Wednesday, October 2, 2019

वॉर जैसी फिल्‍में ‌हिट होनी चा‌हिए ताकि मर्दानी के सीक्वल बनते रहें...


इस बात पर तो आप भी एग्री करेंगे कि एक स्पाई या जासूस का कॉमन सेंस और इंटलैक्ट लेवल एक पुलिस सब इंस्पेक्टर से बेहतर होता होगा। उसके रिफलेक्‍शन, मूव्स और प्लानिंग भी। तो फिर ये भी मानेंगे कि ऐसी फिल्म देखने वालों दर्शकों का स्तर भी चुलबुल पांडेय जैसा नहीं मानना चाहिए। दर्शकों को भी स्मार्ट मानना चा‌हिए। उन्हें स्पून फीडिंग नहीं करानी चाहिए। तमाम सारी बेहतर बातें लिए वॉर फिल्म यहां पर गलती करती है। एक तरफ वह एक्‍शन के नाम पर हॉलीवुड की दिग्गज फिल्मों के एक्‍शन डायरेक्टर्स की सेवाएं लेती है लेकिन फिल्म के प्लाट और स्क्रिप्ट में वही एक घिसी पिटी कहानी को दोहरा देती है। फिल्म के सस्पेंस और खुलासे मेरे स्कूल दिनों में देखे गए सीरियल सुराग के इंस्पेक्टर भारत जैसे लगते हैं। जो इतने प्रिडेक्‍टिबल हैं कि जिनके बारे में अन्ना हजारे तक बता दें कि आगे क्या होने वाला है।

वॉर फिल्म एक पॉपकॉर्न इंटरटेनर की तौर पर बुरी फिल्म नहीं है। इसके एक्‍शन सीन सांस रोककर देखने वाले हैं। जो किसी भी लेवल पर हॉलीवुड स्पाई फिल्मों से कमतर नहीं हैं। फिल्म के पास खूबसूरत लोकशन हैं और खूबसूरत हीरो भी। प्रॉब्लम वहां नहीं हैं। प्रॉब्लम ये है कि फिल्म के पास एक्‍शन के अलावा कुछ और है ही नहीं। जब फिल्म में एक्‍शन नहीं हो रहा होता है तो दरअसल बकवास हो रही होती है। दर्जनों फिल्‍मों में देखी गई बकवास फिर से एक बार नए तरीके से देखने को मिलती है। करोड़ो रुपए खर्च करके फिल्म का एक्‍शन बनाया गया है, कुछ लाख खर्च करके एक अच्छी स्किप्ट के बारे में नहीं सोचा गया। फिल्म की कहानी अपने एजेंट के बागी हो जाने की है। अभी अभी फिल्म देखना शुरू करने वाला ऑडियंश भी बता देगा कि यदि हमारा स्पाई बागी हो रहा है तो इसका मतलब ये बिल्कुल नहीं होगा कि वह पाकिस्तान या चीन से मिल गया होगा। यकीनन उसके पास कुछ ऐसी बातें आईं होंगी जो उसे सिस्टम में कोई जासूस होने का इशारा कर रही होंगी और इसका खुलासा वह किसी सीन में शराब पीते हुए करेगा।

प्लाट का कॉमन होना बुरा नहीं होता। पचास और साठ के दशक की हिट फिल्मों को निकाल लीजिए। आप पाएंगे कि इन बीस सालों में जो फिल्मों आई हैं इनके प्लॉट घूम फिरके वही दस-बारह ही रहे हैं। अस्‍सी के दशक में इनकी संख्या और भी कम हो गई थी। हर तीसरी फिल्म पहली फिल्म जैसी लगती थी। वॉर अगर इसी प्लाट के साथ आगे बढ़ना चाहती थी तो भी बुरा नहीं था। वह चूकती है अपनी चरित्रों को गढ़ने में। उनके पर्सनल लाइफ को दमदार बनाने में। उनकी‌ डिटेलिंग में। एक सिस्टम के अंदर होने वाली बातचीत को स्मार्ट बनाने में। आप एक हीरो से हर तीसरे सीन में एक्‍शन कराएंगे तो एक्‍शन भी एक समय के दाल रोटी जैसा बोरिंग लगने लगता है।

ये अच्छी बात है कि फिल्‍म प्रेम कहानी के नाम पर बहुत समय नष्ट नहीं करती है। पर मुझे वाणी कपूर के लिए सॉरी हमेशा फील होता है। 31 साल की इस एक्ट्रेस के पास ले-देकर अब तक तीन फिल्में हैं। वाणी को फिल्में कब मिलेंगी? जब कोई कपूर सरनेम वाला देश का प्राइम मिनिस्टर बन जाएगा? फिल्में न मिलने से बोर होने वाली वाणी कपूर अपना समय प्लास्टिक सर्जरी करवाकर काटती हैं। वाणी के चेहरे को देखिए। शुद्घ देशी रोमांस में अलग चेहरा, बेफिकरे में अलग और वॉर में अलग। वाणी कपूर के चेहरे पर इतनी प्लास्टिक है कि सरकार को प्लास्टिक बैन की मुहिम वहां से शुरू करनी चाहिए थी। वाणी कपूर के ओंठ दिखाकर यूपीएससी में प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि ये ओंठ किस फिल्म में था। तब तक उनके पास चार फिल्‍में भी हो जाएंगी।

फिल्म में प्लास्टिक सर्जरी सिर्फ वाणी कपूर के चेहरे पर नहीं दिखती। फिल्म का मुख्य विलेन प्लास्टिक करवाकर घूम रहा है। इसे इतना आसान करके दिखाया गया है कि यदि आडवाणी चाहें तो कुछ दिन के लिए नरेंद्र मोदी के चेहरे वाली प्लास्टिक सर्जरी करवाकर पीएम बन सकते हैं। क्योंकि फिल्म ये मानती है कि प्लास्टिक सर्जरी के बाद चेहरा ही नहीं आदमी भी पूरी तरह से बदल जाता है। प्लास्टिक सर्जरी वाले प्लॉट 30 साल पहले आई 'खून भरी मांग' में चौंकाते थे अब बकवास लगते हैं। फिल्म में एक मुस्लिम गद्दार के देशभक्त बेटे का भी बचकाना प्लॉट है। यह एरीटेट करता है। इस हद तक कि इस पर जोक बनाने का मन भी नहीं करता है।

रितिक रोशन का डील डौल, उनका लंबा मुंह, भूरी आंखे, आंखों में लगे काले चश्में, शरीर पर चिपकी गोल गले की टीशर्ट, हवा में उड़ते उनके डाई किए हुए हल्के लाल बाल, ये सब मिलाकर माहौल बनाने में कोई कमी नहीं रखते। एक्‍शन के सीन में वह अच्छे भी लगते हैं लेकिन एक्‍शन के अलावा आप उनसे क्या काम करवा रहे हैं? टाइगर श्राफ कुछ दिनों बाद फिल्मों में आइटम सॉन्ग की तरह एक्‍शन सीन करते दिख सकते हैं। वह एक्‍शन सीन इतनी खूबसूरती से करते हैं कि लगता है कि इनसे बेहतर कोई नहीं कर सकता। वह मदारी के कंधे पर बैठे बंदर की तरह  हैं। जो उतरता है कुछ खेल दिखाता है और फिर से उसके कंधे पर बैठ जाता है। बाकी पूरे खेल से जैसे उसे मतलब ही नहीं। एक इंसान के तौर पर टाइगर कहानी के साथ घुलते-मिलते नहीं हैं। किसी भी फिल्‍म में नहीं। यहां तक कि उनकी सोलो हीरो वाली बागी तक में नहीं।

दो अक्टूबर को रिलीज हुई  इस फिल्म लंबा वीकेंड दशहरा तक चलेगा। फिल्म की पहली दिन की आक्यूपेंसी बताती है कि यह तीन सौ करोड़ कमाएगी। ये अच्छा है। आदित्य चोपड़ा इस फिल्म से इतना पैसा कमा लेंगे कि वह अपनी बीवी के लिए हर साल मर्दानी का सीक्वल बनाते रहें। एक मिडिल क्लास आदमी करवा चौथ पर बीवी को साड़ी देता है, आदित्य चोपड़ा अपनी बीवी को फिल्म देते हैं। भगवान हर बीवी को आदित्य जैसा पति दे। वॉर के साथ अच्छी बात ये है कि यह ठग्स ऑफ हिंदुस्तान, कलंक या साहो जैसा दिल नहीं तोड़ती, वह सिर्फ अपनी लिमिटेशन दिखाती है।

Saturday, September 21, 2019

एक बीवी की निगाह से देखिए कि उसका जासूस पति क्या अहमियत रखता है...


अमेजॉन प्राइम पर स्ट्रीम हुई वेब सीरिज 'द फैमिली मैन' आप देख सकते हैं, बशर्ते इसे एक स्पाई की कहानी के नजरिए से नहीं, बल्कि एक भारतीय मुसलमान, आतंक से लड़ रहे सरकारी सिस्टम और एक स्पाई की बीवी के नजरिए से देखने की कोशिश कीजिए...

"भारत पर कोई आतंकी हमला होने वाला है। जिसके कुछ कोड वर्ड्स हमें मिल गए हैं। हमले के मास्टरमांइड पाकिस्तान या पाक अधिकृत कश्मीर में बैठे हैं। उनके तार अफगानिस्तान, सीरिया, यूएई, सूडान, यूंगाडा जैसे इस्लामिक देशों से होते हुए सोवियत रुस और यूएएस तक पहुंचते हैं। इस खेल में सिर्फ आतंकी नहीं हैं। इसमें सरकार बनाने बिगाड़ने की हैसियत रखने वाले पॉवरफुल लोग हैं, दुनिया भर को हथियार सप्लाई करने वाली कंपनियों के ब्रोकर्स हैं, कई सारे बड़े कार्पोरेट्स हैं। भारत खुफिया एजेंसी के अधिकारी अपनी लगन, समर्पण और कूटनीति से इन चालों को नाकाम कर देते हैं।"  ये सिनेमा का वो प्लाट है जिसे बुनियाद बनाकर दर्जनों हिंदी फिल्में रची जा चुकी हैं।

कहानी के ये प्लाट भी उनके ओरिजनल नहीं रहे हैं। पश्चिम में सेकेंड वर्ल्ड वॉर, यहूदी दमन, ईराक, वियतनाम, अफगानिस्तान, इजराइल फिलिस्तीन युद्घ जैसे बड़े मामलों पर ढेरों अच्छी और बुरी फिल्में बनी हैं। वर्ल्ड वॉर के बाद शुरू हुए कोल्ड वॉर के दौरान जासूसी की दुनिया शुरू होती है। उन फिल्मों का एक अलग जॉनर हैं। श्रीराम राघवन जैसे सक्षम फिल्मकारों ने भी स्पाई और युद्घ फिल्मों के कॉकटेल को मिलाकर सिर्फ संदर्भ बदलकर परोस देने की कोशिश की है। हमारे पास काबुल एक्प्रसेस और फैंटम जैसी भी बेहद घटिया फिल्‍में भी हैं और मद्रास कैफे जैसी बेहतरीन फिल्‍म भी।


 तो क्या अमेजन प्राइम पर स्ट्रीम हुई फिल्म द फैमिली मैन ऐसी ही दर्जनों फिल्मों में से एक है जिसका हीरो भारतीय है और वह भारत के बचाने के मिशन में लगा हुआ है? पहले दो एपीसोड देखकर ऐसा ही लगता है। पर खत्म होते-होते ऐसा नहीं लगता। यह वेब सीरिज तब बड़ी लगने लगती है जब यह आतंकवाद और आतंकवादी बनने की प्रक्रिया को एक नए ढंग से देखने लगती है। इस बार ये बिल्कुल जरुरी नहीं कि आतंकवादी समंदर के रास्ते भारत में घुसे।

फैमिली मैन बताती है कि भारत पर हमला करने के लिए आतंकी यहीं के ही हैं, सिर्फ वहां से प्लान आया है। वह मल्टीनेशनल कंपनियों में काम करते हुए, कॉलेज में पढ़ाई करते हुए, यू ट्यूब में वीडियो देखते हुए, किसी हिंदू प्रेमिका को डेट करते हुए भी वह आतंकवादी बने हुए हैं। वह जन्नत पाने के लिए, कश्मीरियों को हक दिलाने के ‌लिए या बाबरी मसजिद का बदला लेने के लिए आतंक के रास्ते नहीं चले हैं बल्कि वह इसलिए इस राह में है क्योंकि उन्हें अपने ऊपर हो रहे जुल्‍म् का बदला लेना है। वह भारत की सरकारों और यहां के बहुसंख्यक लोगों को सबक सिखाने के लिए ऐसा कर रहे हैं। गुजरात दंगे, गौ हत्या, मॉब लिंचिंग, हिंदू वादी नेताओं के बयान उनकी प्रतिक्रिया के प्रमुख स्रोत हैं।

फिल्म अपने टैग लाइन से ही यह बताने की कोशिश करती है कि यह किसी सत्य घटना से प्रेरित नहीं बल्कि अखबारों में आमतौर पर छपने वाली खबरों से इंस्पायर्ड है। निर्देशक ने कोशिश की है आतंकवाद से लड़ने वाले सिस्टम, सरकारों के पक्ष के साथ उनका पक्ष भी रखा जाए जो कई बार सरकार की निगाह में तो गुनाहगार हैं लेकिन हर बार वह गुनाहगार नहीं होते। वैसे ही जैसे हर बार वह मासूम नहीं होते। कुछ फर्जी एनकाउंटर, मामूली शक में गोली मार देने या घर से उठा लेने जैसी घटनाएं भी फिल्म का हिस्सा बनती हैं और विमर्श के कुछ परागकण को छोड़कर आगे बढ़ जाती हैं।

यह वेब सीरिज आतंकवाद को देखने के नजर‌िए के साथ-साथ इस मायने में भी एक अलग है कि वह अपने जासूस को एक कूल, दिलफेंक, बॉडी बिल्डर की तरह पेश नहीं करती। मौका पड़ने पर वह हवाई जहाज भी नहीं उड़ा  सकता और पानी का जहाज भी। उसका नाम किसी फिल्‍मी के हीरो जैसा नहीं है। एक मीडिल क्लास का आदमी जिसका नाम श्रीकांत तिवारी(मनोज बाजपेई) है इस बार हमारा हीरो है। 'श्रीकांत तिवारी' नाम की अपनी सीमाएं हैं। ना तो वह जेम्स बॉड की तरह फ्लर्ट कर सकते हैं और दूसरा उनका मालूम है कि वह टॉम क्रूज भी नहीं है। उन्हें अपने बच्चों की पैरेंट्स मीटिंग में भी जाना है और किचन में अपनी बीवी की हेल्प भी करनी हैं। श्रीकांत तिवारी के पास ऐसे गुर्दे भी नहीं हैं जो लगातार शराब और सिगरेट पीने से खराब ना हों। श्रीकांत तिवारी को उन्हीं लिमिटेशन में देश भी बचाना है और परिवार भी।


