Friday, June 29, 2012

कुछ अच्छे दृश्य चुराकर, कुछ अच्छे दृश्य डालकर एक अच्छी फिल्म नहीं बना करती

मैक्सिमम बनाने वाले कबीर कौशिक ने इस फिल्म के पहले तीन फिल्में डायरेक्टर की हैं। शहर, चमकू व हम तुम और घोस्ट। तीनों ही फिल्मों को दर्शक नहीं मिले थे। चमकू और शहर के लिए अंग्रेजी अखबारों ने जरूर कुछ उदारता दिखाकर स्टार लुटाए थे। कबीर कौशिक की हर फिल्म हिंदी में इस विषय पर बन चुकीं कई सारी फिल्मों की प्रेरणा होती हैं। मतलब ऐसा विषय जिसे हम कहीं और थोड़ा या बहुत अच्छे या खराब ढंग से देख चुके होते हैं। कई फिल्मों की अच्छी-अच्छी बातें उठाकर यदि एक मुक्कमल अच्छी फिल्म बनाई जा सकती होती तो अनु मलिक फिल्म बनाने के धंधे में होते और सबसे सफल भी। मैक्सिमम फिल्म की रचना के समय कबीर के मस्तिष्क में पुलिसिया जिंदगी पर बनीं कई सारी फिल्में रही होंगी।
हर कोई अपनी तरफ से सर्वश्रेष्ठ करने का प्रयास करता ही है। कबीर ने भी किया। उन्होंने पुलिसिया जिंदगी की फिल्मों में थोड़ा परिवार, थोड़ा आदर्श, कुछ नए दृश्य और कुछ कल्पानएं जोड़ी। जो उनके मुताबिक पहले वाली फिल्मों से बेहतर हो गईं। इन सब चीजों के जोडऩे की वजह से यह फिल्म किसी एक फिल्म की रीमेक तो नहीं लगती। लेकिन इन सब बातों की वजह से फिल्म की स्पीड कहीं तेज तो कहीं एकदम सुस्त हो जाती है। नायक के बाप का समुद्र के किनारे खड़े होकर शेक्सपियर को पढऩा, पत्नी के साथ खाना-बनाने जैसे दृश्य इसी दायरे में रखे जा सकते हैं।
कबीर की सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि वह दर्शक को यह नहीं बता सके कि आखिर वह दिखाना क्या चाह रहे हैं। यदि वह नसीर और सोनू सूद के बीच का टकराव दिखाना चाह रहे थे तो कम से कम फिल्म में ऐसे दस दृश्य होते जहां दर्शक साफ-साफ श्रेष्ठता की जंग देख सकते। जहां संवादों से कोई हारता तो कोई जीतता। यह फिल्म थी न कि विवि या किसी दफ्तर की राजनीति जहां शत्रु आमने-सामने खड़े होकर संवाद नहीं करते। नसीरुद्दीन शाह इस फिल्म को खींच सकते थे यदि वह सोनू सूद वाला रोल कर रहे होते।

Tuesday, June 26, 2012

हम गैंगवार की फिल्म देख रहे हैं ऐसा सिर्फ कुछ देर लगता है, बाकी समय एक ऐसी दुनिया है जो बुरी होते हुए भी बहुत लुभावनी है

