों में लेती है तो कमरे का आदमकद आईना उसे बड़े दिलचस्प नजरिये से दिखाता है। 

सेक्स फैटैंसी के इन मनोवैज्ञानिक बदलावों के अलावा शी के पास कहने के लिए कुछ नहीं है। मुंबई के ड्रग वर्ल्ड को इतनी बार इतने अलग-अलग तरीके से दिखाया जा चुका है कि अब उसमें कुछ बचा ही नहीं। यदि कुछ बचा भी हो तो भी दर्शकों की दिलचस्पी नहीं बची है। शी देखने वालों की दिलचस्पी इस बात में बन ही नहीं पाती कि वह इस बात का इंतजार करें कि ड्रग माफिया नायक पकड़ा जाता है या नहीं? ना ही इस बात में उन्हें कोई रस आता है कि नायक और सस्या के बीच दरअसल संबंध कैसे थें। फिल्म सिर्फ भूमि के जिस्म को लेकर बदलावों में दिलचस्पी जगा पाती है। 

इसमें दिक्कत यह भी है कि यदि आप भूमि के जिस्म के मनोविज्ञान को ठहरकर नहीं सोचेंगे तो यह आपको अश्लील भी लग सकता है। रिश्तों का ताना-बाना बचकाना। यदि यह फिल्म यदि असफल होती है तो बहुत संभावना है कि इसे अनैतिक और अश्लील भी साबित कर दिया जाए। फिल्म में अभिनय का पहलू मजबूत है। सबसे बेहतरीन अभियन भूमि का किरदार निभाने वाली अदित‌ि पोहनकर ने किया है। एक थकी हुई बोरिंग लड़की से लेकर ड्रम माफिया को एक खुली और नंगी डील ऑफर करने की इस पूरी यात्रा को अदिति ने खूबसूरती से निर्वाह किया है। सस्या के रोल में विजय वर्मा कमाल लगते हैं। साथ ही कमाल लगता है कि उनका हैदराबादी जुबान का लहजा। अभिनय में सबसे कमजोर कड़ी नारकोटिक्स डिपार्टमेंट के अफसर की भूमिका निभाने वाले विश्वास किनी है। विश्वास को हम शार्ट फिल्‍म जूती के अलावा वीरे द वीडिंग में सोनम कपूर से फ्लर्ट करते एक गंवार आशिक के रुप में याद कर सकते हैं। 

शी फिल्म को देखा जाना चाहिए। लेकिन इसे यदि एक थ्रिलर वेब सीरिज की तरह देखेंगे तो निराश हाथ लगेगी। यदि स्‍त्री के शारीरिक मनोविज्ञान के नजरिए से आंकेंगे तो यकीनन यह फिल्म बुरी नहीं लगेगी। मैं इसे इम्तियाज का अच्छा काम मानूंगा। भले ही इस बार उनका जॉनर बदल गया हो लेकिन दर्शन के मामले में वह वैसे ही मजबूत हैं...

Sunday, March 15, 2020

अंग्रेजी मीडियम 'कुंए के मेढक' जैसे पिता से भी आपको प्यार करना सिखाती है...




किसी पिता का अपनी संतान से उसके 'एलीट क्लास' में चले जाने के बाद उससे छिटककर धीमे-धीमे दूर होते जाते देखा है? या देखा है ऐसी संतानों को जो गांव-कूंचे से आए अपने मां-बाप को 'अपनी दुनिया' में इंट्रोड्यूस कराने में झिझकते हैं। झिझकते हैं उनके आउटडेटेड सस्ते पहनावे, खांसने, छींकने, डकार लेने की उनकी आवाजों से। यदि देखा है आपने उस डर को जब पिता के गंदे, फटी ऐड़ियों वाले पैर के तलवे से बेटे को हर वक्त अपने मुलायम सोफा के कुशन के खराब हो जाने का डर बना रहता है। डर यह भी बना रहता है कि पिता कब‌ किसके सामने ऐसी बात बोल दें जो उन्हें नहीं बोलनी चाहिए थी। यदि आपने ये जीवन देखे हैं तो अंग्रेजी मीडियम देखते वक्त आपके दिमाग में ऐसी कई फिल्में इस फिल्म के पैरलल चलनी शुरू हो जाती हैं। हो सकता है कि आपके दिमाग में चल रही फिल्मों के किरदार इस फिल्म से ज्यादा सजीव हों। 

हिंदी मीडियम से उलट अंग्रेजी मीडियम फिल्म पढ़ाई के तौर-तरीकों, उसके माध्यम या उसके पूंजीवादी हो जाने पर बात नहीं करना चाहती। हिंदी-अंग्रेजी को बोलने या ना बोल पाने वाला विषय भी यहां बस छूकर ही निकला है। यह फिल्म एक संतान और पिता की कहानी है। परिवेश और उदाहरण बदल जाने के बाद संतान के द्वारा पिता की सीमाओं को देखने की कहानी है। एक पिता की विवशताओं की कहानी है। उसकी विवशता यह है कि वह लंदन आकर भी उदयपुर जैसे छोटे शहर का बना रहता है। पिता का ना बदलना एक संतान के लिए शर्मदिंगी का विषय हो सकता है अंग्रेजी मीडियम इसे जज्बाती होकर नहीं कॉमिक तरीके से कहने की कोशिश का नाम है। 

 हम सभी उम्र के एक पड़ाव से जरुर गुजरते हैं जब अब तक सबसे स्मार्ट और समझदार लगने वाले इंसान के रुप में हमारे पिता बौने और संकीर्ण लगने लगते हैं। फिल्म एक सीन में तारिका बंसल का किरदार निभा रही राधिका मदान चंपक उर्फ इरफान से कहती हैं "ना पापा आपने दुनिया नहीं देखी है। आपने सिर्फ उदयपुर देखा है। मैं दुनिया को देखना चाहती हूं" इस वाक्य के बोले जाने के ठीक पहले इरफान उन्हें दुनिया देखने और पिता होने का हवाला दे रहे होते हैं। इस  सीन के साथ आपको दंगल फिल्म का वह सीन याद आ सकता है जब अपने नेशनल कोच से ट्रेनिंग लेकर लौटी बेटी अपने पिता को दंगल में सबके सामने अपने आधुनिक तरकीबों से चित कर देती है। शरीर पर पुती मिट्टी से गहरी मिट्टी उस पिता के सीने में जा समाई होती है जिसने अपनी बच्ची को उनके होश संभालने से लेकर अब तक कुश्ती सिखाई होती है। अंग्रेजी मीडियम में यह सीन उतने पैने तरीके से नहीं कहा गया लेकिन समस्या वही थी। 


अंग्रेजी मीडियम की बेटी, बाप को चैलेंज नहीं कर रही है। वह सिर्फ अभी अभी देखी दुनिया को अपने ढंग से ‌बिना पिता की दखल के देखना चाहती हैं। वह उस रिति रिवाज को निभाना चाहती है जो उसे अभी बहुत प्रभावित कर रहे हैं।अंग्रेजी मीडियम की यह ताकत और खूबसूरती है कि अपने पिता को कुएं का मेढक कह देने के बाद भी फिल्म उस लड़की को खलनायिका के तौर पर पेश नहीं करती। फिल्म उस लड़की के सहज बदलावों के साथ खड़ी दिखती है और यह मानती है कि यह 'टेम्परेरी' है।  साथ ही पिता के किरदार को और मेच्योर बनाते हुए उससे कुछ दार्शनिक बातें भी कहलवाती है। 

फिल्म के अंतिम सीन में इरफान खुद से मोनोलॉग करते हुए कहते हैं कि "एक उम्र आती हैं जब अभी तक ऊंगली पकड़कर चल रहे बच्चे हाथ छुड़ाने लगते हैं। हमें बुरा तो लगता है लेकिन यदि वह हाथ नहीं छुड़ाएंगे तो गले कैसे मिलेंगे"। यह एक वाक्य निर्देशक के दृष्टिकोण को जस्टीफाई करने की कोशिश करता है। जहां यह फिल्म बहक रहे बच्चे को वापसी की राह भी दिखाती है और पिता की सोचने की क्षमता को भी स्माल से एक्सट्रा लॉर्ज की तरफ ले जाती है। 

एक मैसेज देने से इतर यदि आप फिल्म को सिर्फ फिल्म के नजरिए से देखते हैं तो यह एक टाइम पास कॉमेडी फिल्म है। इस फिल्म के पास पंचेज अपनी पिछली फिल्म जैसी नहीं हैं। ना ही उस तरह के सीन हैं जो आपको बाद तक हंसाएं। फिल्म का फर्स्ट हॉफ अपेक्षाकृत धीमा है लेकिन इसकी भरपाई सेकेंड हॉफ बेहतर तरीके से करता है। अपने समकालीन अभिनेताओं में इरफान का कद शायद सबसे ऊंचे मुकाम पर है। इरफान कैंसर से पीड़ित हैं। फिल्म में इरफान के पेस और रिफलेक्‍शन को देखकर महसूस किया जा सकता है कि वह वाकई बीमार हैं। निर्देशक होमी अदजानिया की यह खूबी है कि बीमार होने की वजह से उनके स्लो हो जाने को वह अपने किरदार को गढ़ने में लगा लेते हैं। 

इरफान की जोड़ी दीपक डोबरियाल के साथ कमाल की है। वैसे जोड़ीदार के रुप में दीपक, माधवन के साथ और इरफान नवाज के साथ बहुत बेहतर भूमिकाएं कर चुके हैं। बावजूद इसके यह फिल्म इस बात के लिए भी याद की जाएगी कि इन दोनों की जोड़ी परदे पर किस उच्च स्तर वाली कॉमिक जुगलबंदी करती है। राधिका ने बहुत सारे टीवी सीरियल किए हैं लेकिन मैंने उन्हें सिर्फ इसके पहले विशाल भारद्वाज की फिल्‍म पटाखा में देखा था। इस फिल्म के जरिए राधिका अपनी रेंज दिखाती हैं। बाप-बेटी के दृश्य उन्होंने अच्छे किए हैं। करीना कपूर, डिंपल कपाड़िया, रणवीर शौरी के लिए अलग से कहने लायक कुछ भी नहीं हैं पर यह सबको ही लगता है कि काश पंकज त्रिपाठी को थोड़ा रोल और मिलता....