आमतौर पर जासूसों की जिंदगी में बदलती हुई प्रेमिकाएं होती हैं। हॉट और मौकापरस्त।  श्रीकांत तिवारी की जिंदगी में बीवी है। एक बीवी और दो बच्चे । फिल्म की खूबसूरती उस एंगल को एक्सप्लोर करने की है जिस एंगल से श्रीकांत की बीवी अपने पति और उसकी नौकरी को देखती है। फैमिली को लेकर उसकी अवेलबिलटी को जज करती है। उसकी सेलरी की तुलना में उसके काम के घंटे कंपेयर करती है। उसकी पुरानी कार भी फिल्‍म में एक किरदार की तरह है।  एक जासूस की जिंदगी में ये एंगल नए हैं जो इस सीरिज को आतंकवाद पर बनी बाकी फिल्‍म से दूर खड़ा कर‌ते हैं।  श्रीकांत की बीवी के तौर पर तेलगू और मलयालम फिल्म की एक्ट्रेस प्रियमनी कमाल का काम करती हैं।

सुचित्रा अय्यर उर्फ सुचि का उनका किरदार बेहद खूबसूरती, ईमानदारी और सावधानी से लिखा गया है। जिन्हें आतंकवाद, पाकिस्तान, बम और जासूसी की दुनिया में रत्ती भर रुचि नहीं है उन्हें सिर्फ सुचि के किरदार के बदलाव और उसकी लेयर्स देखने के लिए यह फिल्म देखनी चाहिए। अघोषित तौर पर पति से होपलोस हो चुकी सुचि जब अपने एक कलीग की तरफ मुड़ती हैं तब फिल्म का वह हिस्सा अचानक बेहद रचनात्मक और खतरनाक हो उठता है। जिंदगी में कई बार पति और पति दोनों को लगता है कि दोनों की स्ट्रेंथ का सही आकलन एक-दूसरे नहीं कोई तीसरा कर रहा है। फैमिली मैन में ये तीसरा विलेन ना होकर भी विलेन से बड़ी हैसियत रखता है। इसकी हेल्प करने की नियत हमेशा कटघरे में होती है।


सुचि और उसके एक कलीग अरविंद (शरद केलकर)के बीच के ये रिश्ते प्रोफेशनल और प्लूटोनिक प्रेम के होते हैं या जिस्मानी? इसे राज और डीके ने बहुत ही संकेतों में कहने की कोशिश की है। दोनों किस तरह एक-एक स्टेप करीब आते हैं यह दिखाने में निर्देशक ने कई सारे मजेदार सीन गढ़े हैं जो कि बहुत सारे जिम्मेदारी भरी समझदारी लिए हुए हैं। जिन लोगों ने हैपी इंडिग फिल्‍म देखी होगी उन्हें सैफ और इलियाना डीक्रूज के बीच होटल में बने सेक्स रिलेशनशिप का वह सीन याद होगा। इस बार भी होटल है और दो होटल के कमरे के दो किरदार हैं। फर्क यह है कि दोनों मिडिल क्लास से आते हैं और मैरिड हैं।

 लोनेवाला के एक होटल कमरे में बेड पर लेटी सुचि और उसी कमरे के सोफे पर लेटे अरव‌िंद की आधी रात में होने वाली वाट्सअप चैट आपको अलग से बार-बार देखनी चाहिए। चैट के खत्म होने का प्वाइंट, उसके बाद कमरे की हलचल, यहीं सीन का खत्म हो जाना, गाड़ी में बैठे दोनों के सख्त चेहरे फिर बाद में एक लाइन में हुई उनकी चैट वालों हिस्सों को बहुत ही खूबसूरती से फिल्माया गया है। जिसके मायने आप निकालना चाहें तो निकाल लें, निर्देशक साफ-साफ कुछ नहीं कहता।


राज निधिमोरु और कृष्‍णा डीके निर्देशकों की जोड़ी ने इस फिल्‍म को डायरेक्ट किया है। ये सक्षम फिल्मकार हैं। 99, शोर इन द सिटी, गो गोवा गॉन, हैपी इंडिंग, जेंटलमैन और स्‍त्री फिल्मों को यह साथ-साथ निर्देशित कर चुके हैं। निर्देशकों की इस जोड़ी ने पहली बार इस तरह के जॉनर में हाथ आजमाया है। अच्छी बात ये है कि उन्हें अपनी स्ट्रेंथ पता है। वह आतंकवाद या जासूसी फिल्‍मों वाले कोर जोन में जाने की कोशिश नहीं करते। इसके बजाय उनकी कोशिश कुछ नए तरह के किरदार गढ़ने में होती है। राज और डीके की फिल्‍मों के किरदार आपको याद रहते हैं। ये फिल्म जितनी मनोज बाजपेई की फिल्‍म है उतनी ही यह शारिब हाशमी, नीरज माधव, प्रियमनी, दर्शन कुमार की भी फिल्म है।

दस ऐपीसोड वाली यह वेब सीरिज ऐसी जगह पर खत्म होती है जहां पर यह निश्चित है कि इसका सीजन 2 जरुर आना है। गूगल पर सर्च करने पर पता चलता है कि शायद ये तीन सीजन में बनने वाली सीरिज है। तो भातर पर केमिकल हमला हो पाता है या नहीं इसके लिए आपको इसके नए सीजन का वेट करना होगा। भारत पर एक और हमला सेक्रेड गेम्स में भी पेडिंग पड़ा है। सब मिलाकर भारत पर बहुत सारे हमले तो सिर्फ फिल्म इंडस्ट्री के बाकी हैं...

Friday, September 13, 2019

डियर कॉमरेडः यदि आपको कबीर सिंह उर्फ अर्जुन रेड्डी पसंद है तो आपको इसे देखना चाहिए...


हिंदी सिनेमा की कई त्रासदियों में एक त्रासदी ये भी है कि यदि वो आज कॉलेज लाइफ, स्टूडेंट यूनियन, उनकी पॉलिटिक्स, पॉलिटिकल आइडियोलॉजी के मतभेद और उसके इर्द-गिर्द पनप रहे किसी प्रेम की कहानी को कहना चाहे तो उसके पास चेहरे ही नहीं हैं। मोहब्बत करने के लिए आलिया भट्ट तो हो सकती हैं लेकिन उनके लिए कॉलेज कौन जाए?

अधेड़ हो चुके शाहिद कपूर या अधेड़ हो रहे सुशांत सिंह राजपूत? टाइगर श्रॉफ कॉलेज जा तो सकतें हैं, अभी पिछली फिल्‍म में गए भी थे लेकिन वह वहां डांस कर सकते हैं, शरीर की नुमाइश कर सकते हैं, पॉलिटिक्स की लेयर्स या किसी आइडियोलॉजी के चेहरे नहीं बन सकते हैं। अर्जुन रेड्डी के बाद विजय देवरकोंडा की नई फिल्‍म डियर कॉमरेड देखकर लगता है कि साउथ का सिनेमा इस मामले में धनी है। उसके पास कॉलेज जाने वाले हीरो हैं जो इश्क भी अच्छा करते हैं और क्रांति भी।

अर्जुन रेड्डी और अब डियर कॉमरेड के जरिए विजय देवरकोंडा एक ऐसे हीरो की उम्मीद जगाते हैं जो टूटकर प्रेम करना भी जानता है, रुठना भी और प्रेमिका के सामने बिखर जाना भी। कबीर सिंह फिल्म का विरोध करने वाली गैंग को भी डियर कॉमरेड देखनी चाहिए और उन्हें भी जिन्होंने कई दशक तक शाहरुख को प्रेमिकाओं का ख्याल करने वाले हीरो के रुप में पहचाना है। विजय सरसो के खेत में बांहे फैलाकर अपनी प्रेमिका को नहीं भरते ना ही छूट रही ट्रेन में अंतिम समय में हाथ बढ़ाकर अपनी प्रेमिका का हाथ पकड़ते हैं, लेकिन वो जिस तरह से अपनी प्रेमिका को चाहते हैं, वैसा चाहा जाना हर लड़की का सपना हो सकता है। विजय सपनों के हीरो हैं...

डियर कॉमरेड, शुरूआत में कॉलेज यूनियन की पॉलिटिक्स करने वाले एक गुस्सैल नायक की कहानी लगती है। बाद में यह कहानी स्टेल लेवल पर क्रिकेट खेल रही उसकी प्रेमिका की कहानी बन जाती है, जहां नायक सिर्फ उसके अधूरेपन को भरने की कोशिश भर के लिए है।

फिल्म अपने नाम को बहुत जस्टीफाई करने की कोशिश नहीं करती। ना ही वह हॉर्डकोर कॉमरेड या पोलित ब्यूरो की पॉलिटिक्स में घुसना चाहती है। वह कॉमरेड होने के अर्थ को समझाती है पर बिल्कुल आसान भाषा में बिना राजनैतिक हुए...फ़िल्म में रूस और चीन के तमाम सारे कम्युनिस्ट नेताओं की तस्वीरें तो दिखती हैं पर उनकी आइडियोलॉजी को न बताया जाता है न ही ग्लोरीफाई किया जाता है...

यह शुद्घ रुप से एक प्रेम कहानी ही है। एप्रोच के लेवल पर दो अलग-अलग तरह के इंसानों की प्रेम कहानी। कई सारे अवरोधों में लिपटी हुई ऐसी प्रेम कहानी जिसके कुछ हिस्से इन्हीं डिफरेंट एप्रोच के चलते उधड़ जाते हैं और बाद में उन पर तुरपाई भी हो जाती है। इस कहानी के अवरोध कई बार फिल्मी तो लगते हैं लेकिन कुछ अच्छे और नए सीन इन्हें संभालते रहते हैं। फ़िल्म की कहानी एक लिनियर लाइन में नहीं चलती। अंत तक पहुंचने के पहले यह यहां-वहां की कई सारी बातें कहना चाहती है। जिसके मकसद यकीनन रुहानी हैं।

फिल्म का आखिरी हिस्सा बीसीसीआई के जोन क्रिकेट सिलेक्टर के द्वारा एक महिला क्रिकेटर के संग यौन शोषण की कहानी बन जाती है। यौन शोषण करने और उसके छिपाने का तरीका कमजोर है। लेकिन बाद में उसके खिलाफ उठ खड़े होने वाली लड़ाई अच्छी है। इस लड़ाई को लड़ने में दो अलग-अलग लोगों के एप्रोच का कश्माकस ही फिल्‍म की जान है। फिल्म के हीरो के पास अपनी फिलॉसिफी को कहने के लिए बहुत सारे डायलॉग आए हैं। हीरोइन को आखिरी में मौका दिया गया है। जहां उसके ऊपर खरा उतरने का दबाव होता है..

डियर कॉमरेड कई हिस्सों में सिर्फ सिनेमा लगने के साथ ही कई जगह मीनिंगफुल भी लगती है। निर्मल वर्मा की फंतासी और यथार्थ की मिली जुली दुनिया जैसी। फिल्म के गाने समझ में नहीं आते लेकिन सुनने में अच्छे लगते हैं। फिल्म अंग्रेजी सब टाइटिल के साथ अमेजन प्राइम में उपलब्‍ध है। इस फिल्म के पास इतने मसाले हैं कि जल्द ही इसके हिंदी रीमेक बनाने के अधिकार खरीद जा सकते हैं, आप यह फिल्म देख सकते हैं।

सेक्शन 375 : एक ऐसी फिल्‍म जो रेप पीड़ित नहीं शायद रेप आरोपी के नजरिए से बनी है


सेक्शन 375 हिंदी सिनेमा की शायद पहली ऐसी फिल्म है जो रेप के आरोपों में इंटेंशन खोजने की कोशिश करती है... बगैर इस बात से डरे हुए कि उस पर स्‍त्री विरोधी होने का ठप्पा लगने के साथ-साथ वह रेपिस्ट के प्रति सॉफ्ट कॉर्नर रखने वाली फिल्म के रुप में भी दर्ज की जाएगी।

सेक्‍शन 375 रेपिस्ट मानसिकता को जस्टीफाई करने की कोशिश नहीं करती लेकिन वह इस बात को कहने का इरादा जरुर रखती है कि रेप और यौन शोषण का हर आरोप जरुरी नहीं कि हर बार सही ही हो। इस आरोप की कुछ 'दूसरी वजहें' भी हो सकती हैं। फिल्म उन दूसरी वजहों में घुसने की खतरनाक कोशिश करती है।
फिल्म मानती है कि रेप की सजा इतनी कठोर है, उसके लेकर कानून इतने एकपक्षीय हैं कि कई बार उन कानूनों का प्रयोग अपने 'दूसरे सेटलमेंट' के लिए भी किया जा सकता है। ऊपरी तौर पर सेक्‍शन 375 एक थ्रिलर कोर्टरुम ड्रामा है, लेकिन अंदर घुसने पर आप पाएंगे कि यह फिल्म हाल ही में ट्रेंड हुए मीटू मोमेंट को काउंटर करने के लिए बनाई गई है। पूरे मीटू अभियान पर इसे पीड़ित पुरुषों की तरफ से आए पक्ष के रुप में भी देखा जा सकता है।

अजय बहल के निर्देशन वाली यह फिल्म कई लोगों को विकास बहल की असल जिंदगी पर बनी फिल्म लग सकती है। विकास बहल पर उस समय मीटू का आरोप लगा था जब वह सुपर हिट वेब सीरिज सेक्रेड गेम्स के पहले पार्ट के बाद दूसरे पार्ट की शूटिंग कर रहे थे। आरोप के बाद विकास को उस प्रोजेक्ट से अलग कर दिया गया था। विकास अभी कुछ समय पहले बरी हो गए हैं।

अकेले विकास नहीं कई सारे फिल्मी दुनिया के लोग इन आरोपों से बरी हुए हैं। आरोप लगने की खबरों पर प्राइम टाइम हुए, स्पेशल सेप्‍लीमेंट छपे लेकिन बरी होने की खबरें सिंगल कॉलम में सिमट गईं। मीटू के सबसे ज्यादा आरोप भी फिल्म इंडस्ट्री से ही आए थे। यहां पर यह जानना जरुरी है कि अजय बहल और विकास बहल भाई-भाई नहीं हैं। वैसे ही जैसे मोहनीश बहल इन दोनों के ताऊ नहीं हैं। और कनू बहल इसमें से किसी के कजिन नहीं हैं।