अनुराग कश्यप इस फिल्म को ढाई घंटे की एक फिल्म में खत्म कर सकते थे। किसी भी माफिया गैंगवार में इतनी तेज, फ्रीक्वेंट और महत्वपूर्ण घटनाएं नहीं होती हैं कि उन पर दो फिल्में बनानी पड़ें। वासेपुर पूरी तरह से गैंगवार की फिल्म नहीं है। शुरुआती चंद मिनट छोडक़र कहीं भी बिना वजह मारपीट नहीं है। वासेपुर दरअसल अनुराग की ऑब्जर्वेेशन का डीटेल है। उस ऑब्जर्वेशन में उस समय का समाज है, राजनीति है, जीवन है, लाइफ स्टाईल के साथ उसी दौर की नफरत और मोहब्बत भी है। फिल्म में दर्जनों ऐसे दृश्य हैं जिन्हें देखकर लगता है उस दौर को दिखाने के लिए जमकर होमवर्क और रिसर्च किया है। फिल्म शुरू होने के आधे घंटे तक तो कोयला, बदला, माफिया जैसी बातें करती है लेकिन आधे घंटे के बाद एक अलग ही दुनिया है। वह दुनिया बुरी होते हुए भी बड़ी जादुई और सम्मोहक लगती है। फिल्म की सबसे बड़ी खूबी पात्रों की रचना और उनकी स्थापना है। हर पात्र अपनी जगह पर ऐसा फिट है कि लगता हैं कि इससे बेहतर कोई और हो ही नहीं सकता। दबंग और बॉडीगार्ड फिल्मों से उलट इस फिल्म का कोई भी किरदार मंद या अल्पबुद्धि नहीं है। लगभग तीन घंटे की यह फिल्म अपने अंदर दर्जनों भव्य और ऐतिहासिक दृश्य समेटे हुए है। फिल्म वहां भव्य हो जाती है जहां मनोज बाजपेई अपनी पत्नी से सुहागरात पर पानी के लिए पूछने के बाद अपने जीवन के एकमात्र लक्ष्य को साक्षा करते हैं, यह फिल्म वहां भव्य होती है जहां वह रंडीखाने की एक रंडी को नगमा समझ लेने का तर्क देते हैं और कहते हैं कि शराब के नशे में उन्होंने रंडीखाने को घर समझ लिया है। फिल्म वहां बहुत बड़ी बन जाती है जब मनोज बाजपेई नीली हवाई चप्पल, लुंगी पहन कर दातून चबाते हुए दुर्गा से रोमांस करते हैं। धीमे से चप्पल निकालना और साथी का इसे समझ कर दौड़ लगा देना। नगमा का फ्रिज और वैक्यूम क्लीनर से सफाई करने जैसे दृश्यों की खूबसूरती यह है कि वह बहुत मामूली हैं। वासेपुर अपने अभिनय के लिए जानी जाएगी। मनोज बाजपेई के अलावा दूसरे कलाकारो ने भी कमाल का अभिनय किया है। तिंगमाशु धूलिया की फिल्म शर्गिद में अनुराग कश्यप ने एक रोल किया था, तिंग्माशु ने खूबसूरती के साथ हिसाब बराबर कर दिया है। पीयूष को कोई और भूमिका मिलनी चाहिए थी। फिल्म का संगीत भी फिल्म की तरह भव्य है। हर गीत एक अलग मिजाज का। गानों की रेंज देखिए, एक बगल में चांद होगा, वुमनिया, हंटर, बिहार के लाला सब अलग धरातल पर खड़े हैं जो फिल्म का हिस्सा लगते हैं।

Saturday, June 16, 2012

इतनी आदर्श दुनिया देखने के आदी नहीं हैं हम फिल्म की सबसे अच्छी बात आखिर में जाकर उसके खिलाफ खड़ी हो जाती है। वह है सभी किरदारों का अपने जीवन के उच्चतम काल्पनिक आदर्शों में जीना। ऐसे आदर्श जो कहीं-कहीं दर्शक के लिए इतनी खीझ पैदा करें कि उसे लगे यह बेवकूफ कर क्या रहा है। फिल्म का नायक चौराहे पर हवलदार न होने पर जब रेड सिग्नल तोड़ता है तो वह दूसरे चौराहे पर उसकी रसीद कटवाता है। ट्रैफिक पुलिस के सभी अधिकारी काम के प्रति इतने समर्पित हैं कि वह गाड़ी उठाने में इस बात की परवाह बिल्कुल नहीं करते कि वह किसकी गाड़ी है। १२ साल का बच्चा जीत हार की भावुकता पर पार पाते हुए अंपायर को सच-सच बता देता है कि कैच पकड़ते वक्त उसका पैर बाउंड्री लाइन पर था। चंूकि असल जिंदगी में हम ऐसा नहीं करते हैंं इसलिए ्रइसे देखकर हमें कई जगह खुशी तो हो सकती है पर उससे जुड़ाव बिल्कुल नहीं होता। फिल्म के एकमात्र पात्र बोमने ईरानी दर्शकों को अपने बीच के आदमी लगते हैं। अपने बीच के इसलिए क्योंकि उनके पास सही-गलत को जज करने का अनुपात वैसा है जैसा कि दुनिया में जीने के लिए जरूरी है। बाकी पात्रों के पास यह अनुपात न होना ही फिल्म की एक बड़ी कमी है। यह फिल्म बिना मतलब की मध्यमवर्गीय भावुकता पैदा करने की कोशिशें दर्जनों पर करती है। फिल्म में निर्देशक ने दर्शकों से कम से कम पचास जगह नायक और उसके बेटे के लिए दया की भीख मांगी है। दया और धैर्य का एक सीमित कोटा होता है। फिल्म के निर्देशक उस कोटे का दोहन हर पांच मिनट में कर रहे होते हैं। यह बात उन्हें भी शायद इंटरवल के आसपास महसूस हुई। तो इंटरवल के बाद जहां दर्शकों के इमोशन को चूसना था वह यह फिल्म लगभग कॉमेडी बन जाती है। इस कॉमेडी को जैसे-तैसे अस्पताल पहुंचाकर सत्यानाश किया जाता है। फिल्म का अंत तो बहुत ही खराब तरीके से लिखा गया है। फिल्म का सबसे कमजोर पक्ष फिल्म की एडटिंग है। कुछ दृश्य बेवजह इतने लंबे खींंचे गए हैं कि उनका न होना ज्यादा बेहतर होता। शरमन जोशी हिंदी फिल्मों के ऐसे दर्जनों अभिनेताओं की तरह है जो छोटी भूमिका में ही जंचते हैं। बड़ी भूमिका में उनकी पोल खुल जाती है। यह फिल्म उन्हें किसी नए मापदंड पर स्थापित नहीं करती।