Monday, March 2, 2020

थप्पड़ मारने से ज्यादा बुरा है उसके लिए अपराधबोध ना होना है


किसी चीज का अपराधबोध होने के लिए उस चीज का पहले अपराध बनना जरुरी है। पुरुष बिरादरी के बहुत सारे अपराध इसलिए अपराध नहीं कहलाते क्योंकि समाज उन कामों को अपराध नहीं बल्कि पुरुषों की पहचान के तौर पर आइडेंटीफाई कर देता है। जब अपराध ही नहीं तो अपराधबोध कैसा। 'थप्पड़' की कहानी अपराध होने से ज्यादा अपराधबोध ना होने की कहानी है।

फिल्म में जिस शाम अम्‍मू(तापसी पन्नू) को भरी महफिल में पति विक्रम (पैवल गुलाटी) द्वारा थप्पड़ मारा जाता है उसी शाम की खत्म होती रात में वह पार्टी के लिए अस्त व्यस्त हुए फर्नीचर को ठीक करती है। फर्श पर फर्नीचर घिसटने की आवाजों से उसकी सास बाहर आती है। बहू से बिना किसी संबोधन के कहती है कि "सुनीता के आने का इंतजार कर लेती, उसकी मदद से करती"। सुनीता उस घर की नौकरानी का नाम है। कुछ घंटे के बाद पति सोकर उठता है। शराब के हैंगओवर से उसे सरदर्द है। वह नौकरानी से सरदर्द की दवा मांगता है। अम्मू से थप्पड़ की बात वह भी नहीं करता। यहां एक मर्द और एक औरत। एक पति की पेशे में है दूसरी सास के पेशे में। थप्पड़ मारे जाने की उस घटना में दोनों की प्रतिक्रियाएं एक जैसी हैं। इस घटना का अलग ना लगना, इसे यूं ही भुला देना बताता है कि हमें 'थप्पड़' फिल्म की जरुरत क्यों हैं। बाकी यह फिल्म समाज के जिस तबके तक पहुंच पाएगी वहां के बारे में ऐसा कह सकते हैं कि घरेलू हिंसा कम से कम उन हिस्सों से विदा हो चुकी है।

पितृसत्ता की ओट में पुरुष द्वारा किए गए अपराध कई बार इसलिए अपराध नहीं लगते क्योंकि इनकी मान्यता उस वर्ग द्वारा दी जाती है जिन पर ये अपराध हो रहे होते हैं। थप्पड़ मारना अपराध नहीं है, थप्पड़ मारने को अधिकार मानना और उसके लिए अपराधबोध ना होना अपराध है। थप्पड़ तब अपराध नहीं है जब सामने वाला भी पलटकर उसी अधिकार से आपको मार सके। थप्पड़ का मारा जाना यदि म्यूचुअल नहीं है तो फिर ये अपराध है। थप्पड़ मारने की ताकत को जेंडर के नजरिए से देखा जाना अपराध है। यदि यह ताकत दोनों के पास समान है तो फिर ‌‌थप्पड़ में कोई बुराई नहीं है। थप्पड़ का अधिकार शायद जैविक अधिकार भी है। मां और बाप अपने बच्चों को थप्पड़ मार सकते हैं ले‌किन एक पति और पत्नी जो कि विधिक रुप से एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं वह ऐसा नहीं कर सकते।

अनुभव सिन्हा की यह फिल्म किसी एक घटना की वजह से बड़ी नहीं होती। बल्कि यह इसलिए बड़ी होती है क्योंकि वह छोटी-छोटी तमाम उन बातों को अंडरलाइन करती है जिन्हें समाज सोचने को तो दूर उन पर नजर रखने के लायक नहीं समझता। वह छोटे-छोटे समझौते जो एक स्‍त्री हर दिन, हर घंटे, हर मिनट करती रहती है अनुभव उसकी डिटेलिंट पुरुष और स्‍त्री दोनों के नजरिए से अलग-अलग करते हैं। वह चीजों को सही गलत बताए बिना तटस्‍थ होकर देखते हैं, ताकि दोनों के पक्ष खुलकर सामने आ सकें। निर्देशक कई जगहों पर एक आम इंसान बनकर चीजों को देखने का प्रयास करते हैं। ताकि एक बड़े वर्ग का नजरिया उसमें शामिल हो सके।

फिल्म में ‌थप्पड़ की उस घटना को यदि कोर्ट कचहरी की लीगल चीजों से दूर हटाकर सिर्फ उस घटना की प्रतिक्रियाओं को समाज के नजरिए से देखें तो पाएंगे कि हर किसी को अम्मू का रिएक्‍शन थप्पड़ की मुख्य घटना से ज्यादा आपत्तिजनक और ओवर स्टीमेटेड लगता है। इन हर किसी में पुरुष भी हैं और महिलाएं भी। अम्मू का भाई और मां है और विक्रम का भाई और मां भी।

अम्मू के अपने मायके लौट आने के पूरे एपीसोड को देखने से पता चलता है कि महिलाओं की ताकत और उनकी बात का वजन इसलिए कई बार कम हो जाता है क्योंकि उनके इर्द-गिर्द महिलाओं की प्रतिक्रियाएं पुरुषों से ज्यादा डिफेंसिव, परंपरावादी और पितृसत्‍ता को हवा देने वाली प्रवृति के साथ खड़ी दिखती हैं। महिलाएं ऐसा डर की वजह से नहीं करती हैं। फिल्म बताती है कि वह ऐसा अपनी परवरिश की वजह से करती हैं।

लगभग अस्सी फीसदी फिल्म किसी को विलेन नहीं बनाती। यहां तक कि थप्पड़ मारने वाले पति को भी नहीं। एक सीन में जब पति अपनी पत्नी को लेने के लिए उसके घर जाता है तो उसका व्यवहार एक अच्छे इंसान जैसा ही होता है। वह पत्नी से लड़कर अपनी महंगी कार में बैठता है। लेकिन बैक मिरर से अपने ससुर को गेट पर खड़ा हुआ देख लौटकर आकर उनके पैर छूता है। निर्देशक यहां पर यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि विक्रम बुरा व्यक्ति नहीं है। दरअसल उसने कभी इस नजरिए से देखा ही नहीं कि पत्नी को सरेआम थप्पड़ मारना उसके अधिकार के बाहर की चीज है।

आखिरी की बीस फीसदी हिस्से में फिल्म अपने लिए खुलकर खलनायक खोजती है। कोर्ट में लगाए गए आरोप। बच्चे की कस्टडी जैसे सीन फिल्म के हीरो को एक सहज पुरुषवादी व्यक्ति से निकालकर एक बुरे व्यक्ति की तरफ ठकेलते हैं। आखिरी के हिस्से में अपनी बात कहने का यह पैटर्न अनुभव की पिछली फिल्मों मुल्क और आर्टिकल 15 में भी दिखता है। एक छोटे से मोनोलॉग में तापसी उस घटना पर सबकी चुप्‍पी पर वाजिब प्रश्न उठाती हैं जो प्रश्न उस रात से उस घर में तैर रहे होते हैं।

फिल्म को पति-पत्नी के नजरिए के साथ-साथ दोनों मांओं के नजरिए से भी देखने की जरुरत है। ये किरदार रत्ना पाठक शाह और तन्वी आजमी ने शानदार तरीके से किए हैं। अनुभव की पिछली फिल्मों की तहर कुमुद मिश्रा लजवाब हैं। एक पिता-पुत्री के दिलचस्प रिश्ते को वह बहुत सहज तरीके से जीते हैं।

अपने सिनेमाई पुर्नजन्म के बाद अनुभव की यह तीसरी फिल्म है। मुल्क और आार्टिकल 15 की तुलना में थप्पड़ सिनेमाई रुप से 19 फिल्म है। 19 इसलिए कि यह थोड़ी लंबी है और फिल्म के पास उतनी घटनाएं और उपकथाएं नहीं हैं। बावजूद इसके थप्पड़ एक जरुरी तौर पर देखी जानी वाली फिल्म है। यह एक ऐसी फिल्म है जिसे पत्नी अपने पति और सास के साथ देखने जाएं।




Saturday, February 22, 2020

फिल्म चाहती है कि आप हंसते हुए घर जाएं, इसमें वह सफल होती है...


गे और लेस्बियन हमारे समाज में अब तक हंसी, उपेक्षा या फुसफुसाहट भर का ही फुटेज बटोर पाए हैं...

हम या तो उन पर रहम करते हैं/ रिस्पेक्ट देते हैं या फिर उन्हें अजीब निगाहों से घूरकर खुद को उनसे दूर कर लेते हैं। हम उनके साथ सहज नहीं होतें। ये बर्ताव देश के मेट्रो सिटीज का है। टू टायर या थ्री टायर सिटी में ऐसे लोगों की अभी शिनाख्त ही नहीं हो पाई है। यदि वहां पर ये (गे पढ़ें) किसी प्रदर्शनी में रख दिए जाएं तो लोग उनको देखने के लिए आएंगे। उनके साथ सेल्फियां लेंगे और रिश्तेदारों को फारवार्ड करेंगे।

गे रिलेशनशिप पर बनी फिल्म 'शुभ मंगल ज्यादा सावधान' समाज के इस नजरिए से खुद को बहुत दूर नहीं करती। वह इस रिलेशनशिप को मान्यता देती है लेकिन उनके साथ एक दूरी बनाकर। फिल्म जानती है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस रिश्ते को भले ही गैरकानूनी ना करार दिया हो लेकिन यह रिश्ता अभी भी समाज में गैर सामाजिक ही है।


हम कितना भी लिबरल क्यों ना बन लें लेकिन यह दृश्य स्वीकार्य नहीं कर पाएंगे कि कोई भाई अपनी बहन की शादी में घर आया हो और जयमाल स्टेज के ठीक सामने वह उसके जैसे दिखने वाले किसी पुरुष के साथ मिनटों तक लिपलॉक करता रहे। फिल्म में यह सीन एक कॉमिक सीन की तरह ट्रीट किया गया है। इस सीन का असर आप पर गहरा या गंभीर ना हो इसलिए इसके इर्द-गिर्द बहुत सारे फनी डायलॉग क्रिएट किए गए हैं। ताकि आप हंसते रहें और आपको यह लगे ही न कि ऐसा सच में हो सकता है। यह सीन वैसा ही है कि मानों कोई कड़वी दवा पिलाने के लिए उसे बहुत मीठे शर्बत में घोल दिया जाए। फिर उसकी फीलिंग शर्बत जैसी ही हो, दवा जैसी नहीं।