घटनाओं को जर्नलाइज करके देखने वाली महिलाओं को एक झटके में यह फिल्म महिला विरोधी लग सकती है। यह तर्क आ सकता है कि यह फिल्म उन लड़कियों के खिलाफ खड़ी है जो कुछ एंबीसन और सपने रखती हैं।आगे बढ़ने के लिए उनका एप्रोच पर कई बार कंजरवेटिव ना होकर लिबरल और प्रै‌क्टिकल होता है। लिबरल शब्द तलवार की धार जैसा है। इसका मिस इंटरप्रिटेशन हमेशा से होता आया है, लोग अपने अनुसार इस दोहरा उपयोग करके गिरते गिराते रहे हैं।

फिल्म का बैकड्रॉप एक मशहूर निर्देशक और एक कॉस्ट्यूम डिजाइनर के बीच बने शारीरिक संबंध की कहानी पर आधारित है। आरोप यहां रेप का है। रेप करने वाला ताकतवर जमात का है और पीड़ित कमजोर वर्ग की। दोनों वर्गों का यह आर्थिक अंतर भी फिल्म में एक किरदार की तरह चला करता है। फिल्म इस बात को कहने की कोशिश करती है कि कई बार आपका प्रिवेल्जड होना भी एक बड़े तबके लिए आपके विरोध में खड़ा होने के लिए काफी होता है। फैसला आने से पहले ही रेप आरोपी के खिलाफ फेसबुक और ट्विटर पर हैशटैग बनकर ट्रेंड कर रहे होते हैं। मीडिया ट्रायल में उसे दोषी पाया जा चुका होता है।

इंटरवल तक यह फिल्म रेप की एक कहानी और उस पर हुए फैसले को दिखाती है। इंटरवल के बाद फिल्म चाहती है कि आप अपने को रेप पीड़ित से इमोशनली डिकनेक्ट करके दूसरे फैक्ट देखने की कोशिश करें। इन दूसरे फैक्ट में रेप का आरोपी कोई दूध का धुला इंसान नहीं है। वह दुनिया भर के ऐब रखता है। अपनी पत्नी को चीट करता है। एक नहीं कई सारी लड़कियों के साथ शारीरिक संबंध बनाता है। अपनी पोजिशन का उपयोग करते हुए उनकी आवाज दबाता है। लेकिन वह रेपिस्ट नहीं है। वह सेक्स करता है, रैंडम करता है, बिना इमोशनल कनेक्‍शन के करता है लेकिन सामने वाली की मर्जी से करता है, रेप नहीं करता।

फिल्म चाहती है कि न्यायालय उसके इन सब ऐबों पर उसे सजा दें ना कि रेप के आरोपों पर। फिल्म का क्लाइमेक्स इंडियन पीनल कोर्ट और भारत के ज्यूडीशिरी सिस्टम की सीमाओं पर व्यंग्य करता है। दो जजों की ज्यूरी इस बात को लेकर कन्वींस हो जाती है कि यहां पर रेप के आरोप बदला लेने की नियत से लगाए गए हैं लेकिन चूंकि सेक्‍शन 375 में इसको लेकर कुछ डिफाइन किया गया है इसलिए इसे रेप ही माना जाए। इस फिल्म को देखने के बाद उन लोगों को सुधीर मिश्रा की फिल्म इंकार भी देखनी चाह‌िए। ये मीटू मोमेंट के आने से पहले की फिल्म है। जो मर्जी से सेक्स और उसके बाद के आरोपों की कहानी को शानदार तरीके से कहती है।

अभिनय भी फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष है। अक्षय खन्ना ग्रे शेड के किरदारों में कमाल लगते हैं। कानूनों को समझने वाले एक ग़ैरभावुक वकील के किरदार को उन्होंने शानदार निभाया है। रिचा चड्ढा अपनी इस फिल्म से साबित करती हैं कि उनकी अपनी सीमाएं हैं। रिचा की जगह यहां कोई और होता तो बेहतर करता। आमतौर पर ग्लैमरस रोल करने वाली मीरा चोपड़ा यहां रेप पीड़ित लड़की के किरदार में प्रभावित करती हैं। फिल्म का अंतिम डायलॉग कि 'हम जस्टिस के नहीं कानून के बिजनेस में हैं' देर तक आपके कानों में गूंजता रहता है। ये फ़िल्म देखी जानी चाहिए। देखने से ज्यादा इस पर चर्चा की जानी चाहिए...

Monday, August 19, 2019

सीक्रेड गेम्स 2: ये फिल्‍म गायतोंडे के ल‌िए नहीं गुरू जी के लिए देखिए



सेक्रेड गेम्स का दूसरा सीजन तमाम सारे सवालों का जवाब देने के लिए पैदा हुआ है। पर ये बिल्कुल जरुरी नहीं है कि आपको जवाब उतने ही भव्य लगें जितने भव्य और रहस्यमयी सवाल लगे थे। 'कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा' इसका उत्तर इस प्रश्न की भव्यता के आगे बहुत बौना और घिसा-पिटा हो गया था। सेक्रेड गेम्स सीजन 1 में चूंकि सवाल कई सारे थे इसलिए उनके हर जवाब जरुरी नहीं  ‌कि सवाल जितनी ही कैपासिटी में खुद को दर्ज करा पाए हों। कहीं-कहीं उनके उत्तर जल्दबाजी में दे दिए गए लगते हैं तो कहीं-कहीं उन्हें और उलझा दिया गया मालूम होता है। ट्ववीटर की कुछ प्रतिक्रियाएं इशारा करती हैं कि इस बार हर किसी को चरमसुख का अनुभव नहीं हुआ है।

25 दिन में दुनिया तबाह होने के मुख्य प्रश्न के साथ कई और सेम्पलीमेंट्री प्रश्नों का जवाब देने के लिए बनाई गई ये फिल्म उत्तर देते-देते कई बार थक भी जाती है। सिर्फ उत्तर देने के लिए बेवजह के सीन जोड़कर आपको और थकाने और उबाने के बजाय सीजन 2 आपके लिए कुछ नए किस्से गढ़ता है, कुछ नए किरदार खड़ा करता है, कुछ पुराने किरदारों में चमक पैदा करता है और चमकदार किरदारों को धु्ंधला करता है।

 फिल्म की मंशा है कि आप पहले सीजन के सवालों वाले हैंगओवर से उतरें और कुछ नए सवालों और किरदारों को अपने रुह में जगह दें। त्रिवेदी बचा या मर गया इस प्रश्न के उत्तर से लाख गुना बड़ा प्रश्न ये है कि गुरू जी का नेक्सस इतना बड़ा कैसे बना? कैसे दुनिया को खत्म करने का काम इतनी सहजता से कर पा रहे थे? यह सीजन सीधे तौर पर नहीं लेकिन बिटविन द लाइन बहुत कुछ कहने की कोशिश करता है। जिसे शायद सीधा कहा भी नहीं जा सकता है। जो घोर राजनीतिक है और घोर सांप्रदायिक भी।


फिल्म की कहानी को कहने का तरीका पिछली बार वाला ही है। बारी-बारी से गणेश गायतोंडे का अतीत और उसके मर जाने के बाद चल रही जांच के दृश्य आगे-पीछे चलते रहते हैं। सीजन 2 में एक बदलाव हुआ। गणेश गायतोंडे का हिस्सा तो अनुराग कश्यप के पास ही रहा लेकिन वर्तमान के इन्वेस्टीगेशन और सरताज वाले हिस्से के डायरेक्टर विक्रमादित्य मोटवानी की जगह नीजर घेवान बन गए। मोटवानी के पास इस बार दोनों शूट्स को क्रम से लगाने और एडिट करने का जिम्मा था। यह बदलाव दिखेगा। लेकिन इसे महसूस तब कर पाएंगे जब आप सीजन 2 के तुरंत बाद सीजन 1 भी देखने बैठ जाएं।

अगर आप फिल्म देख चुके होंगे तो पाएंगे कि सीजन 2 गायतोंडे के किरदार को हल्का करने का बड़ा रिस्क लेता है। खुद को भगवान मानने वाले उस इंसान को इस बार भ्रम में उलझा हुए एक आम इंसान बनाकर दिखाया गया है। एक इंसान जो सरवाइव करने के लिए कदम-कदम पर समझौते करता है, दूसरे के हाथों में खेलता है। उसके बदलाव की यह यात्रा उसके बने बनाए ग्लैमर को नोचती- घसोटती तो है लेकिन उसी समय फिल्म गायतोंडे के किरदार की सारी लेयर्ड उतारकर गुरू जी को पहनाकर उन्हें ताकतवर बना रही होती है।


 सीजन 1 में  जो सम्मोहन गायतोंडे के पास था 2 में अब वह गुरू जी के पास है। गुरू जी की दुनिया गायतोंडे के दुनिया से अलग और ज्यादा मायावी है। गुरू जी की 'कैलकुलेटिव नीचता' के आगे गायतोंडे की 'बाचाल नीचता' मासूम लगी। योगेंद्र यादव वाली मीठी स्टाईल में कही गई उनकी बातें गायतोंडे की गालियों से ज्यादा भद्दी लगती हैं। गुरू जी कायनात देखकर गायतोंडे की गैंग के छोकरे एक स्कूली गैंग वाले लड़के लगने लगे। जो छोटी-छोटी बातों में उलझे हुए हैं। बड़ा काम तो गुरू जी कर रहे हैं। सेक्रेड 2 अपनी बातें और फिलॉसिफी गुरू जी के प्रवचनों के द्वारा कहने की कोशिश करती है। एक सम्मोहन सा है उनकी बातों में, एक जादू और एक तिलिस्म। एक समय ऐसा भी आता है जब आडियंश गुरू जी से सहमत होने लगती है। सहमति होने के उन लम्हों में आते हैं राम रहीम, आशाराम, उनके अनुयायी, उनकी मानस पुत्रियां, उनकी शिष्याएं,  कंडोम और सेक्स वर्द्वक दवाओं के जखीरे। फिर गायतोंडे जैसा हमारा भी मोहभंग होता है।

इस दुनिया को नष्ट करके और फिर से नई दुनिया बनाने के बचकाने ख्याल और सपने पालने वाले गुरू जी अपने इर्द-गिर्द ताकतवर लोगों का एक गिरोह जमाकर कर चुके हैं। ब्रेशवॉन शब्द का इस्तेमाल गुरू जी जानते हैं। उनके अनुयायियों में आईएसआईएस का प्रमुख शाहिद खान भी है और मासूल दिल वाला दिलबाग सिंह भी। गुरू जी धर्म से उपर उठ चुके हैं। दुनिया को नष्ट करने में सभी धर्म के लोग उनके साथ हैं। सभी को गुरू जी उसकी लियाकत के अनुसार जिम्मेदारी देते रहते हैं। ‌इन जिम्मेदारियों में उस ड्रग को बेचना भी है जिसे उनके आश्रम में बनाया और खपाया दोनों जाता है।

अपने इस पाप को वो किस तरह से शब्दों और फिलॉसिफी के जर‌िए जस्टीफाई करते हैं फिल्म उसे दिखाने में कई तरह की तरकीबों का सहारा लेती है। फिल्म गुरू जी पर कहीं पर भी आक्षेप नहीं लगाती है। आपको खुद गुरू जी को समझाना होता है। फिल्म बस उन्हें वैसा पेश कर देती है जैसे वे हैं। वो अपनी मंशा छिपाते भी नहीं हैं। किसी को अपने साथ बने रहने की जोर-जबरदस्ती भी नहीं करते हैं। गुरू जी के हिस्से सबसे अधिक संवाद भी आए हैं। इनकी लिखावट बेहद शानदार है। कई जगह तार्किक और नई सी भी। इस‌लिए उनकी हर बात को हवा में उड़ा देने की हिम्मत ना तो हमारी होती है ना ही फिल्म की।


इस बार फिल्म के पास राजनीति और धर्म पर कटाक्ष करने के लिए बहुत सारे वन लाइनर हैं। राजनीति की विडंबनाओं वाले सारे वन लाइनर इस बार अतीत में नहीं हैं, आज का वर्तमान भी फिल्म में खूब है। फिल्म राजीव और इंदिरा गांधी का नाम तो खुलकर लेती है वर्तमान में जो घट रहा है उस पर चोट करने में वह रुपक का सहारा लेती है। कई बार रूपक मुसलमान बनते हैं, कई बार राम मंदिर, कई बार दंगे और कई बार सत्ता। राजनीति और धर्म इन दिनों जैसे शक्‍कर और रुहआफजा की तरह घुलकर मीठे शर्बत बना रहे हैं, वाट्सअप के जरिए आप उस शर्बत को गटागट पी रहे हैं फिल्म की नजर उस पर अच्छी है, ओछी नहीं।

2019 में हिंदू और मुसलमान दोनों को लगने लगा है कि दोनों एक दूसरे से पीड़ित हैं। ये एहसास सीक्रेड गेम्स के दूसरे सीजन में कई जगह पर होता है। एक जगह पर माजिद का किरदार कहता है कि 'मुसलमान वह जिसे कुछ लोग यूज करें और बाकी उस पर शक करें'। या एक और मुसलमान किरदार कहता है कि 'मुसलमान को उठाने के लिए कोई वजह चाहिए आपको? एक सीन में हिंदुओं की तरफ से जवाब  भी आता है 'एक समुदाय पूरे शहर में इतना घुस गया है कि.... और आप सेक्युलर-सेक्युलर कर रहे हैं'


लिखावट के बाद फिल्म का सबसे वजनदार पक्ष उनका अभिनय है। सिर्फ लाश के रुप में सीजन एक में दिखने वाली सुरवीन चावला ने इस सीरीज में बेहद खूबसूरत अभिनय किया है। गायतोंडे के साथ फोन पर होने वाली उनकी बातचीत को अलग से सुना जाना चा‌हिए। सुरवीन के करियर का ये अब तक का सबसे मजबूत किरदार है। अमृता सुभाष अनुराग की प्रिय हैं। रमन राघव में नवाजुद्दीन की बहन का किरदार करने वाली अमृता इस बार रॉ एजेंट बनकर कमाल लगती है। कल्कि कोचलीन का किरदार सामान्य है। इसे किसी और से भी कराया जा सकता था। नवाजुद्दीन शिद्दकी की तरह ही सैफ अली खान के बगैर इस सीरिज की कल्पना नहीं हो सकती है। निराश करने वाले लोग कम हैं। रणवीर शौरी के पास पद बहुत बड़ा है लेकिन उनका रोल जरा सा। वो जरुर निराश करते हैं। साथ ही फिल्म का क्‍लाइमेक्स भी जो एक और सीजन की राह खोल देता हे।

तो ये दुनिया फिलहाल दो तरह के लोगों में बंटी हुई है। पहले वे जिन्होंने सेक्रेड गेम्स सीजन 2 देखा है और दूसरे वो जो इसे देखना चाहते हैं। आपको चाहिए कि आप भी जल्दी से पहले वाले लोग बन जाएं। आपको ये सीरिज देखनी चाहिए।

Friday, August 9, 2019

आपको भी याद आती हैं 'इमेज' को दांव पर लगाकर देखी गई वो फिल्में?