Friday, June 8, 2012

इस फिल्म को इंटलैक्चुअल सराहेंगे, फिल्म समारोह में जाएगी, लेकिन ऐसी फिल्मों की वजह से ही राउठी राठौर और दबंग बनती रहेंगी जब मैं दसवीं क्लास में था तो राम मोहन तिवारी नाम के एक सज्जन मुझे गणित पढ़ाते थे। उनका नाम राम मोहन तिवारी था यह मुझे उनकी पहली क्लास ज्वाइन करने के लगभग ६ महीने बाद पता चला। हम उन्हें फैक्टर सर कहकर बुलाते। साइंस बैकग्राउंड वाले जानते हैं कि फैक्टर गणित:१ में कितना महत्वपूर्ण चैप्टर है। शंघाई फिल्म देखते हुए मुझे मेरे फैक्टर सर याद आए। फैक्टर सर के साथ एक समस्या थी कि उन्हें गणित का बहुत विशाल ज्ञान था। दूसरी समस्या यह थी कि गणित पढ़ाते वक्त वह हमसे गणित की उस फ्रीवेंक्सी में बात करते जिस फ्रीक्वेंस में उनको गणित आती। छात्र यह तो समझते कि बात गणित की ही हो रही है लेकिन वह उनकी गणित में अपने को इनवाल्व न कर पाते। उन दिनों क्लास बंक करना संज्ञेय अपराध के दायरे में था इसलिए हम सब उनकी क्लास के चालीस मिनट काटते। शंघाई देखते समय फैक्टर सर इसलिए याद आए क्योंकि वह गणित तो बहुत ऊंचे स्तर की पढ़ा रहे थे पर यह गणित दर्शकों के पल्ले बहुत नहीं पड़ती। नई पीढ़ी के प्रतिभाशाली युवा निर्देशक जब फिल्में बनाते हैं तो उनके कई टारगेट होते हैं। जाहिर है कि दर्शक सबसे बड़ा टारगेट। दर्शकों के साथ ही साथ वह अपने समकालिक निर्देशकों के लिए फिल्म रचते हैं, फिल्म समारोह के लिए फिल्म रचते हैं और यह बात सुनने के लिए भी फिल्म रचते हैं कि इन दिनों भारत में अलग हटकर फिल्में बन रही हैं। संघाई बाद की इन तीनों ही बातों के साथ न्याय करती है। शंघाई के माध्यम से दिबाकर एक गंभीर विषय पर फिल्म रचने का प्रयास करते हैं। उनकी कोशिश उम्दा है। यह कोशिश तब और भी सम्मानित हो जाती है जब वह इमरान हाशमी और अभय देओल से उनकी बनी छवि से बिल्कुल विपरीप का काम लेते हैं। एक लाइन में शंघाई किसी कम्यूनिस्ट रचनाकार की रचना लगती है। जहां एक बस्ती को हटाकर मॉल बनाने की तैयारी है। इससे आ रही रुकावटें घटनाएं हैं और बाद में सरकार का एक्सपोज हो जाना फिल्म का क्लाइमेक्स। दिवाकर बनर्जी इस फिल्म के पहले खोसला का घोसला, ओक लक्की लक्की ओए और लव सेक्स धोखा जैसी फिल्में बना चुके हैं। रचना के आधार पर शंघाई इन फिल्मों से बड़ी फिल्म है। बस खटका यह है कि यह फिल्म दर्शकों को अपने साथ लेकर नहीं चल पाती। फिल्म के शुरुआत से ही ठहरी हुई लगती है। इंटरवल के बाद फिल्म अपनी कमजोरी को ठीक करने का प्रयास करती है। अंत के दस मिनट प्रभावी लगते हैं। फिल्म में कुछ अद्भुत दृश्य और संवाद हैं। यह फिल्म इमराश हाशमी के लिए उपलब्धि है। उन्होंने इंडस्ट्री को दिखाया है कि वह कुछ और भी कर सकते हैं। अभय देओल, फारुख शेख भी अद्भुत रहे। कलकी और पिताबश हर फिल्म में एक जैसी ही ऐक्टिंग करते हैं।