शुभ मंगल ज्यादा सावधान फिल्म की नियत अच्छी है। नियत अच्छी इसलिए कि क्योंकि यह खुद को एक मनोरंजक फिल्म बनाकर आपका मनोरंजन करना चाहती है। सा‌थ में वह चाहती है कि गे या लेस्बियन रिलेशनशिप के साथ आप सहज हो जाएं। फिलहाल वह आपको सिर्फ सहज करना चाहती है, इस विषय पर लेक्चर या ज्ञान बिल्कुल नहीं देना चाहती। फिल्म का 95 फीसदी हिस्सा कॉमिक सीन और कॉमिक डायलॉग से भरा हुआ है। कई सारी उपकथाएं और पात्र फिल्म में इसलिए डाले गए हैं ताकि आप हर समय इन गे किरदार और उनकी मोहब्बत में ही न उलझे रहे। वह आपको ना तो 'अलीगढ़' जैसा टेंशन देना चाहती है और ना ही उनकी जिंदगी में आपको वैसे ही खुलकर घुसने देना चाहती है।


आयुष्मान खुराना की लीड रोल वाली इस फिल्म में लीड रोल दरअसल गजराज राव करते हैं और सेकेंड लीड नीना गुप्ता और मनुरिषी मिलकर। फिल्म उन्हीं की दुनिया को उन्हीं के नजर‌िए से देखने का प्रयास करती है। एक मां-बाप, चाचा-चाची का नजरिया। एक सामाजिक इंसान का समाज में रहने का नजरिया। फिल्म के पास ऐसे सीन गिनती के हैं जहां प्रेम में उलझे दोनों गे किरदार सहज रुप से आपस में अपनी बात कह रहे हों। वे या तो दर्शकों के लिए लंबे मोनोलॉग करते हैं या फिर समाज के दकियानूस होने की दुहाईयां देते हैं। बचे हुए समय में वह कुछ ऐसे स्टंट करते हैं ताकि आपका हंसी-ठट्टा होता रहे। फिल्म कई जगहों पर डिप्लोमैटिक तरीके से इस चीज को हैंडल करने का प्रयास करती है। वैसे ही जैसे अश्वस्‍थामा मर गया लेकिन हाथी..


फिल्म में सबने अच्छा अभिनय किया है। आयुष्मान खुराना बहुत अच्छे अभिनेता हैं। उनके पास मिडिल क्लास के लड़के की समस्याओं को दिखाने की एक लंबी फिल्मी रेंज है। वह सभी में खरे हैं। लेकिन इस फिल्म में वह और उनके मोनोलॉग कैरिकेचर पात्र जैसे लगने लगते हैं। सीन बुरे नहीं हैं लेकिन लगता है कि आयुष्मान ड्रीम गर्ल, बधाई हो या बाला के सेट से उठकर आए हैं और इस विषय पर आपको जागरुक करना चाहते हैं।

टीवीएफ फेम जीतेंद्र कुमार उर्फ जीतू भईया का फिल्मी डेब्यू अच्छा है। (गॉन केश जैसी विलुप्त फ़िल्म को माईनस करके चले तो) लेकिन जो लोग उन्हें टीवीएफ से जानते हैं वह पाएंगे कि जीतू भईया पिचर, कोटा फैक्ट्री में जो कर चुके हैं यह फिल्म उसके नीचे की चीज है। वो सालों पहले अर्जुन केजरीवाल का माइल स्टोन किरदार कर चुके हैं।

फिल्म की सबसे बड़ी खूबी उसकी लिखावट है। फिल्म में बहुत सारे वन लाइनर हैं। ज्यादातर मनु के हिस्से आए हैं। वह कमाल के हैंन। मनु सच में बेहद उम्दा अभिनेता हैं। 'ओए लकी लकी ओए' के बाद उन्हें इस फिल्म में जी भरकर काम मिला है। उनकी बीवी का किरदार कर रहीं Sunita Rajwar भी कमाल करती हैं। फिल्म के निर्देशक हितेश कैवल्य की पीठ इस बात के लिए भी बार-बार थपथपाई जानी चाहिए कि उन्होंने डबल मीनिंग की संभावना वाले इस विषय पर फिल्म को कहीं हल्की या छिछली नहीं किया।

ताजमहल के कुछ हिस्से अच्छे हैं और बाकी किसी पुरानी इमारत की नकल जैसे...


'यह गलतफहमी है कि लड़के सेक्स में इंन्ट्रेसटेड होते हैं और लड़कियां प्यार में, We like men with good bodies and good looks'...

अपने ट्रेलर के पहले सीन में लड़की से यह डायलॉग बुलवाकर 'ताजमहल 1989' नाम की वेब सीरिज एक खास तरह के ऑडियन्स को दाना डालने का काम करती है। पर यह सिर्फ एक रैपर है। रैपर खोलने पर फिल्म ऐसी नहीं निकलती।फिल्म का मिजाज ना तो सेक्स संबंधों को लेकर लिबरल हो रहे समाज को अंडर लाइन करता है और ना ही नाम के अनुरूप यह कोई पीरियड प्रेम कहानी है।

'घोस्ट स्टोरी', जमताड़ा: सबका नंबर आएगा' के बाद 'ताजमहल 1989' नेटफ्लीक्स ओरिजनल की इस साल की तीसरी इंडियन वेब सीरिज है। 'ताजमहल' साल 1989 के भारत को लखनऊ विवि कैंपस में कैमरा रखकर उसके इर्द-गिर्द बन रही सोसाइटी को देखने को कोशिश करती है। फिल्म अपने साथ कई उपकथाएं बुनती है जिसके सिरे आपस में यूनीविर्सटी कैंपस में आकर जुड़ते हैं। ताजमहल एक तरह का फ्लैशबैक का सिनेमा भी है, खासकर उनके लिए जो 90 के दशक को खुद से बहुत कनेक्ट करते हैं। 2020 में बैठकर 1989 को देखना सुखद लगता है, लेकिन इस पर बनावटी होने का इल्जाम भी लग सकता है।

1989 और उसके बाद का वह भारत जब बीजेपी देशभर में राम मंदिर बनाने के लिए रथयात्रा निकाल रही थी, विहिप घर-घर जाकर लोगों से मंदिर के लिए एक ईंट देने की मुहिम पर थी, आरक्षण पर समाज खेमे में बंट चुका था, कश्मीर से कश्मीरी पंडित भगा दिए गए थे, बाबरी ढह गई थी, मुंबई सहित देश भर में दंगे भड़क चुके थे, उस दौर की यह फिल्म दो ऐसे अधेड़ शादीशुदा जोड़ों की रोमांटिक जिंदगी दिखाती है जहां एक की बीवी मुसलमान है तो दूसरे का शौहर। फिल्म का वह सीन फिल्‍म की टोन सेट करताा है जब मुसलमान शौहर अपने हिन्दू फादर इन लॉ को फोन पर सलाम बोलता है, उसके अगले ही पल खुद को करेक्ट करके प्रणाम कह देता है। दोनों ही जोड़ों को ना तो मंदिर जाते दिखाया जाता है और ना ही मस्जिद। जो सेक्युलर शब्द इन दिनों लगभग देशद्रोही के पैरलल आकर खड़ा हो गया है, फिल्म के तमाम सारे दृश्य हिंदुस्तान के उसी सेक्युलर जामे की पहचान कराते हैं। फिल्म में मिया-बीवी अनबन तलाक तक आ जाती है लेकिन उनके बीच धर्म या उसके निर्वाह करने का तरीका कभी नहीं आता।

मुसलमान शौहर(अख्तर बेग) और हिंदू पत्नी(सरिता) के ये रोल नीरज काबी और गीतांजलि कुलकर्णी बहुत ही सुंदर ढंग से निभाते हैं। नीरज से आप 'तलवार', 'सेक्रेड गेम्स', 'शिप ऑफ थीसिस' के मार्फत परिचित हैं और गीतांजलि को आप मराठी की चर्चित फिल्म 'कोर्ट' और ‌हिंदी फिल्‍म 'फोटोग्राफ' से याद कर लेंगे। अख्तर लखनऊ विवि में फिलॉसफी पढ़ाते हैं और बीवी फिजिक्स। टेस्ट और इंटलैक्ट लेवल पर दोनों अलग-अलग खड़े हैं। दोनों के शौक और प्रियॉरिटी भी मैच नहीं करते। बात करने के लिए उनके पास कॉमन टॉपिक नहीं होते हैं। पर एक जमाने में शौहर ने बीवी के लिए एक कॉपी भर के शायरियां लिखी थीं। और होने वाले ससुर के कहने पर फिलॉसफी में मास्टर भी किया था..

इस कहानी का एक और सिरा अख्तर के हिंदू दोस्त(सुधाकर मिश्रा) और उनकी मुसलमान बीवी(मुमताज) की तरफ खुलता है। ये रोल दानिश हुसैन और शीबा चड्ढा करते हैं। इन दोनों से आप वाकिफ हैं। मिश्रा, विवि में फिलॉसफी के गोल्ड मेडलिस्टि रहे हैं लेकिन अब पिता जी की सिलाई की पुस्तैनी दुकान चलाते हैं। फिल्म के सबसे अच्छे सीन इन दोनों दोस्तों की मुलाकातों और उनके दरम्यान होने वाली बातचीत में निकलकर आते हैं। ओल्ड मॉक की कभी क्वार्टर तो कभी अध्‍धा रम दोनों स्टील के गिलासों में प्लास्टिक के जग से पानी भर-भर के खत्म करते हैं। चारपाई के बीचो-बीच रखी नमकीन की प्लेट एक किरदार की तरह होती है। इन्हीं निजी पलों में मिश्रा, अख्तर को बताते हैं कि उनकी बीवी अब तक उनकी बीवी नहीं हुई हैं और वह उन्हें लखनऊ के एक कोठे में मिली हैं। शादी करने की हिम्मत फिर भी अब तक नहीं आई है।

फिल्म की बाकी कथाएं विवि की राजनीति, उनमें पनपने वाले अफेयर, उनके धोखे और छल की कहानियां हैं। ये फिल्म के कमजोर हिस्से हैं। कमजोर इसलिए कि इससे मिलती जुलती ढेरों कहानियां आप सिनेमा में देख चुके हैं। कॉलेज कैंपस के बहुत सारे सीन, एक अफेयर का दूसरे में शिफ्ट हो जाना आपको प्रकाश झा के बैनर की फिल्म 'दिल दोस्ती ईटीसी' और अनुराग की फिल्म 'गुलाल' की याद दिला सकते हैं। नेटफ्लिक्स ओरिजनल सीरिज की किसी फिल्म की कहानी या स्किप्ट किसी हिंदी फिल्म से प्रेरित लगे तो यह नेटफ्लीक्स ओरिजनल के पूरे कॉनसेप्ट पर ही प्रश्न खड़ा करता है।