मेरी जिंदगी में 'कली हूं फूल बना दो' का पोस्टर एक नई सुबह लेकर आया था। इस पोस्टर को मैंने अपने साथ करीब सौ लोगों के साथ खड़े होकर दीवार पर लगते हुए देखा था। इसके पहले होता ये था कि रात में पोस्टर चिपक जाते और हम अगली सुबह बदली हुई फिल्म का पोस्टर देखते। पोस्टर चिपकते कैसे हैं ये हमने कभी नहीं देखा था। ये एक बड़े साइज का पोस्टर था जिसे लगाने के ‌लिए एक रिक्‍शा से दो आदमी, एक सीढ़ी, पोस्टर का एक बंडल, आटे की लेई की एक बाल्टी और पुताई करने वाली एक कूंची को लेकरआए थे। चार हिस्सों में बटे हुए पोस्टर को करीब पांच मिनट में सिरे से सिरे जोड़कर लगाया गया। जब ये रिक्‍शा आगे चला गया तो हमारे सामने 'कली हूं फूल बना दो' का जीवन बदल देने वाला विहंगम दृश्य था। ये बारहवीं क्लास में सर्दियों के दिनों की बात थी। एक ऐसा कस्बा जहां फिल्में हर शुक्रवार के हिसाब से नहीं कभी भी बदल जाया करती थीं।

दसवीं में मैंने बॉटिनी के ज्यादातर हिस्से बेमन से पढ़े थे। 'कली के फूल' बनने का प्रोसस वहां मुझे ठीक से क्लीयर नहीं हो पाया था, लेकिन ऐसा भी नहीं था कि मुझे उसके फंडामेंटल ही न पता थे। इस पोस्टर में कोई फूल नहीं था और कोई कली भी नहीं। साइंस से जुड़ी संस्‍थाएं इस पोस्टर को खारिज कर सकती थीं। यहां कली और फूल के बजाय एक अधेड़ आदमी एक औरत में समाने की कोशिश कर रहा था। महिला के चेहरे से लग रहा था कि इसमें उसकी स्वीकृति है और वह ऊपर की ओर देख रही थी। दोनों खुश थे। पुरूष की शकल तो नहीं दिख रही थी लेकिन उसकी पीठ देखकर अंदाजा लगाना आसान था कि वह महिला से ज्यादा खुश था।

 पोस्टर में कई छोटे-छोटे चित्र और थे। एक में एक मोटी सी लड़की नहाने का उपक्रम कर रही थी, एक ओर एक मोटा सा आदमी कोने में बंदूक लिए खड़ा था, एक आदमी एक खूब वजन वाली एक महिला का एक पैर अपने हाथों से थामें हुए था, दूसरे पैर के पंजे नहीं दिख रहे थे, लेकिन उसका दूसरा पैर भी था। एक महिला ब्लाउज में थी और किसी से डरने की ऐक्टिंग कर रही थी, डराने वाले को पोस्टर में जगह नहीं मिल पाई थी। पोस्टर देखने की एक सीमा थी। ये एक चौराहा जैसा था जहां से हमे एक वक्त के बाद हटना ही था। हम हट तो गए लेकिन उस पूरा दिन मैं बॉयोलोजी को ठीक से न पढ़ने और 11वीं में गणित लेने के रिग्रेट में रहा।

शोले, दीवार, अनोखा बंधन, प्यार झुकता नहीं, बॉर्डर, कुली नंबर 1, फूल और कांटे, मैंने प्यार किया से इतर भी कोई सिनेमा बन रहा है ये मेरी जानकारी में पहली बार इसी फिल्म के जरिए आया था। ये 21वीं शताब्दी का पहला साल था। देश में अटल बिहारी बाजपेई की सरकार थी, कश्मीर के लोग धारा 370 के साथ घुट रहे थे। इंटरनेट नाम की कोई चीज जिंदगी और सरकार तक तय करेगी ये तब मालूम नहीं था। साथियों के मुंह से अब तक गंदी फिल्में, ब्लू फिल्में जैसी शब्द सुने  जरुर थे लेकिन असल में वह किस तरह से हो सकते हैं दिमाग इसको विजुलाइज नहीं कर पाया था। किसी से पूछा नहीं जा सकता था कि ये कैसी फिल्म है। इसमें दरअसल होता क्या है। चुप रहकर उस पोस्टर के बारे में सोचते रहने के अलावा और कोई जरिया नहीं था।

कोई कामना यदि सच्‍चे मन से की जाए तो वह पूरी होती है। ये सूक्ति सुनी बाद में, इसके लाभ जीवन में पहले ही मिल गए थे। इस पोस्टर के लगे कोई दो से तीन सप्‍ताह हुए होंगे। घोर सर्दियों के दिन थे। स्कूल के कोई ट्रस्टी मर गए थे। कांडोलेंस हुआ था। जिस जगह कली हूं फूल बना दो पोस्टर था उस जगह उस दिन 'कच्ची जवानी' फिल्म का पोस्टर था। इसका साइज जरुर छोटा था। लेकिन उसका कंटेट कहीं ज्यादा असर करने वाला। मारक और तीखा। फिल्म का नाम भी खुद से कनेक्ट करने वाला। पहले पीरियड के बाद छुट्टी हो जानी थी। ये बात बारहवीं में कई सालों से फेल हो रहे बच्‍चों को (उनको बच्चे लिखना राहुल गांधी को युवा लिखना जैसा ही झूठ है) पहले से पता था। पहले पीरियड से ही उनका फिल्म का प्रोग्राम बन गया था। मैंने उस प्लान में शामिल होने की इच्छा जताई। वो मेरी जिंदगी का पहला रिस्क था। यहां इमेज बिगड़ने का नहीं खत्म हो जाने का संकट था। लेकिन उन पोस्टरों में कुछ ऐसा था जो जिसके सामने रिस्क एक मामूली शब्द था।

जब मैंने उनसे कच्ची जवानी देखने की इच्छा जताई तो उन्होंने अपनी बॉडी लैंग्वेज से बिल्कुल भी ये नहीं लगने दिया कि मैं कोई गलत काम करने जा रहा हूं। उन्होंने ऐसा जताया कि बार्डर सरीखी कोई फिल्म देखने जा रहा हूं, जो राष्ट्रहित में भी है। बजाय मुझे अपराध बोध में डालने के उन्होंने मुझसे मेरे हिस्से के 12 रुपए मांगे। मैं अब तक गिल्ट फ्री हो चुका था। मुझे संक्षेप में वहां पहुंचने का प्लान बताया गया। मेरी हर बात में सहमति थी। वो अगर कुछ और मुझसे लिखवा लेते तो कच्ची जवानी के लिए एक छोटी कीमत थी। हम साइकिलों से शार्टकर्ट रास्तों से इस नई तरह की जवानी को देखने के लिए सिनेमाघर पहुंचे। इस सिनेमाघर का अभी कुछ साल पहले से ही गोव‌िंदा, सन्नी देओल जैसे कलाकारों से मोहभंग हुआ था। अब यहां रियल दुनिया की बातें रियल तरीके से होतीं। जैसे छोटे बच्चों को गुमराह किया जाता है कि कोई परी उन्हें लेकर आई थी जैसी नॉन प्रैक्टिकल बातों से इस सिनेमाघर की असहमति थी। वह सच्चाई के साथ था और जीवन की सच्चाई को सबके सामने रखना चाहता था।

अब वहां पहुंचे तो हमने पाया कि 11वीं के गौरव, शुभम और राकेश भी यहीं हैं और दसवीं के आर्ट साइड का आधा बैच ही। जैसे दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल मफलर बांधते हैं वैसे कई केजरीवाल चेहरे को मफलर से कसे हुए सिनेमाहॉल की लॉबी में टहल रहे थे। कोहरा छटने के बाद धूप खिली हुई थी। लोगों के स्वेटर उतर गए थे लेकिन मफलर नहीं। स्कूली लड़कों, कुछ युवाओं और अधेड़ के साथ एक बड़ी संख्या रिक्‍शा वाले यहां थे। रिक्‍शे वालों को छोड़कर कोई भी आत्मविश्वास से लॉबी में नहीं टहल रहा था। सभी एक-दूसरे को भरपूर सम्मान दे रहे थे और कोई किसी की आंखों में झांक नहीं रहा था। सब सिनेमाहॉल के शटर खुलने का इंतजार कर रहे थे। फिल्म शुरु होने में उनको जल्दबाजी नहीं थी उन्हें डर था कि कहीं कोई परिचित न मिल जाए। तब तक इतने तर्क नहीं विकसित हुए थे कि हम भी पलटकर पूछ लेते कि मैं तो देखने आया हूं लेकिन आप यहां क्या कर रहे हैं? हर उम्र की अपनी अल्पज्ञता और संकोच होते हैं।

गेट खुलते ही पेट में एक तरंग सी दौड़ गई। मुझे लगा कि रोमांच के नए सागर में गोता लगाने जा रहा हूं। नए लोग तुरंत ही सिनेमाहॉल के अंदर घुसकर सीट लेने में उत्साहित दिखे पर कुछ अनुभवी हॉल के अंदर लगे छोटे-छोटे पोस्टरों में कच्ची जवानी को लूट लेना चाहते थे। सीनियर की प्लानिंग के अनुसार हम फैमिली में ही बैठे और कोने की सीट ली। पहलवान छाप साबुन के विज्ञापन के बाद फिल्म शुरु हुई। पूरे पर्दे पर नहीं बल्कि पर्दे के बीचो-बीच के हिस्से में। कुछ क्‍लीयर नहीं था। फिल्म से ज्यादा उसमें जलेबियां गिर रही थीं। कुछ साउथ का बैकग्राउंड दिख रहा था। हम नए लोग जल्दबाजी में थे लेकिन अनुभवी लोग जानते हैं कि असली फिल्म कब शुरू होनी है...वो तब तक पिछले फिल्म के किस्से दबी आवाज में आपस में शेयर कर रहे थे। हम डर के काम कर रहे थे और यकीनन इस डर के आगे जीत भी नहीं थी।

(नाम ना छापने की शर्त पर एक अनाम पाठक का अनुभव, आप भी अपनी राय और अनुभव हम तक भेज सकते हैं )

Friday, July 26, 2019

कोटा फैक्ट्रीः फिल्म जो आपको शायद कुछ अनदेखी चीजें दिखाने की कोशिश करती है

TVF या AIB जैसी प्लेटफॉर्म्स से फूटने वाली हंसी ज्यादातर मौकों पर गैरसंस्कारी, गैरसामाजिक और 'बालिग' साबित की जाती रही है। इससे कभी फर्क ही नहीं पड़ा कि उसके सेंस ऑफ हॅयूमर की IMDb रे‌टिंग धवन, प्रियदर्शन, वोरा या शेट्टी पैटर्न से निकली बनावटी और रिपेटेटिव फिल्मों से ऊपर होती है।

पांच एपीसोड वाली वेब सीरिज 'कोटा फैक्ट्री' से टीवीएफ ने शायद अपनी इमेज को बड़ा और 'जिम्मेदार' बनाने की कोशिश की है। यह फिल्म इंजीनियर बनाने की मंडी कोटा की कहानी को बगैर फिल्मी या हीरोइक बनाए उसे शानदार तरीके से दिखाने में सफल होती है।

अपनी मूल किस्से में कोटा फैक्ट्री किसी गुदड़ी के लाल के हीरो बन जाने की या कोचिंग मंडी की पोल खोलने जैसी बचकाने कहानी कहने की कोशिश नहीं करती। ना ही कोचिंग मंडी के किसी संचालक को विलेन बनाने की चाह रखती है। वो सिर्फ मीडिल क्लास, अपर मीडिल क्लास से आए कुछ बच्चों के जरिए सपनों और यथार्थ का एक फिलासिफिकल सिनेमा गढ़ने की कोशिश करती है। जिस फिलॉसिफी में मनोरंजन भी भरपूर है। छात्रों की इस दुनिया में सुपर 30 जैसे अमीर-गरीब, दलित-सवर्ण वाले इक्वेशन नहीं हैं।

दसवीं या ग्यारहवीं पास करके दूसरे शहर से पहली बार इस शहर में आया एक अजनबी बच्‍चा कैसा अपना परिवेश खुद तैयार करता है। सिगरेट-शराब जैसी आदतों से खुद को बचाता या अपने को इनवॉल्व करता है। कैसे उस नए परिवेश में वह सहज होता है। कैसा वह सरवाइव करने वाले कुछ नुस्‍खे और चालाकियां सीखता है। कैसे सा‌थ पढ़ रही लड़कियों के संग मोहब्बत की शुरुआत करता है। कैसे छोटे-छोटे फेल्योर और एचीवमेंट पर टूटता या संवारता है। बस इन्हीं बातों के इर्द गिर्द या पूरी सीरिज चला करती है। कहीं कोई बड़ी घटना या ड्रामा का अतिरेक नहीं। कोई विलेन नहीं तो कोई हीरो भी नहीं।

फिल्‍म में कोटा शहर, उसकी कोचिंग मंडियां, टीचर्स, हॉस्टल, मकान मालिक, चाय की दुकानें, इश्क सब बराबर भी हैं और संतुलित भी। कैमरा या स्क्रिप्ट किसी एक खास चीज को टटोलने की कोशिश नहीं करता। हॉस्टल के कमरे को बस उतने ही सरसरी निगाह से देखने की कोशिश की गई है जैसी निगाह से कोई सोहल-सत्रह बरस का बच्‍चा उसे देख सकता है। 'ऑब्जरवेशन के निर्मल वर्मा स्टाइल' से ना तो हॉस्टल के उस कमरे को देखा गया है और ना ही किरदार। फिल्म का पूरा फोकस किरदारों की बदल रही जिंदगियों के साथ आगे बढ़ रही कहानी पर होता है। कुछ कमाल या धमाल घटनाएं फिल्म में नहीं है लेकिन एक भी लम्हा ऐसा नहीं है जिसे आप फिल्म में गैरजरुरी मानें।

