Friday, February 24, 2012

इस बार साउथ के औसत हीरो लगे हैं माधवन

फिल्म समीक्षा: जोड़ी ब्रेकर्स



साउथ के सुपरस्टार रजनीकांत और कमल हसन को भी हिंदी दर्शकों ने उतना प्यार नहीं दिया जितना कि आर माधवन को। माधवन की बॉडी लैंग्वेज और उनकी फिल्मों का चुनाव कहीं से भी साउथ के पैटर्न लार्जर दैन लाइफ जैसा नहीं लगता। वह हिंदी पट्टी के हीरो लगते हैं। तनु वेड्स मनु, १३बी, थ्री इडियट्स, गुरू और रंग दे बसंती फिल्में देखिए। ऐसे समय में जब निर्देशक-निर्माता एक हीरो को लेकर फिल्म बनाने के जोखिम से बचने लगे हैं अश्वनी धीर ने वाकई साहस का काम किया है। यह साहस ही फिल्म को फ्लाप की ओर मोड़ देता है। जोड़ी ब्रेकर्स देखते वक्त हर समय यह लगता है कि इस फिल्म में दो नायक और दो नायकिओं की कहानी होती तो बेहतर होता। भले ही वह दूसरी जोड़ी श्रेयस तलपड़े, तुषार कपूर, आशीष चौधरी, कुणाल केमू या अशरद वारसी जैसे फिलर कलाकारों की होती। बोमन इरानी या अनुपम खेर भी होते तो अच्छा था। जोड़ी ब्रेकर्स में माधवन इस बार वह मुंबईया हीरो नहीं लगे हैं जो अकेले दम फिल्म को पार लगा दे। कई बार अच्छी अदाकारी, औसत संवाद और पटकथा को छिपा ले जाती है। इस फिल्म में ऐसा नहीं हुआ है। बिपाशा बसु के पास एक जैसी अदाएं हैं तो माधवन इस बार साउथ के हीरो जैसे लगे हैं। देखने में भी और बोलने में भी। इस सपाट कहानी को रोचक बनाने के लिए जो मोड़ दिए गए हैं वह दर्शकों को उलझाते भर हैं उनका मनोरंजन नहीं करते। फिल्म का संगीत भी औसत दर्जे का है। माधवन और विपाशा को शायद ही दर्शक सोलो हीरो या हीरोईन के रूप में फिर कभी देखें। प्रतिभाशाली कलाकारों की लंबी लाइन लगी है दोस्तों।

Friday, February 10, 2012

देखिए कितना रास आता है यह फिलासफिकल सिनेमा

फिल्म समीक्षा: एक मैं और एक तू



यह फिल्म उन दर्शकों को थोड़ी निराश करती है जिन्हें अग्निथ या अग्निथ जैसी लार्जर दैन लाइफ फिल्में पसंद आती हैं। यकीन भी नहीं आता कि अग्निथ और एक मैं और एक तू एक ही समय और एक ही निर्माता की बनाई हुई फिल्में हैं। यह फिल्म दरअसल फिलासफिकल सिनेमा देखने वाले दर्शकों को रास आ सकती है। यह उन्हीं मुट्ठी भर अरबन दर्शकों के लिए बनाई गई फिल्म है जिनके लिए वेक अप सिड, गुलाल, शोर इन द सिटी, प्यार का पंचनामा और जिंदगी न मिलेगी दोबारा जैसी फिल्में बनाई गई हैं। ऐसा सिनेमा जो हल्के-फुल्के मूड में कई जटिल विषयों के उत्तर छोडऩे के साथ कई प्रश्न भी खड़ा कर जाता है। दर्शक यदि सीखना चाहें तो ऐसी फिल्मों से सीख कर निकलते हैं। बॉलीवुड को यह बात अच्छी तरह से समझ आने लगी है कि किसी भी प्रेम का सबसे बेहतरीन अंत सिर्फ शादी नहीं होता। हर संबंध को शादी में लाकर खत्म कर देना वाला सिनेमा अब शादी से अलग भी संपूर्णता खोजना शुरू कर चुका है। शुभ संकेत। यह फिल्म इमरान खान और करीना कपूर के लिए इसलिए भी याद रखी जाएगी क्यों कि इन दोनों कलाकारों ने अपनी इमेज किरदार पर हावी नहीं होने दी। करीना कपूर हर कहीं से कहानी वाली रैयना ब्रेंगजा लगती हैं और इमरान राहुल कपूर। इस फिल्म की यूएसपी इसकी सिचुवेशनल कॉमेडी है। फिल्म में ऐसे कई दृश्य हैं जो बगैर किसी संवाद के आपको हंसाते हैं। हंसने के साथ-साथ बगैर किसी हो-हल्ले और चीख चिल्लाहट के हम पात्रों के दुखों को समझने लगते हैं। न तो बिना मतलब के आंसू और न ही बिना मतलब की ओवरऐक्टिंग। परंपरागत सिनेमा देखने और उसके आदी हो चुके दर्शक संभव है कि इस पूरी फिल्म को ही नकार दें।