वेब सीरिज की कुछ बातें इसके पक्ष में जाती हैं। पहला कलाकारों का अभिनय। पुराने कलाकारों के अलावा जिन नए चेहरों को मौका‌ मिला है उनके चेहरे पर नए होने की जल्दबाजी नहीं दिखती है। कई टीवी ऐड में दिखने वाली अंशुल चौहान प्रभावित करती हैं। फिल्म की सिनेमेटोग्राफी अच्छी है। कैमरा कई अच्छी चीजों को कैप्‍चर करता है। छोटे-छोटे दृश्य तब बड़े हो जाते हैं, जब कैमरा ठहरकर उनमें दिलचस्पी दिखाता है।, लेकिन वह तब गलतियां भी कर देता है जब 1989 में मेट्रों लाइन का एक पुल एक दृश्य में दिख जाता है। फिल्म की मजबूती उसके डायलॉग भी हैं। पति और पत्नी के बीच होने वाली बातचीत को बहुत सलीके से लिखा गया है जहां ह्यूमर अपने शबाब पर है। कुछ अवधी बोली के संवाद भी हैं, वह कच्चे हैं।

सात एपीसोड की यह सीरिज कहीं से यह संकेत नहीं देती कि इसका सीक्वल आने की कोई संभावना है। फिल्म का सबसे सपाट एपिसोड आखिरी है। एक लड़की को अगवा करने और उसे आगरा से छुड़वा लेने की एक बचकानी कहानी ये बताती है कि निर्देशक पुष्पेंद्र नाथ मिश्रा के पास दिखाने के लिए उस समय का परिवेश था, पात्र भी थे लेकिन उसके समांनतर एक उम्दा कहानी नहीं थी। आप सिनेमा कैसा भी बनाए, आपके पास उसे खत्म करने की एक कहानी जरुर होनी चाहिए..

फिल्म बताती है क‌ि राम गोपाल वर्मा कोई भी बन सकता है, इम्तियाज अली भी

लव आजकलः 2 देखकर लगता है कि यह फिल्म इम्तियाज अली की है ही नहीं। यह उनके किसी फिल्मी फैन की है। उसने बीती कुछ रातों में इम्तियाज की सारी फिल्में देखीं। उनके नोट्स बनाए। किरदारों की फिलॉसिफी नोटिस की, जिंदगी जीने का उनका पैटर्न नोटिस किया। और फिर उन्हीं की एक कहानी और टाइटिल उठाकर फिल्‍म बना दी। मानो वह इम्तियाज को खुश करना चाह रहा हो। जैसे पीएचडी करने वाला कोई स्टूडेंट अपने गाइड को उसकी पुरानी बातें बताकर खुश करे...

अली की यह फिल्म बचकानी तो बनी ही है, उधारी की भी है। 'सोचा ना था से लेकर हैरी मेट सेजल' तक की तमाम सारी फिलॉसफी और सीन फिल्म में सीधे और घुमा फिराकर अप्लाई कर दिए गए हैं। पात्रों में 'रॉकस्टार, तमाशा, लव आजकल' की झलक मिलती है। लगता है कि इस फिल्म के किरदार भी उसी स्कूल ऑफ थॉट से निकलकर आए हैं। किरदारों का कन्फयूजन इम्तियाज के सिनेमा की ताकत होती है, वह ताकत इस बार बड़ी प्रीडिक्टेबल भी हो गई है और थोड़ी मासूम भी। 'सिनेमा में इश्क, जीवन में इश्क और करियर में इश्क' के जिस अजीब संतुलन को साधकर इम्तियाज सालों चले हैं वह इस फिल्म से फिसलकर उनके हाथ से जाता दिखता है।


लव आजकल 2 का प्लाट इसकी मूल फिल्म वाला ही है। दो कहानियां पैरलल चला करती हैं। एक का समय 1990 का है और दूसरे का 2020 का। पिछली फिल्म की तरह ही दोनों के मेल किरदार एक ही हीरो निभाता है। इस बार वो काम कार्तिक आर्यन ने किया है। पुरानी कहानी उस कैफे के मालिक की ही है जिसके यहां ये किरदार मिल रहे होते हैं। रिषी कपूर को रणदीप हुडडा रिप्लेस करते हैं तो दीपिका पादुकोण को सारा अली। मूल ताने-बाने के अलावा जो अलग है वो हैं 'इश्क की रुकावटें'। इश्क के मुकम्मल हो जाने से पहले जो हर्डेल फिल्म में दिखाए गए हैं वह दरअसल निर्देशक का यूटोपिया जान पड़ते हैं।


इश्क और करियर के बीच में किसी को चुनने जैसा दोराहा आमतौर पर जिंदगी में होता ही नहीं है। पहले कभी रहता रहा होगा। अब नहीं होता। किसी से इश्क कर लेने के बाद करियर खत्म नहीं होता और करियर बनने के प्रोसस में इश्क कर लेना करियर के साथ में बेवफाई नहीं मानी जाती। ऐसा नहीं होता कि आदमी जिंदगी में कुछ साल सिर्फ करियर बनाए और कुछ साल सुबह से उठकर शाम तक सिर्फ इश्क करे। ये वैसा ही है जैसा शिंकजी में पहले चीनी चबा ली जाए, फिर पानी पी लिया जाए और आखिरी में नीबू चाट लिया जाए। सबकुछ एकसाथ एक समय में मिलकर ही शिंकजी बनती है। इश्क आपकी लाइफस्टाइल है, आपकी लाइबेल्टी नहीं कि दिन रात उसके बारे में सोचा जाए और उसे हर दिन सही तरीके से न कर पाने पर गिल्ट हो।

शादी के लिए करियर से कंप्रोइज करने जैसी बातें दस-बीस साल पहले की सोसाइटी में होती थीं। अभी भी होती हैं। पर अब लोअर मिडिल क्‍लास में भी लड़की की नौकरी तब तक नहीं छूटती जब तक लड़की खुद ऐसा ना चाहे। जिस अर्बन अपरक्लास की कहानी इम्तियाज कहते हैं वहां का समाज तो बहुत पहले ही इन चीजों को तिलांजलि दे चुका है।

एक सीन में जोई बनी सारा अली खान अपने प्रेमी के मां-बाप से ‌मिलने से पहले इसलिए अपसेट हो जाती हैं क्योंकि उन्होंने पिछले कुछ दिनों से अपने करियर के साथ कंप्रोमाइज किया होता है। इश्क की वजह से। उन्होंने उस कंपनी के ऑफर लेटर का मेल डिलीट किया होता है जिस कंपनी में काम करना उनके लिए सपने जैसा होता है। उनके दिमाग में उनकी मां की बातें गूंज रही होती हैं। मां, अफेयर में अपने करियर को छोड़ चुकी होती हैं और बाद में वह पाती हैं कि उन्होंने गलती की थी। फिल्म की प्रॉब्लम ये है कि फिल्म के किरदार के इस तरह के बचकानेपन की फिलॉसिफी पर खड़े हैं और फिल्‍म उन्हें जस्टीफाई करती है। जैसे फ़िल्म मानती है कि इश्क में आदमी पहले दिन से ही पूरा का पूरा आए। इश्क करने और वाशिंग मशीन की गारण्टी में कुछ तो फर्क होना ही चाहिए।


इम्तियाज यहां पर 'इंसान की पर्सनाल्टी के अनुसार उसके काम के चुनाव' वाला फंडा भी आजमाना चाहते थे। वो तमाशा में इसे खुलकर पहले खेल चुके हैं। लेकिन वह इस फ़िल्म में भी अपने किरदार में इस फिलॉसफी की एक हल्की लेयर लगाना चाह रहे थे। वह अपनी पुरानी वाली लव आजकल में 'करियर फर्स्ट या अफेयर' वाला टेम्पलेट रखते हुए किरदारों में तमाशा का वेद और रॉकस्टार का जॉर्डन भी इत्र की तरह छिड़कना चाहते हैं। पिछली फिल्मों में आज़माएँ गए नुस्खों को वे यहां फाइनल टच में मेकअप किट की तरह यूज़ करते हैं। किरदारों की यह खिचपिच उनकी नई पर्सनाल्टी बनने से उन्हें रोक देती है। जोई, वीर और उनकी बातें, इम्तियाज की पिछली फिल्मों की पायरेटेड कॉपी की फिलिंग कराते रहते हैं।


फिल्म के बहुत सारे संवाद दर्शन से भरे हुए हैं, वो बुरे नहीं है लेकिन उन्हें ढोने के लिए सारा अली का मेकअप से पुता चेहरा कई बार जवाब दे देता है। वह बात कहती तो हैं लेकिन उस बात के वजन को जीती नहीं है। वह, शायद रणवीर सिंह से बहुत कॉपी करती हैं और मानती हैं कि हर सीन सिर्फ एनर्जी और अग्रेसिव तरीके से करने से ही अच्छा बन सकता है। वो रोने वाले दृश्यों में भी बहुत एनर्जी से रोती हैं। रोहित शेट्टी और साजिद खान को उन पर निगाह रखनी चाहिए। वो डांस भी बहुत बढ़िया करती हैं। वो एबीसीडी के सीक्वल में भी प्रभु देवा के काम आ सकती हैं। कार्तिक, उनकी तुलना में बेहतर करते हैं और हुड्डा उनसे बेहतर..


इम्तियाज अपनी हर फिल्म में एक किस्म का हयूमर साथ लेकर चलते हैं। वह कोई कॉमेडी नहीं होती है। किरदारों की बातचीत और डायलॉग में इतना बारीक और क्लासी हास्य छिपा होता है वह उस सीन को लाज़वाब कर देता है। इस फिल्म में वैसी चीजें सिरे से नदारद है। फिलॉसिफी के साथ-साथ इम्तियाज की फिल्में छोटे-छोटे किरदारों को स्टेबलिस करती हैं। जब वी मेट का होटल सीन, पानी की बोतल वाला सीन, रॉकस्टार में कुमुद और पीयूष मिश्रा का किरदार, तमाशा में फिर से पीयूष का किरदार, हाइवे में रणदीप के साथ रहने वाले छोटे-छोटे किरदार आपके जेहन में सालों तक बने रहते हैं। इस फिल्म से वह सबकुछ गायब है।

सिनेमा में ऐसे ढेरों किस्से पड़े हैं जब एक तमाम सक्षम निर्देशक एक समय के बाद चुक गए हैं या खाली हो गए हैं। अपने तमाम प्रयासों के बाद उन्होंने या तो खुद को रिपीट किया है या फिर ऐसे जोन में घुसने का प्रयास करता है जो उनका होता ही नहीं।

राजकुमार संतोषी, सुभाष घई या राम गोपाल वर्मा इसके अच्छे उदाहरण है। इम्तियाज अली की एक अच्छी फैन फालोइंग हैं। दर्शक उन्हें अभी से राम गोपाल की कैटेगेरी में नहीं देखना चाहते, पर हैरी मेट सेजल के बाद ये फ़िल्म एक फिल्मकार के तौर पर उनके खाली होने की कहानी कहना शुरू कर चुकी है....