मेनस्ट्रीम सिनेमा की सबसे बड़ी विडंबना ये है कि ये कभी मीडियॉकर या एवरेज आदमी की कहानी ही नहीं कहता। या कहता भी है तो कहानी कहते-कहते उसे बड़ा बना देता है। ज्यादातर मौको में उसके लिए फिल्म का हीरो या तो बहुत गरीब होता है या फिर एक्सट्रा टैलेंटेड अमीर या कोई नई कैटेगरी। कोटा फैक्ट्री अपने बच्‍चों के साथ ऐसा नहीं करती। हाल ही में लगभग इसी विषय पर आई सुपर 30 से उलट यह फिल्म हर स्टूडेंड को सिर्फ एक खांचे में रखने की कोशिश करती है। जहां स्टूडेंट की जाति इतना निरर्थक सवाल है कि आपस में बच्‍चों को पता ही नहीं होता कि वह जिसे जिस नाम से बुला रहे होते हैं वह उनका इनीशियल है या सरनेम।

कोटा फैक्ट्री का एक और सबसे मजबूत पक्ष किरदारों की शानदार ऐक्टिंग है। लीड किरदार कर रहे मयूर मोरे ने एक इंजीनियरिंग छात्र की उलझनों को खूबसूरती से जिया है। नए-नए बने प्रेम को वह बहुत ही सहज तरीके से पर्दे पर उतारते हैं। टीचर का किरदार करने वाले जीतेंद्र कुमार से आप वाकिफ हैं। टीवीएफ के बहुत पुराने वीडिया में उन्होंने अरविंद केजरीवाल से प्रेरित अर्जुन केजरीवाल का किरदार निभाया था। टीवीएफ के बहुत सारे वीडियो में वह नजर आए हैं। फ़िल्म में उनके वन लाइनर भी अच्छे हैं और मोनोलॉग भी। एहसास छन्ना, रंजन राज और उर्वी सिंह के रोल देखकर लगता है कि ये कोटा के स्‍टूडेंट हैं, आप जाएंगे तो आपको वो वही टकरा जाएंगे।

इस फिल्म के कुछ खूबसूरत डायलॉग पढ़िए, आपका फिल्म देखने का मन बनाने के लिए ये काफी होंगे। वैसे ये फिल्म आपको देखनी चाहिए। पूरी फिल्म कलर्ड न होकर ब्लैक एंड व्हाइट है। क्यों है इसके लिए शायद गूगल करना पड़े।

"कोई पूछेगा तो बताएंगे कि बेटा आईआईटी की तैयारी कोटा से कर रहा है, कहने में कूल लगता है"

"बच्चे तो दो साल में कोटा से निकल जाते हैं, लेकिन कोटा सालों तक उनसे नहीं निकलता"

"दोस्ती कोई रिवीजन नहीं है जिसे किया ही जाए"

"मां-बाप के फैसले गलत हो सकते हैं, उनकी नियत कभी गलत नहीं होती"

"तुम अमीर लोग किसी भी दिन केक खा लेते हो क्या "

"महिला मित्र तो उनकी है पर स्नेह ज्यादा मुझसे करती है"

"इफ यू आर स्मार्टेस्ट इन द क्लास, इन मीन्स यू आर इन रॉन्ग क्लास "

लैला फिल्‍म देखिए, कुछ डर हैं जो आपको बेहतर इंसान बना सकते हैं


कबीर सिंह जैसे मीनिंगलेस सिनेमा के बीच इन दिनों लैला जैसा मीनिंगफुल ऑप्शन भी आपके लिए मौजूद है। नेटफ्लिक्स पर ये वेब सीरीज भले ही सीक्रेट गेम्स या मिर्जापुर जैसी चर्चा न बटोर पा रही हो पर ये एक देखी जानी वाली फिल्म है।

फ़िल्म अघोषित रूप से एक पोलिटिकल टोन लिए हुए हैं। राइट विंगर्स को शायद फ़िल्म का विषय हाइपोथिटिकल लगने के साथ खुद को टारगेट करने वाला भी लगे। फ़िल्म एक डर पैदा करने में सफल होती है। ये डर राजनीति में धर्म के मिश्रण का है।

ये डर देश के बहुसंख्यक लोगों के श्रेष्ठ होने का है, ये डर ऊंची जातियों के खुद को ऊंचा मानने का है और ये डर अल्पसंख्यक को नीच और घटिया मानने का भी है। ये डर दिखता है कि यदि भारत लिंचिंग के हादसों को ऐसे ही सेलिब्रेट करता रहा, और राम का नाम पुजारी से ज्यादा हत्यारे लेने लगे तो ये आने वाले समय में ये देश 'आर्यावर्त' की शक्ल ले सकता है।

फ़िल्म में आर्यावर्त देश की कहानी कही गई है। जो आज से करीब 30 साल आगे की कहानी है। ये एक काल्पनिक देश की कहानी जरूर है लेकिन फ़िल्म पूरा संकेत देती है कि ये कहानी भारत देश ही है, जहां डायनामाईट लगाकर ताजमहल गिराया जा रहा है। जहाँ आर्ट, कल्चर, सिनेमा में पाबंदी की बात हो रही हैं, क्योंकि ये चीजें टाइम और दिमाग दोनों खराब करती हैं और जहां 'घर वापसी' कराई जा रही है।

फ़िल्म में सभी कलाकारों की अदाकारी उम्दा है। लीड रोल में हुमा कुरैशी की अब तक के अपने करियर में सर्वश्रेष्ठ हैं। दीपा मेहता ने पहले दो एपिसोड डायरेक्ट किए हैं। निश्चित ही ये फ़िल्म की जान है। फ़िल्म देखी जानी चाहिए।

कबीर सिंह हीरो नहीं है, कोई बात नहीं, उसे एक किरदार तो मानिए

सेक्स के लिए आमत्रंण देने वाली लड़की(लड़के के कथनानुसार) के साथ रेप की कोशिश करने वाला, सेक्स की तड़प खत्म करने के लिए अंडरवियर में बर्फ उड़ेल लेने वाला, हर तरह के नशे में डूबा रहने वाला, अपनी प्रेमिका को रेस्पेक्ट न देने वाला, हमारा हीरो नहीं हो सकता, बिल्कुल नहीं हो सकता।

ठीक है कोई दिक्कत नहीं। मत मानिए उसे हीरो। पर वो एक किरदार तो है। उसे एक किरदार की तरह तो देखिए। और क्यों चाहिए आपको हर फिल्म में हीरो। बिना हीरो के फ़िल्म नहीं देख पाएंगे आप? आप ऊब नहीं गए हिंदी सिनेमा के साफ सुथरे और परफेक्ट हीरो से?

उबकाई नहीं आती आपको सालों, दशकों से नैतिकता में लिपटे नायक को देख देखकर। बनावटी कृत्य करते देख जी नहीं करता ऐसा किरदार प्रोटोगेनिस्ट के रूप में पर्दे में दिखे जो अपनी बुराइयों और सीमाओं के साथ जीए। हर जगह वो आदर्श नहीं हैं, वो हर काम वैसा नहीं करता जो सामाजिक रूप से सही हो। तो कभी कभार ऐसे किरदारों से भी काम चला लीजिए जो हमारे जैसे हैं..

और फिर हिंदी सिनेमा से आदर्श नायक हमेशा के लिए चले थोड़ी गए। नावो मर गए हैं न ही कोमा में हैं। अपनी प्रेमिका ऐश्वर्या को असल जिंदगी में मारने वाले सलमान कहीं चले नहीं गए। वो यहीं हैं और 'बनावटी' भारत जैसे किरदार करते रहेंगे।

यही पर बच्चन भी हैं, बाकी कपूर्स और खान भी। फिर अक्षय तो हैं ही। शाहरुख भूखों मर जाएंगे लेकिन अंडरवियर के अंदर बर्फ डालने वाला सीन नहीं करेंगे। क्योंकि उनकी इमेज किरदार से भी बड़ी है और दर्शकों को शायद उनके किरदार से मतलब भी नहीं।

कबीर सिंह को एक किरदार के तौर पर देखा जाना ही उसके साथ न्याय होगा। यदि आप यहां भी हीरो वाले Do,s और dont लगा देंगे तो मुश्किल होगी...उसके लिए भी और आपके लिए भी..

अगर प्रेम के तौर तरीकों में भी स्त्रीवाद खंगालिएगा, तो उस सेक्स पोजीशन का भी रिव्यू कीजिए जिसमें स्त्री नीचे है...

कबीर सिंह फ़िल्म के साथ कुछ स्त्री विमर्श की बातें भी समीक्षा के साथ सुनने को आ रही हैं, आपको भी मिली होंगी। आपत्ति इस बात पर है कि फ़िल्म का हीरो पूरी फिल्म में हीरोइन को 'अपनी बंदी' कहता है। इंटरवल के ठीक पहले का एक सीन भी दिक्कत पैदा कर रहा है जहां हीरो उसे थप्पड़ मारता है और कहता है कि उसकी कॉलेज में सिर्फ यही पहचान है कि वो उसकी बंदी है...आइए इस पर कुछ बातें करते हैं।

कबीर सिंह जिस अर्जुन रेड्डी फ़िल्म की कलर जिरोक्स है वो प्रेम में डूबी हुई एक फ़िल्म है। दो इंसान(लड़का या लड़की नहीं) एक दूसरे के बिना जिंदगी जीने की कल्पना नहीं कर सकते नहीं फर्क पड़ता कि वो दोनों अलग अलग तरह के इंसान हैं। एक अति डोमनेटिंग और प्रतिक्रियावादी और दूसरा हर हालात से एडजेस्ट कर लेने वाला। तो क्या दिक्कत ये है पहले वाला लड़का है?

प्रेम करने के सबके अपने अपने स्टाइल और रिजर्वेशन होते हैं। इश्क़ करने का कोई तयशुदा मैथमेटिकल या फाइनेंसियल फार्मूला नहीं है कि उसमें 44% प्यार हो, 17% फिजिकल अट्रैक्शन हो, 20% या उससे अधिक की रेस्पेक्ट हो, बाकी बचे 100 फीसदी में कुछ चीज़ें मिसलेनियस हों। जिसमें हॉबी मैच करना, एक दूसरे की फैमली को रेस्पेक्ट देना या सोशल मीडिया पर एक दूसरे को सपोर्ट करना शामिल हो सकता है। प्रेम, प्रेम है, ये कंडीशन नहीं मांगता। अर्जुन रेड्डी हो या कबीर सिंह दोनों किरदार ये बता लेते हैं कि यहां प्रेम की मात्रा उचित से भी ज्यादा है। प्रेम के शुरू के दिनों में और किसी और चीज़ की जरूरत भी नहीं लगती..

चलिए दोनों के थप्पड़ गिनते हैं

पूरी फिल्म में हीरो, हीरोइन को एक थप्पड़ और हीरोइन हीरो को तीन थप्पड़ मारती है। चर्चा सिर्फ पहले वाले थप्पड़ की है। यानी जिनको ऐतराज है वो इस बात में है कि प्रेम में जो न्यूनतम 20% की 'म्यूच्यूअल रिस्पेक्ट' होनी चाहिए वो नायिका को नहीं मिल मिली। कोई पुरुष भला ऐसे कैसे कर सकता है? डर ये दिखया गया कि लड़के अब लड़कियों को प्यार में रिस्पेक्ट करना बंद कर देंगे और स्त्री के ग्राफ में गिरावट होगी।

ऐसी दर्जनों हिंदी या रीजनल फिल्में होंगी जिसमें किसी कॉलेज की सबसे हॉट और खूबसूरत लड़की पर एक साधारण सा लड़का मर मिटता है। लड़की अपनी उन खूबियों के रिज़र्वेशन पर इतराती है, उसे अपनी स्ट्रेंथ पता होती है और लड़के के लिमिटेशन भी। वो लड़के को उसकी औकात बताते हुए चलती है लेकिन फाइनली प्यार कर लेती है। तो इस पर तो पुरुषों को आपत्ति होनी चाहिए थी क्योंकि रेस्पेक्ट का 20% वाला पैरामीटर यहां भी ब्रेक हो रहा था।

एक और सीन पर ऐतराज है। यहां लड़का अपनी प्रेमिका को टैडी बियर टाइप की लड़की से दोस्ती करने के लिए कहता है क्योंकि वो ज्यादा 'रिलायबल' होती हैं, इस सीन पर दिक्कत स्वाभाविक है, लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि कबीर सिंह मूलतः एक तेलुगू फ़िल्म है। जहां के सिनेमा में मोटापा, हकलाहट, तोतलाहट और यहां तक कि गैस पास करने पर हास्य निकालने की कोशिश की जाती है। शायद वो दर्शक इसके आदी हैं और उन्हें अब ये यूज़ड्ड टू लगता है। साउथ की तमाम सारी हिंदी रिमेक में भी शरीर पर टिप्पणी करके हंसी पैदा करने वाले सीन देखने को मिले हैं। इन फिल्मों की सफलता ये बताती है दर्शकों को शायद ये अटपटा नहीं लगता। शायद ये सोचकर हिंदी वर्जन में भी इसे हटाया नहीं गया।

कम सुंदर और ज्यादा सुंदर लड़कियों की दोस्ती ज्यादा दिखती भी है, वो शायद एक दूसरे से असुरक्षित महसूस नहीं होती हैं। सम्भव है निर्देशक ने वो सिरा पकड़ने की कोशिश की हो। पुरुषों में शायद ऐसा नहीं होता। मेरे कई खूब मोटे और खूब दुबले दोस्त हैं। मैंने उन्हें इस नजरिए से नहीं देखा। जैसा अभी मैं मोटा हो रहा हूँ तो क्या मैं कुछ दोस्त खो दूंगा?

क्या इतना प्रभावित करती हैं फिल्‍में?

मैं गहराई से ये बात मानता हूं कि आम दर्शक फ़िल्म के बारे में सिर्फ तब तक सोचता है जब तक कि वो हॉल के उस अंधेरे से अपने वाहन तक जाने के लिए सीढ़ियां उतर रहा होता है। इसके बाद उसकी दुनिया बदल जाती है। वो फ़िल्म और हकीकत को अलग करके चलता है। यदि ऐसा न होता तो नरेंद्र मोदी पर बनी बायोपिक हिंदी सिनेमा की सबसे सफल फ़िल्म होती। तो कबीर सिंह की आलोचना कीजिए पर स्त्रीवाद का एंगेल मत तलाशिए। यहां पर दो लोग प्रेम में हैं वो उनकी समझ है कि वो कैसे एक दूसरे के लिए डील करें। प्रीति के लिए कबीर उसका प्रेमी है, पुरुष नहीं है। ऐसे ही कबीर के लिए प्रीति सिर्फ वो इंसान है जिससे वो बेइंतहां प्रेम करता है। प्रेम में स्त्रीवाद मत डालिए नहीं तो बन्द कमरे में हर रोज प्रोटोकॉल टूटेंगे। आप कहां तक उन्हें डिफेंड करेंगे...