Sunday, June 3, 2012

इस बार संजय लीला भंसाली ने दर्शकों के आईक्यू पर भरोसा किया
इन दिनों फिल्मकारों को दर्शकों की बढ़ती गैरतार्किक बुद्धि के चलन पर बड़ा भरोसा हो चला है। दबंग, वांटेड, सिंघम, बॉडीगार्ड फिल्मों को हिट कराने वाले इन दर्शकों के आईक्यू लेवल पर विश्वास करते हुए संजय लीला भंसाली ने इस बार अपने आईक्यू पर विश्वास नहीं किया। वह प्रभुदेवा की शरण में गए हैं। संजय लीला भंसाली की पिछली तीन फिल्में माई फ्रेंड पिंटो, गुजारिश और सांवरिया असफल रही हैं। शायद इसी बीच उनका आईक्यू लेवल गिरा होगा। संजय इंटलैक्चुल सिनेमा के पैरोकार माने जाते हैं। ऐसी फिल्म बनाने के पहले उनके मन में कुछ अगर-मगर जरूर रहे होंगे। इसी अपराधबोध में उन्होंने कुछ ऐसे इंटरव्यू दिए हैं जिनमें ऐसी फिल्म को आज के सिनेमा की जरूरत बताया गया है। राउठी राठौर दरअसल ऐसे वर्ग की फिल्म है जिसके लिए सिनेमा देखना सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन है। इसके आगे की बात वह करना नहीं, सोचना भी नहीं चाहते। तो ऐसे दर्शक वर्ग को रिझाने के लिए नायक बहुत दरियादिल, कमदिमाग और शारीरिक रूप से बहुत हष्ट-पुष्ट होना चाहिए। चूंकि नायिका को इसी नायक पर मर मिटना है इसलिए वह होशियार तो होगी नहीं। इसलिए फिल्म की नायिका पूरी तरह से बौड़म है। नायक नेकदिल है तो खलनायक बहुत ही कमबख्त और क्रूर होना चाहिए। इन सबके बीच देशकाल भी अंधा कानून जैसा दिखे तो अच्छा है। सबकुछ उसी आईक्यू लेवल का है तो गीत भी वैसे हों। गौर करें, पैजामा है तंग लगोट ढीला है। दर्शक चूंकि रिस्क नहीं लेते इसलिए उनके लिए राउठी के ऐसे पोस्टर डिजाइन किए गए हैं जो पूरी तरह से पैसा वसूल थे। मतलब जी भरकर पोस्टर भी देख लिया तो आधा काम बन गया। डायलॉग भी बिल्कुल सीधे-सपाट समझ में आ जाने वाले। जिसने समझा कि मैं डर गया वो अर्थी पर अपने घर गया। फिल्म की नायिका का मामला बड़ा दिलचस्प है। निर्देशक को उनसे अच्छी उनकी कमर लगी। इंटरवल के पहले तक कमर का जिक्र ज्यादा है। नायक की नायिका से मोहब्बत करने की बड़ी वजह भी। जब तक भारत में राउठी जैसी फिल्में बनती रहेंगी सोनाक्षी सिन्हां जैसी लड़कियों को काम मिलता रहेगा। अक्षय के लिए शब्दों की बहुत सारी कमी हो गई है।