मलंग जैसी फिल्में आप भी बना सकते हैं, यदि आपके घर पर मिक्सर हो तो


मलंग फिल्म बनाने की रेसिपी समझ लीजिए। ये बेहद आसान है। फिर इसे आप घर बैठे कभी भी बना सकते हैं, अपने लिए, अपने रिश्तेदारों के लिए...

'सिनेमा शेक' बनाने वाला एक मिक्सर ग्राइंडर लीजिए। एक छोटी कटोरी में रिवेंज स्टोरी अपने पास रख लीजिए। एक बड़े बाऊल में मीडियम स्पून भरके ,किल बिल, हेट स्टोरी, गजनी को बराबर मात्रा में उसमें डालिए। अवैध संबंध, नाजायज संबंध, नामर्द जैसी महेश भट्ट की फिलॉसिफी के छोटे-छोटे टुकड़े उसमें मिलाइए। फिर स्वादानुसार उसमें बेडरुम सीन, गोवा, गोवा के बीच, सनसेट, उसकी लेट नाइट पार्टियां, ड्रग्स, बियर, बिकनी, खारा पानी, पानी में किस, बिस्तर में किस, कार में किस, किचन में किस, रेत में किस और पहाड़ में किस सीन डालकर देर तक फेटिए। फिर उसे एक बर्तन में ढक दीजिए। फूलने दीजिए। अब एक फ्राई पेन में दो रोमांटिक सॉन्ग, एक पार्टी सॉन्ग और मिथुन की आवाज में एक सैड सॉन्ग को धीमी आँच में पकाइए। फिर इन सारी सामग्री को मिक्सर में डाल दीजिए। मिक्सर चलाइए। मलंग तैयार। 'जिंदगी मिलेगी न दोबारा' और 'एक विलेन' की गार्निशिंग करके मेहमानों को गरमा गरम परोसिए...

मोहित सूरी की मलंग एक ऐसा ही बकवास किस्म का शेक है जिसका अपना कोई टेस्ट नहीं है। यह तमाम हिंदी फिल्‍मों के प्लॉट, सीन और थीम को कॉपी करने वाली फिल्म है। मलंग भले ही भट्ट कैंप की फिल्म नहीं है लेकिन 'भट्ट की छाया' फिल्‍म में दिखती है। मोहित सूरी का पूरा करियर विशेष फिल्‍मस के लिए फिल्म बनाते हुए बीता है। इसलिए एक नए बैनर के बाद भी इस फिल्म में भट्ट कैंप का अक्स साफ नजर आता है। ना सिर्फ दृश्यों को फिल्माने में बल्कि किरदारों की लेयर्स दिखाने में भी।

रिश्तों को लेकर फिल्म उन्हीं फिलॉसिफी के गुब्बारे उड़ाती है जो महेश भट्ट की पहचान है। फिल्‍म के किरदार अल्ट्रामॉर्डन होते हैं। लेकिन हीरोईन के प्रेग्नेंट होने की खबर मिलती ही उसके अंदर माला सिन्हां या वैजयंती माला स्टाईल वाली हीरोइन जाग उठती है। वह एकदम से बदल जाती है। उधर कल रात तक हर तरह के नशे का आदी बेरोजगार किंतु बॉडी बिल्डर हीरो ये खबर सुनते ही अगली सुबह से राज कपूर या राजेंद्र कुमार बन उठता है। वो हीरोइन के पेट को बहुत ध्यान से देखता है, उसकी आंखें डबडबा आती हैं। उसी पल वो तय करता है कि अब वह एक अच्छा आदमी बनेगा। फिर उसे नशे के पाउडर को एटीएम कार्ड से पतली पतली लाइनें बनाते हुए नहीं दिखाया जाता। काम वो फिर भी नहीं करता।


फिल्म के साथ समस्या यही है कि उसकी अपनी कोई आत्मा नहीं है। उसके किरदार अपने नहीं हैं। वह उधार के किरदारों और कहानी वाली फिल्म लगती है। मूल रुप से रिवेंज पर आधारित इस फिल्म का ज्यादातर भाड़े का है। ओरिजनल रुप से इसके पास जो कहानी है वह बचकानी है। विश्वास में ना आने वाली। कनेक्‍ट ना करने वाली।

मलंग फिल्म आदित्य राय कपूर को उनके उस खोल से जरूर निकालती है जो वह पिछले कुछ फिल्मों से उन्होंने पहन रखा था। ट्रेलर में बहुत कन्वे‌न्‍सिंग लगने वाली दिशा पाटनी बागी 2 का एक्सटेंशन लगती हैं। पीड़ित, सताई हुई। अनिल कपूर और कुणाल खेमु का किरदार जरूर इन दोनों से बेहतर लिखा गया है। लेकिन फिल्‍म इतनी स्टीरियोटाइप है कि कुणाल जैसे सक्षम अभिनेता के पास बहुत मौके नहीं थे। अगर आपने मलंग का ट्रेलर देख रहा है तो आप चाहें तो इसे छोड़ सकते हैं...ट्रेलर ही काफी है...

ये फिल्म उनके लिए है जिन्हें पूजा और सिमरन की फोन कॉल बहुत आती हैं...



हैलो सर, मैं HDF.. बैंक से पूजा बात कर रही हूं। क्या मैं आपका कीमती समय ले सकती हूँ?

सर, आपका एटीएम कॉर्ड ब्‍लॉक हो गया है, आप उसे फिर से शुरू करना चाहेंगे सर? फोन के उस पार से आने वाली पूजा, रोशनी, जसप्रीत, रिचा या राजेश की ऐसी ही सुरीली और अदब भरी आवाजें बहुत लोगों के एकांउट से हजार से लेकर लाखों तक का डाका डाल चुकी हैं।

आपके एटीएम कॉर्ड का क्लोन बनाकर, आपसे ही बातें बनाकर एटीएम कार्ड की डिटेल लेकर या इंटरनेट बैंकिंग को हैक करके होने वाले फ्रॉड अब वैसे ही पब्लिक डोमेन में हैं जैसे कि यह जानना कि कश्मीर में अब कोई भी प्लाट ले सकता है।

नेटफ्लिक्स की वेब सीरिज 'जमताराः सबका नंबर आएगा' इस विषय पर बनी अपनी तरह की पहली फिल्म है। यह फिल्म अपने शुरुआती ऐपीसोड में कई चौंकाने वाली जानकारियां देती है। पहली तो यही कि बैंक से जुड़ी इस तरह की होने वाली कुल फोन कॉल की 95 फीसदी कॉलें अकेले जमतारा से होती हैं। जमतारा, झारखंड का ए‌क पिछड़ा और नक्सल प्रभावित जिला है। फिल्म बताती है कि फर्जी फोन कॉल करने वाले यह लड़के ज्यादातर अनपढ़ या साक्षर भर हैं। वह उम्र में भी बस अभी-अभी बालिग हुए हैं। उसमें से कुछ लड़की की आवाज में बात कर लेते हैं तो कुछ के पास ऐसी लड़कियां हैं जो पैसे के बदले ये काम करती हैं।

ये बात दबी छिपी रहे इसलिए ये लड़के पश्चिम बंगाल बेस्ड की ऐसी लड़कियों से लाखों रुपए देकर शादी कर रहे हैं जो उम्र में उनसे बड़ी हैं साथ ही अंग्रेजी मिश्रित सोफेस्टीकेटेड हिंदी बोल लेती हैं। जरुरत पड़ने पर पूरी की पूरी एक लाइन अंग्रेजी की भी। ऐसा काम करने वाले किसी लड़के के पास अपना बैंक एकांउट नहीं है। फ्रॉड से आया हुआ यह पैसा वह हर किसी के पास उपलब्‍ध जनधन एकाउंट में ट्रांसफर करते हैं, फिर कुछ हजार देकर उसी रोज उनसे लाखों निकलवा लेते हैं। यह एक किस्म की डील है। बैंक जानते हैं कि इसमें कहीं ना कहीं फ्रॉड है, लेकिन वह चुप इसलिए रहते हैं क्योंकि ऐसा उनके धंधे को मुनाफा ही दे रहा है।

ऐसा नहीं है कि पुलिस इन सब चीजों से वाकिफ नहीं है। देश भर की पुलिस अपनी शिकायतें लेकर जमतारा पहुंच रही है। पुलिस संदेह वाले लड़कों को गिरफ्तार भी कर ले रही है लेकिन उन्हें सजा दिलाने के लिए उनके पास वो सबूत नहीं होते हैं जहां ये मुजरिम कोर्ट की नजर में भी मुजरिम साबित हो सकें। इस पूरे नेक्सस में वहां के नेता भी शामिल हैं। वह इस असंगठित काम को संगठित करना चाहते हैं। पुलिस उनके लड़कों को यूं ही ना उठाए इसलिए वह उनको प्रोटेक्‍शन भी दे रहे हैं, बदले में वह पूरी कमाई का चालीस से पचास फीसदी का शेयर अपने पास रख रहे हैं। छोटे से उस गांव में देखते ही देखते कई बड़ी बड़ी कोठियां बन गईं। ब्लैक पैसे को व्हाइट करने के लिए दुकानें भी।

10 एपीसोड वाली वेब सीरिज जमतारा की खूबी ये है कि वह हमें फोन से होने वाले बैकिंग फ्रॉड के बारे में दिलचस्‍प जानकारी बिना बोर किए हुए देती है। सूचनाएं निबंध की शैली में ना रहे इसके लिए वह कई काल्पनिक कथाएं रचती है। जिनमें प्यार की भी एक कहानी है। यहां टुकड़ों-टुकडो़ में जाति की भी बाते आती हैं और संकेतों में राजनीति की भी। फिल्म पात्रों की डिटेलिंग भी करती है। हमें यह पता चलता है कि इस काम में उलझे हुए लड़के बाई डिफॉट अपराधी नहीं हैं लेकिन उनके पास अथाह पैसा इतनी जल्दी आ रहा है कि वह इससे अलग हो ही नहीं सकते। अब वह इसके लिए कुछ भी करने के लिए तैयार हैं। आईपीसी की मौजूदा धाराएं उनको धर दबोचने के लिए नाकाफी हैं।