यह फिल्म मुझे हीन भावना के गहरे समंदर में ले जाती है

सरकारी स्कूल में पढ़े होने की वजह से स्टूडेंट ऑफ ईयर की दूसरी किश्त मुझे समझ नहीं आई। फिर जैसे-जैसे समझ में आती गई मैं कुंठित होता गया।  शारीरिक रूप से मेरा कद, काठी, ऊंचाई, लम्बाई, वजन, सीना, हाथ, पैर, गला, कंधे, पीठ अभी भी उन स्टूडेंट्स से कमजोर हैं जो फ़िल्म में दिखाए गए हैं। वो सभी स्कूल स्टूडेंट थे। मुझे स्कूल छोड़े 18 साल हो गए हैं। तब ये हालत है। उनके बारे में कुछ भी लिखते समय मेरे हाथ कांप रहे हैं।

पूरी फिल्म के दौरान मैं लगातार शर्मिंदा महसूस करता रहा। 12th स्टैंडर्ड के लड़के इतना अच्छा नाच लेते है, 8 से 12 पैक तक बना लेते हैं, दौड़ लेते हैं, एक साथ दो तीन प्रेम कर लेते हैं, इतने बार बदलकर कपड़े पहनते हैं ये सब मेरे जैसे सभी लड़कों के लिए हीन भावना पैदा करने वाला था। मैं बहुत निराश हूं।

लेकिन खुद से ज्यादा निराश हूं फ़िल्म के निर्देशक पुनीत मल्होत्रा के लिए। पुनीत ने इसके पहले आई लव हेट स्टोरी और गोरी तेरे प्यार में जैसी असफल फिल्में बनाई हैं। दोनों ही फिल्मों में इमरान खान थे जो अब इंडस्ट्री से बाहर हो चुके हैं। करन जौहर पिछले कुछ सालों से नए लोगों को मौका देते रहे हैं लेकिन पुनीत नए नहीं थे। न ही स्टूडेंट ऑफ नई फिल्म थी। इस फ़िल्म से डेब्यू करने वाले आज बॉलीवुड को लीड कर रहे हैं। वो याद रखने वाली फ़िल्म थी। एक ब्रांड फ़िल्म थी।

ये फ़िल्म बेहद कच्ची और प्रिडिक्टेबल फिल्म है। ये उनको अच्छी लग सकती है जिन्होंने इसके पहले फिल्में नहीं सिर्फ टीवी सीरियल देखे हों। टाइगर श्राफ की अपनी फैन फॉलोइंग है। पता नहीं इसमें उन्होंने खुद को क्यों खपाया? शायद बड़े बैनर के लोभ में।

फ़िल्म में ट्रेडिशनल के अनुसार ही 2 लड़कियां हैं। इसमें Ananya Pandey याद रह सकती हैं। आप फ़िल्म देख सकते हैं, पर उसमें मेरी तरह शर्मिंदा होने के खतरे भी है

'पिचर' फिल्म देखी जानी चाहिए क्योंकि ये अच्छी होने के साथ-साथ फ्री भी है...

टीवीएफ की वेब सीरिज 'पिचर' का एक सीन है। रिजाइन करने वाले अपने एक एंप्लाई के साथ उसके लास्ट कनवरशेसन में उसका बॉस उसे कहता है कि इस देश का ग्रेजुएट जब भी अपनी 9 टू 5 की जॉब से बोर हो जाता है तो वह बाहर निकलने के ‌लिए तीन रास्ते खोजता है। एमबीए, आईएएस और स्टार्टअप। बाहर जाकर देखो, तीन में से दो क्यूबिक में स्टार्टर फाउंडर ही बैठे हैं। एक कुटिल मुस्कान के साथ वह उसे एक ऑफर देता है। जाहिर है सामने बैठे एंप्लाई ने रिजाइन करने के पीछे स्टार्टअप शुरू करने की बात कही होगी। पांच एपीसोड की इस सीरिज ऐसे कई सारे सीन है जिन्हें हम कार्पोरेट सेटअप में घटते देखते हैं या उनके बारे में लंच टाइम, सुट्टा टाइम या लेट नाइट की खाली होती मेट्रो या तीन पैग डाउन के बाद अपने विश्वसनीय कलीग से बतिया रहे होते हैं। 

पिचर का टारगेट ऑडिशन बहुत सीमित है और क्लीयर है। उसे 'सबकी' फिल्म नहीं बनना। टारगेट ऑडियंश सीमित होने की वजह से यह फिल्‍म उतनी माउथ पब्लिसिटी नहीं बटोर पाई थी जितनी वह डिजर्व करती है। कुछ समय पहले एक वीडियो वायरल हुआ था। जिसमें एक एंप्लाई को टाइम से घर जाने पर उसका एक कलीग उसे टोकता है। जवाब में उसका लंबा मोनोलॉग है। जिसमें फ्रस्टेशन और ईमानदारी दोनों हैं। पिचर इस शार्ट फिल्म के करीब चार पहले 2015 में रिलीज हो चुकी है, और ऐसे तमाम सारे सीन, डायलॉग एक अच्छी फिलॉसिफी के साथ उसमें मौजूद हैं।

कार्पोरेट सेक्टर राजीव चौक पर खड़ी मेट्रो की तरह है। उसमें घुसकर सीट पाने के लिए बहुत सवारियों में जल्दबाजी है, लगभग उतनी ही जल्दबाजी उन सवारियों में भी है जिन्हें उससे उतरना है। कुछेक मिनट पहले वह सीट जो उनके बहुत काम की थी अब उसके साथ उनका कोई रिश्ता नहीं है। उनके हटने पर वहां बैठ कौन रहा है इसमें उनको दिलचस्‍पी भी नहीं है। ऐसा नहीं कि यहां सिर्फ दो कैटेगरी हैं। कुछ सवारियां ऐसी भी हैं जिन्हें अभी अभी बाराखंभा, पटेल चौक या केंद्रीय सचिवालय से सीट मिली होती है। इसके पहले वे अनकफर्ट जोन में थे। सीट मिलने के बाद वह अभी अभी कंफर्ट जोन में आए हैं और आपके उठने के बाद 'शेफ' फील कर रहे हैं। उन्हें अभी लंबा इसी मेट्रो में रहना है। बशर्ते ये मेट्रो ही बंद ना हो जाए। कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें सीट नहीं चाहिए। वो खड़े खड़े नई दिल्ली स्टेशन तक चले जाएंगे। उन्हें वहां से एयरपोर्ट मेट्रो पकड़ना है। उनके सपने बड़े हैं। सभी को एयरपोर्ट मेट्रो भी नहीं जाना। कुछ को मंडी हाउस भी जाना है। राजीव चौक में उतरने वाले राजीव चौक में रहते नहीं हैं। वह वहां से कहीं और जाएंगे। ये रोटेशन हर दिन, हर महीने चलता रहता है।

कार्पोरेट सेक्टर से उकताकर बाहर आने वाले बहुत सारे लोग सफल हुए हैं। पर उससे बड़ी संख्या उन लोगों की भी है जो उस फैसले को गलती मानकर साल-डेढ़ साल के बाद उसी सेटअप में जाने के लिए सीवी अपग्रेड कर रहे होते हैं। वह उन लोगों से बचना चाहते हैं जो लोग उन्हें कुछ समय पहले कही गई बातें याद दिलाएं। बातें और गालियां दोनों। वह भी गलत नहीं होते हैं। फैसले व्यक्ति नहीं हालात लेता है। उनके निकलने और रीज्वाइन करने के फैसले हालात ने लिए।

पिचर की कहानी ऐसे ही चार दोस्तों के बारे में है। सभी उस कार्पोरेट सेक्टर से निकलना चाहते हैं। उन चारों की वजह अलग-अलग हैं। लेकिन कॉमन वजह 'अपनी कैपेबिलटी का पूरा यूज' ना हो पाने की है। ऑफिस की छटाक भर की पॉलिटिक्स से भी वह उबे हैं। पर ये बड़ा इशू नहीं है। उससे वो यूज्ड टू हैं। कार्पोरेट सेक्टर में आपको बहुत सारे लोग ऐसे मिलेंगे जो पॉलिटिक्स को सूंघ लेते हैं, उसको समझते भी हैं लेकिन उससे डील या क्रैक नहीं कर पाते।

फिल्म में ऑफिस छोड़ने की अलग-अलग वजहें और उनके हरडेल्स  बहुत इंटरटेनिंग तरीके से दिखाए गए हैं। टीम बन जाने के बाद की समस्याएं, फंडिंग मिलने के तरीके उसके पैरलल चल रही लोगों की निजी जिंदगी, शराब, सेक्स और तमाम सारे नेचुरल एैब ‌आपको खूब अच्छे लगते हैं और अच्छी बात ये है कि आपको बहुत कुछ सिखाते भी हैं। फिल्म के डायलॉग इसे सुपरकूल बनाते हैं। फिल्म में हिंदी और अंग्रेजी इतनी आसानी से आती और जाती रहती है कि कहीं पर लगता ही नहीं कि ये एक बाइलैंग्वेल फिल्म है। लगता है कि यह एक हिंदी फिल्म है और इस सेटअप में जितना अंग्रेजी बोलते हैं उतनी अंग्रेजी फिल्म में भी है।

टीवीएफ सीरिज की फिल्मों का सबसे खूबसूरत पक्ष उनकी ऐक्टिंग है। यदि आप लंबे समय से टीवीएफ की फिल्में देख रहे हैं तो आपको पता चल गया होगा कि उनके पास कलाकारों का एक सेट है वो उसे हर तरह के रोल में रोटेट किया करते हैं। रिपीट चेहरे होने के बाद भी यह कलाकार अपने उस रोल में खूबसूरत ऐक्टिंग करते हैं। फिल्म के लीड किरदार नवीन कस्तूरिया, अरुणाम कुमार, जीतेंद्र कुमार और अभय महाजन ने अद्भुत काम किया है।

वेब सीरिज के साथ हिंदी सिनेमा में अच्छी बात ये हुई है कि ये अब हमारी आपकी कहानी कहता है। यहां पर सलमान खान और कैटरीना कैफ की एक काल्पनिक कहानी नहीं है। मुझे उम्मीद है कि कम से कम कुछ साल सलमान खान जैसे सिनेमा की वापसी नहीं होगी।  हिंदी साहित्य की तरह हिंदी का सिनेमा भी बदल रहा है। याद कीजिए हिंदी का वह समय जब सिर्फ हल्कू, जमींदार और मुनीम जैसे किरदार ही सिनेमा में भी थे और साहित्य में भी।  यह फिल्म देखी जानी चाहिए क्योंकि अच्छी होने के साथ यह यूट्यूब पर फ्री भी है... हां, एक बात और। एक स्टार्टअप शुरू करने के प्रोसस में बियर बहुत पीनी पड़ती है।



Friday, July 12, 2019

सुपर 30: एक ऐसी फिल्म जिसे आप से ज्यादा आपके बच्चे का देखना जरूरी

एक मैथमैटिशियन के तौर पर मैं आनंद कुमार को नहीं जानता। आप शायद पहले से जानते रहे होंगे। मैं इसलिए नहीं जानता था क्योंकि मैंने इंजीनियरिंग का कभी कोई टेस्ट नहीं दिया। कहां की कोचिंग अच्छी और कहां की बुरी, किसकी फीस ज्यादा है और किसकी कम इन बातों तक पहुंचने का मौका ही नहीं मिला। मेरी जानकारी की हद में आनंद कुमार तब आए जब उन पर बनी फिल्म एनाउंस हुई।

फिल्म की चर्चाओं के साथ आनंद की कई सारी कहानियां भी बाहर आईं। ऐसा नहीं था कि निकली हुई इन तमाम कहानियों में सभी में वे हीरो थे। कुछ में वो ग्रे शेड में थे, कुछ में एक विशुद्व कोचिंग संचालक और कुछ में एक अहसान फरामोश झूठे आदमी।

  सुपर 30 फिल्म पर लिखते समय मेरी इस बात में बिल्कुल दिलचस्पी नहीं है कि फिल्म में दिखाई गई आनंद कुमार की जिंदगी, उनकी असल जिंदगी से कितनी करीब या दूर है। मेरा वास्ता ना तो आनंद को एक हीरो के रूप में देखने में है और ना ही उनकी एचीवमेंट पर खोजी पत्रकारिता कर उसमें नुस्‍ख निकालने में। मैं सुपर 30 को ऐसी फिल्म के रुप में याद करना चाहूंगा जिसके खत्म होते होते आपकी आंखों के कोर गीले हो चुके होते हैं। आप आनंद जैसा बनना चाहते हैं और पाते हैं कि उनके जैसा बनना उतना भी कठिन नहीं है।

अगर यह फिल्म पूरी तरह से काल्पनिक होती और आनंद कुमार जैसा आदमी इस दुनिया में अस्तित्व भी ना रखता तब भी यह फिल्म उतनी ही अच्छी लग सकती थी। इस अच्छे लगने के पीछे किरदार की नियत और उसका परिश्रम ही है। मैं सुपर 30 को  एक ऐसी फिल्म के रुप में भी याद रखना चाहूंगा जो जिंदगी में एजुकेशन के महत्व को बहुत करीने से एस्टेबलिस करती हैं।

बॉलीवुड में ऐसी बहुत कम फिल्‍में बनी हैं जो एजुकेशन की ताकत को इतने दमदार और प्रभावकारी तरीके से रख सकें। फिल्म जाति व्यवस्‍था पर एक बने-बनाए ढांचे पर भी चोट करना चाहती है लेकिन अपनी असल ताकत वहां आनंद के प्रयासों पर लगाने में दिलचस्‍पी रखती है।

 हम और आप आज जहां पर हैं उसके पीछे की एकमात्र वजह हमारी शिक्षा ही है। मैं गहराई से मानता रहा हूं और अपने आस-पास महसूस भी करता रहा हूं कि अपनी मौजूदा जिंदगी के ब्रेकेट से निकलकर दूसरे ब्रेकेट में जाने के लिए एजुकेशन के अलावा और कोई रास्ता होता नहीं है।