जमतारा के साथ समस्या यह है कि जैसे ही इसके पास हमें देने के लिए सूचनाएं चुक जाती हैं यह एक बीग्रेड थ्रिलर फिल्म जैसी लगने लगती है। अपराधियों के साथ लोकल पुलिस का नेक्सस, दैनिक जिंदाबाद, टाइम्स ऑफ सवेरा, अमर क्रांति जैसे सड़कछाप अखबार, उनके रिपोर्टर और जिंदा रहने के लिए उनका किसी दबंग नेता का परिजीवी बन जाना जैसी बातें हम सब पहले भी किसी ना किसी तरह से देख चुके हैं। जमतारा देखी हुई इन चीजों को आगे नहीं ले जा पाती। बल्कि कई दृश्यों में वह उसी तरह की बातों को दोहरा देती है।

नई महिला एसपी के आने के बाद पुरूष प्रधान पुलिस वर्ग में पुलिस कर्मियों की प्रतिक्रिया, उसके काम में आने वाले अवरोध और उस छुटभैय्या नेता को खत्म कर देने का एसपी का संकल्प जैसे प्लाट बचकाने स्तर पर हैं। यह फिल्म तब बेहद सामान्य बन जाती है जब उसका क्लाइमेक्स रचा जा रहा होता है। क्लाइमेक्स में यह फिल्म किसी भी सस्ते सीरियल का महाएपीसोड जैसी लगती है। जिस ग्रिप के साथ जमतारा शुरू होती है क्लाइमेक्स आते-आते वह चीजें हवा हो जाती हैं, यह जमतारा एकलौती लेकिन बड़ी कमी है।

जमतारा में पहचाना हुआ चेहरा सिर्फ अमित सियाल का है। अमित को हम अमेजॉन प्राइम के शो इनसाइड ऐज में सट्टेबाजी करने वाले देवेन्दर मिश्रा से पहचानते हैं। इसके अलावा अमित छोटे से रोल में मिर्जापुर, रेड, सोन चिरय्या, तितली जैसी फिल्मों में भी दिखे थे। अमित के अलावा बाकी टीम लगभग नई है। हमने उन्हें कहीं और एक्टिंग करते नहीं देखा होगा। ज्यादातर का अभिनय अच्छा है। झारखंड के गांव में इतनी साफ सुथरी हिंदी नहीं बोली जाती होगी। तो किरदारों ने टंग पकड़ने की कोई कोशिश नहीं की। हां, ताजे चलन के अनुसार जरुरत से ज्यादा और नई-नई गालियां आपको यहां सुनने को मिल सकती हैं। जमतारा अपने विषय के लिए एक बार देखी जा सकती है...

पंगा जैसी फिल्में हमारे गिल्ट को कम करती हैं, बाकी ये शानदार नहीं हैं

हिंदी सिनेमा स्पोटर्स, पॉलिटिकल आटोबॉयोग्राफी, बॉयोपिक और वुमन सिन्ट्रिक विषय वाली फिल्मों को लेकर इतना बौना है कि उन विषयों पर बनी औसत फिल्में कई बार ओवररेटेड हो जाती हैं।

शायद उनकी ज्यादा तारीफ करके हम अपनी गिल्ट कम करना चाहते हैं। पंगा एक ऐसी ही फिल्म है, जो औसत होने के साथ-साथ सुस्त और थोपी सी मालूम पड़ती है, लेकिन विषय की वजह से यह ओवररेटेड बन गई।

पंगा एक पूर्व महिला कबड्डी खिलाड़ी जया निगम की कहानी है। करियर के पीक पर उसे अपने अनप्लांड बच्‍चे की वजह से अपने खेल से दूर होना पड़ता है। पर वह इसी खेल की वजह से मिली रेलवे की नौकरी, अपने 'एक्सट्रा केयरिंग, 'बोरियत की हद तक हंसमुख और उपलब्‍ध' पति और एक प्यारे से बच्‍चे के साथ भोपाल के सरकारी रेलवे कॉलोनी के एक मकान में रह रही होती है। जया का पति भी रेलवे में इंजीनियर है। वो रेलवे की एक कैंटीन में मिले होते हैं और तीन मुलाकातों के बाद माला बदल लेते हैं।

फिल्म के शुरुआती दृश्य दिखाते हैं कि जया अपने जीवन में खुश है। कबड्डी की टीम में खेलते रहना उसकी जिंदगी का अंतिम हासिल नहीं है, वह यह बात गहराई से मानती है। वह अपनी वर्तमान जिंदगी में रमी हुई है और संतुष्ट होने की हद तक खुश है। बाद में कुछ कुछ घटनाओं के जरिए उसका अतीत कुरेदा जाता है और एक नाटकीय घटनाक्रम के बाद उसका बेटा चाहता है कि उसकी मां फिर से कबड्डी में कमबैक करे। जया वापस आती है। कई लेयर्स में आने वाले हर्डेल को पार करते हुए अंततः वह इंडियन टीम का फिर से हिस्सा बन जाती है।

पंगा फिल्म इस तथ्य को मजबूती से पकड़कर चलना चाहती है कि वह पूरी तरह से एक स्पोर्ट फिल्म नहीं है। उसका फोकस एक महिला के कमबैक पर होता है। खासकर एक मां का कमबैक। फिल्म का हर सीन और उसकी अंडरकरेंट मां के कमबैक के रुप में लगातार फिल्म में बनी रहती है है।

फिल्म देखते-देखते हम पाते हैं कि ऐसी हूबहू तो नहीं लेकिन ऐसी कई फिल्में हम पहले देख चुके हैं जैसी पंगा हमें दिखा रही है। पंगा का कोई भी सीन चक दे इंडिया, सुल्तान और दंगल की कॉपी नहीं है लेकिन फिल्म की मूल आत्मा इन तीनों फिल्मों की सामूहिक आत्मा का मिक्चर लगती है।

इस फिल्म की निर्देशक अश्वनी अय्यर तिवारी हैं। अश्चनी दंगल फेम नीतेश तिवारी की पत्नी है। नीतेश इस फिल्म के को-राइटर भी हैं। कई जगहों पर एक तरह का परिवेश होने की वजह से यह फिल्म कई बार दंगल की छोटी बहन मालूम पड़ती है। दंगल और पंगा भाई बहन होने की वजह से कई बार उनके चेहरे के कुछ हिस्से और बोलियों का स्टाईल मैच कर जाता है। 'पहले से देखा सा लगना' फिल्म को प्रिडिक्टबल बनाता है। हमें ऐसा लगता है कि हम फिल्म के कर्व, उतार-चढ़ाव और क्लाइमेक्स से वाकिफ हैं और फाइनली क्या होना है ये हम जानते हैं।

पंगा की सबसे बड़ी कमजोरी जया निगम के कमबैक करने की वजहों में छिपी हुई हैं। ये वजहें कई जगहों पर बनावटी हैं और कुछ जगहों पर ओवरस्टीमेट। फिल्‍म के एक महत्वपूर्ण सीन में (जिसे फिल्म अपना टर्निंग प्वाइंट भी कह सकती है) जया को अपने बच्चे की स्पोर्ट्स एक्टिविटी देखने के लिए ऑफिस से छुट्टी नहीं मिल पाती है और उसका सीनियर उसे एक घंटे लेट आने पर एक दिन पहले जलील कर चुका होता है। भारत देश के सरकारी नौकरी के सिस्टम में एक घंटा देर से आने और 'पारिवारिक जरुरतों के लिए' छुट्टी लेना कितनी सहज प्रक्रिया है इससे हम वाकिफ हैं। एक और सीन में जया निगम को स्कूली कबड्डी टीम के बच्चे नहीं पहचान पाते है। वह उदास हो जाती है। ऐसी चार-पांच वजहें मिलाकर जया निगम की वापसी का प्लाट बुना जाता है।

कमबैक करने के बाद का हिस्सा अपेक्षाकृत ज्यादा मजबूत है। कुछ खुरदरे किरदारों से फिल्म हमें तआरुफ कराती है जो फिल्म को रियल बनाते हैं। फिल्म में जया निगम की जिंदगी के दो सबसे करीबी किरदार उसके पति और उसकी कबड्डी दोस्त- ट्रेनर है। ये दोनों ही किरदार बेहद सतही तरीके से लिखे गए हैं। बहुत सारा स्पेस खाने के बाद भी ये किरदार अपनी कोई महक नहीं छोड़ पाते। पंजाबी फिल्मों के परिचित चेहरे जस्सी गिल एक पति के रुप में बेहद सपाट लगते हैं। उनका हर समय हंसते रहना दर्शकों को चिढ़चिढ़ा बना सकता है। दोस्त बनीं रिचा चड्ढा की स्टाईल, डायलॉग बोलने का ढंग उन्हें फुकरे से बाहर ही नहीं निकलने दे रहा। इस बीच अमेजॉन प्राइम की वेब सीरिज इनसाइड ऐज और सेक्शन 375 फिल्‍में करने के बाद भी रिचा फुकरे के एक्सटैंशन रोल में ही लगती हैं।

कंगना रनौत बॉलीवुड की नई सलमान खान हैं। उनकी फिल्मों में सिर्फ वही होती हैं। इसमें शक नहीं कि उन्होंने एक बार फिर उम्दा एक्टिंग की है लेकिन सिर्फ एक्टिंग के दम पर फिल्‍में अच्छी बनतीं तो इरफान का मुकाम आमिर जैसा और विजय आनंद का मुकाम अमिताभ जैसा होता। एक्टिंग में कंगना को चुनौती उनके आठ साल के बच्चे का किरदार निभाने वाले यज्ञ भसीन से मिली है। तमाम नकली किरदारों के बीच वह एक असली और याद रखने वाला किरदार बन जाता है। नीना गुप्ता और राजेश तैलंश के पास जितना करने को था उन्होंने किया। पंगा आप देख सकते हैं। ये बुरी फिल्म नहीं है। ये बस ओवररेटेड और थोपी हुई फिल्म है।

छपाक के‌ लिए आपको अतिरिक्त संवेदनशील होना होगा और गैर राजनीतिक भी

'छपाक' पर कुछ भी पढ़ने से पहले क्या आप कुछ मिनटों के लिए यह भूल सकते हैं कि दीपिका पादुकोन जेएनयू कैंपस में गई थीं और आपने पिछले चुनाव में वोट किसे दिया था?

क्या आप कुछ मिनटों के लिए यह भूल सकते हैं कि उस शाम 'बायकॉट छपाक' ट्वीटर पर ट्रेंड कर रहा था? क्या आप यह भी भूल सकते हैं कि इस फिल्‍म के विलेन के नाम और उसके धर्म को लेकर किस तरह की अफवाहें आपके मोबाइल तक चलकर आईं और उस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया रही?और जब आप ये चीजें भूल ही रहे हों तो यह भी भूल जाइए कि यह फिल्म कुछ राज्यों में टैक्स फ्री की गई और उसकी प्रतिक्रिया में उसी के साथ रिलीज हुई एक दूसरी फिल्म को किसी दूसरे राज्य में दूसरी पार्टी की सरकार ने टैक्स फ्री कर दिया।

'छपाक' दुर्भाग्य से हिंदी सिनेमा की उन फिल्मों में शामिल हो गई जिसका अच्छा या बुरा कहा जाना इस बात से जुड़ गया कि चुनावों में आप वोट किसे देते हैं। ट्वीटर पर फॉलो किसे करते हैं, आपको फॉलो कौन करता है। सीएए-एनआरसी के साथ हैं या विरोध में हैं। जेएनयू को लेकर क्या सोचते हैं। वामपंथी दाढ़ी या झोले के बारे में आपके क्या विचार हैं। एक फिल्म के तौर पर 'छपाक' कैसी है उस पर शायद तब लिखा जाना ही बेहतर होता जब राजनीति की ये डस्ट सेटल हो जाती। तब इसे अच्छा या बुरा कहना आपकी राजनीति के साथ चस्पा ना किया जाता।

एक चर्चित एसिड अटैक सर्वाइवर लक्ष्मी अग्रवाल की जिंदगी पर बनी यह फिल्म एक फिल्म के रुप में उतनी मजबूत नहीं है जितनी कि इसे बनाने की इच्छाशक्ति। यकीनन फिल्म का विषय, एक मेनस्ट्रीम एक्ट्रेस का भूत जैसे डरावने चेहरे के साथ दिखने का रिस्क, भुला दिए गए शुष्क और गैर फ़िल्मी विषय का चुनाव, तारीफ के काबिल है लेकिन इस फिल्म के पास वह बहुत सारा सामान नहीं है जो इसे एक यादगार फिल्म बना सके।

मैं हमेशा इस बात का पैरोकार रहा हूं कि जब किसी विषय पर फिल्‍म बनाई जाए तो एक फिल्म के रुप में वह दर्शकों की जरुरतों को पूरी करे। इसके अलावा वह कुछ और भी कर सकती है तो वो उसकी दोहरी सफलता है। 'छपाक' खालिस सिनेमा के लिहाज से कमजोर फिल्म है। एक समय के बाद दर्शक सिर्फ इसलिए फिल्म से चिपका रहना चाहता है क्योंकि उसे पता है कि वह एक संवेदनशील विषय पर फिल्म देखने के लिए आया है और चुप लगाकर देखे जाना उसकी सामाजिक जवाबदेही है।

रेप पीड़ित वर्सेज एसिड अटैक पीड़ित के साथ समाज के बर्ताव और मीडिया अटेंशन की बहस के साथ शुरू हुई यह फिल्म एसिड फेंके जाने की घटना, घटना के बाद लड़की की जिंदगी में आए बदलाव, कोर्ट की ठंडी बहसों, एसिड अटैकर की गिरफ्तारी, उसकी जमानत, खुलेआम बिकता एसिड, इस मामले पर पीड़ित की पीआईएल और आखिरकार उसकी जीत की कहानी को कहने की कोशिश करती है। छपाक की कोशिश है कि वह इस विषय से जुड़े उन सभी पहलुओं को शामिल कर लें जो किसी भी तरह से उस दौरान उस लड़की की जिंदगी में आए। चाहे वह घटनाएं हों या इंसान। इन सबके बीच एसिड अटैक सर्वाइवर के लिए चलाने वाले एक एनजीओ, उस एनजीओ के कर्ता-धर्ता के साथ उस लड़की की साइलेंट प्रेम कहानी पैरलल रुप में दिखती है। प्रेम की इस कहानी को जानबूझ कर बहुत पंख नहीं लगाए गए हैं।

वो सारी घटनाएं इस फिल्म में हैं जो मुख्य पात्र मालती (दीपिका पादुकोन) के स्ट्रगल को दिखाने के साथ उसकी वर्सेटाइल पर्सनाल्टी को भी दिखाएं। कई जगहों पर यह फिल्म जबरन मालती को एक हीरो के तौर पर स्टेबलिस करने की कोशिश करती है। इसमें बुरा नहीं है। इससे फिल्म कमजोर नहीं बनती बल्कि इससे यह सरकारी विज्ञापन जैसी लगती है। फिल्म कमजोर इसलिए बनती है क्योंकि उसके पास उपकथाएं नहीं हैं, उसके पास याद रह जाने वाले किरदार नहीं हैं। उसके पास एसिड फेकने वाले किरदार की जिंदगी और उसकी सोच को दिखाने वाली लेयर्स नहीं हैं। फिल्म इसलिए कमजोर बन जाती हैं क्योंकि कोर्ट के बहसें जरुरत से ज्यादा रुखी और बेजान हैं। फ़िल्म इसलिए भी कमजोर होती है क्योंकि फ़िल्म के पास किरदार या तो स्ट्रीम व्हाइट हैं या स्ट्रीम ब्लैक। फिल्म इसलिए प्रभावी नहीं लगती क्योंकि कई जगहों पर दर्शक एसिड अटैक पीड़ित उस लड़की के दुख के साथ अपने को कनेक्ट नहीं कर पाते। बावजूद वह यह मानते हैं कि उसके साथ बहुत बुरा हुआ है।

हिंदी सिनेमा समस्याओं का ही सिनेमा है। किसी की सपाट जिंदगी में फिल्मकारों की दिलचस्पी नहीं होती है। दर्शक किसी भी समस्या से खुद को कनेक्ट करता है और वह फिल्म उसे अच्छी लगने लगती है। राजकुमार संतोषी की फिल्म घातक का विलेन डैनी जब बाप का किरदार निभा रहे कैंसर पीड़ित अमरीश पुरी के गले में कुत्ता वाला पट्टा बांधकर उन्हें कुत्ते की ही तरह खींचता हैं तो बेटे के किरादार में सनी देओल की उस प्रतिक्रिया में फिल्म देख रहा हर बेटा खुद को कनेक्ट कर लेता है। भले ही उसके पिता के गले में किसी ने कुत्ते का पट्टा नहीं डाला हो। यह सिनेमा की ताकत होती है। यह सीन की ताकत होती है कि उसके दुख हमारे दुख लगते हैं।

हिंदी सिनेमा बदला लेने की कहानियों से भरा हुआ है। दर्शक बदला लेने की हीरो की इच्छा को मौन स्वीकृति तभी देता है जब उसे लगता है कि वाकई उसके साथ गलत हुआ है। छपाक के साथ दिक्कत ये है कि दर्शक पीडित के साथ खड़ा होता है, उसके साथ हुए जुल्म पर उसे गुस्सा आता है लेकिन दर्शक किरदार के कष्ट के साथ खुद को कनेक्ट नहीं कर पाता। ऐसा इसलिए है क्योंकि फ़िल्म के पास अच्छे दृश्य नहीं हैं।

'राजी' और 'तलवार' मेघना की पिछली सफल फिल्में हैं। यह दोनों ही फिल्में रिश्तों की विडंबनाओं की फिल्में हैं। ये दोनों ही फिल्में इसलिए बड़ी फिल्में बनी क्योंकि इसके पास अच्छे सीन हैं। ये फिल्में याद इसलिए रखी गईं क्योंकि इसके पास याद रखने वाले किरदार हैं, किरदारों की लेयर्स हैं। यह संभव है कि छपाक की कहानी ऐसी रही हो जहां इस‌ तरह की सिनेमाई लिबर्टी नहीं ली जा सकती थी। लेकिन जब यह फिल्म रिक्‍शा वाले के साथ राइट-लेफ्ट का एक काल्पनिक सीन डाल सकती थी तो वह कई ऐसे सीन बना सकती थी जो किरदार को गढ़ने में मदद करते।

छपाक का वह सीन मुझे कमजोर लगा जब दीपिका पहली बार अपना झुलसा हुआ मुंह आईने में देखती हैं। वो सीन फ़िल्म की रीढ है, लेकिन कमज़ोर बन पड़ा है। आपको राजेन्द्र कुमार की फ़िल्म आरज़ू देखनी चाहिए। राजेन्द्र की शादी होनी होती है। एक दुर्घटना में उनके पैर कट जाते हैं। जब डॉक्टर पहली बार अस्पताल के उस बेड पर राजेन्द्र कुमार के पैरों पर पड़ा कंबल हटाते हैं, तब उस किरदार का चेहरा देखिए। राजेन्द्र के चेहरे की उस प्रतिक्रिया को दीपिका को बार बार देखना चाहिए। हमें उस सीन को बार बार देखना चाहिए।

आप यह भी कह सकते हैं कि छपाक जैसी फिल्में सिर्फ मनोरंजन के लिए नहीं देखी जानी चाहिए लेकिन एक फिल्मकार का धर्म है कि वह सिनेमाई जरुरत को कभी नजरअंदाज ना करे। दर्शक जिस टिकट को लेकर सिनेमाघर में दाखिल होता है वह टैक्स के रुप में इंटरटेनमेन्ट टैक्स चुका रहा होता है, और मनोरंजन से ये मतलब बिल्कुल नहीं है कि यहां नाच गाना, फाइटिंग, एक्शन सीन या कॉमेडी की बात की जा रही है।

सिनेमा के लिए यह बेहतर है कि छपाक जैसे विषयों पर ज्यादा फिल्में बनें और साथ ही यह भी जरुरी है कि सोशल मी‌डिया पर अफवाहें बांटने वाले फिल्म भी देखना शुरू करें। वो सिर्फ वट्सअप फारवर्ड को ही अपनी दुनिया न बनाएं। साथ ही हर शहर में ऐसे नेता हों जो लोगों को दिखाने के लिए सिनेमाघर फ्री करा दे।

हिंदी सिनेमा के लिए सिर्फ कॉमेडी है विवाहेत्तर संबंध


 कुछ सालों पहले जब ये फिल्म मैंने कमलेश्वर की वजह से दोबारा देखी तो मुझे यह कॉमेडी फिल्म लगी। गोविंदा की साजन चले ससुराल, दूल्हे राजा, छोटे सरकार टाइप की कोई भी कॉमेडी फिल्म जैसी। अभी जब कुछ सप्ताह पहले इसी नाम वाली एक और फिल्म आई है तब भी इतने बरसों के बाद भी उसका अंदाज सिगरेट पीने और पकड़े जाने जैसा ही रहा है।