दलित चिंतक बहुतेरे हो सकते हैं, लेकिन अंबेडकर इसलिए दलितों के सच्चे हितैषी कहे जाएंगे क्योंकि उन्होंने झंडा उठाने के बजाय किताब उठाने के लिए प्रेरित किया। सवर्ण हो या दलित एक पढ़ी लिखी जनरेशन ही अपने परिवार को गरीबी के दलदल से उबार सकती है।

 इसमें कोई शंका नहीं कि ये फिल्म अपने कई द्श्यों में सिर्फ एक फिल्म बन जाती है। वह अपने किरदार को कैसे भी हीरो जैसा एस्टेब‌लिस करने के लिए कई सारे ड्रामे रचती दिखती है। आनंद कुमार या कोई भी कोच‌िंग चलाने वाला टीचर इस तरह के चरित्र का नहीं हो सकता जैसा रितिक रोशन को फिल्म में दिखाया गया है। लेकिन फिल्म का सेंट्रल आइडिया ऐसा है जो ना तो हीरोइक और ना ही असंभव। सुपर 30 के कई सारे दृश्य शरीर के अंदर कुछ करने की ऊर्जा पैदा करते हैं यही फिल्म की एकलौती पर बड़ी कामयाबी है।

मैं या इन लाइनों को पढ़ने वाले शायद उस वर्ग के लोग नहीं है जो पढ़ना तो चाहते थे लेकिन जिनके घरों में पढ़ाने के लिए पैसे नहीं थे। हमसे से ज्यादातर लोग वो लोग नहीं थे जो बिना खाना खाए कई कई रात जगे हों। बावजूद इसके हम उन किरदारों के करीब पहुंच जाते हैं जो ऐसी जिंदगी जीने के लिए बाध्य हैं और उसे जी रहे हैं। निश्चित ही इन किरदारों का अभिनय इसके पीछे की बड़ी वजह रही होगी।

 फिल्म की लिखावट बहुत शानदार नहीं है, दो किरदारों के आपस के डायलॉग बहुत प्रभावित नहीं करते। विकास बहल का निर्देशन का स्तर क्वीन जैसा नहीं है लेकिन ये अच्छा लगा कि वह शानदार जैसी फिल्म से उबर आए। 

फिल्म के ट्रेलर में रितिक रोशन की बिहारी टोन बहुत खटकती है। फिल्म में भी उनकी भाषा और उनका लंबा-चौड़ा कसरती बदन हमें कई बार परेशान करता है। कई बार लगता है कि पोस्टमैन का यह लड़का अगर ठीक से अपना मुंह धो ले, जींस-टीशर्ट पहन लें तो वह ना तो उनके घर का लगता है ना ही उनके परिवेश का। इसमें कोई शक नहीं कि र‌ितिक ने इस फिल्म में कमाल का अभिनय किया है लेकिन उनकी अति गोरी त्वचा(जिसे फिल्म में अजीब तरह से काला किया गया है), हल्की भूरी दाढ़ी, जिम में तराशा गया बदन और नीली आंखे उनको एक शिक्षक बनने से कई बार मना कर देती हैं।

वह पुरानी, धुंधली सी चेक वाली गंदी कमीज पहनते हैं जिसे देखकर लगता है कि ये कपड़े इनके नहीं हैं, इन्होंने किसी से मांगकर पहने हैं। रितिक को शायद अपनी ये कमियां पता थीं। उन्होंने यहां पर गरीब होने के स्वांग को अपनी आंखों और बॉडी लैंग्वेज से पूरा करने की कोशिश की है। उनकी मेहनत इतनी अच्छी है कि हमें नकली बिहारी में नुस्‍ख निकालने का मन नहीं करता। पंकज त्रिपाठी अच्छी एक्टिंग के बाद भी एकदम गैरजरूरी लगे। ये रोल उन्हें नहीं करना चाहिए था।


Thursday, July 4, 2019

मेरठ या मिर्जापुर वाला अयान रंजन कब तक दिल्ली वाले अयान रंजन जैसा बन जाएगा?



ये बहुत खूबसूरत सा और चतुराई से छिपा लिया जाने वाला तथ्य है कि हममें से 80 फीसदी से भी ज्यादा लोगों का बचपन और टीन-ऐज छोटे गांव, कस्बों या कस्बेनुमा शहरों में बीता है। ये कूल, ब्रो वाले लहजे से कुछ साल पहले की ही बातें है। हम अभी-अभी उस समाज से इधर शिफ्ट हुए हैं। समाज का ऐसा कुछ भी कच्चा-पक्का नहीं है जिससे हम वाकिफ ना हों। हमारे पास आर्टिकल 15 फिल्म के नायक अयान की तरह ये सहूलियत नहीं है कि हम कायस्‍थ और पासी का अंतर ना समझ सकें। हमें ये सबकुछ मालूम है और प्रकारांतर से हम इसके हिस्से भी रहे हैं।

ये अच्छा है कि आर्टिकल 15 का नायक ऐसे घर से है जहां पढ़ने के लिए बच्‍चे गाजियाबाद या ग्रेटर नोएडा के इंजीनियरिंग कॉलेजों में नहीं बल्कि विदेशों में भेजे जाते हैं। यदि अयान रंजन यूपी के किसी गांव से गाजियाबाद या दिल्ली में पढ़ने आया होता तो इस बात की संभावना ज्यादा थी वह लौटकर लालगंज थाने के प्रभारी ब्रहमदत्त स‌िंह का एक पढ़ा लिखा अपग्रेड वर्जन भर बनके रह जाता। वहां के परसेफशन भी उसे स्वाभाविक लगते और ऊंची जाति के रेपिस्ट ठेकेदार के घर का बना मटन स्वादिष्ट भी। तब अयान को भी पता होता कि 'ये लोग' तो वैसे ही हैं।

 ये अयान की गलती नहीं होती। हमारी परवरिश ही ऐसी है कि कई सारी गलतियां (अपनी और समाज की ) एक समय के बाद हमें अपनी लाइफ स्टाईल का पार्ट लगने लगती हैं और हम उसके आदी हो जाते हैं। जातियों को लेकर समाज के इस गहरे पूर्वाग्रह कि गिरह कुछ खुली जरूर हैं लेकिन इतनी नहीं जितनी की ये फिल्म खुला हुआ दिखाकर हमें राहत देती है।

मुझे उस दिन का इंतजार है जब अयान रंजन दिल्ली का नहीं उसी गांव का एक लड़का होगा। जहां उसे ब्रहमदत्त सिंह के साथ-साथ अपने पिता से भी इस व्यवस्‍था को बदलने के लिए संघर्ष करना होता। अभी तो ये एक मीठी से खुशी देने वाली फिल्म भर लगी। फिल्म के इंटरवल या खत्म होने पर मेरे जैसे तमाम लोग ट्वायलेट गए होंगे और देखा होगा एक खास ड्रेस में टोपी लगाकर और हाथ में वाइपर जैसा कुछ लिए उस आदमी को जो इस बात के इंतजार में है कि आप हटें तो वह वहां सफाई कर सकें। ट्वायलेट हैं तो सफाई होगी ही लेकिन मैं एक इंसान के नाते वह मुल्क देखना चाहता हूं कि जब आपकी पेशाब को धुलने वाले ये हाथ एक ही जाति के ना हों। तब शायद आर्टिकल 15 का बनना एक फिल्म से बड़ा माना जाएगा।

 ये कोई हजार-दो हजार साल पहले की बात नहीं है। ये 25 से 30 साल पहले की बातें है। गांवों में ऊंचे कुल और बिसवा में बड़े (जिस तरह तेल या दूध नापने के लिए लीटर होता है, ब्राहम्‍णों में भी ऊंच नीच नापने के लिए बिसवा नाम का पैमाना उपयोग किया जाता है,अभी भी इस समाज में ऐसे लोग हैं जो बिसवा नाम के पैमाने से आए परिणामों से इतराते हैं) ब्राहाम्‍ण, अपेक्षाकृत नीचे वाले ब्राहाम्‍णों के यहां कच्चा भोजन नहीं करते थे। वो उनके यहां की बनी पूड़ी और हलवा खा लेते ‌थे लेकिन उनके चूल्हे में पके दाल चावल या कढ़ी से उनकी वैसी ही दूरी थी जैसी दूरी फिल्म में चमार जाति वाला पासी किरदारों के प्रति रखता है। या पासी, खटिक, मेहतर या भंगी से जातियों के साथ रखता हो।

 दलित जातियों की आपस में सामाजिक ऊंचाई-निचाई के इक्वेशन क्या रहे हैं ये मुझे नहीं मालूम है, लेकिन यूपी में बसपा के उदय होने के बाद मैंने ये जरूर पाया है कि बाकी दलित जातियों की तुलना में चमार जातियों में खुद को लेकर एक श्रेष्ठता है। वह बाकी दलित जातियों की तुलना में अपने को ज्यादा साफ और सोफिस्टीकेडेट तो मानते ही हैं साथ में वह इस बात के लिए भी इतराते हैं कि सवर्णों के घर होने वाली शादियों में अब उन्हें आमंत्रित किया जाने लगा है।

आर्टिकल 15 की सबसे बड़ी खूबसूरती ये है कि ये सिर्फ दलित और सवर्ण के बीच की खांई को नहीं दिखाती, बल्कि फिल्म ये भी दिखाती है कि समाज में दलित और दलित में ही ऊपर और नीचे होने का कैसा एक सिस्टमैटिक बंटवारा है। और ये बंटवारा स्वीकार्य कर लिया गया है। यदि आप इस बंटवारे को स्वीकार नहीं करते हैं तो आपके ऊपर आउटसाइडर का एक ठप्पा लगाकर छोड़ दिया जाता है। आपको ठीक करने का लोड नहीं लिया जाता है और ये माना जाता है कि जरुरत से ज्यादा शिक्षा ने आपकी सभ्यता को भ्रष्ट कर दिया है।

 ये गनीमत रही कि अयान दिल्ली के इलीट क्लास से था जहां जातियां शायद अपनी उस तरह की पहचान नहीं रखती हैं। यदि अयान उसी जिले के किसी ब्राहाम्‍ण या ठाकुर परिवार का लड़का होता तो क्या उसके पिता उसे उस सुअरताल में नंगे पैर, साफ स्वेटर-कोट में घुसने देते? क्या उसका परिवार उसे जातियों के इस कथित घिनौने प्रपंच में अपना कैरियर तबाह करने की छूट देता? क्या उसकी संभावित बीवी उसे ऐसा करने के लिए कहती? खुद से सोचिएगा, मेरे पास इस बा‌त का उत्तर नहीं है। इसे शायद जर्नलाइज नहीं कर सकते।

शहरीकरण ने कुछ बदला है क्या?

हो सकता है कि शहरीकरण कई सारी बुराईयां लेकर आया हो लेकिन जाति व्यवस्‍था को खत्म करने में शहरीकरण का बहुत बड़ा योगदान रहा है। गांव और कस्बे में रहा व्यक्ति मानता है कि शहर, लोगों की सभ्यता को नष्ट और भ्रष्ट करने के लिए ही बने हैं। वहां दिन के उजालों में बैठकर लोग शराब पीते हैं। कोई किसी के साथ उठ-बैठ, खा-पी लेता है। शहर की यह कथित उदारता, सदियों से बने उनके सिस्टम को नष्ट कर रही है, उसे खोखला कर रही है।

पिछले दिनों अखबार की एक कटिंग सोशल मीडिया में वायरल थी जिसमें एक युवती के द्वारा शराब की दुकान पर जाकर शराब खरीदने को चार कॉलम की एक खबर बनाया गया था। मामला छत्तीसगढ़ का था। वहां लोगों के लिए ये शायद खबर थी। लेकिन दिल्ली या मुंबई में लड़कियों का दुकान में खुद से शराब लेना क्या खबर है?  समाज की बुराईयां और उसके दकियानूसपन भी शायद परिवेश बदलते ही बदल जाते हैं। एक पुरुषवादी अधेड़ किसी काम से जब दिल्ली आता है तो मेट्रो में उतर-चढ़ रही लड़कियों की पोशाकें, उनकी बालों के कलर, लड़कों के साथ उनकी घुलमिलकर बातचीत उन्हें कुछ मिनटों तक रोमांचित करती है लेकिन कुछ देर के बाद ही ये दृश्य उन्हें अपनी संस्कृति पर खतरा लगने लगते हैं, लेकिन वहां साल भर रह लेने वाले उसी ऐजग्रुप के आदमी को यह नार्मल लगने लगता है।

शहर का जिक्र इसलिए भी क्योंकि पुरुषवाद और जातिवाद जैसे दो सबसे खतरनाक कीड़े शहर से दम तोड़ रहे हैं। जैसे गांवों में सीजन की पहली बारिश होने के बाद एक खास तरह के कीड़े शाम को निकलते हैं, शहर में भी ये निकलते होंगे लेकिन मालूम नहीं पड़ते। ऐसे ही कई सारी बुराईयां वहां के माहौल में डाइल्यूट हो जाती हैं।  यूपी  या बिहार के किसी एक गांव के दो लड़के जिसमें एक ठाकुर हो और दूसरा दलित वो दिल्ली में साथ फिल्म देख सकते हैं,एक-दूसरे के घर आ जाते हैं। खाना ना सही पर वो शराब सिगरेट शेयर कर लेते हैं। पर अपने गांव पहुंचने पर यही दोनों किरदार ऐसा नहीं कर सकते। उनका ऐसा करने का मन ही नहीं करता। वही इंसान जाति की व्यवस्‍था को दो अलग-अलग परिवेश में दो अलग-अलग ढंग से जीता है।


क्या नफरत एक जैसी?