हिंदी सिनेमा इस विषय पर जज्बाती होकर नहीं बल्कि तफरी के अंदाज में सिनेमा गढ़ता दिखा है। ऐसी बहुत सारी कॉमेडी फिल्में हैं जिसमें नायक अपनी पत्नी से उबकर सिर्फ सेक्स की लालसा में यहां वहां 'मुंह मारने' की कोशिशों में लगा दिखता है। सिनेमा दिखाता है कि नायकों की एप्रोच उन लड़कियों के प्रति रही है जिनके कपड़े पत्नी की तुलना में आधुनिक हैं और सेक्‍स को लेकर उनके विचार 'लिबरल' हैं। बाद में ये हीरो रंगे हाथों पकड़ लिए जाते हैं और मासूम सा चेहरा बनाए पत्नी से वादा करते हैं कि अब आगे से वह सिगरेट नहीं पीएंगे। पत्नियां मान जाती हैं और फिल्म खत्म हो जाती है।

हिंदी सिनेमा ने इस समीकरण को पलटकर बनाने की कोशिश नहीं की है, कि पत्‍नी किसी सिंगल लड़के से अफेयर करे, बाद में वह पकड़ी जाए और फिल्म कॉमेडी हो, इस तरह के सिचुवेशन शायद समाज अभी एफोर्ड नहीं कर सकता? यदि सिचुवेशन होगी भी तो कॉमेडी नहीं होगी। निर्देशक को शायद यह लगता है कि पत्नियों का अफेयर करना कॉमेडी नहीं है और यह छिपकर सिगरेट पीने जैसा भी नहीं है। 

इसी तरह ऐसी फिल्में बनाने में भी सिनेमा की दिलचस्‍पी नहीं रही है जहां पर पति का अफेयर उस लड़की से हो जो ना तो 'लिबरल' हो ना ही सिंगल। दोनों विवाहित हों और दोनों मन के किसी कोने के खालीपन को भरने के लिए करीब आने की कोशिश में हों। और यह करीब आना भी इंटेनशनल ना हो। इस तरह के एक्वेशन में सेक्स प्रियॉरिटी में नहीं होगा। ये संबंध सेक्स के लिए बन भी नहीं रहे होंगे।

 करण जौहर की फिल्म कभी अलविदा ना कहना , अस्तित्व और सिलसिला इस ट्रैक की फिल्‍में हैं जहां चीजें हास्य के रुप में नहीं पेश की गई हैं। सेक्सुअल अट्रैक्‍शन यहां प्रधानता में नहीं है। एक तनाव किरदारों के जेहन और चेहरे में दिखा है, पर इन फिल्मों में भी विवाहेत्तर संबंधों की जटिलताएं नहीं रिफलेक्ट होती हैं।

 खुद की जरुरतें वर्सेज परिवार की अपेक्षाएं, गिल्ट का बढ़ता-घटता बोझ, निरंतर हर पल चलने वाला कश्माकस, बिस्तर पर जिस्मों को लेकर एक अनचाही तुलना, अनचाही तुलना के बाद आने वाला गिल्ट, मूड ‌स्विंग, रिश्तें का अंधकार भरा भविष्य, इन सबके बाद भी उसे चलाए रखने की चाह जैसी बातें भी इन फिल्मों में नदारत दिखीं।

 विवाहेत्तर संबंधों का एक मनोवैज्ञानिक बोझ ये फिल्में संभालकर लेकर चलने में अक्षम साबित रही हैं। किरदार किन किन छोटी छोटी बातों से जूझ रहा है फिल्में वहां तक पहुंचने की कोशिश नहीं करती हैं। या ये कह सकते हैं कि ऐसी फिल्में बनी ही नहीं ‌जिनमें इन बातों को इस तरह से देखने की कोशिश की गई हो।

ऐसा नहीं है कि ऐसा ख्याल नहीं आया होगा। हिंदी साहित्य के पास ऐसी कुछ कहानियां हैं जहां पर पति और पत्नी दोनों ही अफेयर में हैं। रिश्तों और समाज का मनोवैज्ञानिक पक्ष वहां दिखता जरूर है पर वहां भी लेखक इस चीज को लेकर उपापोह में है कि वह कहानी को खत्म कहां करें।

राष्ट्रवाद वर्सेज मानवतावाद की तरह ही शादी वर्सेज प्रेम की कोई सटीक व्याख्या ना अब तक हुई है और ना ही शायद इससे हर कोई सहमत होगा। बावजूद इसके हमें सिनेमा से ऐसी फिल्में की उम्‍मीदें हैं जो इस विषय को उसी संजीदा तरीके से पेश करें जिस तरह के ये विषय हैं। कॉमेडी हम किसी और फिल्म में देख लेंगे।

मर्दानी 2, रेप की भयावहता दिखाने से ज्यादा खुद को फिल्म बनाने में बिजी है

'मर्दानी 2' रेप विषय पर बनी ऐसी फिल्म है जो एक पल भी यह बात नहीं भूलती कि वह एक मुंबईया फिल्म है, जिसका मकसद लोगों का मनोरंजन करना है।

वह रेप के भावनात्मक और संवेदनशील द्वंद में खुद को न उलझाकर रेपिस्ट और उसे पकड़ने वाली पुलिस ऑफिसर के बीच की नूराकुश्ती पर खुद को फोकस करना चाहती है।

रेपिस्ट, जिसे आमतौर पर घिनौना माना जाता है यह फिल्म उसे हिंदी फिल्मों के विलेन की तरह स्टेबलिश करती है, जो शातिर भी है और स्मार्ट भी। मर्दानी उसे अच्छे सीन भी देती है और संवाद भी। 'विलेन मजबूत होगा तो हीरो भी मजबूत दिखेगा' वाली लीक पकड़कर यह फिल्म क्लाइमेक्स तक आते-आते रेप को भूल जाती है और सिर्फ विलेन की चालें और पुलिस की जांबाजी को याद रखती है। बचे हुए समय में यह फिल्म यह भी याद दिलाने की कोशिश करती है कि यह काम एक महिला पुलिस ऑफिसर ने किया है।

फिल्म विलेन को मजबूत करने के साथ-साथ उसके द्वारा किए जाने वाले अपराधों को भी एक वजह देने की कोशिश करती है। एक रेपिस्ट जिसे फिल्म सिर्फ एक रेपिस्ट नहीं मानती और अंत तक आते-आते वह उसे एक साइकोलॉजिकल क्रिमनल की तरह दिखाने लगती है। जाहिर सी बात है कि साइकोलॉजिकल क्रिमिनल के प्रति हमारे मन में वैसा लिजा-लिजा घृणा वाला भाव पैदा नहीं होता जैसा रेपिस्ट को लेकर होता है।

 इस फिल्‍म को देखते हुए आपको दर्जनों ऐसी देशी-विदेशी फिल्में याद आ सकती हैं जिसमें विलेन अपने किसी कॉम्लेक्स की वजह से क्रिमिनल बन गया होता है। इस फिल्म का रेपिस्ट विलेन आपको क्रिस्टोफर नोलन की फिल्‍म द डॉर्क नाइट के जोकर या एआर मुर्गादास की तमिल-तेलुगू फिल्म स्पाइडर के विलेन की नकल करता हुआ भी लग सकता है। ऐसा विलेन जो क्रूर तो है पर साथ में 'कूल' भी है। उसके पास हीरो के सामने टिके रहने की क्षमता है और उसे हराने की भी। 

'मर्दानी 2' के साथ सुविधा और संयोग ये है कि यह फिल्म ऐसे समय पर आई है जब देश के अखबार और टीवी के प्राइम टाइम रेप की खबरों से रंगे पड़े हैं। पुलिस रेपिस्टों का एनकांउटर कर दे रही है और चारों ओर वाह-वाह की आवाजें आ रही है। पर फिल्म की टोन रेप को लेकर वैसी नहीं है। यह रेप पीड़िता, उनके परिवारों की हालत और समाज में उसके गुस्से की तरफ अपना कैमरा नहीं घुमाती है। बल्कि उन दृश्यों को रचने में व्यस्त रखती है जिसमें पुलिस और विलेन के बीच शह और मात का खेल चलता दिखे। कभी वह जीते तो कभी वो हारे। ‌फिल्म की सबसे ज्यादा दिलचस्‍पी विलेन के अपराध करने के तरीकों और एक पुलिस ऑफिसर के महिला होने पर है। 

 'मर्दानी 2',  स्‍त्री सशक्कतीकरण की कुछ बहुत ही वाजिब बातें निहायत सस्ते तरीके, और घिसे-पिटे संवादों के साथ करती है। फिल्म के क्लाइमेक्स सीन के ठीक पहले मर्दानी बनी रानी मुखर्जी एक टीवी इंटरव्यू दे रही होती हैं जिसमे वह पुरुषों से बराबरी का हक मांग रही होती हैं। वह पुरुष जो उनके ऑफिस में भी हैं और जिन्हें एक महिला से ऑर्डर लेने में शर्म आती है। ये सीन अब अच्छे नहीं लगते और किसी महिला को स्टीरियोटाइप ही फील कराते हैं।

मर्दानी 2 देखते समय आपको नेटफ्लिक्स पर कुछ महीनों पहले स्ट्रीम हुई वेब सीरिज 'दिल्ली क्राइम' की भी याद आती है और 'आर्टिकल' 15 की भी। निर्भया गैंगरेप पर बेस्ड करके बनाई 'दिल्ली क्राइम', क्राइम के सिरों को जिस तरह से खोलती है, अपराधियों का बैकग्राउंड तलाशती है, बिना रेप दिखाए रेप की यातना को महसूस कराती है वह बार-बार इस फिल्म में दर्शकों को याद आ सकता है।

मर्दानी 2, रानी मुखर्जी के लिए अपने पति द्वारा कुछ-कुछ समय के बाद दिया जाने वाला तोहफा है। यह फिल्म आदित्य ने रानी के लिए ही बनाई है। रानी मुखर्जी का बढ़ता वजन और चेहरे पर बढ़कर झूलती चर्बी उन्हें इस रोल की कास्टिंग के लिए रोक देती यदि वह आदित्य की बीवी ना होतीं। पर ये मियां-बीवी का मामला है। इसमें फिल्म के निर्देशक गोपी पुथरन बहुत दखल नहीं दे सकते थे, दर्शकों को भी नहीं देनी चाहिए...रेपिस्ट बने विशाल जेठा ने उम्दा काम किया है।