समाज में नीची जातियों को लेकर ऊंची जातियों का रीएक्‍शन अलग-अलग तरह का होता है। कुछ लोग उनसे नफरत करते हैं, नौकरियों में उनके रिजर्वेशन लेने से नाराज रहते हैं, उन्हें जाति के नाम पर कट्टर मानते हैं और इस बात से भी नाराज रहते हैं कि वो गोलबंद होकर हाथी को वोट देते हैं। जबकि देश के विकास के लिए उन्हें कमल को वोट देना चाह‌िए।

 एक दूसरे तरह का रिएक्‍शन भी है। ये वाले बस उन्हें अपने जैसा नहीं मानते। वो सिर्फ उन्हें दूसरे मानते हैं। उनका छुआ खाने से परहेज करते हैं, उनके घरों की शादियों में जाते हैं लेकिन ज्यादा से ज्यादा डिस्पोजल गिलास में पानी लेते हैं, उनके प्रति कुंठा नहीं रखते।  उनके अपमानित करतें, लेकिन गहराई से मानते हैं कि वह हम जैसे नहीं हैं। आर्टिकल 15 की खूबसूरती ये है कि वह दलित को लेकर हर तरह के विरोध या तटस्‍थ होने को दलित विरोध साबित करने में सफल होती है और आपको अपनी राय बदलने के लिए प्रेरित करती है।

फिल्म के एक डायलॉग "आग लगी हो तो न्यूटल होने का मतलब यह होता है कि हम उनके साथ खड़े हैं जिन्होंने आग लगाई है। यहां इस बारे में एक नजरिया दिखाने की कोशिश करता है। दलित और स्‍त्री विरोध दोनों ही मामलों में पिछला कुछ सालों का हासिल ये हुआ है कि बहुत सारे लोग विरोधी से न्यूटल हो गए हैं। इस न्यूटल होने को वो प्रोग्रेसिव मानते हैं।

हर किरदार की एक अलग फिल्म

फिल्म का एक-एक किरदार एक कहानी लिए हुए हैं। अगर आप इस फिल्म को ब्रहमदत्त सिंह की निगाह से देखेंगे तो आपको ये दूसरी फिल्म लगेगी, निषाद की निगाह से देखेंगे तो दूसरी और ब्रहमदत्त के कुलीग पुलिस इंस्पेक्टर जाटव की निगाह से देखेंगे तो तीसरी। हर कोई अपनी तरह से चीजों को देखना चाहता है। रेपिस्ट का किरदार ये बात गहराई से मानता है कि हर आदमी की एक औकात होती है। वह खुद की भी एक औकात मानता है और जिनके साथ रेप करता है उनकी भी। उसके नजरिए से ये अलग फिल्म है। उसको इस समाज से कोई सफोकेशन नहीं महसूस होता। हां, वो अयान के व्यवहार भी जरुर एक अजीबपन महसूस करके बार-बार चौंकता है।

शानदार लिखावट-बुनावट

गौरव सोलंकी को पढ़ने वाले जान जाएंगे कि फिल्म का ज्यादातर हिस्सा उन्हीं का है। निषाद जैसे किरदार के एकालाप उन्हीं के हैं। फक वाला ह्यूमर भी उन्हीं का है। उन्होंने एक खूबसूरत फिल्म लिखी है। जिसमें कहीं कहीं कुशलता से एक डार्क हयूमर पिरोया गया है। एक निर्देशक के रुप में अनुभव सिन्हां जैसा रुपांतरण मैंने इसके पहले कभी नहीं देखा। मुल्क के पहले भी उन्होंने फिल्में बनाई हैं। उन्हें देखकर लगता है कि ये फिल्में किसी और ने बनाई हैं। आर्टिकल 15 में वे मुल्क से भी आगे निकल जाते हैं।

एक किरदार को गढ़ने की प्रक्रिया में वह अनुराग कश्यप की बराबरी पर खड़े दिखते हैं। इस फिल्म से पहले आप चाहकर भी ये कल्पना नहीं कर सकते थे कि  मनोज पहवा एक ऐसे किरदार को निभा सकते हैं या कुमुद मिश्रा भी। फिल्म दलित के घर ब्राहाम्‍णों के भोजन के टॉपिक को हल्के से छूती है, इसी तरह निषाद के किरादर को भी। इन्हें थोड़ा और कुरेदना चाहिए था। आर्टिकल 15 एक ऐसी फिल्म है जिसे 15 अगस्त और 26 जनवरी को चौराहों चौराहों पर लगाकर दिखानी चाहिए, लेकिन ऐसा होगा नहीं क्योंकि ये एक फिल्म है किसी सरकार के विज्ञापन वाली एलईडी गाड़ियां नहीं।




Thursday, April 18, 2019

आइए 'कलंक' पर हंसते हैं, ये खिल्ली उड़ाने वाली फिल्म है, समीक्षा वाली नहीं


'कलंक' दरअसल पूरी ठसक के सा‌थ यह बताने का प्रयास करती है कि यदि पैसा पानी की तरह बहाया जाए तो चुनाव भी जीते जा सकते हैं और इंडस्ट्री के टॉप चेहरों को लेकर एक बेहद उबाऊ फिल्म भी बनाई जा सकती है और डंके की चोट पर उसका अथाह प्रमोशन भी किया जा सकता है। ऐसी फिल्म जिसके एक-एक सीन पर लाखों खर्च किए गए हों।  टू स्टेटस जैसी सफल फिल्म बना चुके और कई सारी सफल फिल्मों के असिस्‍टेंट रहे अभिषेक वर्मन की इस फिल्म में आपको ‌‌हिंदी सिनेमा की बीती हुई कई झलकियां या किरदार दिख सकते हैं। फिल्म के सेट और कलर डिजाइन में भंसाली का अक्स साफ दिखता है। कई जगह यह फिल्म सांवरियां और राम-लीला जैसी लगती है, रंगों के चटक और धूसर होने के मामले में।  फिल्म की अच्छी बात ये है कि सभी किरदारों ने अभिनय अच्छा किया है, बुरी बात ये है कि वह सभी एक खराब फिल्म के लिए अभिनय कर रहे थे। बंटवारे जैसी सेंसटिव बैकग्राउंड पर बनी यह फिल्म उस हिस्से को बेहद सतही तरीके से छूती है जिस पर इसका क्लाइमेक्ट टिका होता है। फिल्म इतनी लंबी और उबाऊ है कि कुछ अच्छे दृश्य, सिनेमेटोग्राफी और गाने भी उसे बचा नहीं पाते हैं।
 फिल्म की स्टोरीलाइन बचकाना है। इसकी कहानी टीवी सीरियलों जैसी है और इसके संवाद किसी थके हुए पत्रकार के चोरी किए हुए आर्टिकल की लंबी-लंबी लाइनों जैसे हैं, जिस पर वह खुद आत्ममुग्‍ध है। यह एक ऐसी फिल्म है जिसका मजाक उड़ाया जाना चाहिए। फिल्म के हर बचकानेपन और उनकी हरकतों का मजाक। फिल्म में सोनाक्षी सिन्हा कैंसर से मर रही होती हैं। मरने के दो साल पहले वो बला की खूबसूरत दिखती हैं। मैचिंग की साड़ियां, मेकअप, खूब सारी चूड़ियां पहनकर वो लाहौर से राजस्‍थान किसी के घर जाती हैं। उस घर में आलिया भट्ट पतंगे लूट रही होती हैं। शोले में शादी से पहले वाली जया भादुड़ी जैसी चुलबुली लड़की वाले अंदाज में। पता नहीं उनके बीच में क्या रिश्ता है लेकिन सोनाक्षी चाहती हैं कि वह उनके घर जाएं और मरने तक उनके साथ रहें और मरने के बाद उनके पति से उनकी शादी हो जाए। सोनाक्षी सिन्हा की इस तरह की ख्वाहिशें पहले भी पालती रही हैं। लुटेरा में उन्होंने कुछ ख्वाहिशें रणवीर सिंह से पाली थीं, सेकेंड हॉफ में उनकी ख्वाहिशें रणवीर से शिफ्ट  होकर उनके दरवाजे पतझड़ में झड़ रहे एक पेड़ से हो जाती हैं। फिर बाद में रणवीर उनके लिए एक पत्ती बनाते हैं। हिंदी सिनेमा ऐसी उल जलूल ख्वाहिशें लड़कियों के मन में पालता रहा है और प्रेमी उसे पूरा कर-करके फना होते रहे हैं।

तो फिर आलिया शादी करके उनके घर आ जाती हैं और उनके पति रात में पर्दे की आड़ में ही कह जाते हैं कि सोनाक्षी सिन्हा ही उनकी पत्नी हैं। इस रिश्ते में इज्जत तो होगी लेकिन प्यार नहीं। क्योंकि प्यार वो अपनी पत्नी से करते हैं। वो ये बात नहीं बताते हैं कि सेक्स होगा या नहीं? पहले का समाज इस मामले में शालीन था। वह प्यार को ही सेक्स मानता था। महेश भट्ट इस फिल्म को बनाते तो वह कहलवा देते कि प्यार तो नहीं होगा लेकिन सेक्स तो होगा। तो उस रात के बाद आलिया कुछ दिन घर में वैसे ही घुट-घुटकर जीती हैं जैसे जोधा अकबर में ऐश्वर्य जी रही होती हैं। वह समय काटने के लिए कबूतरों को सहलाती थीं और आलिया समय काटने के लिए छज्जे में बैठकर दूर बज रहे गाने को सुनती हैं और शाम को सुसाइड करने की प्रैक्टिस करती हैं। बाद में वह पत्रकार बन जाती हैं।

अदभुत खूबसूरत लाहौर के उस मुहल्ले में एक जीबी रोड जैसा रेड लाइट इलाका है। लेकिन है बहुत बढ़िया। वहां कोई भला आदमी भी जाए तो उसे गिल्ट ना हो। उस सुंदर मोहल्ले में शहर के लोहार रहते हैं। उसी मोहल्ले में माधुरी दीक्षित लड़कियों को गाना सिखाती हैं और वहीं पर वरुण धवन अपने कसरती बदन से तलवारें बनाया करते हैं। उनकी आंखों में सुरमा लगा रहता है और वह ज्यादातर ऊपरी भाग में नंगे रहते हैं। एक्सट्रा कैरिकुलम ऐक्टिविटी के तहत वह समय काटने के लिए वह बैलों से लड़ते हैं। आलिया भट्ट उन्हें लड़ता हुआ देखती हैं और प्रभावित होती हैं। एक मुस्लिम लीग का नेता है, जो वहां के अखबार के संपादक से बहुत नाराज रहता है। वह समय काटने के लिए लोहार का दोस्त रहता है और उसे तरह-तरह की समझाइश दिया करता है। अखबार के संपादक का परिचय अभी आगे आएगा।

आलिया, माधुरी से  गाना सीखने जाती हैं और उन्हें उस लोहार से प्यार हो जाता है। लोहार वरुण धवन उन्हें पिक ड्रॉप की सेवाएं देते हैं। नाव से। नाव कोई और चलाता है वह सिर्फ मॉरल सपोर्ट देते हैं। बाद में लोहार महेश भट्ट स्टाइल में नाजायज संतान निकलता है। इस नाजायज संतान की मां माधुरी होती हैं और पिता आलिया भट्ट के ससुर संजय दत्त। पूरा मोहल्‍ला जानता है वरुण के अवैध पिता संजय दत्त हैं। बस संजय दत्त के बेटे और दो बीवियों सोनाक्षी सिन्हा और आलिया भट्ट के पति आदित्य राय कपूर को यह बात मालूम नहीं होती है। जो बातें पूरा मोहल्ला जानता है वह बाद उनका बेटा क्लाइमेक्स में जानता है। संजय दत्‍त का बेटा पेशे से एक अखबार का संपादक कम मालिक है। शायद वर्ककोहल्कि होने की वजह से उन्हें यह बात पता ना चल पाई हो।  एक छोटा सा अखबार जो विज्ञापन के संकट से जूझ रहा है लेकिन परिवार इतनी बड़ी और आधुनिक कोठी में रहता है कि लगता है गोदी मीडिया आज से नहीं आजादी से पहले से ही देश में था। आलिया भट्ट लोहारों के उस मोहल्ले में रिपोर्टिंग करती हैं। गाने सीखती हैं, कुल मिलाकर पूरा दिन वहीं रहती हैं। वह मोहल्ले में जो रपट लिखती हैं उन्हें डेस्क गिरा देती है। संपादक डेस्क से प्रमोट होकर संपादक बना होता है उसे फील्ड का ज्ञान कम होता है।  वह रिपोर्टर की कद्र नहीं करता। उनके पिता उसे कई बार फील्ड में जाकर काम करने के लिए कहते हैं, लेकिन वह गुर्राकर उन्हें चुप करा देता है। संजय दत्‍त को इतना निरीह दर्शकों ने पहले कभी नहीं देखा होगा। फिल्म के एक सीन में लोहार वरुण धवन उनका गला तक पकड़ लेते हैं। संजय दत्त उस समय कुर्ता पैजाम पहने होते हैं और उनकी जेब में कोई तंमचा-पिस्तौल भी नहीं होती है।

ये सब करते-करते फिल्म क्लाइमेक्स में पहुंच जाती है। फिल्म के क्‍लाइमेक्स में ट्रेन में लाहौर छोड़कर जाते हुए लोगों का सीन है। लोग शायद अमृतसर जा रहे हैं। इस सीन को  बेहद बचकाने तरीके से फिल्माया गया है। दस हजार से ज्यादा भीड़ को 15 से 20 लोग भगा रहे हैं। आश्चर्य है कि वो हजारों लोग एक दर्जन लोगों की वजह से भाग भी रहे हैं। संपादक भी भाग रहे होते हैं। लोहार वरूण और आलिया भी भाग रही होती हैं। संजय दत्त पहले ही जा चुके होते हैं। माधुरी वहीं रहने का फैसला लेती हैं। सोनाक्षी सिन्हा पहले ही शांत‌ि से मर चुकी होती हैं। मुस्लिम लीग का नेता सबको मार रहा होता है। उस दौरान कांग्रेस का जिक्र नहीं आता है। शायद अभिषेक वर्मन को पता होता तो दो सीन यहां नेहरु के भी रख देते। लेकिन दिक्कत ये थी कि नेहरु का सीन आता तो एक दो सीन नरेंद्र मोदी के डालने पड़ते। बिना मोदी के नेहरु अधूरे हैं।

मजाक उड़ाने से इतर अगर इस फिल्म पर बात करें तो इस फिल्म की स्टोरीलाइन इतनी बुरी नहीं है। यदि किरदारों को सही तरीके से सहेजा जाता। किरदार असली लगते, उनके हिस्से आए संवाद बनावटी न लगते। फिल्म में माधुरी और संजय दत्त की जगह कोई और होता। बंटवारे को कायदे से फिल्मा लिया गया होता तो यह फिल्म डूबने बच जाती। बहुत अरसे बात मैंने कोई फिल्म देखी जिसमें मेरी दो बार आंख लगी। लेकिन तभी गाने आ गए और आंख खुल गई। फिल्म में संवाद की तरह गाने में जरुरत से ज्यादा हैं। आलिया और वरुण ने हमेशा की तरह अच्छी ऐक्टिंग की है। माधुरी दीक्षित को अब अपने बड़े होते बच्चों पर ध्यान देना चाहिए। चुनाव लड़ना भी एक सही विकल्प है। संजय दत्त को अपने ऊपर एक और फिल्म बनवानी चाहिए...